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पारदर्शी था किरणों का तल तक पहुँचना - रीता राम की कवितायेँ
वादियाँ एक निमंत्रण
पहाड़ों से घिरी झील
प्रकृति का निमंत्रण
बसा शहर चारो ओर
कुछ राह तकते पेड़ पौधे
तैरते जुगनुओं सा पानी
युवा जोड़ों को ले तैरती बोट
![reeta ram poetry poetess shabdankan रीता राम की कवितायेँ शब्दांकन](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpDJGjfzFpa658h6EA0Oc0jhui3_JNZq2CEDRNsBkTyfkzjMo3JbS0i3CGND750NIjq13R4uDkx3bF6KPMFbHcy6WF8apSQzu4uDeHb1wouW_efCzARUBaax3xVMbbf0IgTX5e31HlWycS/s200-rw/reeta-ram-poetry-shabdankan-desert-valley-johnathan-harris.jpg)
स्याह बादलों से लिपटती
नीलगिरी की पत्तियाँ
बतियाती कोपलें
पहाड़ों से आते जाते रास्ते
कभी भटकाते कभी दिखाते राह
हरियाली पिरोती
भरी भरी सी नमी
भीतर तक समाती सुखद हवा
जैसे पूरी वादी का सोंधा कोमलपन
बतिया रहा हो हमसे
घाटियाँ उतर-उतर जा रही हो भीतर
एक ठंडी मस्ती खुश्क हलक में
बिखेरती ज़ुल्फों में अल्हड़ता
बयार लिपटती बारंबार
करती गुफ्तगू सरसराते हुये
राग घोलती स्पर्श में
लिपट कर चूमती होठों को
दिल पिघलता हैं भीतर
प्यार की आगोश में
धड़कती हैं वादियाँ
पहाड़ों के पहाड़ों में कही गहरे
झील के संग
तृप्ति की चाहत समेटे
घनीभूत वाष्पकणों के इंतजार में ।
निशब्द वार्तालाप
भेजी थीं नजरें तुमनेकरती रही आत्मसात
हरियाली में लहराते शब्द थे
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बोलती थीं वीरानी दूर से
सोखा था निगाहों ने मेरी
अनछूये एहसास का कोरापन
तुम्हारी धड़कनें देख रही थी
गहरायी मेरे अंतर्मन की
पारदर्शी था किरणों का तल तक पहुँचना
लपेटती रहीं तुम्हारी रोशनी
मेरे ओंस से स्पंदन को
तुम्हारी तर्जनी का मेरी अनामिका को सहलाता स्पर्श
निशब्द वार्तालाप के प्रमाण
आगोश में ले रहे थे
स्नेह की पनपती प्रकृति को ।
बिना मुंडेर की छत
छू गयी बूंदें बारिश की![reeta ram poetry poetess shabdankan रीता राम की कवितायेँ शब्दांकन](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijUG6kh68waLOmqQImVr4aTn-u7VDHpAq-J8wNWRAMzBTnzZY4Z174QTTp7OWBx63SUb5-DbcUCtkYCWa9h3ErKRIq1g52PFwXjxCyvNwhcfToWaLMshCHOR5QkXmr9OAcZaegJt9AJYRg/s200-rw/reeta-ram-poetry-shabdankan-woman-experiences-the-Rain-Room-art-installation-in-The-Curve-at-the-Barbican-Center-in-London-England-The-Rain-Room-is-a-100-square-meter-field-of-falling-water.jpg)
होठों को धीरे धीरे नीला करती हुई
सिकुड़ती गयी पोरों की त्वचा
मैं थीं सुन्न, अल्हड़ मन सराबोर
छ्ह मंजिल इमारत के टाँकी की छत पर
हाथ फैलाये मूसलाधार बारिश में
गिरफ्त में थीं बादलों के
वो अपनी ताल को जोड़ता
मिलन के लिये जैसे बरस पड़ा
और मैंने पाया गुनगुनाते खुद को
बिना मुंडेर की छत के किनारे में बैठ भीगते हुये
हवा मे पैर हिलाने की इच्छा
सिमट गयी हल्की हरी काई में फिसलन सहेजते
मूसलाधार क्षितिज को निहारती यादें
ख़्वाहिश बन आयी थीं समेटने
और बिखरा गयी बरसने मूसलाधार।
रीता राम
शिक्षा : एम. ए. , एम.फिल. ( हिन्दी ), मुंबई विश्वविद्यालय
रचनाएँ : “ तृष्णा ” प्रथम कविता संग्रह एवं पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित
पता : 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई- 74
संपर्क : reeta.r.ram@gmail.com
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