कहानी: डर ~ सपना सिंह | Kahani 'Dar' by Sapna Singh #हिन्दी_में_बोलो #हिंदी_दिवस


sapna singh सपना सिंह

डर

~ सपना सिंह


  "एक लड़की का जन्म लिया है         
        तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो          
        अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत 
                                     इतनी बड़ी बन जाती है...
              कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी"

लड़की के साथ गैग रेप...। भीगा तौलिया आंगन में फैलाते हुये उसके कानों में टी.वी. पर आती आवाज़ टकराई... लॉबी में रखा टी.वी. लगातार आमंत्रित करता है... ब्रेकिंग न्यूज...किचन की ओर जाते उसकी निगाह टी.वी. पर पड़ती है न्यूज रीडर लगातार पूरे एक्साइटमेन्ट के साथ बोल रहा है... एम.बी.ए. की छात्रा पढ़कर लौटते वक्त कार में लिफ्ट लिया...और...। उफ ये आजकल की लड़कियां भी इस तरह राह चलते किसी से भी लिफ्ट ले लेना... आफत न्यौतना ही तो है।

‘‘सुमि, कहां खोई हो... मेरे मोजे कहां हैं ..? कितनी बार कहा, जूतों के साथ ही रक्खा करो...’’ पतिदेव का कर्कश स्वर कानों से टकराया... वह आटा सानना छोड़ मोजे ढूंढने लपकी। हर बार इसी सब के लिये झाड़ पाती है, मोजे, जूते, रूमाल, मोबाइल। यही तीन कमरों का घर... वही दो एक मेज... वही अलमारियां... फिर भी वही सब चीजों के लिये कच-कच उसका बड़बड़ाना एक बार शुरू होता है तो जल्दी खत्म होने पर नहीं आता... मेरी चड्डी-बनियाइन... सही जगह पर क्यों नहीं रखती ? अब वह तो अपने हिसाब से सही जगह पर ही रखती है, पर, उसकी सही जगह अक्सर पतिदेव के लिये गलत ही होती है अब लो, इसी बात पर मूड़ ऑफ। ये मर्द और इनका मूड... इनकी बड़-बड़ से क्या हमारा मूड नहीं बिगड़ता? पर जतायें किसे...? चुप रहो तो कहेंगे घर पर रहना बेकार बोलो तो सुनेंगे ही नहीं... जैसे उनसे नहीं दीवार से कह रहे हो... थोड़ा तेज बोलो तो, कहेंगे... चिल्लाती क्यों रहती हो हर वक्त... ब्लडप्रेशर बढ़ जायेगा... गिर पड़ोगी किसी दिन भट्ट से...।

‘‘मम्मी!... चोटी करो...।’’ बेटी कंघा लेकर खड़ी है।

‘‘करती हूँ... पहले दूध खत्म करो।’’

‘‘पहले चोटी करो... वही तुनकता उद्दण्ड’’ स्वर... जो उसे भीतर तक खदबदा डालता है, उसने उस स्वर को नजर अंदाज किया और दूध में बोर्नविटा मिलाने लगी ।

‘‘मम्मी... जल्दी करो... ऑटो आ जायेगा...।’’

बेटी बेसब्र हो रही है मुंह से निकलते ही बात पूरी हो जानी चाहिये... वह भुनभुनाते हुये बेटी के बाल बनाने लगी।

‘‘कस के करो ...’’

‘‘तुम ठीक से... सीधे खड़ी रहो...।’’ उसने बेटी को डपटा...

‘‘ढीला कर रही हो...’’ बेटी तुनकी और अपने बाल छुड़ाकर शीशे के सामने खड़ी हो खुद से चोटी बनाने लगी।

जब मेरा किया पसंद नहीं आता तो... खुद ही किया करो...अब से मत आना मेरे पास...कहते हुये कुछ याद आ गया बहुत-बहुत पहले का कोई दृश्य... इतनी बड़ी लड़की अपनी मां से भी लम्बी... मां से अपनी दो चुटिया गुथवाती... इसी तरह मां को टोकती झुंझलाती...। क्या दुनिया में किसी लड़की को अपनी मां की गुंथी चोटी पसंद नहीं आती...?

पतिदेव का स्पेशल कमेंट है... तुम मां-बेटी की पटती नहीं...।

‘‘मम्मी। पिन लगा दो...’’ वो स्कूल का दुपट्टा लिये खड़ी है... अब इसमें भी झिक-पिक। इस वर्ष आठवीं से ही सलवार कुर्ता चल गया है... तर्क हैं लड़के सीढि़यों के नीचे खड़े हो,... झांकते हैं... स्कर्ट खतरनाक है... निचली क्लास की स्कर्ट भी डिवाइडर टाइप की हो गई है।... कुछ भी देख पाने पर पूरा अंकुश। उसकी आंखे बेटे के मासूम चेहरे पर अटक जाती है, ये चेहरे... कैसे शैतान चेहरों में तब्दील हो जाते हैं।

उसे याद आता है... वो चचेरा भाई, उससे छ-सात साल छोटा, वह पूरी तरह बड़ी और बो बड़े होने की प्रक्रिया से गुजरता हुआ। इस दोपहर नॉवल पढ़ते - पढ़ते वह नींद में जा पहुंची थी... गले में सरसराहट... उनींदी आंखों में कौंध सा गया कुरते का गला उंगलियों से हटाकर यत्नपूर्वक झांकने की कोशिश करता... कौतूहल भरा चेहरा... जैसे किसी रहस्य लोक में घुसने की चोरी करते पकड़ा गया हो उसने किसी को बताया नहीं... पर दिनों तक अपने उस भाई से नजरे चुराती रही थी।

टी.वी. पर विज्ञापन चल रहा है किसी सैनेटरी पैड का... हवा की तरह हल्की-फुल्की लड़की... कुछ ज्यादा फुदक रही हैं पीरियड्स में इतना घूमना-फिरना ? पर उसे तो दुनिया की सोच बदलनी है न... जैसे, सिर्फ स्राव ही परेशानी का सबब हो जिससे बेहतरीन पैड-वैड लगाकर छुटकारा पाया जा सके... उन दिनों की खिन्नता, दर्द असुविधा... ये सब... इनका क्या करे...? दरअसल मामला है... पूरी तरह इस्तेमाल का... उन दिनों को लेकर भी कोई बहाना नहीं... अब बाजार में ये, ये चीज भी मौजूद है... जिसका इस्तेमाल तुम्हें पूरी स्वच्छंदता देगा।

‘‘मम्मी, ये क्या है’’ बेटे की सहज जिज्ञासा।’’

‘‘ये-ये लड़कियों का डायपर है...’’ पांच साढ़े पांच साल के बच्चे को और क्या बताये ? जैसे तुम छोटे थे तो पहनते थे न वैसे ये बड़ी लड़कियों का...।

‘‘दीदी का भी।’’

‘‘ हां...।’’

‘‘दीदी... क्या शू-शू करती हैं...’’ इतने में दीदी ने एक चपत उसके सिर में लगाई, मम्मी की ओर रोष से देखते हुये। भुनभुनाई... मम्मी... कुछ भी बताती रहती हो’’

बड़ी होती बेटी उससे संबंधित हर बात में सकुचाई रहती है, पैड छुपाकर लाया करो ऐसे क्यों लाती हो...पापा से क्यों मंगाती हो।

वो भी तो थी इस उम्र में ऐसी ही... कपड़ा फाड़ने हुये लगता अदृश्य हो जाये, कपड़े की चिडर्र किसी कानों तक न पहुंचे और फिर गदे कपड़े को अखबार में लपेटकर बाउंडरी के उस पार उछालना... ऐसे कि वह इधर न गिरकर उस पार पानी भरे प्लांट में गिरे... और ये सब होते बीतते कोई देख न ले... आंगन में चारपाई पर लेटे धूप सेंकते पापा या फिर वहीं चटाई पर बैठ स्वेटर बुनती मां... या फिर छोटे भाई बहन या बागिया की घास निकालता चपरासी, वो छोटे छोटे पल कितने भारी होकर गुजरते थे, अब ये पैड वैड होने से कितनी सहूलियत हो गई है तब कहां मिलते थे छोटे कस्बों शहरों में...।

नयी पत्रिका आई है, फुरसत में वह इन हल्की-फुल्की पत्रिकाओं को पढ़ना पंसद करती है सबकुछ तो होता है इनमें ड्राइंग रूम से लेकर बेडरूम तक में एक औरत को कैसे होना रहना चाहिये खुद से लेकर घर और आस-पड़ोस सब सुन्दर साफ और व्यवस्थित, सबसे पहले सवाल-जवाब के कॉलम पढ़ती है वो विशेषज्ञों द्वारा दिये... गये जवाब... कितने बदल गये हैं... आजकल के सवाल पहले जहां इन कॉलमों में पति द्वारा उत्पीडि़त बचपन में हुये यौन उत्पीड़न से उपजे अपराध बोध विवाह पूर्व प्रेम प्रसंग को लेकर उपजा अर्न्तद्द... आदि से संबंधित सवाल होते थे... वहीं अब सवाल चौंकाते हैं ज्यादातर सवाल रिलेशनशिप से जुड़े होते हैं, एम बी.ए. की छात्रा का सवाल है -

अपने ब्वायफ्रेड के साथ उसके सेक्सुअल रिलेशन है... क्या ये गलत है?। दूसरा सवाल है - क्या शादी से पहले अपने पार्टनर के साथ सेक्स एंजॉय करना गलत है?... पर जब मेरी उम्र की लड़कियां शादी करके सेक्स एंजॉय कर रही है तो मैं क्यों नहीं...।

ऐसे सवाल और उनके वैसे ही जवाब इंगित करते हैं... वक्त बहुत तेजी से बदला है... अब सेक्स टैबू नहीं रहा... शायद छोटे शहरों कस्बों में अब भी हो... पर बड़े शहरों में सेक्स पिज्जा बर्गर की तरह तेजी से नयी पीढ़ी द्वारा स्वीकार्य हो रहा है शायद प्रेम या रिलेशनशिप की अनिवार्यता भी पीछे छूट जाये... एक भूख जिसे पूरा किया जाना...जरूरी हो! कहीं पढ़ा था, अमेरिका, यूरोप में सेक्स अनुभव लेने की औसत उम्र उम्र सोलह वर्ष है ऐसे आंकड़े सर्वे आजकल प्रतिष्ठित पत्रिकायें खूब करती हैं... उनके रिजल्ट भी चौंकाने वाले होते हैं।...यह सब पढ़ - सुन देख डरती है वो...

डर तो और भी बहुत सारे है... बचपन से आज तक ये डर साथ-साथ रहा है हर वक्त हर कहीं... बहुत बचपन की घटनायें... वर्षों डराती रहीं... जाने कौन था वो... जो रात के अंधेरे में 6-7 साल की बच्ची की पीठ पर अपने शरीर की रगड़ देता रहा था... चारपाई की पाटी को कसकर थामें उस रात के एक-एक पल की दहशत... अब तक डरावनी यादों की तरह सिहरा देती है।

पापा के ऑफिस के सभी लोग मेला देखने जा रहे हैं वो भाई-बहन भी कालोनी के अन्य बच्चों की तरह जीप में ठूंस लिये जाते हैं भाई आगे पापा की गोद में... वो पीछे छोटे कर्मचारी चपरासियों के साथ कुछ और बच्चे भी वह किसी की गोद में थी, सारी राह कुछ चुभता सा... नीचे की ओर... दर्द चुभन से बेहाल... वह उठना चाहती...पर बुरी तरह ठुंसी जीप लौटते में वह जिदिया गई थी... आगे... बैठेगी... पापा के पास... भाई को पीछे जाना पड़ा था...। क्या उसे भी वैसे ही कुछ चुभा होगा?

धुंधला चुकी थीं ये यादें... फिर, फिर से जिंदा हो गई... अपनी पूरी... भयानकता के साथ... बेटी की पैदाइश के साथ हर वक्त, हर कहीं वह हमेशा सावधान चौकन्नी रहती है... एक अघटित की आशंका हरदम सिर पे लटकती तलवार सी बेटी आंख से ओझल न हो... स्कूल से ट्यूशन से... जब तक घर न लौट आये चैन की सास लेना मुहाल।

और ये आज कल की लड़कियां... जानबूझकर जोखिम मोल लेती किसी से भी लिफ्ट ले लेना... ब्वायफ्रेंड से अकेले में मिलना... शार्टकट के चक्कर में सुनसान रास्ते जाना... ये सब आफत को न्यौता देना ही तो है, अखबार चैनल सनसनी ‘वारदात’... सारे सारे दिन ब्रेकिंग न्यूज... में आरूषि, रूचिका शिवानी...डर... डर... डर ।

ढेरों घटनायें... देर तक सोचती है वो , कैसे, क्या करने पे बचा जा सकता था... किसने किया होगा... आरूषि का कत्ल? क्यों किया होगा रूचिका ने आत्महत्या...? और वह हाई प्रोफाइल पत्रकार शिवानी भटनागर! कितने अनुतरित सवाल।

एक लड़की का जन्म लिया है तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत इतनी बड़ी बन जाती है... कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी।

‘‘मम्मी! मैं जा रही हॅूँ... देर हो रही है...’’ बेटी का स्वर झुँझलाया हुआ... मतलब इरा अभी नहीं आई थोड़ी दूर पर रहने वाले मौसेरे भाई की बेटी की क्लास में है दोनों साथ ट्यूशन जाती हैं सुविधा भी सुरक्षा भी एक से भले दो...। पर उसे दो मिनट भी देर हुई नहीं कि, इनका झुंझलाना शुरू।

‘‘मम्मी... फोन करो मामी को इरा चली का नहीं...’’

‘‘आती होगी...।’’

‘‘कल से... मैं... नहीं रुकूंगी... उसकी वजह से हमेशा लेट होते हैं...। ‘‘पीछे बैठना पड़ता है... जगह नहीं मिलती...।’’ बेटी की पड़ता है... जगह नहीं मिलती...। बेटी की आवाज तल्ख है मम्मी की ये सब बाते उसकी समझ में नहीं आतीं... इसके साथ आओ... अकेले मत जाओ... सुनसान रास्ते से मत जाओ ..। लेकिन, क्या वो चाहती है ये सब करना कहना... कितनी मन्नतों से मांगी थी बेटी, पर बेटी की मां बनते ही कैसे तो एक डर भी भीतर पैदा हो गया ना ये सामान्य मातृत्व का डर नहीं था जो अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर हरदम सचेत रहता है वह गिर न जाये... कोई चोट न... लगा बैठे... कुछ नुकसान न कर ले अपना... इन सब डरो के साथ - साथ एक और अदृश्य सा डर जो प्रत्यक्षतः कहीं नहीं दिखता था... पर था... और दिन ब दिन बेटी के बढ़ने के साथ ही वह भी बढ़ रहा था डगमग चलते पाव कब का स्थिर, मजबूत चाल चलने लगे, गिरने पड़ने चोट खाने का कोई भय नहीं, फिर भी, आंखों के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहती वो उसे कब मुक्त होगी वह इन डरो से क्या कभी ये दुनिया वैसी होगी जहां कोई लड़की अपनी पूरी उम्र बगैर डरे जी पाये, ईश्वर ने सृष्टि रचते हुये ये जो इतने सारे तरह तरह के जीवन जन्तु बनाये... उन सब में... उसके जैसा बिल्कुल उसका दूसरा कम उसका पूरक उसी की नस्ल का...। क्या एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव है...? फिर, क्यों और कैसे एक ही सत्ता दिन ब दिन और और मजबूत होती गयी और दूसरा सिर्फ दास-नुमा भूमिका में उतरता गया, कैसी विडंबना है - डर भी उसी से है और डर भगाने के लिये सहारा भी उसी का है, औरताना जिंदगी के उम्र का कोई पड़ाव इस... डर से अछूता बचा है क्या ? छोटी बच्चियों से लेकर दादी नानी की उम्र तक की औरत तभी एक सलामत जब तक सामने पड़ने वाले पुरुष के भीतर का पिशाच जाग न जाये... और पिशाच को जगने न देने के लिये तमाम एहतियात... न ऐसे न रहो... ये न पहनो...यों न बैठो... ऐसे न चलो... यूं न देखो...बंदिशें, सलाहें सहूलियतें समझाइशें...।

सपना सिंह
द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार
म नं. 10/1279, 
अरूण नगर 
रीवा (म.प्र.) 486001
मो. 09425833407

वह उतान पड़ी है कमरे में, स्कूल बैग, ड्रेस, बोतल, जूता मोजा सब बिखरे पड़े हैं कितनी बार कमरे को व्यवस्थित रखने को कह चुकी है... पर वह सुनती नहीं... ज्यादा बोलने पर झुंझला जाती है। पतिदेव का कहना है - तुम कुछ सिखाती नहीं, अब वो न सुने उसके कहे को तो? यूं भी स्कूल से थके यादें आये बच्चों पर कड़कडना उसे अच्छा नहीं लगता दो बजे तक उसकी अपनी बैटरी भी डिस्चार्ज हो चुकी होती है जैसे - तैसे बच्चों का खाना परोस उसे खुद भी बिस्तर ही दिखता है।

देखो, कैसी तो बेहोश सी सो रही है। सोचते हुये... वह इधर उधर बिखरी चीजों को समेटने लगी हैं उसकी आहट ने बेफिक्र सोई बेटी को शायद नींद में ही झिझोड दिया है... फैले पैर को सिकोड़ करवट ले उनीदी आंखे खोलती हैं बेटी का यों पैर सिकोड़ना... पता नहीं क्यों उसे भीतर तक मथ देता है . आहटें, बेटियों को ही पैर सिकोड़ने पर क्यों मजबूर कर देती हैं...?

‘‘कोई नहीं... मैं हूँ...।’’ न डरो, आश्वस्त सी करती कहती हैं... और फिर चीजें समेटने में जुट जाती हैं... उफ ये ट्यूशन वाला बैग... कल से चेन खुली है इसकी... सोचते हुये बैग उठाती है... खुली चेन को बंद करते भीतर कुछ चमकता है...ये क्या है...? अरे, ये यहां... इसके बैग में... कितने दिनों से वह इसे किचन में ढूँढ रही थी... पर, इसे इसने बैग में क्यों रक्खा है...? हाथ में पकड़े फल काटने के चाकू पर उसकी नजरे जम सही गई हैं... उसे चक्कर सा महसूस होता है... जाने कब, कैसे उसके भीतर का डर उसकी बेटी के भीतर प्रत्यारोपित हो गया... कब, कैसे...?
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