विनाश-दूत
— मृदुला गर्ग
देखने के साथ क्या सुनने-सूँघने की शक्ति भी गँवा बैठे कवि? कीड़े पड़े कड़वे बादामों की गंध सूँघ नहीं पा रहे?

"मैं तुम्हारा संदेश तुम्हारी प्रेयसी तक नहीं ले जाऊँगा, हर्गिज़ नहीं ले जाऊँगा," मेघ ने साफ़ इनकार कर दिया।
कवि हतप्रभ रह गया। यह कैसे हो सकता है? युगों से चली आ रही परिपाटी कहीं एक झटके में तोड़ी जा सकती है? कालजयी कवि कालिदास ने वर्षा के प्रथम मेघ को ही चुना था न, अपने नायक का संदेश प्रेयसी तक पहुँचाने के लिए। बेचारा प्रेम करने के अपराध में इंद्रलोक से निकाल बाहर कर दिया गया था और प्रेयसी को बाहर कदम रखने की अनुमति नहीं मिली थी। अपनी-अपनी कैद दोनों ने भुगती। अलग। निपट अकेले। एक घर के बाहर जंगल में और एक घर के भीतर जंगल से निर्जन में। प्रेम उनका अपराध था और उनका त्रास। कालिदास का भी। राजाओं के प्रिय कवि जो ठहरे। तो वियोग की व्यथा और संभोग के आनंद का मोहक गायन-जाल बुना कवि ने और नन्हा मेघ फँस गया। नायक का प्रेमोन्मत्त संदेश ले जाने को तैयार ही नहीं, व्याकुल हो उठा। कविता के प्रभुत्व के अनुरूप ही था कवि का गायन और मेघ का उत्सुक संदेशवाहन। ऊँचाई पर विचरण करनेवाले ठहरे कालिदास। भोपाल के शामला हिल्स-सी ऊँचाई? नहीं, कालिदास ने नाम दिया था कैलास। हिमालय के शीर्ष पर बसा देवताओं का निवास-स्थान, जहाँ एम.आई.सी. या फॉस्जीन पहुँच नहीं सकती थी। पहुँची तो खैर, शामला हिल्स भी नहीं। वह भी तो देवताओं का निवास-स्थल है।
ज़रा सोचिए, ऐतिहासिक मेघ ने संदेश ले जाने से इनकार कर दिया होता तो? कालिदास का मेघदूत अलिखित रह जाता। उस दुनिया में, जो तब तीसरी दुनिया भी नहीं थी पर अब पहली क्या, अकेली दुनिया बन बैठी है, भारत का नामलेवा कौन होता? कौन जानता आज के हिंदुस्तान को, अगर भारत न होता?
पर छोड़िए, बात आज की हो रही है। और आज, यहाँ, इस नाचीज़ वर्षा के पहले बादल ने कवि का हुक्म मानने से इनकार कर दिया है। कवि, जो कालिदास का हज़ारवाँ अवतार है, पैदा हुआ है, एक बार फिर कालिदास के अपने प्रदेश में।
कवि ठहरा ब्राह्मण, उसका पारा चढ़ गया। तनकर खड़ा हो गया मेघ को शाप देने के लिए। पर उसके भीतर के कवि ने उसे रोक लिया। मेघ और उसके वंशजों को शाप देने का अर्थ था, सूखी पड़ती जा रही धरती से उसका रहा-सहा संबल भी छीन लेना।
अपने पर काबू रखकर उसने शांत, पर सख़्त आवाज़ में मेघ को फटकारा— "मेरा संदेश ले जाने से इनकार नहीं कर सकते तुम। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ऐसा करके कविता के उद्गम पर चोट कर रहे हो। कविता क्या है, प्रेम का त्रास और आनंद ही तो। उसकी अभिव्यक्ति में अवरोध डालोगे तो भावावेग का गला घुट जाएगा, भावना का गला घुट जाएगा, पराबौद्धिक रचना का रास्ता रुक जाएगा। फिर बचा क्या रहेगा धरती पर? केवल जन्म और मृत्यु? न-न, रचना का प्रस्फुटन कैसे होगा, कहाँ से आएगी उसकी लय-ताल, उसका भाव-संवेग, उसका चरम आह्लाद?"
मेघ हा-हा कर हँस दिया— "चरम आह्लाद! रचना का प्रस्फुटन! और कहते हो अपने को कवि। बाहरी आँखें जो दिखलाती हैं, उतना भर ही देख पाते हो, उससे परे कुछ नहीं? जानते नहीं, यहाँ से 80 कि.मी. की दूरी पर शहर भोपाल है।"
कहकर मेघ चुप हो गया। कवि इंतज़ार करता रहा उसकी बात का, पर मेघ यों चुप्पी साधे था जैसे आगे कहने को कुछ हो ही नहीं, जैसे अंतिम सत्य उद्घाटित हो चुका हो, जैसे सब कुछ शेष हो चुका हो। श्मशान की प्रत्येक चिता जलकर बुझ चुकी हो। आग की लपटें सर्वस्व स्वाहा कर महाकाल-सी मूक हो गई हों।
कवि हैरान था और नाराज़। बात समझ में नहीं आ रही थी। हैरान होने की उसे आदत नहीं थी। युगों से वह अपने को त्रिकालदर्शी मानता आया था, वह जो सब कुछ समझ सकता था, कवि होने के नाते। काल तीन, लोक तीन और कवि सबका ज्ञाता। पर संसार तब था एक लोक, तीन हिस्सों में बँटा नहीं था। पहली दुनिया को समझनेवाला कवि तीसरी दुनिया को भी समझ सके, यह ज़रूरी नहीं पर यह आज की बात है, तब की नहीं, जब कालिदास ने मेघ को दूत बनाकर भेजा था।
जो हो, कवि अपने को त्रिकालदर्शी ही मानता था। बाल मेघ से स्पष्टीकरण माँगना उसके अहं को ठेस पहुँचाता था। पर था तो कवि। जिज्ञासा अहं से प्रबल थी। तो अहंकार भूल समाधान माँग ही लिया।
मेघ फिर हा-हा कर हँस दिया— "देखने के साथ क्या सुनने-सूँघने की शक्ति भी गँवा बैठे कवि? कीड़े पड़े कड़वे बादामों की गंध सूँघ नहीं पा रहे? एकाएक छा गए सन्नाटे से तुम्हारे कान फटे नहीं जा रहे? चीख-पुकार बर्दाश्त हो भी जाए, ऐसा बेजान बेआवाज़ सन्नाटा कैसे बर्दाश्त कर पा रहे हो तुम? या अपनी मायावी दुनिया में इस तरह डूबे हुए हो कि प्रलय-सा नरसंहार सपनों में खोई आँखों को दिखलाई नहीं देता।"
यह शिव का तांडव नहीं जो प्रलय में सृष्टि का बीज लिए होगा। यह अंत है, आवृत्तिहीन अंत। यह नाच मनुष्य के निर्देश पर नाचा जा रहा है, दिव्य शक्ति के निर्देश पर नहीं। उस अपूर्ण मनुष्य के निर्देश पर जो अपने को अपूर्ण जानते हुए भी पूर्ण मानने लगा है, अर्धसत्य पर विश्वास और अर्धज्ञान में दंभ जिसकी प्रकृति बन चुकी है, तभी न प्रकृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ बैठा है वह।
प्रकृति ने नहीं चुना उसे, वह खुद उसका संरक्षक बन गया है, प्रकृति रक्षिता हो उसकी जैसे। अपने निरंकुश अहंकार से उन्मत्त वह भूल गया कि प्रकृति तभी देती है जब नतमस्तक होकर उससे माँगा जाए, नहीं तो प्रहार कर उठती है। प्रकृति से युद्ध किया ही नहीं जा सकता क्योंकि जो प्रकृति के विरुद्ध है, अंततः समझ लो, वह नहीं है। खिलवाड़ भी नहीं किया जा सकता उससे, खेल के मैदान की कृत्रिम सीमाएँ प्रकृति नहीं मानती।
प्रहार करने पर बाध्य हो तो कहीं भी कर सकती है, तीसरी दुनिया में भी। पर प्रहार करती तभी है जब और रास्ता बचे नहीं। और रास्ता बंद करने का काम केवल मनुष्य करता है — अहंकारी, अल्पज्ञ और लोभी मनुष्य।
तीसरी दुनिया में प्रहार करने को उद्धत प्रकृति ने चुना शहर भोपाल को। चुनना पड़ा। संपन्न देशों ने अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा शांत करने के लिए तीसरी दुनिया को प्रयोगशाला बना डाला। हाँ, पर बनने दिया क्यों तीसरी दुनिया ने?
इतना कि आज भोपाल जैसी त्रासदियाँ हमें रूबरू कराती हैं - जैसा मृदुला गर्ग ने ‘हौलनाक अनुभव’ में बताया है । (‘हौलनाक अनुभव’)
जब ज़हर उन्होंने बनाया तो शायद इतना ही सोचकर कि उन कीट-पतंगों का सफाया करेगा जो मनुष्य के हिस्से का अन्न खा जाते हैं बस, मनुष्यों से उनका सरोकार केवल अपनी दुनिया के मनुष्य से था। तीसरी दुनिया के निवासियों ने गलती की कि खुद को मनुष्यों की गिनती में मान लिया। फिर क्या था! ज़हर फैलता चला गया। इस कदर फैला कि कीट-पतंगों को पार करके दो पैरों पर सीधा चलनेवालों पर आक्रमण कर बैठा।
और अब यहाँ से कुल आठ किलोमीटर की दूरी पर शहर भोपाल है। नहीं, मैं गलती नहीं कर रहा। पहले अस्सी था, अब सिर्फ़ आठ रह गया है। दुनिया के हर शहर से भोपाल शहर केवल आठ कि.मी. दूर रह गया है। और यह फासला हर पल घटता जा रहा है, हर पल...
लो देखो, सुनो, सूँघो, त्रिकालदर्शी तुम्हारे बिल्कुल करीब आ पहुँचा भोपाल शहर। क्यों अब भी महसूस नहीं कर पा रहे उस अथाह शून्य को, जो तुम्हारे चारों तरफ फैल रहा है? कितना भयानक है यह शून्य। चीख-पुकार नहीं, शोर-गुल नहीं, बस बेआवाज़ खाँसी के दौरों का भूकंप और लाशें। ऐसी लाशें जो सड़ती तक नहीं, बस, बढ़ती जाती हैं गिनती में। सड़ती नहीं क्योंकि सड़ने के लिए भी जीव चाहिए, नन्हें कीटाणु। ज़हर के प्रकोप से बच नहीं पाया कोई जीवाणु। सोचो कवि, आवाज़ नहीं, गंध नहीं, आकार नहीं, केवल शून्य और शून्य में जमा होती लाशें। बढ़ रही हैं अब भी मेरे बोलते-बोलते, हज़ारों की तादाद में।
इतनी लंबी साँस कवि? भगवान का नाम ले रहे हो या प्रेयसी का? पर उनके पास तो आखिरी साँस भरने की ताकत भी शेष नहीं कि किसी का नाम लें। हे राम! नहीं, वह भी नहीं। मृत्यु का यह वाहक पिस्तौल की गोली-सा क्षिप्र तो नहीं पर अंतिम संदेश देने की वाक्-शक्ति नहीं बख़्शता। शब्द नहीं, आँसू नहीं, घुटन, देता है सिर्फ़ घुटन, गरिमाविहीन घुटन, अनंत में रेंग-घिसटकर मिलती अंतहीन घुटन।
आह मेरी प्रियतमा!... उसका क्या हुआ? अस्फुट स्वर में कवि के मुँह से निकला तो बादल गुस्से में फट पड़ा— "अब भी प्रेयसी का ही समाचार चाहिए! जो सैकड़ों-हज़ारों प्रेमी युगल और उनके परिजन दम तोड़ रहे हैं उनका खयाल..."
बीच उठान वाक्य टूटा और बदहवास मेघ चुप हो गया। पूरे माहौल पर स्याह अंधेरा छा गया।
क्या हुआ, मेघ ने अपनी ताड़ना क्यों रोक दी, चकित कवि ने सोचा, और यह भरी दोपहरी में सहसा अंधकार कैसे घिर आया? उसने उठकर कमरे की खिड़की खोल दी। गूँगा बना मुखर बादल भागकर भीतर घुस गया। कवि ने उसकी चुप्पी का कारण पूछने को मुँह खोला कि एक भीषण आग भड़क उठी। नहीं, बाहर नहीं, बाहर तो अंधेरा इतना स्याह था कि पेड़-पौधों का अहसास तक मिट चुका था। आग की लपट विध्वंस करे तब भी उसमें रोशनी होती है। यह आग कवि के जिस्म के भीतर सुलग रही थी।
खुले होंठों से एक शब्द भी नहीं निकला। फेफड़ों में जो बासी हवा शेष थी, उसी को सोखकर शरीर का हर रोमछिद्र होमकुंड बन धधक उठा और एक-एक अवयव उसकी लपट में आहुति बन झुलसने लगा। बाहर की साँस भीतर खींच पाने की ताक़त सहसा वह खो बैठा था। अथक कोशिश के बाद भी साँस नहीं आई। काश, वह साँस ले पाता! बस, एक बार ले पाता, चाहे कितनी भी ज़हरीली क्यों न होती बाहर की हवा।
साँस ले पाता तो कविता की उस अंतिम पंक्ति को, जो अंत समक्ष जान, उसके जलते कवि-हृदय में स्वतः फूट पड़ी थी, शब्दों में अभिव्यक्त कर सकता। नन्हा मेघ उन्हें अनागत के लिए सुरक्षित सँजो रखता — क्षमा नहीं, हे विराट, प्रायश्चित का अवसर दो...
पर स्वर की एक मात्रा भी तो उसके पास शेष नहीं थी। उसने चाहा, और कुछ नहीं तो अपने आँसुओं से ही उसे लिख डाले। बाल मेघ अपनी सहज करुण बुद्धि से उसे ज़रूर पढ़ पाएगा। पर आँख का सब पानी शरीर की आग सोख चुकी थी, असह्य जलन के सिवा कुछ शेष नहीं था।
फटी-सूखी आँखों से उसने देखा, स्याह बादल का एक गुब्बारा दैत्य की तरह पल-पल आकार बढ़ाता उसकी तरफ चला आ रहा है। ठीक उसके सिर के ऊपर। वह जानता है, कवि है न! वर्षा के बादल इतने गरिमाहीन नहीं होते। आसमान से इतना नीचे मनुष्य के समकक्ष होकर नहीं मँडराते। और यह मँडरा नहीं रहा, गोल-गोल बढ़ा आ रहा है। उसके आगमन में नमी नहीं है, शीतलता नहीं है, झकोरा नहीं है। समांतर गति से वह किसी मशीन की मानिंद बढ़ रहा है।
झपटकर उसने खिड़की बंद कर देनी चाही। अपने कमरे के कोने में सिमटे बाल मेघ की वह इस दैत्य से रक्षा करना चाहता था, पर हाथ-पैरों ने हिलने-डुलने से इनकार कर दिया। सजायाफ़्ता कैदी की तरह वह देखता रह गया और स्याह बादल का गुब्बारा, बिला गड़गड़ाहट, बिला चमक, प्रेतात्मा की तरह उसके कमरे में घुस आया। बेआहट उसके चारों तरफ फैलकर उसकी नाकेबंदी कर दी।
खड़े-खड़े ही अंधे-गूँगे कवि ने प्राण त्याग दिए। नीचे गिर धरती माँ का स्पर्श पाने का भी अवसर उसे नहीं मिला। पर अंतिम क्षण, उसके प्यासे चेहरे पर शीतल जल के कुछ छींटे पड़े। चरम हताशा के बीच आशा की एक क्षीण किरण उद्भासित हो ही गई। वह समझ गया कि उसका वह नन्हा विद्रोही मेघ, स्याह गुब्बारे का ग्रास बनने से पहले, प्रकृति के अपरिहार्य प्रतिशोध की क्रूरता पर रो दिया है, ठीक उसके चेहरे से सटकर।
यह विचार मृदुला जी ने ‘वे नायाब औरतें’ जैसे संस्मरणों में भी व्यक्त किया है। (‘वे नायाब औरतें’)
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