राजेन्द्र यादव के आने-जाने पर साहित्यिक समय का निर्बाध दौड़ता चक्र ठिठका : अनुज शर्मा | Anuj Sharma on #RajendraYadav

किसी के जाने से समय रुकता नहीं, साहित्य भी समय सा ही गतिमान, समय सा निष्ठुर कहाँ किसी के आने जाने से विचलित हुआ है, किंतु राजेन्द्र यादव का आना और अपना योगदान दे कर चले जाना, दोनों अवसरों पर साहित्यिक समय का निर्बाध दौड़ता चक्र ठिठका तो है। लगभग साठ वर्ष से अधिक, हिंदी साहित्य के साथ बढ़ते और साहित्य को साथ बढ़ाते राजेन्द्र यादव ने 29 अक्टूबर को 84 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह दिया। वह कम समय तक नहीं रहे और हिंदी साहित्य को तो राजेन्द्र यादव ने जितने लम्बे समय तक सींचा उसे सम्भवतः दोनों के सौभाग्य का बेजोड़ गठबंधन ही कहा जायेगा। सन 1929 को आगरा में जन्मे राजेन्द्र यादव पुराने साहित्य से नयी कहानी तक हिंदी साहित्य के विकास की निरंतर बढ़ती कड़ी थे।

       बेलौस अंदाज़ स्वच्छंद विचारों के धनी राजेन्द्र यादव दरअसल साहित्यकारों और पत्रकारों की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसने समाज के पुरातनपंथी कठमुल्लेपन से दबना नहीं सीखा था। वास्तविकता तो यह है कि उस काल के पत्रकार, सम्पादकों, साहित्यकारों से स्वयं कट्टरवाद भयभीत रहता था; ऐसे समय में भी विवादों को स्वयं तक खीँच कर लाना उनकी विशेष अदा में ही गिना जायेगा। चाहे स्त्री विमर्श पर उनका रुख जान बहस करते लोग हों या धर्मिक प्रतीक पर किये गये प्रहार के कारण गलियाते कट्टरपंथी, राजेन्द्र यादव ने कहाँ किसी की परवाह की। उनके विचार स्वतंत्र थे और बजाते खुद राजेन्द्र यादव मुखर थे। आत्मविश्वास इतना कि उनके साथ बैठे लोगों को समझ न आता कि वास्तव में वे सीख दे रहे हैं या वक्तव्य। लेकिन एक बात निश्चित थी, जो राजेन्द्र यादव जी से मिला, उनके स्नेह का एहसास किये बिना न रह सका। साहित्य का शिक्षक, मानवता का प्रेमी, विचारों को असीमित विचरण के लिए खुला छोड़ आनंदित होता व्यक्तित्व।

       साहित्य की शुरुआत में ही उनके व्यक्तित्व में सामाजिक बंधनों की सीमाएं तोड़ बाहर निकलने का प्रयास करते कहानीकार कि झलक स्पष्ट होती है। चालीस के दशक के अंत में 'जब प्रेत बोलते हैं' लिखा जा रहा था, जो 1951 में प्रकाशित हुआ और बाद में 1959 में राजकमल प्रकाशन से ‘सारा आकाश’ नाम से प्रकाशित हुआ, घरेलू बहुओं की स्थिति दोयम दर्जे के नौकर सरीखी थी, जिस पर हो रहे अत्याचारों का विरोध करने की किसी की मंशा ही न होती थी और उनके पतियों में ऐसा सोचने का भी साहस न था। इस दौर में उपेक्षित स्त्री की भावनाओं को पढ़ते और अपने प्रेम से पीड़ा के उपचार का प्रयास करते पति के रूप में, राजेन्द्र यादव ने असल में सीमाएं तोड़ती धारा की सम्भावनाओं को बंधे किनारों से बाहर लाने का प्रयास किया।

       आरम्भिक दौर में राजेन्द्र यादव यद्यपि असीमित की सम्भावनाओं को सामने लाते कहानीकार के रूप में उभरे किंतु उनके आलोचकों का मुख्य तर्क था कि राजेन्द्र यादव लेखन की सीमाओं को शब्द विन्यास और गठन के पीछे छुपाते रहे। अपने परम मित्र मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ मिल कर उन्होंने नई कहानी आंदोलन चलाया, जिसने हिंदी कहानी को नये आयाम दिए। राजेन्द्र यादव का हिंदी साहित्य को वृहत्तम योगदान मुंशी प्रेमचंद द्वारा सम्पादित ‘हंस’ पत्रिका को पुनर्जीवित करने का रहा। दशकों से उन्होंने स्व्यं लिखना छोड़ा हुआ था और मात्र हंस पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। अनेक नये प्रतिभाशाली लोगों का मार्गदर्शन कर राजेन्द्र यादव ने उन्हें सहित्यकारों की कतार में ला खड़ा किया। किसी की लेखन प्रतिभा का जरा सा आभास यदि हो जाता तो राजेन्द्र यादव उसका मार्गनिर्देशन करने में कसर नहीं छोड़ते थे। हंस पत्रिका में ही उन्होंने युवा लेखन को मंच और स्थान दोनों प्रदान किये। दलित साहित्य के विकास में राजेन्द्र यादव की रूचि और योगदान उनकी बौद्धिक धारा की अनूठी मिसाल कही जायेगी। हंस के सम्पादकीय में जो विविध मुद्दे राजेन्द्र यादव ने उठाये और जिस प्रकार से उठाये, उससे उन्होंने सदा बौद्धिक मानस को उद्द्वेलित किया।

       नारी अभिव्यक्ति, नारी स्व्तंत्रता, नारी विमर्श, राजेन्द्र यादव को सदा विवाद में घेरे रहे, यहाँ तक कि कुछ स्थानों पर आलोचकों ने उन्हें, स्त्रियों कि यौन उत्तेजना को बाजारू अभिव्यक्ति दिलवाने के लिये भी उनकी आलोचना कर डाली; लेकिन राजेन्द्र यादव पर इसका लेशमात्र प्रभाव भी पड़ता नहीं लगा। राजेन्द्र यादव का सेकुलरिज्म भी अपने अलग अंदाज़ में चलता था, लगता नहीं उन्हें कभी किसी धर्म से कोई भय था..... न ही धर्मावलम्बियों से। वो स्व्यं को रोक सकते थे लेकिन जानबूझ कर विवादित बयानबाजी में हनुमान जी को विश्व का पहला आतंकवादी कह देने से वे बचे नहीं। रुसी लेखकों - जैसे इवान तुर्ज्नेव, अन्तोन चेखव, लेर्मोतौफ़ आदि का हिंदी अनुवाद राजेन्द्र यादव का अतिरिक्त योगदान है।

       राजेन्द्र यादव बहु आयामी लेखन और बहु आयामी विवादों से अधिक एक कंट्रीब्यूट्री सम्पादक के रूप में जाने जायें तो यह उनके और साहित्य के लिये श्रेयस्कर होगा। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध मोर्चा खोले जुझारू लेखक, अपने सम्पादकीय में नित नई सार्थक बहस खड़ा करने वाले और अपने मुखर विरोधियों और विचारों को प्रचुरता से हंस में स्थान देने वाले, लोकतान्त्रिक सम्पादक और हिंदी साहित्य को नये नये लेखक प्रदान करने वाले खोजी के रूप में राजेन्द्र यादव का याद रखे जाना निश्चित है। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो यदि प्रेमचंद के हंस को पुनर्जीवित करने के अलावा राजेन्द्र यादव ने साहित्य में और कुछ भी न किया होता तो भी वह साहित्यिक जगत में अमर हो जाते। साहित्य जगत में बिना साहित्यिक सृजन के लम्बे समय तक सक्रिय भूमिका का निर्वहन राजेन्द्र यादव ही कर सकते थे, उनका लेखन, उनका सम्पादन, उनके द्वारा उठाये बहस के विषय, उनके द्वारा नये लेखकों को संवार कर सामने लाना, यहाँ तक कि उनके विवाद भी, जब भी राजेन्द्र यादव को याद किया जायेगा समग्रता में याद किया जायेगा।

अनुज शर्मा, मेरठ में मैनेजमेंट की पुस्तकों के संपादन से जुड़े हैं। नब्बे के दशक से मेरठ के अख़बारों में निरंतर लिखते आ रहे अनुज, ऍम० ए. (अर्थशास्त्र) व पी०जी०डी०एम० हैं। अनुज कहानियां व कवितायें भी लिखते हैं और इनके ब्लॉग का नाम चलते-फिरते (chaltefirte.blogspot.com) है।
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