दिव्या शुक्ला
जन्मस्थान: प्रतापगढ़
निवास: लखनऊ
रूचि: मन के भावो को पन्नो पर उतारना कुछ पढना ,कभी लिखना
सामाजिक कार्यों में योगदान अपनी संस्था स्वयंसिद्धा के द्वारा
तुम्हारे वज़ूद की खुशबू
सुनो - तुम नहीं जानते
बहुत सहेज़ के रखे है मैने
तुम्हारे सारे अहसास ....
पता है तुम्हे
अक्सर मै
काफ़ी शाप की उसी कार्नर वाली टेबल पर जाकर बैठती हूँ
उस दिन जहाँ हम दोनों बैठे थे
सामने वाली चेयर पर
तुम होते हो
टेबल पर रखी होती है दो कप काफी
अब वेटर बिना कहे रख जाता है
जब कि अब वो भी जान गया है
कोई नहीं आने वाला ...
अकेली ही कुछ देर बैठूंगी मै
एक हाथ पे चेहरा टिकाये बैठी मै
गुम होती जाती हूँ तुम्हारी यादों में
उसी तरह चुप सी पर न जाने
कितनी बातें कर जाती हूँ तुमसे
बगल बैठे होते हो तुम
- मेरे इर्दगिर्द
तुम्हारे वज़ूद की खुशबू
जिसे मै जन्मो से पहचानती हूँ
यूँ लगता है जैसे हाथों को छू लिया
तुमने ... तुम्हारी आँखों की छुअन
मुझे महसूस होती रही अनजान बनी मै
न जाने क्या सोच के मुस्करा पड़ी
मैने तुम्हारी चोरी पकड़ ली थी न
तुमने घड़ी देखी और उठ गए ...
तुम्हे जाना भी तो था देर हो रही थी
फ्लाइट राईट टाइम थी
अचानक
तुम मुड़े और मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा
मेरा सर छू भर गया तुम्हारे सीने से
हम चाह के भी गले नहीं लग पाये
न जाने क्यूँ ... हम दोनों में शायद
हिम्मत नहीं थी ... अधूरी रह गई
इक खूबसूरत सी ख्वाहिश
तुम्हारे सीने पर हल्के से सर रख कर
तुम्हारी धडकनों में अपना नाम सुनने की
पर कोई बात नहीं ... बहुत है
ये अहसास जिंदगी भर के लिए ...
मैने बाँध कर छुपा दिया है
तुम्हारा इश्क और अपने ज़ज्बात
जब बहुत याद आते हो तो
यहाँ आती हूँ कुछ देर
तुम्हारे साथ बैठने को ...
अक्सर ये सोचती हूँ पता नहीं
तुम्हे मेरी याद आती भी होगी
या भूल गए मुझे ... पर मै कैसे भूलूं
मेरी बात और है ... तभी अचानक
वेटर बोला मैम आपकी काफी ठंडी हो गई
उदास सी मुस्कान तिर गई मेरे चेहरे पर
मै उठ कर चल दी बाहर की ओर
अकुलाहट
कितना भी हो घना अँधेरासुबह कुहासे की चादर फाड़
सूरज धीमी धीमी मुस्कान
बिखेरेगा ही ...
भोर तो आकर रहेगी
मुझे मेरा मन कभी दुलार से
तो कभी डांट के समझाता है
पता है वो सच कह रहा है
नहीं निकल पा रही हूँ मै
उन लछमण रेखाओं के बाहर
जो मैने खुद ही खींच ली थी और
खुद को तुम्हारे साथ ही बंद कर लिया था जिसमें
क्या बताऊँ ? तुम्हें भी बताना होगा क्या
तुमको समझने में मै खुद को भूल गई थी
आशा और निराशा धूप छाँव सी आती जाती है
पर मुझे पता है वक्त लगेगा थोड़ा
लेकिन मैं निकल आऊँगी बाहर
अपनी ही खींची हुई परिधि से
तुम वापस आओगे जरुर पता है मुझे
पर तब तक कहीं पाषण न हो जाये
यह हर्दय जिसमे तुम थे तुम ही हो
यह भी सत्य है तुम्हारी याद की गंध
हमेशा मेरे साथ ही रहेगी और साथ ही जायेगी
एक अकुलाहट सी होने लगी है अब
आखिर मेरे ही साथ क्यूं यह सब ??
क्यूं की अभी भी जब इतना समय गुज़र गया
काले केशों में चांदी भी उतरने लग गई
फिर भी मुझे किसी को छलना नहीं आया
चलो हर्दय का वह दरवाज़ा बंद ही कर देते है
जहाँ पीड़ा स्नेह अनुराग जा कर बैठ जाते हैं
न जाने क्यों इस मौन निशा में
मेरा मन इतना भर आया कब से तुम से
न जाने कितनी बातें करती रही और
समय का पता ही न चला की कब भोर हो गई
न जाने कितने जन्मों का नाता जो है तुम से
यह भी भूल गई तुम तो यहाँ नहीं हो
पर न जाने क्यूं लगता तुम यही मेरे पास ही हो
सुनो मेरे पास ही हो यह अहसास ही काफी है
हम रोज़ इसी तरह बातें करेंगे मुझे पता है
तुम सब सुन रहे हो न क्यूं की तुम तो
हमेशा मेरे साथ ही रहते हो - रहते हो न ??
मौलश्री
मौलश्री की सुगंध आज भीहर पूर्णिमा को महकती है
अनजाने मे कदम फिर से
नदी तट पे पहुँच जाते
जल मे चांद के प्रतिबिम्ब मे
फिर तुम को खोजते हैं
अब तुम वहाँ नही आते
पर वो वो पूरे चांद की रात याद आती मुझे
महक रही थी मौलश्री से
चांद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी के जल में
तब तुम थे हम थे
निस्तब्ध रात थी
तुम मौन मुस्करा रहे थे
सुन रहे थे धैर्य से
मेरी न खतम होने वाली बातें
मुझे आदत है
जोर से हँसने की
और तुम्हें
सिर्फ मुस्कराने की
हमारे साथ चांद मुस्कराता
और चांदनी खिलखिलाती थी
पर आजकल सब उदास
तुम जो नहीं हो यहाँ
अजनबी से बन गये न जाने क्यूं
सुनो ! ज़रा बाहर झांको न
देखो तो - चांद से संदेश भेजा है मैने
जल्दी आना
नदी चांद चांदनी सब उदास है
मौलश्री अब ज्यादा नहीं महकती
तुम्हारे बिना
और मै
क्या कहूँ तुम तो जानते ही हो
bahut badhiya didi......
जवाब देंहटाएंआपके इस पोस्ट के लिंक का प्रसारण ब्लॉग प्रसारण www.blogprasaran.blogspot.in के आज 20.05.2013 के अंक में किया गया है.
जवाब देंहटाएंरूह से नीली ... सभी रचनाएं दिल में उतर जाती हैं ...
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