नासिरा शर्मा के उपन्यास 'शाल्मली’ के बहाने स्त्री विमर्श पर चर्चा — रोहिणी अग्रवाल


’शाल्मली’ के बहाने स्त्री विमर्श पर चर्चा उर्फ 

नासिरा शर्मा के उपन्यास 'शाल्मली’ के बहाने स्त्री विमर्श पर चर्चा —  रोहिणी अग्रवाल


’’नियम और धर्म केवल कागज पर लिखने के लिए होते हैं या फिर तुम औरतों के लिए बनाए जाते हैं। इनसे हट कर एक और कानून होता है जो हम मर्दों के बीच प्रचलित होता है। उसका अपना संविधान, अपना नियम, अपना धर्म होता है।’’ (पृ0 144) तो क्या सारी चूक हमीं से हुई? 

 द्वंद्व और अंतर्विरोधों का निःसंग साक्षात्कार — रोहिणी अग्रवाल

शंकित हूं कि एक औपन्यासिक कृति के रूप में ’शाल्मली’ पर अकादमिक ढंग की समीक्षात्मक टिप्पणी लिख देने भर से क्या ’शाल्मली’ के महत्व और प्रासंगिकता को ठीक से रेखांकित कर पाऊँगी मैं? ’शाल्मली’ अपने युग की स्त्री के मनोजगत में गहरे उतर कर उसके भावनात्मक द्वंद्वों, संवेदनात्मक आघातों, आकांक्षापूर्ण संघर्षों और सृजनात्मक स्वप्नों का संश्लिष्ट विश्लेषण भर नहीं है। वह खंडों में विभाजित काल की तीनों सरहदों—भूत, वर्तमान, भविष्य—का अतिक्रमण कर उन्मुक्त हवा सी अबाध निर्द्वन्द्व घूमती प्रखर विचार यात्र है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्वरूप और स्त्री मुक्ति की संभावनाओं पर बात करने से पहले स्वयं स्त्री को जानने का आह्वान करती है कि कितना मुक्त होना चाहती है स्त्री? और किससे? इसलिए कभी वह पच्चीस बरस के अंतराल को पाटते हुए ठीक आज के वक्त के बीचोंबीच घुस कर दैहिक उच्छ्रंखलता और खोखले राजनीतिक नारे में रिड्यूस होते स्त्री मुक्ति आंदोलन को लेकर क्षुब्ध है तो कभी बहुत पीछे प्रेमचंद (गोदान) और इब्सन (गुड़ियाघर) तक लौट कर उन्हीं-उन्हीं सवालों से अपने आप को लहूलुहान किए दे रही है कि हम आगे बढ़े ही कहां हैं। वक्त का दरिया काया को बेशक बहा कर अपने साथ ले गया हो, चेतना तो उन्हीं मूल प्रश्नों में लिपटी आज भी निष्कृति और निर्माण के द्वारों को खोज रही है।




मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि उपन्यास के पाठ के दौरान नायिका शाल्मली आईना बन कर मुझे अपने आप को देखने का अवसर देती रही है। एक गहरी अनुराग भरी ललक के साथ समानताओं का जश्न मनाने के लिए नहीं, बल्कि एक तीखी ललकार के साथ उन सब द्वंद्वों और दुर्बलताओं के साक्षात्कार का अवसर जिन्हें कुलीनता और शालीनतावश मैं हमेशा देखने-मानने से इंकार करती रही। शाल्मली के साथ मेरी अभिन्नता इसलिए भी है कि 1955-60 के बीच जन्मी पीढ़ी की शहरी स्त्री जिन संस्कारों, शिक्षा, दायित्वों, सपनों और आत्मविश्वास के साथ जीवन-जंग को जीतने निकली, वे सब ज्यों के त्यों मेरे भीतर मौजूद हैं। अपने-अपने पिताओं द्वारा गढ़ी गई विचार-प्रतिमाएं हैं हम। पिता—जिनके प्रति प्यार और सम्मान का भाव श्रद्धा का रूप लेकर ’भगवान’ बना डालता है कि मां की संकुचित परिधि और संकीर्ण सोच से मुक्त कर उन्होंने हमें उड़ना-तैरना, लड़ना-जीतना सिखाया—भाइयों के संग, भाइयों की दुनिया में प्रविष्ट करा कर। पिता—जिनकी वैचारिक निर्मिति होने के गर्व में इठलाती हमारी कृतज्ञता ज्ञापन का अतिरिक्त उछाह चूल्हे -चौके में रची-बसी मां को ’शत्रु’ मानता रहा। (क्या इसीलिए आज भी हमें खांटी घरेलू औरत दोयम दर्जे की प्राणी लगती है—अपने से भिन्न कोई जैविक इकाई जिसकी समस्याएं और आकांक्षाएं कतई हमसे मेल नहीं खातीं और इसलिए स्त्री मुक्ति की बात करते हुए हम स्त्री को ही कई-कई खांचों में बांट कर अपनी एक ’इलीट’ क्लास बना डालती हैं?) पिता—जिन्होंने शिक्षा के जरिए आर्थिक स्वावलम्बन, आत्मसम्मान एवं आत्मनिर्णय की अनिवार्यता को हमारे व्यक्तित्व का अपरिहार्य हिस्सा बनाया। ऐसे पिता की हर कसौटी पर खरा उतरते रहना ही हमारा ’धर्म’ बन गया और भूल गए यह विश्लेषण करना कि मां को प्रतिद्वंद्वी बना कर पिता ने आखिरकार हमें क्या संस्कार (दीक्षा) देने का जतन किया? ’अपनी’ प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ लड़ने वाले रणबांकुरों की फौज का एक सिपाही भर बनाया? या हमें स्त्री जाति को कमतर समझने का ’पुरुष’ भाव दिया? या फिर पुरुष की कसौटियों पर कसे जाने और स्वीकृति पाने के उसी ’रूढ़ स्त्रीभाव’ को आधुनिकता और चेतना के नए पैकेज के साथ पुनः हमारी नसों में इंजैक्ट किया? स्त्री मुक्ति का नया इतिहास रचने के लिए ललकती हमारी पीढ़ी क्या इसीलिए पुरुष संरक्षण को तोड़ कर नए विकल्पों पर विचार नहीं कर सकी? बेशक हमारा स्फीत अहं ’पुरुष संरक्षण’ सरीखे शब्द से चोट खा सकता है। कैसा संरक्षण? वह बिलबिला कर महरूख (ठीकरे की मंगनी) की तरह पूछ ही नहीं सकता, तुष्ट भाव से जवाब भी दे सकता है कि ’’घर का मतलब अगर ईंट-गार-पत्थर की चहारदीवारी होता है और शौहर का मतलब जिंदगी की बुनियादी जरूरतों का जरिया तो फिर वे दोनों चीजें मेरे पास मौजूद हैं।’’ दरअसल पिता की उंगली पकड़ कर अधेड़ावस्था को जीती हमारी पीढ़ी की स्त्री आत्मछलनाओं में जीने को अभिशप्त है। उसे पुरुष का संरक्षण चाहिए ही, भले ही इसे वह आत्मीयता और सौहार्द का संगुम्फित रूप कह कोई नया नाम देने की कोशिश करे। पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का विश्वास उसकी प्रखर साहसिक वैचारिकता को सवालों और आत्मविश्लेषण की अनंत लम्बी श्रृंखला का रूप दे देता है, बस। वह जानती है, पिता उसे कर्ता, योद्धा और विजेता देखना चाहते हैं। जाहिर है कष्ट तो सहने ही पड़ेंगे, अकेले। बिना किसी से शिकायत किए। पारिवारिक-सामाजिक मर्यादा की बाध्यता बनाए रखने के साथ! वह पाती है कि यह लड़ाई लड़ने का अर्थ है—अपनी जमीन पर अडोल रह कर शत्रु को ललकारना! निहत्थे! क्या इस शक्ति असंतुलन ने लड़ाई से पहले ही उसके माथे पर पराजय की इबारत नहीं लिख दी है? उसे याद आती है मां की बात—’सच्चाई को नकारना पौरुष है’। तो क्या आज तक अपने लिए सुनिश्चित मां-सरीखी स्त्री-नियति को अस्वीकारने के ’उद्धत’ भाव में ’पौरुष’ का आरोपण कर वह अपने को ही झुठलाती रही? तो क्या पिता (पितृसत्तात्मक व्यवस्था का उदार मुखौटा) द्वारा ठगे जाने को सच्चाई मान कर वह उसे शहीदाना अंदाज में झेल जाए? यदि हां, तो मां का तुर्श अंदाज इसे ’नारीत्व’ का नाम देकर पुनः मां (स्त्री नियति) की संकीर्ण सोच और परिधि में घसीट नहीं लाएगा? तो क्या उसकी मुक्ति की यात्र पालतू जानवर के गले में बंधी रस्सी को ढीला छोड़ देने की मालिकाना कृपा का ही एक रूप थी? लेकिन शाल्मली यह सब नहीं सोचती। पिता (प्रगतिशील नारीवादी सोच) के बरक्स नरेश (स्त्रीविरोध जड़ सोच) को रख कर वह तुलना की कंटीली धार से नरेश को घायल किए जा रही है कि ’’मां तो कमाती भी न थी, मगर आज तक कोई छोटा सा शब्द भी जो मां को अपमानित कर सके, पिता जी के मुख से उसने नहीं सुना था’’ लेकिन कभी मां के अंतर्मन में उतर कर उसने मां की नजर से पिता को नहीं जांचना चाहा कि कहीं वे नरेश का ही प्रतिरूप तो नहीं? पिता की इस सीख को वह अस्त्र बना कर चल रही है कि ’’पुरानी मान्यताएं सड़-गल कर लुप्त हो चुकी हैं, उनकी आज दुहाई क्यों? समाज को आगे जाना है या पीछे?’’ लेकिन रुक कर पिता से ही प्रतिप्रश्न नहीं करती कि फिर क्यों पढ़ाई और कैरियर के अधबीच ही उन्होंने नरेश की जेहनी पृष्ठभूमि की ज्यादा जांच-पड़ताल किए बिना हड़बड़ी में ब्याह दिया? क्या उन्हें शाल्मली की प्रतिभा पर जरा भी विश्वास नहीं था कि प्रतियोगी परीक्षा पास कर वह ऊँचे ओहदे पर पहुंच जाएगी? क्या वे नहीं जानते थे कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का मौजूदा ढांचा अपने से बेहतर पत्नी (शिक्षा एवं कैरियर) पाने वाले पति के मन में पनपी हीनता ग्रंथि को कुंठा, दमन और प्रतिशोध बना कर दाम्पत्य सम्बन्ध को चटका देता है? और जब शाल्मली ने उन्हें अपने भीतर का रेगिस्तान दिखाया तो भी क्या उन्होंने हाथ बढ़ा कर उसे थामने की कोशिश की? बस, एक परंपरावादी पिता की तरह नसीहत की पुड़िया थमा कर ’शाल्मली के कंधों पर विवाहित जीवन का सलीब टांग’ दिया कि ’’नरेश के पास जो संस्कार है, वह तेरे संस्कार से पूर्णतया भिन्न है। न उसकी गलती है, न तेरी तुम दोनों सोच के दो भिन्न धारे, नदी के दो किनारे हो तू बहुत समझदार है बेटी, इस बहाव को संभाल सकती है।’’ शायद शाल्मली भीतर ही भीतर जानती है कि वैवाहिक त्रस भोगती हर लड़की पिता की इस नीति के कारण अन्नपूर्णा मंडल (सुधा अरोड़ा की कहानी ’अन्नपूर्णा मंडल की चिट्ठी’ की नायिका) बनती रही है और उसके ’बलिदान’ पर इतराता समाज स्त्री के समर्पण और त्याग की कहानियां दोहराता रहता है। अपने सारे असंतोष और आक्रोश को नरेश के प्रति केन्द्रित कर वह जिस उदारता के साथ पिता को क्लीन चिट देती है, उससे शाल्मली की पूर्वग्रही एकांगी दृष्टि ही अधिक झलकती है। शाल्मली नहीं समझ पाती कि ऐसे ही पिता बेटा-बेटी की समानता का मिथक रच कर परिवार में बेटे के महत्व को अक्षुण्ण रखते हैं। दरअसल बहुत नजदीक से ’अपने’ को देखना संभव नहीं होता। पिता को जांचने के लिए अनुभव में पगी जिस संयमित और संतुलित दृष्टि की जरूरत स्त्री को है, वह ’अपनी’ गृहस्थी में जमने के बाद युवावस्था का उफान उतरने पर ही आ पाती है। शाल्मनी नरेश को बता देना चाहती है कि ’’मैं तुम्हारी छाया, तुम्हारी प्रतिध्वनि, तुम्हारा विस्तार नहीं हूं।’’ लेकिन वह स्वयं से नहीं पूछती कि आखिरकार क्यों उसने स्वयं को पिता की छाया, प्रतिध्वनि और विस्तार बना कर रूढ़ हदबंदियों में प्रतिष्ठित कर लिया है? ’’समाज के नियम को अपना कर और उसकी मर्यादा का पालन करके मुझे क्या मिला? न मान, न सम्मान।’’ शाल्मली का सिर धुनता प्रश्न क्यों वास्तव में उसे अपने भीतर पैठी ’पुरुष सोच’ का संज्ञान नहीं करा पाता है?

’’उठो, कमजोर लड़की, अपने बेटे को संभालो, इस तरह से संभालो ताकि कल कोई लड़की उसके साथ रह कर नींद की गोलियां खाने पर मजबूर न हो सके। मां की गोद से बहुत कुछ सीख कर बड़े हाने वाले ये मर्द हमारी ही जिम्मेदारी है।’’ (ठीकरे की मंगनी, पृ0 181) 

फिर भी शाल्मली इस मायने में चेतन है कि वह तटस्थ भाव से आत्मविश्लेषण कर सकती है। बल्कि जब-तब आत्मविश्लेषण कर अपनी खूबियों और कमियों को जानती-तोलती रहती है। वह सीधे-सीधे देख पाती है कि नरेश से हर भावनात्मक आघात पाकर उसके भीतर बैठी औरत विद्रोह की ज्वाला में सुलगती गई जबकि ’’असली शाल्मली शालीनता का कवच पहने उसे अपने अंदर को ही गहरे कोंच-कोंच कर दबाती’’ रही। अरे! तो क्या वह एक स्तर पर मां की नियति को नहीं जी रही है? लेकिन वह तो हमेशा इस बात को लेकर गर्वित रही है कि ’’भावना और तर्क की आपसी मुठभेड़ में तर्क ही उसका मार्गदर्शन करता रहा है।’’ तो क्या पिता की शिक्षा ने उसे मुकम्मल अखंड इंसान नहीं बनाया? ’मां’ (त्यागमयी स्त्री) बनने का संस्कार देकर चुपके से उसके अंतर्मन में रूढ़ स्त्री छवि को रोप दिया? बाहर से ’पिता’ (निर्णयसम्पन्न आत्मनिर्भर मनुष्य) को जीते हुए वह भीतर से ’मां’ बन कर अपने को हर शहादत के लिए तैयार करती रही है?

मैं यहां रुक कर विचार कर लेना चाहती हूं कि अपना निःसंग विश्लेषण कर लेना ही क्या ’आधुनिक’ हो जाना है? बेशक तर्क और विश्लेषण आधुनिकता के औजार हैं, लेकिन क्या उन्हें बौद्धिक निष्क्रियता का रूप देकर संतुष्ट हुआ जा सकता है? आधुनिकता सिर्फ एक दृष्टि ही नहीं, दायित्व भी है—जर्जर परंपराओं में फंस कर अपनी ही अंतःशक्तियों को खाती सर्जनात्मकता को मुक्त और उन्नत करने का दायित्व। अहर्निश कर्म की ’फोर्स’ के बिना क्या यह संभव है? और तब जाने क्यों मुझे लगता है कि दफ्तर की फाइलों, मीटिगों, सेमिनारों और कितने ही सामाजिक मुद्दों से जुड़ा शाल्मली का संसार उतनी ही ठहरा और छोटा है जितना मां और सास का संसार। अतिक्रमण करने की ताकत कहीं भी नहीं। निष्क्रिय बौद्धिकता और गतिहीन विश्लेषण क्या आंसू बहा कर विरेचन करने की युक्ति का ही परिष्कृत/बौद्धिक रूप नहीं? लेकिन यह कहना भी क्या सही है कि मां-सास/दादी-नानी आंसू बहा कर अपने आप को रिक्त ही करती रहीं? शाल्मली के बौद्धिक विश्लेषण से उत्पन्न निष्कर्ष उन्होंने भी बटोरे हैं—अनुभव की आंच में तपा कर। शाल्मली की सास ने पुरुष की तीन पीढ़ियों—पिता, पति, पुत्र—के साथ रह कर पुरुष मनोविज्ञान को जिस रूप में समझा है, वह उबलती-छटपटाती शाल्मली के निष्कर्षों का ही प्रतिरूप है कि ’’औरतों का सुख-दुख पूछने, उनके हृदय की थाह लेने में मर्द अपना अपमान समझता है, वह तो पूर्ण संतुष्ट इसी एक बात से रहता है कि उसके कारण किसी औरत को सौभाग्यवती बनने का अवसर मिला। उसके अस्तित्व से किसी औरत को क्या शिकायत हो सकती है? उसकी शारीरिक मांगें पूरी हो ही जाती हैं। कपड़ा, खाना, रहना और संतान, यदि इसमें कमी हो, तो फिर उनका अपना भाग्य है, यह सोच मर्द की होती है, औरतों के बारे में।’’ सास से जुड़ कर सखी भाव विस्तार करती शाल्मली स्त्री नियति और स्त्री धर्म को बूंद-बूंद भीतर जज्ब करती चलती है—’’औरत जन्मजली कभी स्वतंत्र नहीं। कहीं खूंटे से तंग बंधी तो कहीं उसके गले में बंधी रस्सी थोड़ी लम्बी या अधिक लम्बी। तू बड़ी स्वाभिमानी है, मैं जानती हूं। कभी जवानी में मैं भी थी, फिर जैसे-जैसे जीवन में रचती-बसती गई, जाना स्वाभिमान औरत की आत्मा का गहना नहीं रह जाता। वहां जो बाकी बचता है, केवल धैर्य और बलिदान, जिसे सब कहते करुणा।’’

दरअसल मुझे लगता है कि उपन्यास यहीं से शुरु होता है। हर रक्षा-द्वार पर तैनात एक धनुर्धर और चक्रव्यूह के भीतर अकेला अबोध अभिमन्यु। शाल्मली की तरह हर स्वाभिमानी स्वतंत्रचेता स्त्री सम्बन्धों के चक्रव्यूह में घुस कर इसी एक सवाल के जवाब की तलाश करती है कि ’’क्या हर इंसान की अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं हो सकती?’’ क्यों ’एक-दूसरे को स्वतंत्रता देने’ का संस्कार घर को बनाए रखने की बुनियादी शर्त का रूप नहीं लेता? जाहिर है अपनी ही निष्क्रिय वैचारिकता के कारागार में कैद हम स्त्रियां शाल्मली से किसी बड़ी सार्थक लड़ाई की अपेक्षा करती हैं। कुछ ऐसी उत्तेजना, कुछ ऐसी तोड़फोड़, ऐसी अतिरंजना कि ’सुलताना का सपना’ (उर्दू लेखिका रुकैया सखावत हुसैन की कहानी) की तरह वह किसी स्त्री लोक की जय-कथाएं सुनाए या ’स्त्री-पुरुष’ ( उर्दू लेखिका रशीद जहां की कहानी) की तरह बहस में पुरुष को लट्टू की तरह घुमा कर कहीं दूर फेंक दे। सचमुच, प्रतिशोध की ज्वाला से धधकता है दलित-अपमानित स्त्री का अहं। चेताता है उसे लड़ने के लिए, आत्मसम्मान को बनाए रखने के लिए—’’जाग शाल्मली, जाग। तू कहां सो गई? कहां खो गई? इतना अपमान सह कर तुझे क्या मिल रहा है? सामाजिक प्रतिष्ठा? सम्बन्धों का सम्मान, परिवार का मान? इस बिना छत वाली दीवारों के बीच तू किस तरह की सुरक्षा का भ्रम पाले बैठी है?’’ संज्ञान का यह बिंदु ही बड़ी से बड़ी रचनात्मक लड़ाइयों का प्रवेश द्वार बनता रहा है। अपनी वैचारिक कूपमंडूकता में कैद हमारी पीढ़ी की स्त्री शाल्मली को यह लड़ाई लड़ते-जीतते देखने के लिए दम साधे बैठी है। शाल्मली ने ’सम्बन्ध के शीशे पर उंगलियों के गंदे निशान’ देख कर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है, महरूख उसके पास आ खड़ी हुई है। गोविंदी (प्रेमचंद के उपन्यास ’गोदान’ की पात्र) और ’तिनका तिनके पास’ (अनामिका का उपन्यास) की शिरीन भी। ये सब स्त्रियां इस लड़ाई की संवेदनशील प्रकृति से वाकिफ हैं—’’हमारी लड़ाई अपनों से संघर्ष की लड़ाई है यानी भूमिगत, अपने अंदर अपने को समझने और मजबूत बनाने की—हमें मर्द नहीं बनना है, न मर्द को औरत बनाना है। एक-दूसरे का लबादा पहनने की यह ललक ही मुसीबत बन रही है। जरूरत है अपनी-अपनी जगह खड़े होकर अपने-आप को समझने और दूसरे को समझाने की।’’ आत्मसार्थकता की तलाश में अपने एकाकी रास्ते पर दूर तक बढ़ चुकी महरूख को विदेश से ’अकेले’ लौटे ऐयाश रफ़त भाई मंगेतर होने के चाबुक से पीट-फटकार कर अपनी जिंदगी में लौटा लाना चाहते हैं। न, किसी भावनात्मक जरूरत के तरल संवेदनात्मक धरातल का संस्पर्श नहीं, ’उद्धारक’ होने की भूमिका में अपने स्फीत अहं को लादते हुए—’’अब मेरा सहारा होगा तो (तुम्हारी) हर मुश्किल आसान होगी।’’ मुझे लगता है, महरूख नहीं, नोरा (इब्सन, गुडियाघर) ठठा कर हंस पड़ी है—नदियों में इतना-इतना पानी बह चुका और मर्द है कि अभी भी वहीं उसी आदिम जमीन पर। इतने बरस बीत जाने के बाद भी क्या हेल्मर हर देशकाल के पुरुष का रोल मॉडल बना रहेगा? 18वीं सदी की नोरा दिलचस्पी से बीसवीं सदी की स्त्री की लड़ाई देख रही है। बेशक अपनी भीगी-स्मृतियों में वह बार-बार डूब-उतरा रही है कि समर्पित एकनिष्ठ पत्नी की बेजुबान भूमिका निबाहते हुए भी पति के शक और दंड दोनों से बच नहीं पाई थी वह। झुकने और टूटने की तमाम हदों के बाद अड़ और जुड़ कर खड़े हो जाने की विवशता जीने की पहली शर्त बन ही जाती है। तब अपने भीतर की उस अपरिचित दिलेर स्त्री से साक्षात्कार कर नोरा ने अपने को पाया था—आत्मसम्मान और आत्मविश्वास से दिपदिपाते इंसानी वजूद को। न, जिरह की बौद्धिक कवायद में तर्क-वितर्क की आत्मघाती प्रवंचनाएं नहीं। पहले उसने स्थिति का विश्लेषण किया था कि ’’मैं बुरी तरह छली गई हूं—पहले पिताजी के द्वारा और फिर तुम से’’; कि ’’पिताजी और तुम दोनों मेरे गुनहगार हो’’; कि ’’तुम्हें कभी मुझसे प्यार नहीं था। सिर्फ यह खुशफहमी थी कि तुम मेरे प्यार में डूबे हुए हो’’; कि ’’मेरा अस्तित्व सिर्फ तुम्हारा जी बहलाने के लिए’’ था। फिर अपने को पाया था कि ’’मैं एक इंसान हूं, सोचने-समझने और महसूस करने वाला एक इंसान, ठीक वैसे ही जैसे तुम हो’’; कि ’’सबसे पहले मुझे अपने आप को शिक्षित करने का प्रयास करना है और तुम ऐसे पुरुष नहीं हो जो इस काम में मेरी मदद कर सको। मुझे खुद ही ये दायित्व निभाना होगा।’’ और तब दो टूक फैसला लिया था—’’मैं तुम्हें अभी इसी वक्त छोड़ कर जा रही हूं मैं तुमको अपने प्रति सारे दायित्वों से मुक्त करती हूं।’ (गुड़ियाघर) नोरा जानना चाहती है उसके इस फैसले को जीती उसकी वंशज स्त्री अपनी लड़ाई के रचनात्मक परिणामों को समाज में किस रूप में सामने लेकर आई है? अरे! ’मानवीय सम्बन्धों पर शोध’ का दावा करने वाली यह शाल्मली मोह की रस्सी काट कर मुक्त क्यों नही हो पा रही है? हां, ठीक सोच रही है वह कि औरत होने का अर्थ मूक भाव से दुख पीना, अत्याचार सहना क्यों हो? लेकिन यह क्या तर्क कि बोलने की आजादी के खिलाफ खुद ही खड़े हो जाओ, इस आशंका और हताशा के साथ कि ’’क्या बोलने की स्वतंत्रता के चलते वह अपना जीवन नरक बना लेगी?’’ नोरा देख रही है अपने ही भीतर बैठी यथास्थितिवादी औरत से खौफजदा शाल्मली मुड़-मुड़ कर उसी की बोली-बानी बोल रही है—’’अब वह सम्बन्ध सुख पाने के लिए नहीं, सुख देने के लिए बना रहने देगी, जब तक वह स्वयं गल-सड़ कर अपने आप टूट नहीं जाता।’’; कि ’’मेरा विश्वास न घर छोड़ने पर है, न तोड़ने पर, न आत्महत्या पर है, न अपने को किसी एक के लिए स्वाहा करने में है। मैं तो घर के साथ औरत के अधिकार की कल्पना भी करती हूं और विश्वास भी। अधिकार पाना यानी ’घर निकाला’ नहीं और घर बना रहने का अर्थ ’सम्मान’ को कुचल फेंकना नहीं है। यह जो हमारे मन-मस्तिष्क में अति का भूत सवार हो गया है, वही जीवन के लिए विष समान है।’’ नोरा अपने विद्रोह की परिणति देख गूंगी हो गई है और मैं अपने भीतर दूर तक पसरी बंजर वैचारिकता के उद्घाटन पर शर्मसार। सचमुच ठीक कहती हैं नासिरा शर्मा कि ’’समाज बदलना तो दूर, नारी स्वयं अंदर से अपने को नहीं बदल नहीं पाती।’’ विवाह, सम्बन्धों का एकनिष्ठ निर्वाह और यौन शुचिता का आग्रह—आज भी उसकी चेतना इन्हीं के इर्द-गिर्द बुनी है। घरेलू हिंसा और यौन शोषण के कारण शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न को ’आधुनिका’ स्त्री मूक/मुखर भाव से सह-स्वीकार कर लेगी, लेकिन दाम्पत्य सम्बन्ध में किसी तीसरे की उपस्थिति मात्र से अर्थहीन-अधारहीन-अधिकारहीन होने की आशंका में विद्रोह की फड़फड़ाती तैयारी करने लगती है। ’गोदान’ की गोविंदी हो या ’कठगुलाब’ (मृदुला गर्ग) की दर्जिन बीबी—स्त्रियों का आहत अभिमान एकनिष्ठता को कुचले जाने पर ही क्यों फन उठाता है? क्या मनुष्य होने का अर्थ यौन सम्बन्ध से जुड़ी आचार संहिता के पालन भर में ही सिमट कर रह गया है? महरूख ठीक कहती है—’’जो रिश्ता बराबरी की जमीन पर न बना हो, उसमें हमेशा परेशानी होती है।’’ (ठीकरे की मंगनी) लेकिन इस बराबरी की जमीन को तलाशने, पाने और व्याख्यायित करने में क्या स्त्री ने कोई ठोस भूमिका निभाई है? क्या सचमुच लफ्फाजी और खामख्याली से ऊपर उठ कर उसने इस जमीन पर सम्बन्धों का नया संसार रचने की कोई संजीदा कोशिश की है?

मैं अपने सहित समूची स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर देती हूं। जिन सवालों के जवाब पाए बिना मुक्ति विमर्श को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उन्हीं सवालों से मुंह छिपा कर मुक्ति के अग्रदूत बनने की ख्वाहिश कैसी? नहीं, स्त्री को अपनी लड़ाई का अंश दर अंश ब्यौरा स्याह और सफेद में आमने-सामने रखना होगा—भावनाएं नहीं, तर्क नहीं, ठोस सबूत क्योंकि तर्क की गुंझलकें हो या भावना का उफान—सच्चाई को धुंधलाना और बहाना खूब जानते हैं।

प्रेमचंद मालती (’गोदान’) के साथ मुस्कराते हुए आ पहुंचे हैं। ’’अब वह सम्बन्ध सुख पाने के लिए नहीं, सुख देने के लिए बना रहने देगी, जब तक वह स्वयं गल-सड़ कर अपने आप टूट नहीं जाता।’’ वे शाल्मली के कथन को उद्धृत करते हैं। बेहद गद्गद् हैं कि पुरुष दृष्टि होते हुए भी स्त्री मानस को पढ़ने का हुनर हासिल किया था उन्होंने। शाल्मली क्या मालती का ही विस्तार नहीं? बल्कि ज्यादा सही तो यह है कि शाल्मली और महरूख दोनों मिल कर ’मालती’ बन जाती हैं। पुरुष को पाने के लिए पहले उसकी शर्तों और कसौटियों पर खरा उतरने की व्यग्रता और फिर मोहभंग हो जाने पर ’स्व’ का बलिदान करते औदात्य का आरोपण। महरूख के पास गांव के स्कूल से जुड़ कर हाशिए पर जीते समाज के पुनर्संस्कार करने का स्वप्न है तो शाल्मली के पास प्रयोग करने की धुन—’’पाप से घृणा करेंगे, न कि पापी से। कुछ लड़ाइयां व्यक्तिगत होकर भी व्यक्तिगत नहीं रह पाती हैं और विशेषकर वह लड़ाई जिसके बीज हर घर में मौजूद हों। बात इस तरह से उठाओ कि वह सब की बात लगे, न कि किसी राजनीतिक पार्टी का नारा जो केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कहा गया हो। यह समस्या जितनी गंभीर है, उतनी ही जटिल और इसका समाधान भी बड़ा पेचीदा और उलझा हुआ है। सुलझाना है तो देर लगेगी वरना तो जहां तागा उलझे, वहां कैंची से काट दो, फिर लगाओ स्थान-स्थान पर गांठें और करो प्रयोग उसका। कुछ बन पाएगा उससे? मैं यह प्रमाणित करती हूं कि मेरे व्यवहार से और हमारे बीच हुए संवादों से समस्या हल हो जाएगी और नरेश वापस आ जाएगा। मगर मेरे अवसर देने के बाद भी कुछ न हुआ तो मुझे पछतावा नहीं होगा, आत्मग्लानि नहीं होगी।’’ (पृ0 158) एक यूटोपिया! काश, प्रयोगोन्मत्त शाल्मली जान पाती कि उसकी पूर्वजा स्त्री आज तक समर्पण में धैर्य, प्रतीक्षा और त्याग गूंथ कर स्त्री-पुरुष के बीच के शक्ति-असंतुलन को ही बढ़ाए जा रही है। शायद इस आदर्शवादी बौराई लड़की को समझाने के लिए ही लेखिका ने उपन्यास के पूर्वार्ध में मिसेज वर्मा प्रकरण को जोड़ा है। मिसेज वर्मा औरतबाज लम्पट पति द्वारा आजीवन परित्यक्ता रहीं, और बुढ़ापे में जब निपट अकेला और अशक्त रह गया वह व्यक्ति तो ’पति’ के रुतबे से खींच लाया उस स्त्री को अपने घर की देहरी के भीतर—पतिदेव की देखभाल और पूजा-अर्चना को। अपने दुख और अपमान को घूंट-घूंट पीती वह एकाकी स्त्री क्या अब पति में सहचर खोज पाई होगी? मालिकाना हक से अपने ’माल’ को घर (गोदाम) में भरते उस पुरुष के प्रति क्या संवेदना का एक झीना सा तार भी जोड़ पाई होगी? दो जून रोटी के लिए पिता/भाई/पति/पुत्र/अन्य सम्बन्धियों की देहरी पर खड़ी मिसेज वर्मा सरीखी अशिक्षित परावलम्बी स्त्री की विवशता कहीं समझ आती है जिनके लिए सामाजिक मर्यादाओं की जकड़न ही जीवन की धड़कन है। लेकिन शाल्मली जैसी शिक्षिता स्वावलम्बी स्त्री विवाह को बेड़ी की तरह पहन कर क्रंदन करते हुए क्या पितृसत्तात्मक व्यवस्था और विवाह संस्था के वर्चस्ववादी स्वरूप को ही पुष्ट नहीं करती? तब क्या कड़े शब्दों में मालती के रचयिता को मालती के भास्वर व्यक्तित्व को कांतिहीन कर देने का दोष दिया जा सकता है?

यूटोपिया को जीवन दृष्टि बनाती शाल्मली स्त्री मुक्ति आंदोलन के पैरों तले से जमीन छीन लेती है। बेहद क्षुब्ध होकर वह प्रतिप्रश्न कर रही है कि उसकी मनोभिलाषा (’’क्या दोनों की इच्छा से मिल कर बनी खुशी का आकाश अधिक खुला नहीं होगा जहां दोनों मन से जी सकेंगे और खुल कर सांस ले सकेंगे?’’) क्या हर स्त्री का स्वप्न नहीं? फिर यूटोपिया यानी घोर अवास्तविकता का आरोप क्यों? विवाह सम्बन्ध में सामंजस्य और भावनात्मक अंतरंगता न मिले तो क्या तड़प-छिटक कर उससे बाहर कूद जाए स्त्री—तलाक की कमंद के सहारे? मैं अपनी द्वंद्वग्रस्तता के साथ शाल्मली के पाले में आ खड़ी होती हूं। दो सवाल मन में अकुला रहे हैं। पहला सवाल समाज से कि स्वाभिमान की रक्षा में उठाए गए इस कदम (तलाक) पर वह क्या प्रतिक्रिया देगा? तलाकशुदा स्त्री सराही जाएगी या अभिशप्त बना दी जाएगी? ’’आरोपों, लांछनों, व्यंग्यों से बिंधा उसका व्यक्तित्व उसकी अपनी यातना का प्रमाणपत्र होगा या पति द्वारा ठुकराई एक व्यभिचारिणी का?’’ (पृ0 149) दूसरा सवाल अपने आप से कि यदि हर करवट यातना और पश्चाताप ही स्त्री की नियति है तो नई राहों पर चलने का जोखिम ही क्यों उठाए वह? मैं जानती हूं अपने को अंधी गली में ठेल कर बाहर निकलने की बांझ कोशिशें हैं ये सवाल! लेकिन शाल्मली में निहित एक द्वंद्वग्रस्त परंपरावादी भीरु स्त्री के मनोविज्ञान को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता न!

शाल्मली की ’आदर्शवादी भीरुता’ के बरक्स ’उलटा खेल’ खेलने को मचलती दो आक्रामक स्त्री विमर्शकार दिखाई पड़ती हैं—तसलीमा नसरीन और मैत्रेयी पुष्पा। साथ ही चला आता है उन्मुक्त देह सम्बन्धों और नवीन सामाजिक अवधारणाओं का चुनौतीपूर्ण जटिल संसार। लेस्बियन सम्बन्ध! लिव इन रिलेशनशिप! सिंगल मदर की अवधारणा! विवाह संस्था को खारिज करने के उद्योग! लेस्बियन सम्बन्ध और लिव इन रिलेशनशिप की कानूनी-सामाजिक स्वीकृति की बात जाने दें, लेकिन ऐसा क्यों है कि हार्दिकता और गहरी सूझ-बूझ के साथ शुरु हुए ये सम्बन्ध अंततः पति-पत्नी के पारंपरिक रोल मॉडल को आत्मसात कर अहं के टकराव का बिंदु बन जाते हैं? जाहिर है विवाह संस्था का स्वस्थ विकल्प नहीं बनतीं ये नवीन अवधारणाएं। विजयी भाव से मुस्कुराती शाल्मली फिर से अपनी बात बलपूर्वक रेखांकित कर रही है—’’तुम्हारे सामने समस्या केवल पति से निपटने और उससे मुक्त होने की है, मगर मेरी नजर में सही नारी मुक्ति और स्वतंत्रता समाज की सोच और स्त्री की स्थिति को बदलने में है।’’ (पृ0 165) मैं महरूख के साथ उसे समझाने की कोशिश कर रही हूं कि अपनी सुरक्षित जमीन से बाहर निकल कर क्यों नहीं वह देखती कि औरत को माल और गुलाम समझने का संस्कार दरअसल पुरुषवादी राजनीति का घिनौना रूप है जिससे मुठभेड़ करने के लिए स्त्री को राजनीति में आना ही होगा—’’उसकी मांग, जरुरत और पुकार को तभी दूसरा पक्ष समझ पाएगा।’’ (ठीकरे की मंगनी, पृ0 178) क्या शाल्मली देखना नहीं चाहती कि महरूख के हाथ से इस परचम को थाम मैत्रेयी पुष्पा ने उपन्यास दर उपन्यास कितनी जांबाज स्त्रियों को राजनीति के दंगल में उतार दिया? मंदा (इदन्नमम), सारंग (चाक) और अल्मा (अल्मा कबूतरी)—राजनीति की मशाल को थाम कर राजनीति की गंदगी में उतरी हैं—कीचड़ का जश्न मनाने नहीं, औरतों पर कीचड़ उछाल कर अपनी ’मैली सफेदी’ को बेदाग सफेदी का नाम देने वाली स्त्रीविरोधी पुरुष-मानसिकता के हाथ से नीति, नैतिकता और आचार संहिता बनाने का अधिकार छीनने के लिए। अनैतिक और दुराचारिणी कह कर इस स्त्री का तिरस्कार किया जा सकता है, लेकिन बिना छल किए (श्रीराम शास्त्री की विधवा का ढोंग रचाए) क्या अल्मा पुरुषों के इस राजनीतिक खेल में बड़ा दांव मार सकती थी? भीतर की हूक को भीतर ही भीतर घोटती मंदा की तरह शालीन मर्यादा के साथ राजनीतिक विरोध और सत्याग्रह का बिगुल फूंकती रहती तो क्या हाशिए पर पड़े समाजसुधारक की तरह शाब्दिक वाहवाही बटोर कर जल्दी ही अदृश्य न कर दी जाती? सीधी राह चल कर क्या हासिल कर पाती है स्त्री? मैं देख रही हूं शाल्मली की पेशानी पर बल पड़ रहे हैं। पतन के रास्ते चल कर किन मूल्यों की प्रतिष्ठा कर पाएगी ऐसी स्त्री? वह सवाल नहीं पूछती, अपना नकार दर्ज करा रही है—न्ना! हर लैंगिक विभाजन मिटा कर स्त्री-पुरुष को मनुष्य बनाने का संकल्प तभी पूरा हो सकेगा जब स्वयं स्त्री (संघर्षशील पक्ष) अपनी मनुष्यता को पहचानना, बचाना और आदर करना सीखेगी क्योंकि स्वयं मनुष्य बने बिना दूसरे के भीतर बैठे मनुष्य को चीन्हना और संजोना संभव नहीं। शाल्मली की मूल्यपोषक आदर्शवादी दृष्टि छल, षड्यंत्र, सौदेबाजी और साम दाम दंड भेद पर आधारित कूटनीति का विरोध करती है। राजनीति सिद्धांतों की लड़ाई है—मनुष्य और समाज के उन्नयन के लिए। इसलिए ताज्जुब नहीं कि स्त्री आंदोलन की राजनीतिक सौदेबाजी करती नारीवादियों और नारी संगठनों से उसे कोई हमदर्दी नहीं। उसकी दृष्टि में यह वैचारिक आतंकवाद का प्रसार है—’’खून का बदला खून, मौत का बदला मौत, तब हो चुकी मनुष्यता की मुक्ति। एक का बंदी बनना ही क्या मनुष्य की नियति है?’’ नहीं, उलटा खेल खेल कर स्त्री मुक्ति नहीं पा सकती; क्रूर और बर्बर ’पुरुष-भूमिका’ को जीने का पाशविक आनंद बेशक पा ले। शायद शाल्मली ठीक कहती है। प्रतिद्वंद्वी की भूमिका को अपना कर लड़ाई जीती नहीं जाती, दोनों पक्षों का विलयन कर एक अबूझ संधि कर ली जाती है जहां कमजोर पक्ष उसी दर्द और दंश के साथ हाशिए पर पड़ा संघर्ष की नई रणनीति बनाने का हौसला और विजन ढूंढता रह जाता है।

सचमुच शाल्मली सरीखी सचेत सारग्रही दृष्टि का अभाव ही स्त्री विमर्श को स्त्री की ओर से लड़ी जाने वाली अनिवार्य लड़ाई का रूप न देकर ’पुरुष विरोधी स्त्री उच्छ्रंखलता’ का रूप दे रहा है। शाल्मली उग्र नारीवादी सरोज के इस दुराग्रह से क्षुब्ध है कि ’’मर्द को औरत को ठग कर बड़ा सुख मिलता है। जो प्रेम उसे ईमानदारी से भी प्राप्त हो सकता है, उसमें जाने क्यों शातिराना तरीका अपना कर फूला नहीं समाता है। औरतों को जहां अवसर मिले, गिन-गिन कर बदला लेना चाहिए।’’ (पृ0 163) पुरुष को प्रतिपक्षी और काले रंग में पोत कर स्त्री सम्बन्धों का संसार किसके संग रचेगी? क्या अकेले जी कर जीवन के सातों रंग और स्वाद भोगे जा सकते हैं? शाल्मली का सवाल! महरूख का दावा! और शायद हर स्त्री का स्वप्न कि ’’मर्द न हमारा दुश्मन है, न हरीफ—वह हमारी तरह इंसान है।’’ (ठीकरे की मंगनी, पृ0 179) फिर सम्बन्धों में दरकन का कारण? समाधान? ’’शाल्मली सोचती है इस आलाप में एक ही विलाप है, सम्बन्धों के प्रति निष्ठा की कमी। सब व्याकुल हैं और सब वही कर रहे हैं जो वह पाना नहीं चाहते हैं। इस आलाप में वह अपने विलाप को नहीं मिलने देगी। भीड़ के नारों की कोई अपनी आवाज नहीं होती है और उस शोर में उसकी सोच का बिल्लौर टूट जाएगा।’’ (पृ0 170) सचमुच आमीन कहने को मन होता है। तार्किकता, लिजलिजी भावुकता से मुक्ति और साफ निश्छल सोच—यही तो स्त्री मुक्ति यानी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की नई सैद्धांतिकी गढ़ने की कुंजी है। शाल्मली के जटिल भौतिक अवरोध और उन्नत वैचारिक उड़ान शायद इस ओर संकेत कर रहे हैं कि अभी नई वैकल्पिक समाज व्यवस्था रचने के लिए मानसिक-वैचारिक तैयारी पूरी नहीं हुई है। अभी स्त्री और पुरुष दोनों को ही अपने अंतर्मन को बूझना है, ’मनुष्य’ बनना है और एक साझे मिशन के साथ साझे समाज का सृजन करना है। हां, यूटोपिया है यह। यूटोपिया—अमूर्त ख्वाहिशों का अनस्तित्ववान (नॉन एग्जिस्टिंग) संसार। लेकिन यूटोपिया न होगा तो क्या संसार रचने का स्वप्न और उत्साह मानस को तरंगायित कर पाएगा? यूटोपिया की अनुपस्थिति क्या अपने ही भीतर सर्जनात्मक ऊर्जा के विस्फोट के चुकने की घोषणा नहीं?

शाल्मली के अंतस से निकल कर मैं अपनी दुनिया में लौटती हूं। इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के अंतिम छोर पर खड़ी दुनिया। खबरों में हॉनर किलिंग के नाम पर होने वाली हत्याएं हैं और उनके पीछे खड़ी खाप पंचायतें। मुस्तैद और निर्लज्ज बेहयाई के साथ भारत की गौरवशाली परंपराओं की रक्षा का बखान करती उजड्ड निरंकुशता। सम्मान और हत्या, मर्यादा और घृणा को एक ही सिक्के के दो पहलू बनाती वर्चस्ववादी सामंती मानसिकता। मनुष्य का अस्तित्व इनके सामने है ही नहीं। बस, पूरा जगत दो पालों में बंटा है—अपना-पराया, मित्र-शत्रु। मित्र पक्ष में भी समानता के भाव से संवादरत वर्ग नहीं, अधीनस्थों की एक जमात जो सिर्फ आदेश की पालना करना जानती हो। यानी ’अपनों’ के ऑनर (मर्यादा/गरिमा) का भान ही नहीं इन्हें। यानी जिसे ’ऑनर’ का नाम दिया जा रहा है, वह मनुष्य की गरिमा का दायित्व नहीं; अपने हठ, मूढ़ता, दंभ और शक्ति का भोंडा प्रदर्शन और आरोपण है। क्या एक ही दिन में कांटों की कंटीली बाड़ पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले सकती है? मैं सवाल करती हूं और उतने ही नकार में सिर हिलाती हूं। अभी सत्तर के दशक में हमारी पीढ़ी आंखों में सपने भर कितनी व्यग्रता से नई राहों की तलाश कर रही थी! पढ़ने-जानने की ललक, बहस और संवाद, रूढ़ियों और धार्मिक कर्मकांडों पर ठठा कर हंसते हुए उनके निर्मूल हो जाने की घोषणा, अपने-अपने निजी उदाहरणों की ठोस श्रृंखला रच कर जाति प्रथा और दहेज प्रथा के समाप्त हो जाने का विश्वास— संकल्पों के अछोर अनंत आकाश में उड़ता सृजनधर्मी उत्साह कितनी-कितनी दूरियां नापने और ऊँचाइयां छूने को मचलता रहता था। हमारी संतान नई सदी को हमारी अप्रतिम देन होगी—अस्सी के दशक में समाज को नन्हीं नई पीढ़ी देते समय हमने सोचा था—सगर्व, सानंद, विश्वास की ठोस उन्नत जमीन पर खड़े होकर। कभी-कभी सूरज-चांद से भरा आसमान झुक कर कितना करीब आ जाता है जमीन के कि हाथ बढ़ा कर उन्हें टप से तोड़ लो और अपनी मनचाही दुनिया के आकाश में गूंथ दो। उत्साह! हौसला! अभिमान! नई पीढ़ी की बेहतर परवरिश और मित्रवत् सम्बन्धों की नई शुरुआत के साथ माता-पिता की हैसियत से अपनी पारी खेलने के लिए कितने अधीर थे हम! मैं जब ऑनर किलिंग के अभियुक्तों को देखती हूं तो शर्म से सिर झुका लेती हूं। हम ही हैं न इस पीढ़ी के अभिभावक! नरेश सरीखे यथास्थितिवादियों को तो हमने नेपथ्य में धकेल दिया था। फिर वही उनका आदर्श कैसे बन गया? क्यों वे उसी की भाषा बोल रहे हैं कि ’’नियम और धर्म केवल कागज पर लिखने के लिए होते हैं या फिर तुम औरतों के लिए बनाए जाते हैं। इनसे हट कर एक और कानून होता है जो हम मर्दों के बीच प्रचलित होता है। उसका अपना संविधान, अपना नियम, अपना धर्म होता है।’’ (पृ0 144) तो क्या सारी चूक हमीं से हुई? क्या रूढ़ियों को नकारने का हमारा अतिरेकी उत्साह यथास्थितिवादियों को भीतर ही भीतर एकजुट करता गया? हम एक मिशन के साथ जड़ सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते रहे और बिलबिलाकर परंपरावादियों का जत्था सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भूमिगत आंदोलन चलाता रहा? इतने मगन थे हम अपने सपनों में कि जमीन के नीचे की थरथराहटों और हवाओं में होने वाली खौफनाक सरसराहटों को सुन ही नहीं पाए? या पीछे लौटना हमें भी विश्रांति की खुमार भरी नींद दे रहा था? घर से भागे प्रेमी जोड़े हों या उन प्रेमियों को मारते उन्हीं के सम्बन्धी—मनुष्य होने का गरिमामय बोध किसमें है? न पूरी शिक्षा, न जीविकोपार्जन का ठोस भौतिक आधार—अंधी कामनाओं के ज्वार में बह कर अपने-अपने घोंसलों से निकले ये प्रेमी वासना और आकर्षण के घालमेल को ही प्रेम समझते हैं? या फिर प्रेम के विराटत्व के भीतर रचनात्मक दायित्व, परिपक्व चिंतन, उदार दृष्टि और निःस्वार्थ स्वप्न की महक को भी सूंघ पाते हैं? प्रेम भोग है या सृजन? रीत-रीत जाता लम्हा है या दिक-काल में फैली सृजन की अनवरत यात्रा? शाल्मली के समाज ने रपटने को विकास का नाम नहीं दिया था, इसलिए शाल्मली की सोच में शामिल हो वह शिक्षा के महत उद्देश्य को जन-जन तक पहुंचाना चाहता था। शिक्षा जो उपलब्धि के नाम पर डिग्रियां और उपार्जन के नाम पर रुपया न बटोरे, बल्कि ज्ञान को व्यवहार, संवेदन को विश्लेषण के साथ जोड़ का पूर्वग्रहों और अंधमोह दोनों से बराबर की दूरी बरतते हुए मनुष्य के लिए मनुष्य की दृष्टि से हर समस्या और संकल्पना का तटस्थ विश्लेषण करे। शाल्मली जानती है, हर स्त्री आदर मिश्रित प्रेम पाना चाहती है। स्त्री ही क्यों, पुरुष भी। हर मनुष्य! इसलिए उसका विश्वास है कि स्त्री-पुरुष की भिन्नता से शुरु हुई स्त्री मुक्ति की लड़ाई स्त्री-पुरुष तक सीमित नहीं रहती, अपनी महीन परतों और संश्लिष्ट स्तर पर मनुष्य के गुण-अवगुण को भी चीन्हने और परिप्रेक्ष्य देने का दायित्व बन जाती है। ’’उठो, कमजोर लड़की, अपने बेटे को संभालो, इस तरह से संभालो ताकि कल कोई लड़की उसके साथ रह कर नींद की गोलियां खाने पर मजबूर न हो सके। मां की गोद से बहुत कुछ सीख कर बड़े होने वाले ये मर्द हमारी ही जिम्मेदारी है।’’ (ठीकरे की मंगनी, पृ0 181) शाल्मली के विश्वास में उसकी समवयस्का महरूख का उद्बोधन गुंथा है। वह मगन होकर अपनी गोद में खेलते बेटे में विपिन (स्त्री संवेदन के साथ स्त्री मानस को समझ कर साझी दुनिया का स्वप्न बुनता ’कठगुलाब’ का पात्र) का अक्स देख आह्लाद से भर जाना चाहती है—’’स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी के सम्बन्ध को एक नए धरातल पर जिएगा जहां सोच का अलग एक आकार होगा और एक खुला आकाश होगा।’’ ( पृ0 48) लेकिन क्या हुआ ऐसा कि ’विपिन’ के सपने देखती मां अपने बेटे को पिता का ही प्रतिरूप बना बैठी? मनुष्य बनने का संस्कार नहीं दे पाई? क्या इसलिए कि उसके पास एक बेहतर भविष्य की आकांक्षा में कुलबुलाते अमूर्त स्वप्न भर थे? उन्हें रचने की जमीन और अंतर्दृष्टि नहीं? क्या इसीलिए उसी की संतान—नई पीढ़ी की स्त्री—आज अपने सरोकारों में स्त्री विमर्श को हिकारत कर नजर से देखती है? क्या इसलिए सोच और संवेदना की प्रचलित परंपरावादी शैली में दुनिया भर की समस्याओं, प्रतिबद्धताओं, आतंकवाद पर बात कर लेती है, लेकिन अपने ही अंतर्मन में कुचली-दबी अधूरी खंडित लड़ाई को लड़ने के सूत्र नहीं खोज पाती है? क्या अंतर्दृष्टि का अभाव ही एक निरीह अंधता देकर समाज को मानव मुक्ति के बृहद् लक्ष्य से भटका नहीं रहा है? बेशक शाल्मली के अंतर्विरोध उसे एक सम्मोहक वैचारिक जड़ता देते हैं, लेकिन उसके असंतोष और कुलबुलाहट में विद्रोह और परिवर्तन की चिनगारियां भी फूटती हैं। वह यथास्थिति के विरोध में ऊर्ध्व यात्रा करते उदात्तीकरण का चुनौतीपूर्ण आह्वान भी है और जरा सा असावधान होते ही रपटीली ढलानों से अतल गहराइयों में लुढ़क पड़ने की चेतावनी भी। स्त्री विमर्श अपने ही अस्तित्व और अस्मिता पर लगे प्रश्नचिन्हों का जवाब इसी चुनौती और चेतावनी से जूझ कर पा सकता है। कंधों पर सलीब ढोती शाल्मली के शुतुरमुर्गी अंदाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के वर्चस्व और औचित्य को स्वीकारने की लाचारी नहीं, अपनी गलतियों को गुन कर उसे सिद्धांतवादी राजनीति की लड़ाई बनाने की धुन है कि ’बंधु, हम लोग नाकाम क्यों रहे?’

संदर्भ


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ