काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan

काली-पीली सरसों

✍️ लेखिका: ज्योति श्रीवास्तव

काली-पीली सरसों - ज्योति श्रीवास्तव

पंज प्यारों की धरती पंजाब के रंग तो ऐसे हैं कि बस रंग ही रंग नजर आते हैं। रंगों में बांहें फैलाए मित्र यार स्वागत तो ऐसा करते हैं कि सदियों के दोस्त हों। हमारी किस्मत में ऐसे ही लोग लिखे हैं। कम से कम पंजाब से तो ऐसा ही है।

...और वहां संबंध भी एक से नहीं। एक ही परिवार की तीन-तीन पीढ़ियों से। सुख में भी दुख में भी। जब मर्जी में आए तो मन को साझा कर सकें। ऐसा तो कोई पुण्य प्रताप हमने किया नहीं। पर सच तो यही है। इस परिवार से हमारा संबंध दो दशकों से ज्यादा का। पति की जालंधर तैनाती में इस परिवार के हम पड़ोसी रहे, मात्र ढाई एक साल के लिए। पर पड़ोसी ही नहीं थे। लगभग साथ-साथ रह रहे थे। संबोधन भी एक दूसरे के परिवार के वैसे ही थे- भैया, भाभी, मम्मी, डैडी।

पर ढाई साल बाद भी हमारा जालंधर जाने का क्रम चलता रहा। कभी उस परिवार के मांगलिक अवसरों पर, कभी शोक की घड़ी में भी। उनकी लुधियाने वाली दीदी के परिवार में भी जब-जब उत्सव हुए, हमें न्यौता बराबर आया। बड़े भाई और भावज वाले सम्मान और स्नेह के साथ। और हमने भी भरसक उसका मान रखने की कोशिश की। जालंधर से भी बार-बार बुलावा आता रहता। हम जाते रहते। हमारे सुख दुख में भी उस परिवार से कोई न कोई हमेशा हमारे पास रहा। यह अलग बात कि निजी व्यवसाय होने के कारण कभी भी सब लोग एक साथ हमारे पास नहीं आ सकते थे इसलिए हमारा जाना ही व्यावहारिक था। यह एक ऐसा परिवार है जहां हम (आज के वक़्त में चौंकाने वाली बात होगी यह) सरप्राइज़ विज़िट भी दे चुके हैं। यानी जब मन किया पहुँच गए ट्रेन पकड़ कर उनके पास। इस बार भी यही हुआ। बस बोल दिया कि आ रहे हैं तीन दिन के लिए। और आदरणीय मम्मी जी, दोनों भाई भावज, उनके बच्चे सब बाहें फैलाए हमारे दुख को हल्का करने और हमारे सुख मनाने के लिए आतुर मिले।

कुछ मार्च के मौसम का जादू, सुर्ख पलाश के फूलों से लड़े पेड़, क्यारी-क्यारी में फूल-फूल पर छाई बहार, उस पर हम पति पत्नी दोनों के जन्मदिन और शादी की सालगिरह सब एक ही हफ्ते के भीतर होने से -सब जैसे घुल-मिल कर अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। वैसे भी इस बार इसमें सात फेरे लेने के बाद चालीस वर्षों का साहचर्य पूरा होने की खुशी भी शामिल थी। और फिर जब यह समय पंजाब की मिट्टी से जुड़े लोगों के साथ बीते तो फिर तीन दिन तो क्या तीन हफ्ते भी कम पड़ जाते है। आत्मीयता, जिंदादिली, जीवंतता और खलूस भरे ढेर सारे यादगार पलों की पोटली बगल में दबाए दिल के रिश्तों की डोर मजबूती से थामे हम अपने इस सफर के अंतिम पड़ाव पर थे। अगली सुबह 6 बजे हमारी गाड़ी थी।

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अमृतसर से खुलने वाली शताब्दी एक्सप्रेस जालंधर सिटी पर आकर रुकी और झटपट हम पति पत्नी ने c 4 कोच में अपना सामान जमा कर गहरी सांस ली। किसी का इंतज़ार करना हो तो दो मिनट दो सदी लगते हैं पर जब ट्रेन पर चढ़ना या उतरना हो तो बस सारा फोकस ‘दो मिनट’ पर ही होता है। 8 और 9 नंबर की हमारे सीट के पीछे 4 और 5 नंबर पर एक माँ बेटी हमारे एकदम पीछे आकर बैठने लगीं। ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ा ही था कि कोच में एक खाकी वर्दी वाले दारजी लंबे डग भरते हुए सबको परे हटने को कहते हुए गेट की ओर भागे। चेन पुलिंग हुई थी शायद। दो एक मिनट और लगे होंगे पर फिर ट्रेन चल पड़ी।

हमारी सीट के आगे एक बड़ा सा सूटकेस रास्ते में रखा हुआ था। सुबोध ने पूछा - ये किसका है? तो अगली सीट से उत्तर आया - मेरा।

इसे ऊपर रख दें?

बाSरी है - दक्षिण भारतीय स्वर में उत्तर आया।

“आइए, मदद कर देता हूँ।”

सूटकेस वाकई काफी वजनी था। एक और व्यक्ति ने भी मदद की तब जाकर उसे ऊपर फिट किया जा सका। अब पीछे वाली माँ–बेटी की ओर फिर हमारा ध्यान गया। मँझोले कद और भरे बदन की लगभग 28-29 साल की मां रही होगी और चार एक साल की गुल्लू-मुल्लू बच्ची। चलिए सुविधा के लिए मां का नाम निमृत रख लेते हैं। क्योंकि बच्ची का नाम उसने बार बार पुकारा था जो आपको जल्दी ही पता चल जाएगा। वैसे यहां भी 2 मिनट ने अपना कमाल दिखाया था और इस जोड़ी को छोड़ने बच्ची के पापा ट्रेन के अंदर तक नहीं आए थे। बच्ची थी कि लगातार सुबक-सुबक कर रोए जा रही थी। मां पूरी कोशिश कर रही थी कि बच्ची को चुप कराए पर उसका रोना था बंद ही नहीं हो पा रहा था।

“पापा क्यों नहीं आए?”

“बेटा पापा 2 डेज के बाद आ जाएंगे ना? अभी हम नानी हाउस जा रहे हैं। रोते नहीं अच्छे किड्स। चलिए आप इजी हो कर बैठिए मैं आपकी चेयर पीछे कर देती हूं।”

निमृत ने कोशिश की पर चेयर टस से मस नहीं हो पा रही थी।

मां बच्ची की परेशानी मेरे पति सुबोध ने समझी और भलमनसाहत दिखाते हुए उठकर उनकी कुर्सी पीछे करने में मदद की। निमृत ने बहुत मुस्कुराते हुए उनका आभार जताया और विंडो सीट बेटी को देते हुए खुद उसके बगल में विराज गई।

“आप ने वाटर लेना हैगा? देखो अच्छे बच्चे रोते नहीं जस्ट थिंक पापा बैंक गए हैं। उन्हें तो आ जाना है टू डेज़ के बाद। अभी हम नानी हाउस जा रहे हैं।”

तब तक निमृत के फोन की घंटी बजी, निमृत ने तुरंत फोन उठाया—

“पैरी पैना मम्मा जी! की हाल चाल? … हां जी, मम्मा, सब चंगा, मन्नत रोई जा रई रोई जा रई। अपने पापा नु मिस करण लग्गी। हुणे कॉल कर दीअं, रब्ब राखा, मम्मा जी।”

अब तक मन्नत का सुबकना थोड़ा-थोड़ा कम हो रहा था लेकिन उसका ख्याल रखने में फुल ऑन वॉल्यूम पर निमृत की आवाज पूरे कोच में गूंज रही थी।

“आप अपना ब्लू वाला टेड्डी लोगे या पिंक वाला? अच्छा चलो पानी वाला आ गया है। आप अपनी बॉटल अपने कोल रखो मैं अपनी रखूं। आपने ओनली टी पीनी है? अभी आएगी।”

और तभी मॉर्निंग टी सर्व होने लगी।

“भैया जी एक बिस्कुट और मिलेगा क्या और एक खाली गिलास भी। बच्ची बोतल से पानी नहीं पी पाएगी।”

कहना ना होगा कि वेटर ने निमृत जी के दोनों अनुरोध मान लिए थे क्योंकि उन्हें दोहराया नहीं गया था। तब तक टिकट चेकिंग की बारी आ गई थी और इत्तफाक कहिए कि चेकर भी महिला थी मन्नत का सुबह-सुबह सिसकियां अभी टूटी नहीं थी। उसे ऐसे उदास देख उसका भी ममत्त्व जग गया।

“कि होया, बेबी रो रही हैगी?”

“इसके पापा साथ नहीं आए हैं, इसलिए मिस कर रही है।“

“कुड़ियां वैसे भी पापा दी लाडली होंदी है।“

“ये तो कुछ ज्यादा ही अत्ताचहाई अपने पापा से। वो इसे नाइट में स्टोरी सुनाते हैं। तब जाकर सोती है। मैं स्लीप कराना चाहूँ तो कहती है- आपको स्टोरी नहीं आती। पापा को आती है।“

“बच्चे, तुसी कहां जा रहे हो?”

“मन्नत, आंटी को बताओ, से (say)! कहां जा रहे हैं हम लोग?”

“नानी हाउस”

“ये तो अच्छी बात है। आप क्यों रो रहे हो?”

“मुझे पापा की याद आ रही है।“

निमरत ने आगे बताया- वो जी कल ही एग्जाम्स ओवर हुए हैं तो हम लोग आज नानी के घर जा रहे हैं। 2 डेज के बाद इसके पापा भी आ जाएंगे। पर इसके लिए 2 डेज़ भी टू मच हैं जी। इतने सारे केक बिस्किट चिप्स जाने क्या क्या लाकर दे रखा है जर्नी के वास्ते।“

दो लगभग हम उम्र महिलाओं को एक कॉमन टॉपिक मिल गया था बातचीत का।

टिकट चेकर बोली –“मेरा भी 6 इयर्स का बेटा है, उसको छोड़कर आना बहुत मुश्किल होता है। शुरू में तो बहुत प्रॉब्लेम होती थी। पर अब वह एडजस्ट हो गया है कहता है मामा तुसी जाओ मुझे कैमरे पर देखते रहना। पर आप मॉर्निंग में जाओगी तो मुझे ब्रेकफास्ट करा कर जाना। बच्चों का तो जी ऐसा ही रहता है मां-बाप से अलग होना उनके लिए मुश्किल है। न्यूक्लियर फैमिलीज की यह तो प्रॉब्लम है। ओके, मन्नत टेक केयर!” कहते हुए टिकट चेकर आगे बढ़ गई।

xxxx

ट्रेन पूरी रफ्तार से भागी जा रही थी और किसी तरह निमृत अपनी मन्नत को बहलाए रखने की कोशिश में कभी फील्ड में “ट्री” दिखाने की कोशिश करती तो कभी “वाटर” दिखाती। मन्नत भी बाल सुलभ प्रश्न करने लगी थी “मम्मा, ट्रेन रोड पर चलती है क्या?”

“नहीं बेटा जी, ट्रैक पर चलती है ट्रेन। जब हम लोग उतरेंगे तब आपको दिखाऊंगी” कहते हुए निमृत ने फोन मिला लिया था।

“भैया जी आज आपके प्राजी ही घर पर हैं तो दूध घट देना। बेशक 1 किलो या डेढ़ किलो जैसी आपकी मर्जी। ठीक है?” फिर दूसरा फोन पति को।

“तुसी एक बार वाशिंग मशीन चला देना प्लीज़ और सुमन से अपना टिफिन भी लगवा लेना और सुनो मैं तो भूल ही गई फ्रिज में गोभी की सब्जी पड़ी है सोचा था मन्नत के लिए सैंडविच बना लूंगी, भूल गई आपने भी याद नहीं दिलाया। फिर कोई नहीं आप खा लेना। कोई फोन आ रहा है अभी रखती हूं। हां मन्नत अभी भूली हुई है tea पी रही है।“

“हेलो हां सुमन आपके प्राजी का ही ब्रेकफास्ट और लंच बनेगा और उनका टिफिन भी ऑफिस के लिए लगा देना आज से दो दिन मैं घर पर नहीं हूं फ्रिज में गोभी की सब्जी है मैशर से मैश करके इसका सैंडविच बना लेना और आप भी खा लेना बेटा। और दाल एच तड़का सरों दे तेल दा ई पाना, तैनूं तो पता ई हैगा कहां पड़ा है।“

फिर एक बार फोन पति को- “ओ जी, मैंने फर्नीचर वाले को बोल रखा है। शामी आएगा चेयर्स ठीक करने। आप देख लेना प्लीज़।“

“ मम्मा, पापा अभि कहाँ हैं? घर या बैंक?”

“थोड़े टाइम बाद बैंक जाएंगे। अभी टाइम नहीं हुआ न? और हम तो ‘फार’ आ गए हैं। हमें कैसे पता होगा पापा अभी के अभी कहाँ हैं?”

xxxx

मेरा ध्यान भी अब इस प्यारी सी मां बेटी की जोड़ी से थोड़ा हटा और देखा कि एक सज्जन एक 5 महीने का बच्चा गोद में लिए काफी देर से टहल रहे हैं। उम्र रही होगी यही कोई 27 -28 साल टी शर्ट पर लिखा था ‘व्हेन एवरीथिंग एल्स फेल्स म्यूजिक वर्क्स!’ पर यह म्यूजिक उनके बच्चे पर कारगर नहीं हो रहा था क्योंकि बच्चा उन्हें बैठने नहीं दे रहा था। जरा सा रुकते तो गोद में कूदने लगता। यह एक इशारा होता कि चलते रहो बापू ! 5घंटे की पूरी यात्रा के दौरान बच्चे ने जरा सा भी सोना गवारा नहीं किया था 5 या 6 लोगों का परिवार था और वह एक 5 महीने का बच्चा सबको बारी-बारी से गोदी में टहलने का मौका दे रहा था। सब उसे सुलाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन बच्चा आंख झपकने को राज़ी नहीं था। शायद दूर-दूर तक कालीन जैसे बिछे हुए गेहूं के खेत उसे खिड़की से नजर हटाने नहीं दे रहे थे और मेरी नजर तो उसकी बालों की बड़ी स्टाइलिश सी कटिंग पर थी। परफेक्ट स्टाइल में कटे उसके थोड़े से बाल सामने से V का आकार लिए थे और पीछे चांद के पास गोलाई थी। बस इतने छोटे से हिस्से के बाल लगभग एक सेंटीमीटर लंबे रहे होंगे और बाकी सब एकदम हल्के। उसे गुल गपाड़े से बच्चे को हर कोई दुलार भरी आंखों से देख रहा था जैसे आँखों से दुलरा रहा हो।

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निमरत ने एक और फोन मिला लिया था। “गुड मॉर्निंग माँ। हां, फगवाड़ा क्रॉस हो गया। हां हां आप टेंशन न लो मैं सोनीपत ट्रेन पहुंचते ई कॉल करांगी। हां मन्नत रौन्गी स्वाद नाल खौंदी है भिंडी भी। तुसी एकदम टेंशन न लो।“ अपना ख्याल रखो। आज तो जतिन का रिजल्ट आ रहा है न। जरा गल्ल कराएं औंदे नाल।.. हां जतिन ऑल द बेस्ट! बाबा जी सब चंगा करागे। रखदी अं फोन! बाय.. रिजल्ट आ जाए तो मैनू दस्सी।“

फिर एक और कॉल- “सत श्री अकाल, चाचा जी! की हाल?”

“.. “

“ओए होए कब्ब से”?

“....”

“ऐसे कैसे। कब पता चला? टेस्ट कराए? इसके लिए तो के एफटी टेस्ट (kft) वगैरह कराना होता है। ऐसे ही नहीं मान लेना”

“...”

“ओहो, ऐ तो वड्डी प्रोब्लम हो गई चाई जी को आप न वो वाली दवा दो मैनू बहुत सूट की थी होमिओ की अल्फा अल्फा। दिन में तीन बार खाने से पहले खाली पेट लेनी है। देख लेना , रब्ब दी मेहर सब्ब चंगा होगा छेती छेती। हां घर आकर कॉल करदी अं।“

xxxx

अब लुधियाना आ चुका था। कुछ सवारियां उतर रही थीं पर आने वाली ज्यादा थीं, सूटकेस पर सेलोफीन के कवर वाली। एक ऐसे ही बड़ा सा सूटकेस बेटे को अकेले बूते ऊपर रखते देख बुजुर्ग बाप ने भी हाथ लगा दिया था। ‘दो मिनट’ की तंग दिली देखिए कि बेटे ने बाप को हाथ जोड़े और दो कांपते बुजुर्ग हाथों ने उसका चेहरा थाम लिया। थपथपा दिया बस एक पल को सही। नज़रें भी शायद ही दोनों की मिल सकीं हों और पिता तेज कदमों ट्रेन से उतर गए। नम आंखों की कोर भी उन्होंने उतरने के बाद ही पोंछी थी।

xxxx

इधर नाश्ता सर्व होने लगा और मां बेटी का वार्तालाप फिर शुरू। इस बार मुद्दा बटर का था, छः-सात साल की बेटी शायद खाना चाहती थी, मां खिलाने के मूड में नहीं थी। “मैं मोटी हो जाऊंगी मुझे नहीं खाना बटर, आप चाहो तो ईट करो।“ ... मां बोले जा रही थी...अब आप क्या करोगे ब्रेकफास्ट के बाद, रेस्ट? ओय होय पिलो तो आप लाए नई एरो प्लेन वाला?”

“कैसे लाते? हैंड में?” दोनों की एक साथ खुलती हुई हंसी सुनाई पड़ी और पापा जी को मिस करने की उदासी थोड़ी छंट गई।

“अरे, ये ऐसी भी बहुत ठंडा हो रहा है। मैंने कोई शॉल भी नहीं रखी। आप कलरिंग करोगे? ओके मैं आपकी कलर बुक निकाल देती हूं। यू वांट फ़ोन? ओके फोन ले लो। बट नो रील्स ओनली कार्टून्स, प्रॉमिस??”

“मम्मा, आज तो हमने सिर्फ ब्रश किया। नहाया तो नहीं”

“कोई नई। ‘हाउस’ जाके नहा लेंगे।“

फिर एक बार निमरत का फोन बजा।

हेलो जातीं? आ गया रिजल्ट? ये तो बता लास्ट टाइम से इम्प्रूव्मन्ट है न?”

“..”

“हिन्दी और पंजाबी में सी1, बस। ए तो चंगा नई जी।“

“..”

“पहले से अच्छा है? तब तो चंगा जी। नेक्स्ट टाइम होर एफर्ट डाल। अच्छा होगा। तेरा गिफ्ट पक्का। चल मौज कर।“

xxxx

हम लोगों ने बैग से संतरे निकाल कर खाए और टेबल-ट्रे पर छिलके रख दिए थे। साथ ही एक केला भी। पीछे निमरत-मन्नत भी थोड़ी देर के लिए खामोश थीं। हमारे आँख लग गई। आहट सी हुई तो देखा सफाई कर्मी सब ओर से कूड़ा लेते-लेते हमारी टेबल से छिलके उठाने लगा था। उसने शायद समझा हो कि केले का भी छिलका है। ओर वहाँ साबुत केला था। हम उसकी उलझन समझ गए और कहा-केला आप खा लेना। वह संतरे के छिलके और केला लेकर चला गया।

कुछ ही पल बाद वह हमारी टेबल-ट्रे को गीले कपड़े से पोंछ रहा था।

xxxx

मार्च का महीना अपनी उम्र का आधा से ज़्यादा सफर तय कर चुका था। पर गेंहू के खेतों के ऊपर रात की ओस की चादर अभी तक बिछी हुई थी। सूरज अपनी लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें उघाड़ नहीं पाया था। तभी announcement सिस्टम पर आवाज़ आई—यात्री गण कृपया ध्यान दें। कोच c 9 में एक महिला की तबीयत खराब हो गई है। यदि आप में से कोई डॉक्टर हैं तो कृपया उस महिला की देखभाल करने में हमारी सहायता करने का कष्ट करें।

“अंकल, मैं डॉक्टर तो नहीं हूँ पर सिवल डिफेन्स की ऐक्टिव मेम्बर हूँ। हम लोगों को सीपीआर वगैरह देना भी सिखाया जाता है। थोड़ी बहुत मेडिकल फर्स्ट ऐड देनी भी। एक मेडिकल किट मैं लेकर चलती हूँ। आप प्लीज़ मेरी बेटी का ध्यान रखेंगे? मैं शायद उस लेडी की कुछ हेल्प कर सकूँ?” ये निमरत थी जो अभी पिछले पल तक पल-पल अपनी लाडो के नखरे उठा रही थी, उसका ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। अगले ही पल वो हम अपरिचित दंपति पर विश्वास करके अपनी लाडो हमारे हवाले कर किसी अनजान महिला की मदद करने के लिए दौड़ी जा रही थी।

पंजाब का एक रंग यह भी है। वैसे कभी इसका रंग चटकीला, कभी दिखावटी और कभी दर्द भरा भी। पर जो बन गए संबंध तो स्थायी ही होते हैं। खास तौर पर जब खून से अलग हों। उसमें रंग कभी धुंधला नहीं होता, खास तौर पर जब कोई दिखावटीपन न हो।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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लेखिका परिचय:
अंग्रेजी और सोशल वर्क में मास्टर्स डिग्री. लेकिन शुरुआत से ही रचनात्मक लेखन में रुचि. इंश्योरेंस सेक्टर में काम करने के दौरान लेखन का काम कम हो पाया. लेकिन बीच-बीच में चला रहा. इस बीच रामचरितमानस के एक अंश से लेकर अंग्रेजी के दो उपन्यास का अनुवाद का भी किया. साप्ताहिक हिंदुस्तान, दैनिक हिंदुस्तान, सारिका में भी कुछ कहानियां प्रकाशित। संप्रति अब रिटायर होने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों और थोड़ा बहुत घूमने-घामने के अलावा लेखन में दोबारा से रमने की कोशिश.

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2 टिप्पणियाँ

  1. अब पूरा देश लगभग लगभग एक तरीके के माहौल में है. सामान्य तौर पर यह बात सही है कि दिल्ली, पंजाब में थोड़ा दिखावा ज्यादा होता है लेकिन अब तो सब जगह यही हाल है. महाराष्ट्र, गुजरात में भी ऐसी स्थितियां हो गई है .लेकिन शब्दों का चयन और माहौल पपूरे। वातावरण को दर्शाता है।

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  2. मज़ा आ गया पढ़ कर ज्योति, बहुत ही खूबसूरत तरीके से पंजाब की अपनेपन, प्यार, और ख्याल रखने की रवायत के बारे में लिखा है। बहुत बार हम लोग Bias हो जाते हैं किसी का पहनावा, बोलने के तरीके, या वो किस जगह से आता है उस की वजह से। तुम ने बहुत openness से प्यार से लिखा है।

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