रवीन्द्र कालिया - दस्त़खत (नवम्बर 2013) | Ravindra Kalia - Dastakhat (Nov 2013)


फेसबुक किसी महानगर के उपनगर की तरह हैं। इसमें अट्टालिकाएँ हैं, मॉल, बार और मैट्रो के अलावा हर माडल की गाडिय़ाँ, टैक्सियाँ, मोटर साइकल, स्कूटर, ऑटो, रिक्शा, साइकिल भी दौड़ते हैं। इसी के समानान्तर झुग्गी-झोंपडिय़ाँ हैं, ..... हैं, जी.बी रोड्स हैं, हाईवे हैं। गर्ज़ यह है कि एक ख़ुशहाल और रंगारंग बस्ती है। लाखों-हज़ारों लोग यहाँ टहलने आते हैं। राहुल गाँधी के दीवाने हैं तो मोदी के झंडाबरदार भी। ख़ूब नोकझोंक चलती हैं। फेसबुक की लोकप्रियता देखते हुए कुछ दलों ने अपने कार्यालय भी खोल लिए हैं। आई टी क्षेत्र में नौकरियों का एक और चैनल खुल गया है। ज्यों ज्यों चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, प्रचार से दीवारें रँगी जा रही हैं। फेंडलिस्ट के कालम हरे भरे नज़र आते हैं।
लोगों के जीवन में साहित्य की उपस्थिति गायब होती जा रही है, मगर एफ.बी पर उसी अनुपात में बढ़ रही है। यहाँ हर शराबी देवदास है और हर कवि कालिदास। फेसबुक के अपने प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, मुक्तिबोध, परसाई और काका हाथरसी हैं। क़दम-क़दम  पर शायर हैं, कुछ लोगों ने तो गद्य का बहिष्कार कर दिया है, वह जो कुछ भी कहेंगे, तुकबन्दी में ही कहेंगे। किसी ने कृष्ण का अवतार ले लिया है, किसी ने बुद्ध का। एक ज़माना था जब लोग दूसरों के प्रेम में पड़ कर बर्बाद या आबाद हो जाते थे, फेसबुक पर लोग अपने ही प्यार में पड़ जाते हैं। समाज उन्हें बर्बाद होते देखता रहता है। जितनी बार उन्हें प्यार का दौरा पड़ता है, वे  अपनी तस्वीर बदल देते हैं। कुछ दिन टकटकी लगा कर ख़ुद ही देखते रहते हैं। ज़ाहिर है, वह छवि कुछ ही घंटों में उन्हें उबाने लगती है। सहसा वह जवानी में लौट जाते हैं, जवान हैं तो बचपन में पनाह लेते हैं। इस सादगी पर कौन न मर जाय ऐ खुदा। लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। कुछ लोग इस प्रतीक्षा में बैठे रहे कि लिखते लिखते कितने सावन बीत गये कि कोई इंटरव्यू लेने आएगा, जब उनके ज़ेहन में दिन-रात फैज़ की पंक्तियाँ गूँजने लगी, अब यहाँ कोई नहीं आएगा। एक सुहानी सुबह उन्होंने ख़ुद ही अपना इंटरव्यू कर लिया और देखते-देखते यह विधा एफबी में भी अवतरित हो गयी। इस विधा का सूत्रपात हिन्दी के वरिष्ठ लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क ने किया था, जिनकी जन्मशती मनायी जा रही है। वह 1910 में पैदा हुए थे। वास्तव में 1910 में हिन्दी साहित्य की बहुत सी विभूतियों ने जन्म लिया था, कि 2010 में विभूतियों को भी जन्मशती की कतार में लगना पड़ा। सन् 13 के अन्त में अब अश्कजी के दिन बहुरे हैं। वह बेचारे भी क्या करते, कतार आगे बढ़ती ही नहीं थी। फेसबुक में एक आराम है कि यहाँ कतार में नहीं लगना पड़ता। किसी भी दरवाज़े से घुस जाइए और पसर कर बैठ जाइए। फेसबुक से गुज़रते जाइए और अपने जितने भी मित्र हैं, उनके स्टेटस को लाइक करते जाइए, चाहे वह अपनी पत्नी का या प्रेयसी के निधन का दुखद समाचार ही क्यों न दे रहा हो।
शराब, सिगरेट, तम्बाकू, ड्रग की तरह कुछ लोगों को एफबी की लत लग चुकी है। यह ऐसी लत है कि छुड़ाये नहीं छूटती। कुछ एफ.बी प्रेमी छुट्टियों से नफ़रत करने लगे हैं, वे इस इन्तज़ार में छुट्टी बिता देते हैं कि ‘कब ठहरेगा दर्द-ऐ-दिल, कब रात बसर होगी/सुनते थे वो आएँगे, सुनते वे, सहर होगी। अगले रोज़ वे लगभग भागते हुए दफ़्तर पहुँच जाते हैं और अपना एकाउंट खोलकर बैठ जाते हैं। अब दफ़्तरों में तभी तक काम होता है, जब तक नेटवर्क रहता है। ब़गैर नेटवर्क के सब काम रुक जाते हैं। कम्प्युटर ठप्प हो जाते हैं। एफ.बी और सोशल नेटवर्क की दीवानों के भीतर कोलाहल मच जाता है।
एक ज़माना था कि पत्नी के हाथ पति का कोई पुराना प्रेमपत्र लग जाता था तो हँगामा बरपा हो जाता था, तलाक की नौबत आ जाती थी, बाद के दिनों में एस.एम.एस. पति-पत्नी के बीच उत्पात मचाते थे, अब आप का गुप्त ख़जाना कम्प्यूटर में दबा है। इस से़फ की चाबी आपके पास है। शायद यही कारण है कि पत्नियाँ पति के पासवर्ड जानने को व्याकुल रहती हैं और पति पत्नियों के। अब जि़न्दगी आसन्न ख़तरों के बीच गुज़र रही है। कोई नहीं जानता, कौन किस का फ़ोन रिकार्ड कर रहा है। कौन किस का कब वीडियो बना लेगा, कोई ठिकाना नहीं। नज़दीक जाते हुए रूह काँपती है, जाने कब किसकी नीयत ख़राब हो जाय और यू-ट्यूब पर आप बेनकाब हो जाएँ। साइबर क्राइम का दौरा दौरा है। इंटरनेट की दुनिया में आप शाहज़ादों की तरह प्रवेश कर सकते हैं, कोई आप से आप की शिना़ख्त नहीं पूछेगा, पैन कार्ड चाहिए न आधार कार्ड। प्रवेश कीजिए और अपने काम में जुट जाइए। चरित्र निर्माण कीजिए या चरित्र हनन। चापलूसी कीजिए या दुलत्ती मारिए। पुराने हिसाब-किताब निपटाइए। कोई पूछने वाला नहीं कि आप हैं भी या हैं ही नहीं। आप एक फूल के रूप में मौजूद हैं या हरी मिर्च के रूप में, तुम चौदहवीं का चाँद हो या आ़फताब हो, जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाजवाब हो।

और अन्त में— 48वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गये तेलुगु के वरिष्ठ कथाकर डॉ. रावूरि भरद्वाज का 18 अक्टूबर, 2013 को हैदराबाद में निधन हो गया। ज्ञानपीठ परिवार की ओर से उनको विनम्र श्रद्धांजली!


सम्पादकीय नया ज्ञानोदय, नवम्बर 2013

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1 टिप्पणियाँ

  1. भरत जी इस आपाधापी भरे जीवन में जहाँ घर को चलाने कि ज़द्दोज़हद में दिन कहाँ निकल जाता हैं पता नहीं चलता ,पेट्रोल के बढे हुए दाम बार बार यात्रा करने से रोकते हैं ,राशन के सब्ज़ियों के बढे दाम मित्रों कि दावतों और महफ़िलो को ही खाने लगे हैं ,बच्चों के वीकली टेस्ट मनोरंजन के अन्य साधनो का प्रयोग करने नहीं देते वहॉ फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स हैं जो थोड़ी देर के लिए दोस्तों कि महफ़िल में ले आती हैं सब के मन कि बात सुनने और अपने मन कि कहने का अवसर मिलता हैं न पेट्रोल का खर्चा हैं न चाय नाश्ते के दौर हैं न समय कि कोई पाबन्दी हैं ,न जगह कि समस्या न दूरी ही मायने रखती हैं दुनियाँ के इस शोरगुल में यदि कुछ पल सुकून के मिले तो बुरा क्या हैं हाँ रवीन्द्रजी कि एक बात से सहमत हूँ कि लत चाहे किसी भी चीज़ कि हो बुरी हैं
    लेकिन थोड़ी देर बंद मकान कि खिड़की खोलकर मित्रों के अभिवादन करने उनके हॅसी ठहाको में सुख दुःख में शामिल होने में कोई बुराई नहीं

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