जन्म - अगस्त २६,१९६५
मायामृग
जन्म स्थान - हनुमानगढ़, राजस्थान
शिक्षा -एम ए, बीएड, एम फिल (हिन्दी साहित्य)
सम्प्रति- बोधि प्रकाशन ... विस्तृत परिचय
जो टूट गया

थाप थाप कर देता है आकार
गढ़ता है घड़ा
गढ़ता है तो पकाता है
पकाता है तो सजाता है
सज जाता है जो....वह काम आता है....।।
हर थाप के साथ
खतरा उठाते हुए
थपते हुए
गढ़ते हुए
रचते हुए
पकाते हुए
टूट जाता है जो....वह टूट जाता है...।।
जो काम आया....उसकी कहानी आप जानते हैं
जो टूट गया, मैं तो उसके लिए लिखता हूं कविता.....।।
अंतिम संस्कार से पहले
मर तो उसी दिन गई थी
जब दाई ने अफसोस से सूचना दी थी मां को
और बधाई नहीं मांगी ....
मां ने भीगी आंखें लिए मुंह दूसरी ओर कर लिया था
मुंह बिसूरा दादी ने और
पिता ने सिर को झटका बाएं से दाएं......।
मर तो गई थी उस दिन
पहली बार कदम रखा जब बाहर
नजरें तुम्हारी जाने क्या खोजती रहीं देह के आवरण चीरकर
कन्धे से कन्धा रगड़कर निकलते तुम
मेरी हत्या के पहले प्रयास में भागीदार थे....।
मर गई मैं तुम्हारे कठोर हाथ लगते ही
पहले मेरा नाम मरा
(किसने रखा मेरा नाम 'पीडि़ता')
उसके बाद मौत ने जाने कितने रुप बदले
सपनों की ठंडी लाश का अंतिम संस्कार नहीं हो सका....।

नहीं डर नहीं रही मौत से
मरने से डरती तो जीती कैसे
हर मौत के बाद जिन्दा हुई मैं
यह मौत उनसे अलग तो नहीं.....
लो, जा रही हूं मैं
तुम तुम्हारे संस्कार पूरे करो
मेरा कोई संस्कार, अंतिम नहीं होगा.....।
जब दाई ने अफसोस से सूचना दी थी मां को
और बधाई नहीं मांगी ....
मां ने भीगी आंखें लिए मुंह दूसरी ओर कर लिया था
मुंह बिसूरा दादी ने और
पिता ने सिर को झटका बाएं से दाएं......।
मर तो गई थी उस दिन
पहली बार कदम रखा जब बाहर
नजरें तुम्हारी जाने क्या खोजती रहीं देह के आवरण चीरकर
कन्धे से कन्धा रगड़कर निकलते तुम
मेरी हत्या के पहले प्रयास में भागीदार थे....।
मर गई मैं तुम्हारे कठोर हाथ लगते ही
पहले मेरा नाम मरा
(किसने रखा मेरा नाम 'पीडि़ता')
उसके बाद मौत ने जाने कितने रुप बदले
सपनों की ठंडी लाश का अंतिम संस्कार नहीं हो सका....।

नहीं डर नहीं रही मौत से
मरने से डरती तो जीती कैसे
हर मौत के बाद जिन्दा हुई मैं
यह मौत उनसे अलग तो नहीं.....
लो, जा रही हूं मैं
तुम तुम्हारे संस्कार पूरे करो
मेरा कोई संस्कार, अंतिम नहीं होगा.....।
सन्धिकाल में स्त्री
तुम्हारे लौटने की खबर के बाद
झाड़ डाले सारे जाले दीवार और छत्त की संधियों से
चमकने लगी सब सन्धियां
जहां अक्सर फंस जाती थीं मकडि़यां
अपने ही बनाए जाले में....
जरा मुश्किल से पहुंचे हाथ...पर
इतना भी मुश्किल नहीं जाले झाड़ डालना
यह आज जाना तुम्हारे आने की खबर के बाद....
साफ साफ है कोना कोना....
अभी अभी घर साफ करके गई बाई के बाद
फिर से पौंछ डाला सारा फर्श
शीशे की आलमारी की हर पटटी को
नरम कपड़े से पोंछा....तब एक बार कट गया था तुम्हारा हाथ
इन्हीं के तीखे कोनों से.....
पुराने परदों की उधड़ी तुरपाई के सीने का
सबसे सही समय यही लगा
यही अच्छा था कि आज ही धो डालें जाएं
कांसे के सब पुराने बर्तन...इमली के पानी से
जिनमें जम गया है हरापन....
जमा हुआ तो हरापन भी बुरा....।
सब जमा दिया है करीने से
पुराने अखबार से लेकर फट चुकी किताबों तक
तुम्हारा लौटना पुरानी किताबों में अधफटे पन्नों पर से
अधमिटे शब्दों को
अपने अर्थ देते हुए अनुमान से पढ़ना है......
और अनुमान में अर्थ कभी अनर्थ नहीं करते....।
बदल दी चादर बिस्तर की जो आज सुबह ही बिछाई थी
पुरानी सब तहाई चादरों को रख दिया पिछवाड़े के कबाड़खाने में
यह समझना नयों को शायद ही आए...
पुराना अगर नया हो जाता है तो नया भी पुराना होता ही है....
पुराने अचार को नए मर्तबान में डाल दिया
पापड़ के पुराने पीपे खोलकर खंगाल लिए
अमृतसरी बडि़यों की तीखी गंध को हवा में फैला दिया डिब्बा खोलकर
हवा नए पुराने का भेद नहीं करती
उसमें बनी ही रहती है गंध....जरा सा खुलने भर से
तुम्हारे आना से ही जानना था आज ये भी तो.....जान लिया
तुम्हारा लौटना ....जान लेने जैसा है, कह देने जैसा नहीं
कहना वो था तुमसे....कि जिसे शब्दों में कहा जा सकता होता
तो वे दुनिया के सबसे खूबसूरत शब्द होते......
किचन की कब्र में स्त्री
यह सच है कि कब्रगाह है किचन
पर कब्र से ज्यादा सुकून मिलता भी कहां है
सोचती है स्त्री......
पहचानती है स्त्री
विद्रोह और विरोध के सब हथियार
जो उसके अपने हैं,
किचन में बीतने वाला वक्त...जो उसका अपना है....
दरअसल द्रोहकाल है....
चूल्हे में आग जलाते हुए
वह नहीं भूलती आग की आंच
इसीलिए गरम पतीला उतारते हुए भी
नहीं जलते उसके हाथ.....

उबलती हुई सब्जी के साथ
उबलते हैं सवाल, जिन्हें वह पका नहीं सकी
सवालों का कच्चापन
बात का कच्चा होना नहीं था पर
पके हुए जवाबों ने कच्चे सवालों को उबलते छोड़ दिया.....
इतनी गोल ही होती है हमेशा रोटी
नहीं सीखी अभी वह परिधियां तोड़ना
चौरस्ते पर आकर....
टेढ़े मेढ़े रास्तों के बारे में वह सिर्फ सोचती है
उन पर चलने की नहीं सोचती.....
सोचते हुए सब करती है वह
करते हुए सब सोचती है वह
जिस बात का जवाब नहीं देती
उसके हाथ देते हैं, बरतनों पर भनभनाते हुए....
आंखें बोलती हैं, प्रेम में कहा था उससे किसी ने
जानती है वह
आंखें बोलती हैं,
अक्सर नीचे कर लेती है आंखें, बात करते हुए
शब्दों से ज्यादा खतरा नहीं, वे उतना ही कहेंगे, जितना कहा जाएगा.....
यह सच है कि उसमें वही सब है जो
कहा उससे उसके पिता ने, भाई ने, प्रेमी ने और पति ने
बस उनके अर्थ
ना पिता को पता थे
ना भाई को
ना प्रेमी को
ना पति को........।
5 टिप्पणियाँ
'अंतिम संस्कार से पहले'.......
जवाब देंहटाएंस्त्री के जन्म से लेकर मरन तक की वेदना को सहजता से पन्ने पर उकेरा है आपने। सहज विश्वास नही होता की नारियों के देश में ही नारी की दुर्दशा ... आह !!!
स्त्री ही स्वयं इस भावना को भूमि देती है .
1. दाई ने अफ़सोस से सूचना दी .....!
2. मुंह बिसूरा दादी ने ........!
3. मां ने भीगी आँखे लिए मुह दूसरी और कर लिया
तो पुरूषों से क्या अपेक्षा ....
पिता ने सर को झटका बांयें से दांये
????
भरे ह्रदय से शुभकामनाये
आदरणीय माया मृग जी!
सादर
गीतिका'वेदिका'
saari kavitayein ek se badhkar ek
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जवाब देंहटाएंमाया जी से जो भी पढने को मिला है , उसे बस पढ़ा है मैंने आज तक। बिलकुल उसी तरह जैसे मेरे गाँव में रोज़ खिलते अनगिनत फूल।मुझे आज तक उन का नाम नहीं पता। पर रंग से वाकिफ हूँ, खुशबू का एहसास है और सादगी ज़ेहन पर छाई है।यहीं ताज़गी इन कविताओं में है जिस को बस महसूस करने को मन करता है।
उत्कृष्ट कवितायेँ..... गहरे उतरती हैं
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट कवितायेँ..... गहरे उतरती हैं
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