औद्योगिक क्षेत्र में चाहे चीन अन्य एशियाई देशों से कहीं अधिक उन्नति कर गया हो परन्तु उसकी सामाजिक संरचना अन्य विकासशील देशों से भिन्न नहीं है। कई मामलों में तो भारत और चीन में अनेक समानताएं हैं, जैसे भारत की तरह चीन में भी पुत्र की कामना उतनी ही तीव्र है जितनी कि भारत में। यह दूसरी बात है कि वहाँ से कन्या भ्रूण-हत्याओं की ख़बरें अख़बारों की सुर्खियाँ नहीं बनतीं। यह भी सच है कि अगर आप चीन की सन् 1970 की जनसंख्या गणना का आकलन करेंगे तो पाएँगे कि सत्तर के दशक में लगभग दुगुनी संख्या में लड़कियों की अपेक्षा लडक़े पैदा हुए। यद्यपि चीन में परिवार में एक बच्चा पैदा करने की सरकारी नीति का कड़ा पालन किया जाता है, मगर लड़कियों की संख्या आधी रह जाएगी, यह कैसे मुमकिन है? इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता, केवल अनुमान लगाये जा सकते हैं।
उत्तर- भूमंडलीकरण के दौर ने हर जगह सामाजिक संरचना को भी प्रभावित किया है। भारत का ही उदाहरण लें, सामाजिक चेतना में कितना भी परिवर्तन लक्षित हो रहा हो, कुछ परम्परागत रीति रिवाज जस का तस बने हुए हैं, जैसे दहेज प्रथा, दिन-ब-दिन और विकराल रूप में सामने आ रही है। अब मध्यवर्ग में दहेज में कार को एक सामान्य तोहफ़े की तरह माना जा रहा है। इस सबके बावजूद दहेज को लेकर प्रताडऩा के भी समाचार आये दिन समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। दहेज हत्याएँ अक्सर विचलित करती रहती हैं।
शिक्षा के प्रचार प्रसार नारी विमर्श और स्त्रियों को प्राप्त हो रहे रोज़गार के अवसरों ने नारी को आत्मनिर्भर बनने के अवसर प्रदान किये हैं और उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न किया है। बड़े नगरों ख़ासतौर पर महानगरों में यह परिवर्तन देखा जा सकता है। आज स्त्रियाँ पुरुषों से कन्धे से कन्धा मिलाकर काम के लिए निकलती हैं। आज बहुत-सी स्त्रियाँ अपने घरवालों की सहायता से नहीं, अपनी पसन्द से विवाह करना पसन्द करती हैं। अपने अनुकूल वर की तलाश में कई बार अनब्याही रह जाती हैं। एक वेबसाइट के अनुसार चीन में तो इस समय शादी की उम्र की पाँच लाख से अधिक महिलाएँ मौजूद हैं, जिन्हें अपनी पसन्द का दूल्हा नसीब नहीं हुआ। एक तरफ़ सामाजिक परम्पराएँ आड़े आ रही हैं, जिनके अनुसार माना जाता है कि पुरुष को हर दृष्टि से स्त्री से श्रेष्ठ होना चाहिए—कदकाठी में, उम्र में, शिक्षा में, वेतन में। इस लीक पर चलने वाले सर्वोत्तम पुरुष उत्तम महिलाओं से, उत्तम पुरुष सामान्य स्त्री से और सामान्य पुरुष अति सामान्य स्त्री से विवाह करते हैं। अब विषमस्थिति यह है कि सर्वोत्तम स्त्रियाँ और अति सामान्य स्त्रियाँ किस से विवाह करें? समस्या यह है कि ऐसी सर्वोत्तम स्त्रियाँ जो अपने वर्ग के पुरुषों से अधिक कमाती हैं, बग़ैर शादी के जीने का मन बनाती हैं या लिव-इन-रिलेशनशिप में चली जाती हैं, जिसमें किसी प्रकार का ‘कमिटमेंट’ नहीं होता। महानगरों में यह एक नयी तरह का रिश्ता आकार ले रहा है। आज दिल्ली में ही हर कालोनी में ऐसे दर्जनों लोग मिल जाएँगे, जो वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं, मगर शादीशुदा नहीं हैं।
भूमंडलीकरण ने विकासशील देशों के लिए सौगातों के कई पिटारे खोल दिये हैं।
रवीन्द्र कालिया
उत्तर- भूमंडलीकरण के दौर ने हर जगह सामाजिक संरचना को भी प्रभावित किया है। भारत का ही उदाहरण लें, सामाजिक चेतना में कितना भी परिवर्तन लक्षित हो रहा हो, कुछ परम्परागत रीति रिवाज जस का तस बने हुए हैं, जैसे दहेज प्रथा, दिन-ब-दिन और विकराल रूप में सामने आ रही है। अब मध्यवर्ग में दहेज में कार को एक सामान्य तोहफ़े की तरह माना जा रहा है। इस सबके बावजूद दहेज को लेकर प्रताडऩा के भी समाचार आये दिन समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। दहेज हत्याएँ अक्सर विचलित करती रहती हैं।
शिक्षा के प्रचार प्रसार नारी विमर्श और स्त्रियों को प्राप्त हो रहे रोज़गार के अवसरों ने नारी को आत्मनिर्भर बनने के अवसर प्रदान किये हैं और उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न किया है। बड़े नगरों ख़ासतौर पर महानगरों में यह परिवर्तन देखा जा सकता है। आज स्त्रियाँ पुरुषों से कन्धे से कन्धा मिलाकर काम के लिए निकलती हैं। आज बहुत-सी स्त्रियाँ अपने घरवालों की सहायता से नहीं, अपनी पसन्द से विवाह करना पसन्द करती हैं। अपने अनुकूल वर की तलाश में कई बार अनब्याही रह जाती हैं। एक वेबसाइट के अनुसार चीन में तो इस समय शादी की उम्र की पाँच लाख से अधिक महिलाएँ मौजूद हैं, जिन्हें अपनी पसन्द का दूल्हा नसीब नहीं हुआ। एक तरफ़ सामाजिक परम्पराएँ आड़े आ रही हैं, जिनके अनुसार माना जाता है कि पुरुष को हर दृष्टि से स्त्री से श्रेष्ठ होना चाहिए—कदकाठी में, उम्र में, शिक्षा में, वेतन में। इस लीक पर चलने वाले सर्वोत्तम पुरुष उत्तम महिलाओं से, उत्तम पुरुष सामान्य स्त्री से और सामान्य पुरुष अति सामान्य स्त्री से विवाह करते हैं। अब विषमस्थिति यह है कि सर्वोत्तम स्त्रियाँ और अति सामान्य स्त्रियाँ किस से विवाह करें? समस्या यह है कि ऐसी सर्वोत्तम स्त्रियाँ जो अपने वर्ग के पुरुषों से अधिक कमाती हैं, बग़ैर शादी के जीने का मन बनाती हैं या लिव-इन-रिलेशनशिप में चली जाती हैं, जिसमें किसी प्रकार का ‘कमिटमेंट’ नहीं होता। महानगरों में यह एक नयी तरह का रिश्ता आकार ले रहा है। आज दिल्ली में ही हर कालोनी में ऐसे दर्जनों लोग मिल जाएँगे, जो वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं, मगर शादीशुदा नहीं हैं।
भूमंडलीकरण ने विकासशील देशों के लिए सौगातों के कई पिटारे खोल दिये हैं।
रवीन्द्र कालिया
सम्पादकीय नया ज्ञानोदय, सितम्बर 2013
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