जंगल सफारी: बांधवगढ़ की सीता - एक अविस्मरणीय यात्रा वृत्तांत
लेखक: इंदिरा दाँगी

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व की जंगल सफारी का रोमांचक अनुभव, सीता बाघिन की कथा, और सतपुड़ा की प्राकृतिक सुंदरता को इंदिरा दाँगी के शब्दों में जानें। मध्य प्रदेश पर्यटन के इस अनोखे वृत्तांत को पढ़ें और इंदिरा दाँगी की कलम को सलाम कहें !
मध्य प्रदेश के जंगलों का जादू
मध्य प्रदेश का रहवासी तो यों भी वनों और बाघों का आदी होता है। फिर बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व जाने का मोह कैसे छूटता! सतपुड़ा के घने, गहरे, आच्छादित पहाड़ों को रेल की खिड़की से देखना ऐसा था मानो कई एक संत कतार से समाधि लगाए बैठे हों... और सब संतों के बीच से दौड़ी चली जा रही हमारी रेल जैसे कोई प्रेम दीवानी मीरा! सतपुड़ा की ओर जाएँगे तो रेल से दिखते दृश्य ही इतने लुभावने हैं कि आप ठगे-से, बस देखते रह जाएँगे।
उमरिया की रात और जंगल की सैर
रात डेढ़ बजे अमरकंटक एक्सप्रेस ने उमरिया स्टेशन पर उतारा। हमें लेने आए कार के ड्राइवर ने डिग्गी में सामान रखते हुए कहा,
“लगेज में से कुछ आगे रखना चाहें, तो अभी रख लीजिए। रास्ते में गाड़ी नहीं रुक पाएगी।”
“क्यों भला?”
“यहाँ जंगली हाथियों से लेकर बाघ तक कोई भी मिल सकता है सड़क पर!”
“लेकिन टाइगर रिजर्व तो 30 किलोमीटर आगे है!”
“सीमाएँ हमारे लिए हैं; उनके लिए नहीं!”
और फिर जिनके लिए सीमाएँ नहीं थीं, पूरा वन जिनका आँगन था, उनमें से कुछ एक को हमने सड़क पर देखा... बाइसन, हिरण, और दो खरगोश भी!!

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में लेखिका के पीछे महुए के पेड़ दिख रहे हैं
सिकंदर: जंगल का पुरोधा
सुबह हमारी जिप्सी का ड्राइवर था सिकंदर। तीस बरस से जिप्सी चला रहा था और समझिए कि जंगल का पुरोधा किस्सागो था। एक-एक पेड़, चिड़िया, मिट्टी, चट्टान, गुफा का जानकार और बाघ का ऐसा सटीक अंदाजा लगाने वाला कि सब जिप्सियों के ड्राइवर लड़के उसी से पूछते, “दादा! बाघ अब क्या करेगा?”
सिकंदर का नाम असल में ओमप्रकाश तिवारी था। एक अनाथ किशोर जो भटककर बांधवगढ़ आ गया। किसी दुकान पर उसे चाय के कप धोते देख एक शिक्षक की दृष्टि उस पर पड़ी और उसे टाइगर रिजर्व में जिप्सी चलाने का काम दिलवा दिया। वे ही उसे प्यार से सिकंदर पुकारते थे, सो यही नाम चल पड़ा। अब तो वो खुद भी अपने आपको सिकंदर ही पुकारता है। यहीं की एक ग्राम बालिका के साथ घर बस गया और जंगल की सीमा पर बने गाँव में रहने लगा, सपरिवार। कह रहा था, कल रात ही उसकी गाय को बाघ खा गया।
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“अब?”
“अब क्या, वन विभाग देगा दस हजार रुपये। बकरी के चार मिलते हैं।”
“और इंसान के?”
“आदमी बाघ का भोजन नहीं है लेकिन वे तेंदू पत्ता तोड़ने कोर एरिया में घुस आते हैं। झुककर तेंदू पत्ता तोड़ते आदमी को बाघ चौपाया समझकर हमला करता है लेकिन फिर छोड़ देता है।”
सतपुड़ा की प्रेमिका हिरनी, माँ बनने के बाद सतपुड़ा की सिंहनी हो गई थी मानो। उसने पति को पलटकर मारा और इतना मारा कि उस रात न जाने किस पहर वो पति अपना सामान समेटकर सदैव के लिए गायब हो गया - शायद फिर किसी उर्मिला को फँसाने!
“लेकिन लोग उसके कोर एरिया में घुसते ही क्यों हैं?” मेरी बारह बरस की बेटी पूछती है।
और उत्तर में मेरा मन सोचने लगता है - बेहिसाब बढ़ती आबादी, सीमित संसाधन और हमारा अपरिमित लालच!
“यहाँ फसल नहीं हो पाती। जंगली जानवर उजाड़ देते हैं। जंगल जो देता है उसी से पलती है यहाँ की आबादी। आदमी भी, जानवर भी। लेकिन जंगल हमेशा देता है। उसके बच्चे कभी भूखे नहीं रह सकते।” हमारा किस्सागो ड्राइवर बता रहा है।
उर्मिला: सतपुड़ा की हिरनी से सिंहनी तक
...और मुझे एक पुरानी स्मृति ताज़ा हो आई है। एक बैगा लड़की उर्मिला की। पन्द्रह-सोलह की अल्हड़ जनजातीय बालिका जिसे न हिन्दी समझ आती थी न हिन्दी वालों की दुनिया! यहीं कहीं शहडोल या उमरिया के किसी गाँव की थी। इधर किसी सरकारी परियोजना में काम करने आए मजदूर के प्रेमपाश में बंधकर भागी चली गई, अपना जंगल, घर, देश, परिवार - सब भूलकर! मैंने जब उसे पहली बार अपनी कॉलोनी के पास के मजदूर डेरे में देखा; उसकी चंचलता देख उसे नाम दिया – सतपुड़ा की हिरनी! वन ग्राम से आई भोली लड़की थी; और क्या अनर्थ अपने आप के साथ कर चुकी थी, ये उसे अब क्रूर महानगरीय जीवन सिखलाने वाला था।
वो मजदूर पहले से शादीशुदा था और कहीं किसी गाँव में उसके बूढ़े माता-पिता, पत्नी और दो पुत्र थे। हमारे देश में दो पुत्र होना बड़ा सौभाग्य माना जाता है। तो ऐसे सौभाग्य से दंभित वो पुरुष अपनी मजदूरी की कमाई का आधा हिस्सा अपने गाँव मनीऑर्डर कर देता। बाकी आधे की दारू पी जाता। पन्द्रह-सोलह बरस की मासूम आदिवासी किशोरी उर्मिला को नागरी जीवन शैली कुछ समझ नहीं आती थी कि उसका पति उसे भोगता तो है लेकिन फिर अभावों में क्यों रखता है? अगर वो सहज भाव से उसकी तरह दारू पी लेती है या कोई कबूतर पकड़कर पका लेती है तो उसका पकाया सुस्वादु भोजन कर चुकने के बाद वो उसे पीटता क्यों है? और उसकी मजदूरी छीनकर अपने गाँव क्यों भेज देता है?
शुरू में जब पति ने पीटा तो आदिवासी बालिका ने भी उसे पीटा; लेकिन धीरे-धीरे पुलिस, आसपास का मजदूर समाज और कॉलोनी की परम सुरक्षित गृहस्थिनों की धिक्कारती प्रतिक्रियाओं ने उसे ये समझा दिया कि यहाँ पति को पीटा नहीं जाता बल्कि उससे तो पिटा जाता है! बराबरी तो गँवार, जंगल के समाजों में होती होगी, यहाँ नागरी सभ्यता में तो ‘डोली में जाना, अर्थी में निकलना’ की विचारधारा है। पति जब तक जान से मार ही न डाले, तब तक पड़े रहो उसके घर में, रहने-खाने के सहारे के बदले में हर तरह की हिंसा सहते हुए। यही इन कुछ कॉलोनीवालियों का सुविधा संपन्न स्त्री धर्म है।
उर्मिला अपने जंगल और पहाड़ों में वापस नहीं लौट सकती थी इसलिए दो गर्भपातों के बाद अब उसे नागरी पितृसत्तात्मक समाज में ही रचना-बसना था। अब वो पति की मार खा लेती थी और अपनी मजदूरी छीनने से भी उसे रोकती नहीं थी। शायद ऐसा ही सब और चलता रहता लेकिन जब वो एक बेटी की माँ बनी और फिर दूसरी की; तब उसने फिर पति को न अपनी मजदूरी छीनने दी, न अपनी बच्चियों को पिटने दिया! एक रात नशे में धुत्त पति जब मारने खड़ा हुआ तो उसका धैर्य चुक गया। सतपुड़ा की प्रेमिका हिरनी, माँ बनने के बाद सतपुड़ा की सिंहनी हो गई थी मानो। उसने पति को पलटकर मारा और इतना मारा कि उस रात न जाने किस पहर वो पति अपना सामान समेटकर सदैव के लिए गायब हो गया - शायद फिर किसी उर्मिला को फँसाने!
...अब उर्मिला अपनी दोनों बेटियों को स्कूल भेजती है। एक कमरे के मिले सरकारी आवास में रहती है और कभी-कभी कुछ पैसा सुदूर वादियों में बसे अपने वनग्राम भेजती है अपने माता-पिता को... माँ बनते ही एक शोषित स्त्री कैसे सिंहनी हो गई!
महुआ और जंगल की संस्कृति
आज सबेरे ताला के फॉरेस्ट रेस्ट हाउस प्रांगण में टहलते हुए भी मुझे उस बैगा लड़की उर्मिला की याद आई थी जब जाना, अरे! हम यहीं तो ठहरे हैं, उस उर्मिला के इस वन-आँगन में जहाँ महुआ (मधुका) के पेड़ हैं। महुआ से बनी रोटी महुआरी कहलाती हैं और इससे बनी शराब को संस्कृत में माध्वी कहते हैं। इन मूल निवासियों का भोजन भी ये, पेय भी ये और गीत, प्रेम, प्रीत भी ये। अच्छा! तो यही वो महुआ है जिसके बारे में उर्मिला एक गीत सुनाती थी। गीत मुझे याद नहीं लेकिन ये महुआ यहाँ बिछे हुए थे पेड़ के नीचे। लंगूरों का एक दल इनकी दावत उड़ा रहा था। भोजन की व्यस्तता के बीच लंगूर का छोटा बच्चा एक से दूसरी गोदी में लिया और दिया जा रहा था; मालूम ही नहीं पड़ा इनमें से कौन मादा लंगूर इसकी वास्तविक माँ है। मैं अपने पिता की तरफ के पुराने संयुक्त परिवारों को याद करती हूँ जहाँ छोटे बच्चे कभी दादी तो कभी चाची को माँ कहकर पुकारा करते थे।

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में लेखिका पुत्री संजीवनी दाँगी के साथ
सीता मंडप: बांधवगढ़ की आदि माता
और अब हमारी जिप्सी चली उस ओर जहाँ के लिए कहते हैं कि वहाँ इस टाइगर रिजर्व के इन अनगिनत बाघों की आदि माता रहती थी - सीता बाघिन। और वो स्थान था – सीता मंडप! अब भला इस स्थान का नाम सीता मंडप क्यों रखा गया होगा? संभवतः इसकी प्राकृतिक संपन्नता के कारण। तुलसीदास जनकपुरी का वर्णन करते हैं,
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी।।
तो, यहाँ सीता मंडप में आदि प्रकृति का वैभव है - पहाड़, शीतल जल, खोह, फलों से लदे वृक्ष और केंकते-नाचते असंख्य मोर। पता नहीं, सीता मंडप नाम के इस स्थान पर रहने के कारण उस आदि माता बाघिन का नाम सीता रखा गया; या फिर सीता नाम की बाघिन के यहाँ वास के कारण इस स्थान का नाम सीता मंडप पड़ गया। कई बार स्थान की पहचान प्राणी बन जाता है।
बांधवगढ़ का अर्थ ही है – बांधव (बंधु) अर्थात भाई का किला। राम के भाई का किला!
बजरंग और नाइटजार: जंगल के राजा और रानी
फिलहाल यहाँ सुबह के पौने छह बज रहे हैं और जिप्सियों में सवार पचासों पर्यटक दम साधे, सामने के दृश्य में बंधे खड़े हैं। खोह वाली खाई के उस पार चट्टान पर एक ताकतवर, युवा बाघ सोया हुआ है – बजरंग! इस ओर के हम सब दम साधे उसके जागने की प्रतीक्षा में हैं। वो गर्दन उठाता है या पूँछ से कीट-पतंगे झटकता है तो इधर उत्साह की लहर दौड़ती है। मैं सोचती हूँ, हमने ही मार डाला, खा गए अपने इन सहोदरों को और अब इन्हें खोजते फिर रहे, कैमरों में कैद करने को मरे जा रहे।
मुझे एक वेद ऋचा याद आती है,
माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः - अथर्ववेद
भूमि माता है। मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।
कहाँ-कहाँ नहीं भटकता ध्यान मेरा। जबकि यहाँ सुबह के सवा छह बजे सब सामने चट्टान पर सो रहे बाघ के जागने के इंतज़ार में कैमरे लिए एक-एक क्षण गिन रहे; मैं चारों ओर की प्रकृति को गौर से देख रही हूँ। धूल विहीन आकाश, वो ऊँची पहाड़ियाँ बांधवगढ़ कीं, जिधर किला है और मंदिर हैं बांधवधीश का। लक्ष्मण का मंदिर। तो लक्ष्मण यहाँ के राजा हुए। आमजन के लिए मंदिर साल भर में एक ही बार खुलता है। बांधवगढ़ का अर्थ ही है – बांधव (बंधु) अर्थात भाई का किला। राम के भाई का किला! मेरी दृष्टि दूर सामने ऊँचे पर्वत पर प्राचीन किले को खोज रही है और मेरी बेटी सिकंदर से सीता बाघिन की कहानी पूछ रही है।
सिकंदर सुना रहा है,
“सीता बाघिन यहीं रहती थी। ये जो चट्टानें देख रही हैं इनके नीचे गुफा में पानी के पास। उसके बच्चे बाघों से ही बांधवगढ़ बसा। उसका एक साथी था जो जंगल में रहता था। यहाँ वो अपने बच्चों के साथ रहती थी।”
“अकेली? कोई दूसरा बाघ उस पर हमला नहीं करता था?” मेरी बेटी चिंतित-सी होकर पूछती है।
“अरे बेटा राजा! सीता पर कौन हमला कर सकता था! और उसके बच्चों को तो कोई छू नहीं सका कभी! कितने बाघ भटककर इस ओर आए। सीता ने सबको मारकर भगा दिया। इतनी ताकतवर थी वो कि अगर दो बाघ एक साथ भी आकर लड़ लेते तो उसे हरा न पाते! उस पर किसी शक्ति की छाया थी!”
किवदंती सुनते मैं ऊँचे पहाड़ पर, न दिख रहे बांधवगढ़ किले को देखती हूँ। गहरे सीता मंडप को और चट्टान को देखते मेरी दृष्टि रुकती है। चट्टान में क्या चिड़िया की आकृति है? निकट ही दो अंडे हैं - चट्टानी ही रंग के! अरे ये तो कोई चिड़िया ही है!! हमारी जिप्सी के टायर के एकदम निकट चट्टान पर एक चिड़िया बैठी है आधी आँखों से सोती हुई, आधी से जागती-सी। सिकंदर मुझे जोर से बोलने से रोकता है,
“श्श! जोर से बोलेंगी तो सब जान जाएँगे कि आपने क्या देख लिया है? और हमें हटाकर सब इसके फोटो लेने लगेंगे। बड़े भाग्य से ये चिड़िया दिखती है। अब दिख गई है तो जी भर के देख लीजिए। फोटोग्राफर भटकते फिरते हैं लेकिन नाइटजार उन्हें यहाँ मिलती नहीं है।”
“नाइटजार!”
“हाँ। ये रात में ही देख पाती है। दिन में इसको दिखता नहीं इसलिए अपने अंडों के पास आँखें मूँदे बैठी रहती है।”
“लेकिन ऐसे खुले में? चट्टान पर? कोई इसको खा जाए तो? इसके अंडों को? और इस चिड़िया का साथी क्यों नहीं है यहाँ?”
सिकंदर हँसता है, “जंगल में सिर्फ माँ होती है, पिता नहीं होता।”
सामने खाई पार की चट्टान पर बाघ बजरंग उठा है और निमिष भर में बीसियों कैमरे उसे क्लिक करने लगे। अपनी मस्त चाल में बेफिक्र चलता इस टेरिटरी का वर्तमान राजा बजरंग नीचे उतर रहा है गुफा की ओर।
सिकंदर ने जिप्सी घुमा ली है,
“अब नहीं निकलेगा वो गुफा से। खड़े रहने दीजिए सब को उसके इंतज़ार में। चलिए, आपको भगवान विष्णु की लेटी हुई प्रतिमा दिखानी है और चरण गंगा नदी भी।”

जंगल सफारी का आनंद देखिए - लेखिका के पीछे थोड़ी ही दूरी पर हाथी नहा रहा है
अनारकली और जंगल के अन्य रंग
हम सीता मंडप से नई राह चले। कच्ची सड़क पर रात को जंगली हाथियों का दल गुजरा होगा; उनके पैरों के निशानों से हमने उनके होने की कल्पना की। यहाँ वन विभाग की एक हथिनी है अनारकली। लगभग दो बरस पहले, वो एक रात आए किसी जंगली हाथी के साथ भाग गई थी। वन विभाग वाले बड़ी मशक्कत से उसे तीन-चार दिनों बाद खोजकर, पकड़कर वापस बेस कैम्प ला पाए थे। अब बाइस महीनों बाद उसने एक नन्हे हाथी को जन्म दिया है। वो जंगली हाथी अब भी कभी बेस कैम्प तक चला आता है अपनी अनारकली से मिलने। हमने ताला वन प्रवेश क्षेत्र के पास ही दूर से हाथियों का बेस कैम्प देखा था। एक हाथी को महावत नदी में नहला रहा था। वो हाथी अस्सी साल का था। दूर से ही कितना भव्य रूप दिख रहा था उसका जैसे कुल के गर्वीले दादा जी!
नई राह पर जिप्सी रोककर सिकंदर दिखाता है, अर्जुन के एक पेड़ पर तेरह फीट की ऊँचाई तक बाघ बजरंग के पंजों से बने टेरिटरी निशान हैं। अब कोई दूसरा नर बाघ इधर को आए तो इस टेरिटरी के राजा के निशान से भी ऊँचा निशान लगा सके तो ही अंदर जाए उससे लड़ने। आगे, रास्ते में एक तालाब मिला। किनारे बैठी सैकड़ों तितलियों का झुंड पंख झपकते हुए उड़ा; और किसी खुशखबरी की तरह चारों ओर फैल गया। सांभर मादाएँ अपने छौनों के साथ तालाब में उतरकर किनारे की जलीय वनस्पति खा रही हैं। सुबह की ठंडी हवा में पचासों हिरन-हिरनियाँ यहाँ-वहाँ लुकछिप दिख रहे। उनके दोस्त बंदर हमें तटस्थ दृष्टि से देख रहे हैं। ये प्राचीन पेड़ों से लगीं, झूलती इतनी विराट लताएँ हैं कि जैसे वन देवी के खुले केश हों।
आपकी बारी!
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