एशिया अभी भी घोर पुरुषतांत्रिक व धर्मांध है - तसलीमा नसरीन | Taslima Nasreen

धर्म और नारी स्वाधीनता का साथ एक मूर्खतापूर्ण कल्पना है

तसलीमा नसरीन का नाम आज भारतीय उपमहाद्वीप में ही नहीं पूरी दुनिया में स्त्री-मुक्ति और व्यक्ति-स्वातय का प्रतीक बन चुका है। हंस के पाठक इस स्तंभ में अरसे से उनके लेख पढ़ते आ रहे हैं। इस बार तसलीमा नसरीन स्वयं पाठकों से रूबरू हैं। उनसे यह लंबी बातचीत उनके लेखों की अनुवादक और कवयित्री अमृता बेरा ने की।


धर्म और नारी स्वाधीनता का साथ एक मूर्खतापूर्ण कल्पना है


अमृता: तसलीमा जी, पहले बंग्लादेश में शाहबाग आंदोलन और हाल ही में जमात-ए-इस्लामी पार्टी को प्रतिबंधित करने का बंग्लादेश के उच्च न्यायालय का फ़ैसला। क्या आपको लगता है कि वहाँ के लोगों की सोच में एक बड़ा परिवर्तन आया है जिससे राजनैतिक परिदृश्य में बदलाव आ रहा है- और क्या इस बदलाव से आपको अपने वतन लौट पाने की कोई उम्मीद नज़र आती है?

तसलीमा: हाँ, जनमानसिकता में परिवर्तन साहसिक है। और ख़ासकर उच्च न्यायालय का फ़ैसला बहुत ही बढ़िया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस फ़ैसले से, बंग्लादेश जैसा मज़हबी देश चुटकी बजाते ही एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में परिवर्तित हो जाएगा। पिछले तीन दशकों से जो मुल्क में इस्लामीकरण का सिलसिला चल रहा है, वो एक फ़ैसले से पीछे नहीं हट जाएगा। इस्लाम को लाना बहुत आसान है, पर उसे दूर करना आसान नहीं। यह बहुत कुछ दुष्ट वाईरस के जैसा है, एकबार आ जाए तो जड़ जमा कर बैठ जाता है। जमात-ए-इस्लामी से बहुत से धर्मनिरपेक्ष लोग बेहद रूष्ट हैं। वजह - शरीयत क़ानून लाकर ये देश का सत्यानाश करेंगे, औरतों की पत्थर मार-मार कर हत्या करेंगे, आज़ादख़्याल लोगों का अल्लाह के नाम पर क़त्ल करेंगे। मौजूदा सरकार को भी डर है कि प्रधान विरोधी दल इस पार्टी से हाथ मिलाकर सत्ता में आ सकता है,
क्यूँकि ऐसा हादसा पहले भी कई बार हो चुका है, इसलिए जब इस पार्टी को बैन करने का दावा ख़ुद आवाम ने ही किया है, और आवाज़ उठाने वाले भी वे हैं, जिन्होंने आवामी लीग को वोट देकर जितवाया है, तो ऐसे में इस प्रतिबंध से वे लोग भी शांत हो गए और विरोधी दल भी अभी के लिए निष्क्रिय हो गया है। अब चुनाव में जीतने के लिए बीएनपी(बंग्लादेश नैशनल पार्टी) को आवामी लीग के ख़िलाफ़ मशक्कत से लड़ाई लड़नी पड़ेगी। जमाती को बगल में दबाकर, डंके के ज़ोर पर जीतने का ख़्वाब अब आसान नहीं रह जाएगा। वैसे मुल्क की न्याय व्यवस्था स्वतंत्र होने के बावजूद जमात-ए-इस्लामी को निषिद्ध किया जाना संभवतः काफ़ी कुछ राजनीति से प्रभावित है।

     इस सब के बावजूद एक धर्म आक्रांत देश में धर्म आधारित राजनीति निषिद्ध हुई है, इस से बड़ी ख़ुशख़बरी और कुछ नहीं हो सकती। इसके बाद मौलवाद को लोग कितना प्रश्रय देंगे, समाज पर इसका कितना प्रभाव पड़ेगा, यह सब देश के लोगों के पर निर्भर करता है।

सबों ने मेरी वापसी के सवाल पर 

मुल्क के दरवाज़े पर ताला लगाकर रखा है
     जहाँ तक मेरा अपने वतन लौट पाने का सवाल है, आज बीस वर्षों से मैं निर्वासित जीवन जी रही हूँ। आवामी लीग को लोग सेक्युलर या धर्मनिरपेक्ष दल मानते हैं। यही आवामी लीग जब सत्ता में आई तो बहुतों ने सोचा कि मैं अपने देश लौट पाऊँगी, लेकिन आवामी लीग ने भी बीएनपी के जैसा ही आचरण किया। दरअसल मैंने ग़ौर किया है कि मेरे समय में सारे सियासी दल एक ही भूमिका का पालन करते हैं। सबों ने मेरी वापसी के सवाल पर मुल्क के दरवाज़े पर ताला लगाकर रखा है। वैसे एक-दूसरे के बाल नोंचते रहने के बावजूद मुझे लेकर ये आपस में हाथ मिला लेते हैं। मुझे अपने ही देश में न जाने देने की वजह किसी भी सरकार ने मुझे नहीं बताई है।

     मेरे देश में जाने से सरकार को मौलवादियों द्वारा दोषी ठहराए जाने या कुछ वोट ख़राब हो जाने की संभावना है। मेरी समझ में इसीलिए न्याय के पक्ष में खड़े होने का ख़तरा कोई भी मोल नहीं लेना चाहता है, या फिर सत्य के पक्ष में राजनीतिज्ञ ज़्यादा खड़े नहीं होते हैं। क्योंकि मेरे पक्ष में बोलने से किसी की राजनैतिक स्वार्थसिद्धि नहीं होगी, क्योंकि मुझे देश से भगाने पर लोगों ने ज़्यादा प्रतिवाद नहीं किया, क्योंकि सालों-साल मुझे देश में नहीं जाने देने पर भी सब चुपचाप हैं, क्योंकि मेरा समर्थन करने वाला कोई दल या संगठन नहीं है, इसीलिए कोई भी सरकार, मेरे लिए दरवाज़ा खोलने की ज़रुरत महसूस नहीं करती है।

सच कहूँ तो मैंने उम्मीद छोड़ दी है।



अमृता: वर्ष 2007 में आपको कलकत्ता छोड़ना पड़ा। बहुत कोशिशों के बावजूद आपके लिए कलकत्ता वापस जाना संभव नहीं हो पाया। अब वहाँ नई सरकार है, जो कि परिवर्तन लाने की बात कह रही है। क्या आपको लगता है कि वर्तमान परिस्थिति में आप कलकत्ता वापस जा पाएँगी? आपने क्या नई सरकार को इस विषय में कोई आवेदन दिया है?

तसलीमा: कलकत्ता वापस जाने के लिए बहुत कोशिशें की। नई सरकार को आवेदन भी भेजा। पर वह राज़ी नहीं हैं। सीपीएम के साथ हरेक विषय पर द्विमत होने के बावजूद, तृणमूल सरकार बस एक मेरे मामले में ही उनसे एकमत है। इस मुद्दे पर दोनों का गणित एकदम एक जैसा है। अब मैंने भी सबकुछ हालात पर छोड़ दिया है। सच कहूँ तो, बंग्लादेश और पश्चिम बंगाल में मैं कोई फ़र्क़ नहीं देखती हूँ। दोनों ही क्षेत्रों से एक लेखक को अन्यायपूर्ण ढंग से निकाला गया है। और बस यही नहीं, उसको वापस न आने देने का इन्तज़ाम भी पक्का करके रखा गया है। बहुत शर्म आती है उन पर।



अमृता: एशिया से बाहर आपके समर्थन में इतने बुद्धिजीवी, साहित्यकार, सामाजिककर्मी व आम लोग आगे आए हैं, पर एशियाई महाद्वीप में अभी तक संगठित रूप से कोई भी आवाज़ आपके पक्ष में बुलंदी के साथ उभर कर नहीं आई, ऐसा क्यों?


एशिया अभी भी घोर पुरुषतांत्रिक व धर्मांध है

तसलीमा: मैं जो बातें कहती हूँ। उनको मानने के लिए अभी तक एशिया तैयार नहीं है। एशिया अभी भी घोर पुरुषतांत्रिक व धर्मांध है। वैसे राष्ट्र व कुछ प्रभावशाली संगठनों द्वारा स्वीकृति न मिलने पर भी साधारण पाठकों से बहुत-सा प्यार मिला है, मुझे। जो मुझसे प्यार करते हैं, मेरा समर्थन करते हैं शायद वे संगठित नहीं हैं। इसीलिए कोई बड़ी आवाज़ नहीं उठ पाई मेरे पक्ष में, पर मैं असंतुष्ट नहीं हूँ। क्या नहीं मिला इसका दुख करने के बजाय क्या कुछ मिला है यह सोचकर ख़ुश रहने पर ही मैं विश्वास करती हूँ।



अमृता: अब तक आपने जो किया है उससे इतर वर्तमान समय में मलाला, अमीना वदूद, वीना शाह एवं और भी बहुत हैं जो धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़, ख़ासतौर से मुसलमान औरतों के पक्ष में, अपने-अपने तरीक़े से आवाज़ उठा रहे हैं। आज से एक-दो दशक बाद के समय में रखकर देखें तो इस परिदृश्य में आपको प्रगति की क्या संभावना लगती है? आपका संघर्ष कट्टरपंथ के शिकार लोगों के जीवन में कितना बदलाव ला चुका होगा?

तसलीमा: आज से दस या बीस सालों में बहुत परिवर्तन देख पाऊँगी, ऐसा मुझे नहीं लगता है। मुस्लिम देशों में अभी भी इस्लामी मौलवादि गुट बहुत ही ताक़तवर हैं। व्यक्तिगत रूप से कुछ लोग प्रतिवाद तो कर रहे हैं, पर इतना काफ़ी नहीं है। जबतक राष्ट्रशक्ति व राजनैतिक दल, मानवाधिकार संगठन, नारी संघ आदि संगठन एकजुट होकर मुसलमान औरतों के समानाधिकार की व्यवस्था नहीं करते, तबतक असली तरक़्क़ी हो ही नहीं सकती। सचमुच की प्रगति के लिए राष्ट्र से, समाज से, शिक्षा से, क़ानून से धर्म को दूर करना होगा। धर्म भी रहेगा, नारी स्वाधीनता भी रहेगी - यह मूर्खों का कल्पनाविलास है। धर्म औरतों की आज़ादी व अधिकारों के ख़िलाफ़ है; उसके द्वारा धार्मिक ऊँच-नीच और मज़हबी क़ानूनों को सर के ऊपर अक्षत अवस्था में रखे रहने से, औरतों के लिए समानाधिकार कतई संभव नहीं। मैं यहाँ सभी धर्मों के बारे में ही बोल रही हूँ और सभी नारी-विद्वेषी धर्मों की तरह, इस्लाम भी एक नारी-विद्वेषी मज़हब ही है। बस इस्लाम ही ख़राब है, और सभी धर्म अच्छे हैं, मेरी ऐसी विचित्र धारणा नहीं है। इतने समय से चली आ रही पुरूषतांत्रिक समाजव्यवस्था के कारण जिस तरीक़े का भयानक नारी-विद्वेष समाज के रंध्र-रंध्र में फैल चुका है उसे दूर करने के लिए सद्बुद्धि वाले लोगों को मिलकर काम करना होगा। दूसरे समाज में बदलाव ले आएँगे उसके बाद हम बैठकर भोग करेंगे, यह सोचकर बैठे रहने से, समाज में बदलाव आने में बहुत देर हो जाती है। हमारी दुनिया, हमारा समय, हमारा समाज, हमारा जीवन - हम सब की ही ज़िम्मेदारी है इनको सुन्दर बनाना। आधी प्रजाति का दमन करेंगे और ख़ुद को श्रेष्ठ प्रजाति का नाम देंगे – इस से ज़्यादा हास्यास्पद और दुखदायक स्थिति और क्या होगी!



अमृता: भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और राजनीति के इस घालमेल की मूल वजह आपको क्या दिखती है?

तसलीमा: धर्म और राजनीति दोनों को मिलाने से धर्म भी नष्ट होता है और राजनीति भी। इन दोनों का अलग रहना बहुत ही ज़रूरी है। जो लोग विज्ञान के बारे में जानने में आलसी हैं, या विज्ञान को जानने की कोशिश करने पर पाते हैं कि विज्ञान को समझना बहुत कठिन है वे ही धर्म का आश्रय लेते हैं, धर्म को मान लेने में आसानी महसूस करते हैं; क्योंकि धर्म हर बात का सरल व चमत्कारी समाधान देता है और धर्म को समझने में ज़्यादा बुद्धि भी नहीं लगानी पड़ती है। गहराई के साथ सोचना भी नहीं पड़ता है और सवाल करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। जो लोग धर्म जैसे अवैज्ञानिक और नारी विद्वेषी एक पिंड के भीतर ख़ुद को पूरी तरह सुखी रखना चाहते हैं वे रहें सुखी, पर देश की राजनीति को इस अवैज्ञानिक और नारी विद्वेषी पिंड के साथ
धर्म और राजनीति दोनों को मिलाने से 
धर्म भी नष्ट होता है और राजनीति भी
भाईचारा क्यों रखना चाहिए? ये दोनों के भाईचारे से लोगों का दिमाग़ ख़राब हो जाता है, परिवार नष्ट हो जाते हैं; समाज ख़राब हो जाता है; देश भ्रष्ट हो जाता है; सबकुछ बिगड़ैलों के दखल में आ जाता है। राजनीति का काम है देश के लोगों की देखभाल करना। राजनीति तंत्र ठीक-ठाक रहने पर लोग सुख और आराम से रहते हैं, अभाव व ग़रीबी दूर होती है, सब के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था रहती है, कामकाज के बेहतर अवसर बनते हैं; दुर्नीति, बद्नीति का प्रकोप कम हो जाता है। राजनीति में धर्म के छीटें पड़ते ही सर्वनाश हो जाता है। इन दोनों को अलग करने की बात पर ही मैंने देखा कि मुझ पर भयानक प्रहार किया जा रहा है। सिर्फ़ मैं ही नहीं और भी बहुत लोग शिकार हुए हैं इस वीभत्स धर्मराजनीति के। धर्मनिर्भर राजनीति हर देश में ही निषिद्ध होनी चाहिए। राष्ट्र और राजनीति से धर्म को अलग नहीं करने पर लोगों का दुर्भाग्य कभी भी ख़त्म नहीं होगा। सच्चे और साहसी लोगों का ख़ून होता रहेगा, उन्हें सड़ना होगा जेलों में, या फिर मेरी तरह निर्वासन में जीवन काटना होगा।



अमृता: भारत ने एडवर्ड स्नोडेन को राजनैतिक आश्रय नहीं दिया, जो कि आपके हिसाब से उचित नहीं था। आपको क्या लगता है कि भारत ने स्नोडेन को राजनीतिक शरण क्यों नहीं दी? या शरण देना क्यों उचित था?

तसलीमा: सबसे पहले मुझे यह कहना है कि अमेरिका को स्नोडेन को इस तरह उत्पीड़ित नहीं करना चाहिए था। क्या ग़लत किया है उसने? अंदरूनी, गुप्त ख़बरों को बता दिया, यही न? मैं बहुत ख़ुश होती अगर स्नोडेन अमेरिका में बैठकर यह काम करता रहता और वहाँ की सरकार उसे किसी तरह परेशान नहीं करती। यूरोप, जो मानवाधिकारों के लिए इतना प्राणपात कर रहा है, विशेषकर पश्चिमी यूरोप, उसे स्नोडेन को राजनैतिक आश्रय क्यों नहीं देना चाहिए? मात्र भारत का प्रश्न ही क्यूँ उठे! भारत तो दे ही सकता है उसे आश्रय। हो सकता है भारत यह सोच रहा है कि इस समय अमेरिका के साथ शत्रुता करना उचित नहीं होगा। भारत की सौ तरह की और समस्याएँ हैं। एक दर्ज़न मुसलमान मौलवादियों के सड़क पर उतरक थोड़ा बहुत चीख़ने-चिल्लाने पर ही भारत को एक आश्रित लेखक को राज्य या देश से निकाल बाहर करने का निर्णय लेना पड़ता है, वहाँ यह किस तरह सोचा जा सकता है कि वह स्नोडेन को राजनैतिक आश्रय देकर, अमेरिका जैसी भयंकर शक्ति के विरुद्ध खड़ा होगा! वैसे सारी दुनिया जब स्नोडेन को आश्रय नहीं दे पा रही थी तब यदि भारत यह कर पाता तो सिर्फ़ मैं क्या दुनिया के करोड़ों लोग भारत पर गर्व कर पाते। जो नहीं हुआ, सो नहीं हुआ। फिलहाल स्नोडेन रशिया में सुरक्षित हैं।

मैं जिस अवस्था का सपना देखती हूँ वह विपदाग्रस्त लेखकों-कलाकारों को अच्छे-अच्छे देशों में राजनैतिक आश्रय देना नहीं है। मैं ख़्वाब देखती हूँ कि किसी भी देश में ऐसे हालात ही न बनें कि वहाँ के किसी लेखक या कलाकार के देश से निर्वासन की नौबत आए, और उसे किसी अन्य मुल्क में जाकर आश्रय माँगना पड़े। सब जगह ही लोगों को राय ज़ाहिर करने का अधिकार रहे। हर प्रांत, हर देश, सर्वत्र दुनिया ही इंसान के लिए सुरक्षित हो।



अमृता: इस साल आपको बेल्जियम रॉयल ऐकेडमी ऑफ़ आर्ट्स, साईन्स एंड लिटेरेचर द्वारा ऐकेडमी अवार्ड मिला। आपको पेरिस से यूनिवर्सल सिटिज़नशिप पासपोर्ट भी मिला है। यह किस तरह का पासपोर्ट है? आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार कौन सा है?

तसलीमा: हाँ, इस साल बेल्जियम की रॉयल ऐकेडमी का अवार्ड मुझे मिला है। पेरिस में मुझे यूनिवर्सल सिटिज़नशिप पासपोर्ट दिया गया, जो कि एक प्रतीक पासपोर्ट है। यह सभ्य लोगों का पासपोर्ट है, भविष्य का पासपोर्ट है। पर इस पासपोर्ट में लिंग, ज़ाति, धर्म, आँखों का रंग, बालों का रंग, शरीर का रंग, देश-इन सब का उल्लेख नहीं है। बस नाम और उम्र ही दर्ज है। इस पासपोर्ट पर किसी वीज़ा की ज़रुरत नहीं है; और इस पासपोर्ट को लेकर दुनिया के किसी भी देश में घूमने जाया जा सकता है। सिर्फ़ भ्रमण ही नहीं, जिस किसी भी देश में, किसी भी प्रांत में अगर आप रहना चाहते हैं तो आप वहाँ रह सकते हैं। इससे रोकने का कोई भी असभ्य नियम-क़ानून आप पर लागू नहीं होगा। यह बहुत कुछ सपने जैसा है। हो सकता है यह सपना किसी दिन सच भी हो जाए। पर आज हमने एक सुंदर सपना तैयार किया है: जो लोग एक सबसे ख़ूबसूरत दुनिया का स्वप्न देखते हैं उन्हें ही यह पासपोर्ट दिया जाता है।

     जीवन में बहुत से पुरस्कार मिले हैं। सबसे बड़ा पुरस्कार है लोगों का प्यार। जब मेरी किताबें पढ़कर दुनिया के अलग-अलग प्रांतों की औरतें मुझे प्यार देती हैं, कहती हैं कि मेरी किताबें उनका साहस और मनोबल बढ़ाती हैं, सिर ऊँचा करके खड़े होना सिखाती हैं, तब बहुत अच्छा लगता है। इससे बड़ा पुरस्कार एक लेखक के लिए और क्या हो सकता है!



अमृता: पिछले दिनों आप कनाडा और आयरलैंड में एथीस्ट ह्युमैनिस्ट कॉन्फ़ेरेंस (नास्तिक-मानवतावादी सम्मेलन) में भाग लेने गईं थी। क्या यह कोई विशिष्ट संगठन है? इस संगठन व इसके द्वारा आयोजित सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य क्या है?

तसलीमा: पूरी दुनिया में ही विज्ञानमनस्क, धर्ममुक्त, तर्क व बुद्धि सम्पन्न, आज़ाद ख़यालात के लोग हैं। ऐसे ही लोगों में से बहुतों ने कुछ संगठन बनाए हैं। इन संगठनों द्वारा बीच-बीच में सेमिनार और कन्वेनशंस का आयोजन किया जाता है, जहाँ मुक्त चिंतन पर विश्वास करने वाले दार्शनिक, वैज्ञानिक, सर्जनाशील चिंतक, लेखक व कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है। जिन सब विचारों-भावनाओं को रक्षणशील समाज नहीं मानता है, ऐसी भावनाओं और सोच को इन सम्मेलनों में लोग निश्चिंत होकर व्यक्त करते हैं। यहाँ आग्रही विज्ञानमनस्क लोग विद्वानों के वक्तव्य सुनने आते हैं। बौद्धिक श्रोताओं और वक्ताओं के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता है। साधारण लोगों को विज्ञान की शिक्षा के लिए उत्साहित करना; भविष्य में ज्ञान और शिक्षा का प्रतिष्ठानों के माध्यम से प्रचार करना; धर्मांधता, कुसंस्कार इन सब का प्रतिवाद करने की प्रेरणा देना, आदि पर चर्चा की जाती है। इतना ही नहीं, मानवाधिकार, औरतों के अधिकार, बच्चों के अधिकार, समलैंगिकों या लिंग परिवर्तन कराने वालों के अधिकारों के पक्ष में हम ऊँचे स्वर में आवाज़ उठाते हैं। लोकतंत्र, मानवतंत्र और विषमताहीन समाज की स्थापना के लिए जो कुछ करना ज़रूरी है सब मिलकर उसकी परिकल्पना करते हैं। मूलतः हमारा सपना एक ऐसी सुंदर दुनिया तैयार करना है, जहाँ धर्म, पुरुषतंत्र और शोषक श्रेणी का अत्याचार न हो।



अमृता: आप लम्बे समय से अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में और प्रतिबंध के विरोध में लड़ती आई हैं। इस साल 31 जुलाई को हंस पत्रिका के सालाना कार्यक्रम में शरीक होने के लिए आप भी आमंत्रित थीं, जिसका विषय ही ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ था। इस कार्यक्रम में आपका जाना संभव क्यूँ नहीं हुआ?

तसलीमा: हैदराबाद में मेरे पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में मौलवादियों द्वारा आक्रमण किए जाने के बाद से मेरा भारतवर्ष के साथ एक अलिखित समझौता है कि जनता की भीड़ वाले किसी भी कार्यक्रम में मैं मंच पर नहीं जाऊँगी। मैं तो बहुत लोगों के बीच रहना चाहती हूँ; लोगों से बातें करना चाहती हूँ; आपस में विचारों का आदान-प्रदान करना चाहती हूँ - पर अभी यह संभव नहीं है। जो लोग मेरी सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं मुझे उनका परामर्श मानना पड़ता है। इसी वजह से मैं हंस के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकी। मैंने सुना कि वहाँ बहुत लोग मुझसे मिलने की आशा लेकर गए थे, पर मैं बहुत दुखी हूँ कि मैं वहाँ न जा सकी। मेरी लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है। हंस के कार्यक्रम में न जा पाने का मतलब यह नहीं है कि मैंने अभिव्यक्ति की आज़ादी या वाक् स्वाधीनता को मूल्य नहीं दिया। जान की सुरक्षा के लिए किसी जगह शारीरिक रूप से उपस्थित न हो पाने का मतलब उस विषय के विरूद्ध जाना नहीं है। मैं अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी की किस तरह से रक्षा कर रही हूँ व दूसरों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के मैं कितना पक्ष में हूँ यह कोई भी मेरी किताबें पढ़कर, मेरे ब्लॉग्स पढ़कर जान सकता है। अपनी ज़िंदगी को दाँव पर लगाकर ही मैं अपना मत प्रकाश कर रही हूँ।

मैं आशा करती हूँ कि
मेरे ज़िंदा रहते हुए वो दिन ज़रूर आएगा
जिस दिन हिंदुस्तान की किसी भी जगह जाने में
मुझे कोई भी बाधा नहीं आएगी।
लोगों की भीड़ में
मैं भी अपने परिचय के साथ चल सकूँगी।
मुझे किसी भी तरह की
सुरक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
लोगों का प्रेम ही मेरी सुरक्षा होगी।
वो दिन ज़रूर आएगा
जब मैं धर्म की जितनी भी समालोचना क्यों न करूँ,
कोई मेरे सिर की क़ीमत की घोषणा नहीं करेगा;
कोई मेरी हत्या करने नहीं आएगा;
कोई मुझ पर फ़तवा नहीं देगा।
मैं भी एक दिन और सब कवियों की तरह कविता पढ़ पाऊँगी,
मैं भी पुस्तक मेले में ऑटोग्राफ़ दे पाऊँगी;
और सारे लेखकों की तरह
मैं भी साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में
अपनी राय ज़ाहिर कर पाऊँगी -
निर्भय होकर, निरापद होकर।



अमृता: हंस में आपका स्तंभ पाठकों के बीच लगातार चर्चा में रहा है। भाषांतर के जरिए पाठकों तक पहुँचने का यह अनुभव कैसा रहा?

तसलीमा: मैं राजेंद्र यादव की कृतज्ञ हूँ। भारत में जब मेरी किताब पर प्रतिबंध लगा उसी दिन से पूरा माहौल ही बदल गया। मेरी किताबें प्रकाशित करने से प्रकाशक डरते हैं, मेरे लेख छापने से सम्पादक डरते हैं; सरकार मेरे विरूद्ध है – इस ख़बर ने मुसलमान कट्टरपंथियों के लिए ऐसा ईंधन जुटाया कि दलों में वे मेरे ख़िलाफ़ फ़तवे जारी करने लगे, सड़कों पर उतरने लगे, देश से मुझे निकालने का दावा करने लगे। अगर पश्चिम बंगाल सरकार ने मेरी किताब निषिद्ध न की होती तो फ़तवा मेरे सिर की क़ीमत वगैरह कुछ भी जारी नहीं होता। सबसे ज़्यादा दुख की बात यह है कि किताब पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव मौलवादियों से नहीं आया था। आया था कलकत्ते के कुछ ईर्ष्यालु लेखक-साहित्यकारों से। सरकार ने लेखकों के कहने पर किताब पर प्रतिबंध लगाया। जब सरकार ने ‘किसी की धार्मिक भावनाएँ आहत होंगी’ ऐसा कहके इस बहाने से किताब को निषिद्ध कर दिया तब उनकी धार्मिक अनुभूति को ख़ुद सरकार ने ही हज़ार गुना उकसा दिया और उस धर्म के कट्टरपंथियों के हाथों में अस्त्र थमा दिया - किताब के लेखक के साथ जो मर्ज़ी वही करने के लिए; उसको परेशान करने के लिए, पीटने के लिए, हत्या करने के लिए। जब सरकार ‘धार्मिक भावनाओं को आघात लगेगा’ के हवाले से किसी लेखक की किताब पर प्रतिबंध लगाती है तब प्रकाशक, पत्रिकाओं के सम्पादक, यहाँ तक कि पाठक भी सरकार और कट्टरपंथियों से भयभीत रहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के लोग अभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत को ठीक तरह से नहीं जानते हैं।

हंस पत्रिका की नीति के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है। राजेंद्र यादव जैसे साहसी व सच्चे लेखकों की समाज में बहुत कमी है।



अमृता: आपकी कोई नई किताब कब तक हिन्दी के पाठकों के समक्ष आने की संभावना है? इस किताब का विषय क्या है?

तसलीमा: मेरी जो किताब बहुत जल्द ही प्रकाशित होने वाली है, उसका नाम ‘निर्वासन’ है। किस तरह मुझे पहले कलकत्ता फिर भारत छोड़ देने के लिए बाध्य होना पड़ा, यह उसकी ही कहानी है। ‘निर्वासन’ मेरी आत्मकथा का सप्तम खंड है। मैंने तो रामायण की तरह अपनी आत्मकथा लिख दी है। पहले खंड का नाम ‘आमार मेयेबैला’ था, जिसे बंग्ला साहित्य का बहुत बड़ा पुरस्कार – ‘आनंद पुरस्कार’ मिला। मेरी आत्मकथा के सारे ही खंड कई सारी भाषाओं में प्रकाशित हुए हैं, जिन्हें लोगों ने व्यापक रूप से पढ़ा है। ये केवल मेरी आत्मकथा ही नहीं है, और भी हज़ारों लड़कियों के जीवन की कहानी है। इस श्रंखला में तीसरा खंड ‘द्विखंडितो’ था, जिस पर प्रतिबंध लगा था। कलकत्ते के एक मानवाधिकार संगठन के कुछ लोगों ने ‘द्विखंडितो’ पर निषेधाज्ञा के विरोध में मामला दायर किया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय को इस किताब में प्रतिबंध लगाने लायक कुछ भी नहीं मिला, इसलिए प्रतिबंध लगने के दो साल बाद इस किताब को मुक्त कर दिया गया। किताबें लोग नहीं शासक निषिद्ध करते हैं। किताब पर प्रतिबंध लगाना बहुत ही घृणित काम है। बंग्लादेश की सरकार ने इस गंदे काम में यथावत उस्तादी हासिल कर ली है। मेरी पाँच किताबें प्रतिबंधित हैं उस देश में। उस देश के लोग भी गंदे हैं - किसी ने भी आज तक प्रतिबंध के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाई।



अमृता: यहाँ दिल्ली में रहकर आपको कैसा लगता है? क्या आपको कभी लगता है, यह भी आपका अपना घर है?
कोई भी जगह, ज़मीन, देश, मकान, मेरा घर नहीं है
तसलीमा: कोई भी जगह, ज़मीन, देश, मकान, मेरा घर नहीं है। मेरा घर हैं लोग, उनका ह्रदय। दुनिया में जहाँ भी जो भी लोग सुंदरता का, सत्य का स्वप्न देखते हैं, जिनसे भी सुहानुभूति, समर्थन, श्रद्धा और प्यार मिलता है वे लोग ही मेरा घर हैं। उन लोगों का मन ही मेरा निरापद स्वदेश है।



अमृता: क्या आप भविष्य में गृहस्थ जीवन अपनाने के बारे में सोचती हैं?

तसलीमा: मेरा जो जीवन है क्या वह अ-गृहस्थ जीवन है? क्या मैं किसी घर में नहीं सोती? दाल-चावल नहीं ख़रीदती, खाना नहीं बनाती, खाती नहीं? सोती हूँ, खाना पकाती हूँ, खाती हूँ। क्या मेरे घर मेहमान, नाते-रिश्तेदार नहीं आते? आते हैं। अतिथि-सत्कार नहीं पाते? पाते हैं। क्या आप पति और संतान के साथ रहने को ही गृहस्थ जीवन कहते हैं? उन सब क्षुद्र संज्ञाओं से मैं बहुत काल से मुक्त हूँ।



अमृता: अबतक आप हिंदी साहित्य से काफ़ी कुछ परिचित हो गई हैं। बंग्ला और हिंदी साहित्य में कैसा फ़र्क़ देखती हैं आप?

तसलीमा: मैं क्योंकि बंगाली हूँ, मेरी भाषा बंगाली है, बचपन से ही बंग्ला साहित्य पढ़ा है - इसलिए बांग्ला साहित्य के बारे में ज्ञान और भाषाओं के साहित्य की तुलना में ज़्यादा है। हिंदी साहित्य पढ़ने के लिए अनुवाद पढ़ना पड़ता है। पढ़ा है, और जितना पढ़ा है, उसे पढ़कर मैं मुग्ध हूँ। हर भाषा में उच्चस्तर, मध्यम और निम्नस्तर - हर स्तर की साहित्यिक रचनाएँ होती हैं। बांग्ला भाषा में साहित्य बहुत लम्बे अर्से से रचा जा रहा है, संभवतः इसलिए बांग्ला में उच्चस्तर के साहित्य का परिमाण ज़्यादा है।



अमृता: तसलीमा नसरीन को एक लेखक, एक ऐकटिविस्ट और एक इंसान के रुप में किस तरह देखती हैं आप?

तसलीमा: एक सच्चे इंसान के रूप में देखती हूँ। एक नि:स्वार्थ, ह्र्दयवान इंसान के रुप में देखती हूँ।
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| "Asia is still a grossly male chauvinistic bigot" Taslima Nasrin |
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बंग्ला से अनुवाद व प्रस्तुति अमृता बेरा , कोलकाता में जन्मी अमृता बेरा, पिछले 25 सालों से दिल्ली में रह रही हैं। वे हिन्दी, बाँग्ला और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं में प्रमुख रुप से अनुवाद करती हैं। वह कई साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं के साथ जुड़ी हुई हैं। संगीत में रूझान होने से वह ग़ज़ल गायन भी करती हैं। 
संपर्क: amrujha@gmail.com

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