सियासी भंवर : भरत तिवारी

किस हद्द तक राजनीति ग्रसित लोगों के बीच आज का अवाम रह रहा है. हमें लगता रहा कि कद्दावर नेताओं से शुरू हो कर, बीच में धार्मिक आदि रास्तों से हो कर, ये बात छुटभैये नेताओं पर खत्म हो जाती है. हम सब ने अपनी अपनी वैचारिक्तानुसार इस से निपटना भी सीख लिया और इसे “राजनीतिक समझ” का नाम दे दिया. इस समझ का कोई सरोकार पढाई से नहीं है, ये हमें बचपन में ही इतिहास के अध्यापक ने, अकबर पढ़ा कर समझा दिया था. लेकिन हमने इसे पूरी तरह सच नहीं माना और ये नज़र भी आता है जब कोई धर्मगुरु , वैज्ञानिक , अर्थशास्त्री वगैरह, हमारी राजनीती में प्रखर रूप में नज़र आता है.
फ़िर हमें मिले वो, जो हमारी राजनितिक समझ को बढ़ाने के लिये आये , जिन्होंने हमें बताया कि देखिये अमुख जिसे आप ऐसा नहीं मानते हैं वो भी राजनीति कर रहा है, वो साक्ष्यों को सामने रखता गया और हम इस बात को लेकर खुश हुए कि कोई रहनुमा मिला. अलग अलग क्षेत्रों में हमें नए नए रहनुमा मिलते रहे और हमें उस क्षेत्र में होने वाली राजनीति से अवगत कराते रहे. मसलन फिल्मों के क्षेत्र में, जहाँ हमें सिर्फ़ अदाकारी और उससे जुड़ी अन्य बातों से सरोकार था, रहनुमा ने बताया कि ‘स्लम डॉग’ अच्छी नहीं है , छवि खराब करती है, हमने बगैर ये पूछे कि किस छवि की बात करी जा रही है , सच मान लिया. समय समय पर ये रहनुमा प्रकट होते रहते हैं और हमारी समझ को दुरुस्त करते हैं. 

अब बात ये है कि ये विलुप्त क्यों हो जाते हैं ? ये हमने कभी सोचा ही नहीं. गलत. हमें इतना वक़्त ही नहीं दिया जाता कि हम ये सवाल पूछ सकें. अब सवाल ये कि हमारा वक्त हमारी सोच (राजनीतिक-समझ) कौन नियंत्रित कर रहा है . यही बड़ा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है   

तमाम देश जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से दुखी हो , इण्डिया गेट पर पुलिस की लाठियाँ खा रहा था , उस समय ये सारे के सारे रहनुमा नदारद थे. हमने अपनी समझ का प्रयोग (शायद पहली बार) किया और किसी भी मोड़ पर हमें इनकी कमी महसूस नहीं हुई. और बड़े प्रश्न का उत्तर तब मिला , जब इनके परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रकट होते ही, हम करोणों की समझ को गलत ठहराया गया. 

यहाँ हमारा इन रहनुमाओं की बात ना सुनना और इन्हें दरकिनार करना, बता रहा है कि इनकी पोल खुल गयी है, कि हमारी सोच पर इनका नियंत्रण था, कि ये भी उसी गन्दी राजनीति का हिस्सा हैं, जिनको सिर्फ़ कुर्सी और पैसे का लालच है. 

उम्मीद है कि अब अपनी समझ को हम, रहनुमाओं की बात सुन कर, बगैर सोचे समझे नहीं बदलेंगे. 


भरत तिवारी, पेशे से इंटीरियर डिज़ाइनर, पत्र पत्रिकाओं में कविता, गज़ल व लेखों आदि का सतत स्वतंत्र लेखन.   संपर्क : B-71, शेख सराय फेज़- 1, नई दिल्ली, 110 017. 011-26012386 ई०मेल bharat@tiwari.me

जनसत्ता , २८ दिसम्बर २०१२ , से साभार  http://epaper.jansatta.com/c/627699

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. Sabse pahle hum sab zimmedaar hain us soch ke liye, jo aurat ko nichle darje ka insaan samajhtee hai, aur unke khilaaf huyee har hinsa ke liye swayam unheen ko zimmedaar thahraatee hai. Neta, qaanoon aur adaalaten to hum khud hee hain.. Hum kab tak apnee zimmedaaree se bhagte rahenge?

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

दमनक जहानाबादी की विफल-गाथा — गीताश्री की नई कहानी
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
जंगल सफारी: बांधवगढ़ की सीता - मध्य प्रदेश का एक अविस्मरणीय यात्रा वृत्तांत - इंदिरा दाँगी
वैनिला आइसक्रीम और चॉकलेट सॉस - अचला बंसल की कहानी
समीक्षा: माधव हाड़ा की किताब 'सौनें काट न लागै  - मीरां पद संचयन'  — मोहम्मद हुसैन डायर | MEERAN PAD SANCHAYAN
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज
सेकुलर समाज में ही मुसलमानों का भविष्य बेहतर है - क़मर वहीद नक़वी | Qamar Waheed Naqvi on Indian Muslims
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh