हंस फरवरी 2013 "हिंदी सिनेमा के सौ साल"

पूर्णांक-316 वर्षः 27 अंकः 7 फरवरी 2013
मेरी तेरी उसकी बात
- मेरे फिल्मी रिश्ते: राजेन्द्र यादव
अतिथि संपादकीय
विशेष
- किसी एक फिल्म का नाम दो: ओम थानवी
- सिनेमा में शेक्सपीयर: ओथेलो से ओंकारा तक: विजय शर्मा
कहानियां
- रेप मार्किट: गुलजार
- चुड़ैल: अभिराम भडकमकर
बातचीत
- गर्त में जा रही है कल्पनाशीलता: बासु चटर्जी से बातचीत
- सेंसरशिप अपमानजनक है: गौतम घोष से बातचीत
- नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव-मोहल्लों से आएगा: अनुराग कश्यप से बातचीत
- अतीत की नहीं भविष्य की सोचिए: गोविंद निहलानी से बातचीत
- नजरअंदाज करना भी एक राजनीति है: सुधीर मिश्रा से बातचीत
- सर्जनात्मक जोखिम लेने वालों का था नई धारा का सिनेमा: श्याम बेनेगल से बातचीत
- गहरी बातों को सरल भाषा में कहना जरूरी है: ओमपुरी से बातचीत
- सिनेमा अंततः मनोरंजन का माध्यम है: चंद्रप्रकाश द्विवेदी से बातचीत
- सिनेमा अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है: कमल स्वरूप से बातचीत
सदी के सरोकार
- समाज के हाशिए का सिनेमाई हाशिया: तत्याना षुर्लेई
- हिंदी समाज और फिल्म संगीत: पंकज राग
- नेहरू युग का सिनेमा: मेलोड्रामा और राजनीति: प्रकाश के. रे
- सिनेमा की हिंदी: भाषा के भीतर की भाषाएं: चंदन श्रीवास्तव
- सिनेमा के शताब्दी वर्ष में दस सवाल: विनोद भारद्वाज
- क्षेत्राीय भाषाओं का सिनेमा: मनमोहन चड्ढा
- औघड़ फिल्म उद्योग का शताब्दी उत्सव: जयप्रकाश चैकसे
- मनोरंजन के बाजार में आदिवासी: अमरेंद्र किशोर
- अतिक्रमण ही अश्लीलता है: शीबा असलम फ़हमी
- पोर्न फिल्मों की झिलमिल दुनिया: फ्रैंक हुजूर
शख्सीयत
- भारतीय सिनेमा और व्ही.शांताराम: सुरेश सलिल
- आम आदमी की पीड़ा का कवि: तेजेंद्र शर्मा
- सिनेमा के प्रयोगधर्मी साहित्यिक किशोर साहू: इक़बाल रिज़वी
परख
- संस्मरणों में गुरुदत्त: सुरेश सलिल
- खुद की तलाश का लेखाजोखा: प्रेमचंद सहजवाला
फिल्म समीक्षा
- लाल झंडे और नीले रिबन के बीच: उदय शंकर
कसौटी
- मीडिया: फिल्म इंडस्ट्री की प्रोपेगंडा
- मशीनरी: मुकेश कुमार
सृजन परिक्रमा
- परसाई के बहाने व्यंग्य चर्चा: दिनेशकुमार
कदाचित
- जफर पनाही और हम: संगम पांडेय