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राजेन्द्र यादव ने मुझे अपनी बात कहने की पूरी आज़ादी दी – तसलीमा नसरीन | Rajendra Yadav gave me complete freedom - Taslima Nasreen #RajendraYadav

राजेन्द्र यादव ने मुझे अपनी बात कहने की पूरी आज़ादी दी 


राजेन्द्र यादव नहीं रहे, सोचकर हैरानी होती है कि वे अब नहीं हैं। दो-चार दिनों पहले तक वो इंसान हमारे बीच था। बस कुछ ही दिनों पहले वह मेरे घर पर, चन्द दोस्तों के साथ अड्डा जमाकर गए थे। एक महरून रंग का कुर्ता और पतली- सी सफ़ेद धोती पहनकर आए थे। उम्र बढ़ने पर लोग अक्सर रंगीन कपड़े पहनना छोड़ देते हैं, पर राजेन्द्र जी ने ऐसे संस्कार कभी नहीं माने। वह हमेशा चटक हरे, लाल, नीले या बैंगनी रंग के कपड़े पहनते थे। उस दिन मेरे घर पर आकर उन्होंने शराब पी, खाना खाया, सबों के साथ गप्पें लड़ाईं। बहुत लोग कहते थे कि वह काफ़ी बीमार चल रहे थे पर मैंने कभी उन्हें बीमार नहीं देखा। उन्हें डायबिटिस यानी मधुमेह थी, हज़ारों लोगों को है पर उनकी शुगर अनियन्त्रित नहीं थी। जैसे आमतौर पर लोग शराब या खाना देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, वह इस तरह कभी नहीं खाते-पीते थे, उनमें असाधारण संयम था। जहाँ भी रहें, कहीं बाहर या घर पर, कितना पीना है, कितना खाना है, कब इन्सुलिन लेना है, सिगरेट के कितने कश लगाने हैं, कब सोना है – सब बिल्कुल घड़ी के काँटें से करते थे। ज़रा भी इधर-उधर नहीं होता था। देखकर बड़ी हैरानी होती थी, इतना नियम मान कर चलना, बहुत कम लोगों से ही हो पाता है। एक सिगरेट के दो टुकड़े करने के बाद ही वह आधा टुकड़ा पीते थे। कई बार उनको पूरी सिगरेट पीने के लिए कहा, कहा कि ऐसा कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, पर उन्होंने उस आधे टुकड़े से ज़्यादा कभी नहीं पी। उनके फेफड़ों को लेकर सब जितनी दुश्चिंता करते थे, क्या उनके फेफड़े सचमुच उतने ज़्यादा ख़राब हो चुके थे? उनसे जब भी पूछती थी कि तबियत कैसी है, वह कहते ‘बहुत बढ़िया’। तबियत ख़राब है या फ़लाँ रोग से परेशान हैं, ऐसी बातें वह कभी भी अपने मुँह पर नहीं लाते थे। एकबार उनके मयूर विहार के घर पर, उन्हें देखने गई थी। पता चला हर्निया हुआ है, लेटे हुए हैं। लेटे-लेटे ही वह बातें करते रहे, सुनाते रहे ज़िंदगी के क़िस्से। बीमारी को लेकर हाय-हाय करना, अवसाद में घिरे रहना, यह सब राजेन्द्र जी में बिल्कुल नहीं था। हमेशा हँसते रहते थे। ज़िंदा रहने में उन्होंने कभी कोताई नहीं की। उनकी चौरासी साल की उम्र थी, अभी और भी ज़िंदा रह सकते थे, पर मैसिव हार्ट अटैक होने पर, और क्या किया जा सकता है! कोई भी चला जाता है, आजकल तीस-बत्तीस साल के जवान लोगों को भी हार्ट अटैक हो रहा है। सबसे अच्छी बात जो हुई, वह यह कि राजेन्द्र जी को ज़्यादा भुगतना नहीं पड़ा, दिनों-दिन, सालों-साल बिस्तर पर पड़े-पड़े कराहना नहीं पड़ा। शुक्र है, वैसा दु:सह जीवन राजेन्द्र जी को नहीं मिला।

       जिस रात उनका देहांत हुआ, उस रात साढ़े तीन बजे, मैं उनके घर पहुँची, मैंने देखा कि बाहर ड्राईंग रूम में जहाँ सोफ़ा रखा रहता था, वहाँ एक अद्भुत से इस्पात के डिब्बे में वह लेटे हुए हैं। उनकी बेटी रचना पास की कुर्सी पर बैठी रो रही थी। मैं बड़ी देर स्तब्ध खड़ी उनकी निस्पंद देह को देखती रही। राजेन्द्र जी को कभी सोते हुए नहीं देखा था। लग रहा था कि वह सो रहे हैं, फिर लगा कि जैसे उनकी साँस चल रही हो। लगातार बहुत देर तक देखती रही, अगर ज़रा भी उनके साँस लेने का आभास मिल जाए तो! इतनी यथार्थवादी इंसान होने के बावजूद भी मैं, आज भी मौत को मान नहीं पाती हूँ। मेरी माँ मेरे सामने गुज़रीं थीं। मेरे पिताजी की मृत्यु के समय मैं वहाँ नहीं थी। मेरी देश की सरकार ने, मेरे पिताजी के आख़री समय में, उन्हें एकबार देखने के लिए भी मुझे नहीं जाने दिया। राजेन्द्र जी जिस तरह लेटे हुए थे, हो सकता है उस समय मेरे पिताजी भी वैसे ही लेटे हुए हों। मुझे देखकर लगता कि शायद वह सो रहे हैं, जिस तरह राजेन्द्र जी को देखकर लग रहा था, जैसे अचानक शोर-शराबे से वह जाग जायेंगे।

       मेरे पिताजी नहीं जगे, राजेन्द्र जी भी नहीं जगे। हमलोग जो ज़िंदा हैं, जो अभी राजेन्द्र जी के लिए शोकग्रस्त हैं, एकदिन, इसी तरह हम सब भी मर जाएंगे। पर हम में से कितने लोग जी पाएंगे राजेन्द्र जी जैसा विविध जीवन।

       वह हमेशा अपने घर पर बौद्धिक लोगों की महफ़िल जमाते थे। उस महफ़िल में हर उम्र की महिला व पुरूष होते। वह प्रतिभावान नौजवान व नवयुवतियों के साथ बहुत सा समय गुज़ारते थे, जिनके साथ वह मतों का आदान-प्रदान करते, उन्हें लिखने का उत्साह देते थे। वह औरतों के जीवन के अनुभवों को, उनके प्रतिवादों को, उनके नज़रिये और उनकी भाषा को ज़्यादा महत्व देते थे। वह अंधेरों को टटोलकर हीरों के छोटे-छोटे टुकड़े बीन लाते थे।

       बंगाल से खदेड़ दिए जाने के बाद, जबसे मैंने स्थायी तौर पर दिल्ली में रहना शुरू किया, जब बंग्ला पत्र-पत्रिकाओं ने डर के मारे अपने आपको सिमटाकर संकुचित कर रखा था, सिवा मेरे सबको छ्पने का अधिकार था, यहाँ तक कि जनसत्ता ने भी जब मेरे लेखों को बहुत पैना कहकर खारिज कर दिया, तब राजेन्द्र जी ने मुझे उनकी ‘हंस’ पत्रिका के लिए नियमित रूप से लिखने के लिए कहा। उन्होंने मुझे दूसरे सम्पादकों की तरह कभी नहीं कहा कि धर्म की निंदा करना, सरकार को बुरा-भला कहना, भारतीय परम्पराओं को हेय करना, या धर्मव्यवसाई बाबाओं के बारे में कटु बातें कहना नहीं चलेगा। जिस किसी भी विषय में, कुछ भी लिखने की स्वतंत्रता दी थी राजेन्द्र जी ने मुझे। दूसरी पत्रिकाओं के सम्पादक अरे-रे-रे कहकर भागे जाते हैं। धर्म की किसी भी तरह की समालोचना, कोई भी बर्दाश्त नहीं करता है, लेख काट देते हैं, नहीं तो सेंसर की कैंची चलाकर सत्यानाश कर देते हैं। राजेन्द्र जी ने मेरे किसी भी लेख को, उसमें अप्रिय सत्य रहने के अपराध में उसे खारिज नहीं किया, उसपर कैंची नहीं चलाई। वह ठीक मेरी तरह, बोलने की आज़ादी पर सौ प्रतिशत विश्वास करते थे। राजेन्द्र जी की काफ़ी उम्र हो चुकी थी, पर उससे क्या, वह बहुत ही आधुनिक इंसान थे। उनको घेरे रहने वाले जवान लड़के-लड़कियों से भी कहीं ज़्यादा मॉडर्न और सबसे ज़्यादा मुक्त मन के इंसान थे।

       कुछ समय पहले उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका के वार्षिक उत्सव में, ग़ालिब ऑडिटोरियम में, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को लेकर एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया था। उसमें बात थी कि मैं बोलूंगी पर सुरक्षा के बारे में सोचकर, अंत में मैं जा नहीं पाई। उन्होंने कार्यक्रम के बीच से कई बार मुझे फ़ोन किया, बहुत अनुरोध किया मुझे वहाँ जाने के लिए। अभी भी, उस दिन उनके द्वारा किए गए कातर निवेदनों की गूँज, कानों में बजती है। मुझे मारने के लिए, चारों तरफ़ मुसलमान कट्टरपंथी तैयार बैठे हैं, इस बात को वह बिल्कुल नहीं विश्वास करते थे। मैं भी नहीं करती हूँ, पर अभी भी लोगों की भीड़ देखते ही, यादों का एक वीभत्स झुंड मुझे आकर जकड़ लेता है। किसी भी समय, कोई भी कट्टरपंथी कुछ भी अनिष्ट कर देगा। मौत के घाट न उतारने पर भी, चीख़ने-चिल्लाने से ही ख़बर तैयार हो जाएगी, और यह धक्का न सम्भाल पाने पर अगर सरकार बोल बैठे कि देश छोड़ो! बहुतों ने ऐसा कहा है। मैंने बंगाल को खोया है। भारत को खोने का दर्द मैं नहीं सह पाऊँगी। इधर सुरक्षा कर्मियों ने मुझे फिर से सावधान किया है कि भीड़ के बीच, किसी भी मंच पर मैं न जाऊँ । राजेन्द्र जी ने मुझे कार्यक्रम में जाने का आमंत्रण दिया था, मैंने वादा भी किया था कि मैं जाऊँगी। पर मैं उनकी बात रख न सकी। उन्हें बहुत दुख पहुँचा था। कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र पर वह मेरा नाम देना चाहते थे, मैंने नाम न देने का अनुरोध किया था, कहा था अचानक ही उपस्थित हो जाऊँगी। उन्होंने मेरी बात रखी और निमंत्रण-पत्र में मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया, बस इंतज़ार किया मेरी उपस्थिती का। उन्हें विश्वास था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मेरा वक्तव्य, बहुत मूल्यवान होगा। लिखने की ही वजह से पूर्व और पशिम, दोनों ही बंगाल से मेरा निर्वासन हुआ। बंग्ला पत्र-पत्रिकाओं में मैं एक निषिद्ध नाम हूँ, कई किताबें निषिद्ध हुई हैं, मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगाने के लिए और मुझे मृत्युदंड देने के दावे से, शहर में लाखों लोगों का जुलूस निकला था। उसी निषिद्ध इंसान को, अपने जीवन के अंतिम कार्यक्रम में, राजेन्द्र जी सम्मान देना चाहते थे। कार्यक्रम में तो वह मुझे सम्मानित नहीं कर पाए, इस बात का दुख जितना उन्हें था, उससे कहीं ज़्यादा वह मेरे लिए दुख का विषय था कि मैं राजेन्द्र जी द्वारा कार्यक्रम में सम्मानित नहीं हो पाई। निषिद्ध लेखक को देखकर, दूसरे लेखकों को, बुद्धिजीवियों को, डर से दूर जाते देखा है, पर राजेन्द्र जी फूलों की माला हाथों में लेकर आगे आए थे, राजेन्द्र जी निश्चित रूप से और सबों से अलग थे।

       राजेन्द्र जी को लेकर आख़री दिनों में, मैंने उनके बारे में तरह-तरह की बातें सुनी थीं। बिहार से आई ज्योतिकुमारी नाम की लड़की को उन्होंने नौकरी दी, लिखने के अवसर और सुविधाएँ दी, उसकी किताब प्रकाशित करवाने में मदद की, और लाड़-दुलार में उसे सर पर चढ़ा लिया था। उसके बाद सुना कि उस लड़की ने राजेन्द्र जी के एक सहायक के ख़िलाफ़, उसके साथ बदतमीज़ी करने का आरोप लगाया। इसके बाद ही तरह-तरह के विवाद खड़े होने लगे। ज्योतिकुमारी और राजेन्द्र जी को लेकर लोग तरह-तरह की अशोभनीय बातें कहने लगे। उधर दूसरे दल के लोग कहते फिर रहे थे कि लड़की अच्छी नहीं है। इस पुरूषतांत्रिक देश में, समाज में सर ऊँचा करके चलने वाली आत्मविश्वासी लड़कियों के बारे में बुरी बातें बोलने वाले लोगों की कमी नहीं हैं। राजेन्द्र जी जैसे ज़िंदादिल इंसान को, मैं बाहर के लोगों की बातें सुनकर, दोष नहीं दे सकी, या फिर लोगों की बातें सुन उस लड़की को भी मैं अच्छी लड़की नहीं है, ऐसा नहीं कह सकी। राजेन्द्र जी ने बहुत सी लड़कियों को स्नेह किया है। बहुतों को प्यार भी किया है। पर किसी लड़की की अनुमति के बग़ैर, उन्होंने उस पर कोई दबाव डाला हो, या उसका स्पर्श किया हो , ऐसा उनके शत्रुओं ने भी नहीं कहा है । आख़री दिन, जिस दिन मेरे घर पर उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी, उस दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, लेखक सुनील गंगोपाध्याय के विरूद्ध मेरे अभियोग की क्या वजह थी।  मैंने कहा, ‘सुनील का मैं बहुत सम्मान करती थी, पर एकदिन अचानक उन्होंने मेरी अनुमति के बग़ैर ही मेरे शरीर का स्पर्श किया था। प्रतिवाद करना उचित था इसीलिए प्रतिवाद किया था। दूसरी लड़कियों के जीवन में यौन शोषण का हादसा घटने पर प्रतिवाद करती हूँ, अपने जीवन में घटने पर मुँह बंद करके क्यों रहती?’ राजेन्द्र जी मुझसे सहमत थे, उन्होंने एकबार भी नहीं कहा कि सुनील के ख़िलाफ़ मेरा शिकायत करना उचित नहीं था।

       जवान युवक-युवतियाँ राजेन्द्र जी को हमेशा घेरे रहते थे। वे बहुत श्रद्धा करते थे उनकी। मैंने उनलोगों को कहते सुना है कि हमने पिता खो दिया है। राजेन्द्र जी द्वारा स्नेहधन्य कवि और लेखक, राजेन्द्र जी की तरह आज़ाद विचारों के विश्वासी हों, किसी भी अप्रिय सत्य को बोलने में उनमें कोई हिचकिचाहट न हो। क्या बनेगा कोई ऐसा? जैसे मैंने अपनी आत्मकथा लिखते समय कुछ भी नहीं छुपाया, हाल ही में उनका लिखा हुआ ‘स्वस्थ्य व्यक्ति के बीमार विचार’ किताब में राजेन्द्र जी ने भी अपना कुछ भी नहीं छुपाया है। अपनी ज़िंदगी के सारे संबंधों के बारे में लिखा उन्होंने, समाज की नज़रों में जो वैध है, या अवैध, सब। लोग क्या कहेंगे इसके बारे में उन्होंने नहीं सोचा। क्या कोई बन सकेगा उनके जैसा निषकपट? क्या जिन्हें वह छोड़ गए हैं, वे सब उन्हीं की तरह, मत प्रकाश करने की स्वाधीनता पर विश्वास करते हैं?



बंग्ला से अनुवाद व प्रस्तुति अमृता बेरा , कोलकाता में जन्मी अमृता बेरा, पिछले 25 सालों से दिल्ली में रह रही हैं। वे हिन्दी, बाँग्ला और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं में प्रमुख रुप से अनुवाद करती हैं। वह कई साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं के साथ जुड़ी हुई हैं। संगीत में रूझान होने से वह ग़ज़ल गायन भी करती हैं। 
संपर्कamrujha@gmail.com


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