प्रेमचंद की परंपरा का संकुचन करते वरवरा राव - जनसत्ता

हमारे लोकतांत्रिक जीवन को हिंसा, धर्मांधता, सांप्रदायिकता, अनियंत्रित बाजार आदि से जितना खतरा है, हमारे बौद्धिक जीवन में बढ़ती संकीर्णता से उससे कम खतरा नहीं है। ‘हंस’ पत्रिका के वार्षिक आयोजन में ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर बोलने आने के लिए राजी होकर अंतत: न आने का कोई कारण सार्वजनिक तौर पर अरुंधती राय ने तो नहीं दिया, लेकिन वरवरा राव ने एक बयान में जो कहा, वह इस बढ़ती संकीर्णता का नया और चिंताजनक उदाहरण है। वरवरा राव माओवादी कवि और कार्यकर्ता हैं। उनके संघर्ष और उस कारण सही गई यातनाओं के कारण उनका, उचित ही, व्यापक सम्मान है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा है कि अव्वल तो अन्य दो वक्ता अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य प्रेमचंद की परंपरा में नहीं आते हैं और वे उनके साथ मंच साझा नहीं कर सकते, क्योंकि वे उनसे विरोधी विचार रखते हैं। दुर्भाग्य से यह दोहरी संकीर्णता है।

varavara rao jansatta hans      वरवरा राव प्रेमचंद की परंपरा को इतनी संकरी कर देना चाहते हैं कि उसमें हिंदी साहित्य के कई बड़े लेखक और कृतियां आएं ही नहीं! ऐसा करने का हक उन्हें कहां से मिल गया? अलबत्ता अपनी संकीर्ण व्याख्या का हक जरूर उन्हें है। स्वयं प्रेमचंद का साहित्य और उनका सार्वजनिक आचरण ही वरवरा राव की धारणा की पुष्टि नहीं करता: प्रेमचंद एक दिन प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हैं और दूसरे दिन आर्यसमाज की सभा की अध्यक्षता करते हैं। दूसरी बात यह है कि अगर लोकतंत्र में सभी मंच इस तरह विचारों की दृष्टि से एकतान हो गए तो जिस वैचारिक और सांस्कृतिक बहुलता को हम अपने लोकतंत्र का असली आधार मानते हैं, वह समाप्त हो जाएगी। कोई सचमुच क्रांतिकारी विचार इतना छुई-मुई और आत्मविश्वासहीन नहीं हो सकता कि अपने से भिन्न या विरोधी विचार के साथ मंच साझा करने से आहत हो जाए। अगर हर मंच पर एक जैसे ही विचार वाले होंगे और वही-वही विचार परोसेंगे तो ऐसी एकरसता से आप्लावित होने जाएगा कौन? हर विचार में अपने से अलग और विरोधी विचार का सामना करने और उनसे निपटने का हौसला होना चाहिए। संकीर्ण और आत्मकेंद्रित होकर अच्छा से अच्छा विचार नष्ट हो सकता है।

     ‘हंस’ का अकेला पड़ गया आयोजन दरअसल एक खुला मंच था, जहां विभिन्न विचारों और दृष्टियों को ससम्मान जगह दी गई थी। उससे अपने को अलग कर और दूसरे कवि पर अतर्कित और अपुष्ट आरोप लगा कर एक क्रांतिकारी कवि ने जो संकीर्णता दिखाई है, वह उनकी छवि को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी। सबको पता है कि गुजरात के दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिल्ली में लेखकों-कलाकारों और अन्य बुद्धिजीवियों को एक मंच पर लाने में अशोक वाजपेयी ने पहल की थी, वरवरा राव ने इस वरिष्ठ हिंदी कवि में ‘कारपोरेट सेक्टर’ का संबंध खोजने की कोशिश की है। दरअसल, साहित्य में ओछी राजनीति पहले से व्याप्त है। युवा लेखकों का एक गुट वरिष्ठ और उदार प्रकृति के लेखकों पर कीचड़ भी उछालता आया है। लेकिन वरवरा राव जैसे गंभीर और प्रतिबद्ध कवि के नाम से दूसरे स्थापित कवि के खिलाफ आया कारपोरेट संबंधों का आरोप संदेह पैदा करता है कि कहीं वरवरा राव को साहित्य की राजनीति का मोहरा तो नहीं बनाया गया है। अरुंधती राय को भी एक कवि ने ‘हंस’ के मंच पर शिरकत करने से आगाह किया, ऐसी जानकारी सामने आई है। लेकिन इस सब में दोष अंतत: उकसाने वालों में नहीं, उनके बहकावे में आकर संवाद की संभावनाओं को दुश्कर बनाने वालों में ही देखा जाएगा। उन्हें ही सोचना होगा कि जहां धर्मनिरपेक्ष और प्रगति-केंद्रित तबका विचार की दुनिया में पहले ही सीमित है, वैचारिक दुराग्रह और भ्रांतियां क्या उस घेरे को और संकुचित और गैर-लोकतांत्रिक नहीं बनाएंगी?

जनसत्ता 2 अगस्त, 2013 से साभार 

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