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आलोचना या नैतिक पहरेदारी - सौरभ शेखर | Criticism or Moral Policing - Saurabh Shekhar

आलोचना या नैतिक पहरेदारी

सौरभ शेखर


Sexually progressive cultures gave us literature, philosophy, civilization, and the rest, while sexually restrictive cultures gave us Dark Ages and the Holocaust।- Allen Moore
तहलका में प्रकाशित शालिनी माथुर का लेख 'मर्दों के खेला में औरतों का नाच' समकालीन स्त्री लेखन पर अपने निर्मम प्रहारों के कारण इन दिनों ख़ूब चर्चा में है।हालांकि, इस लेख का उद्देश्य नैतिकता बनाम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता के विवादास्पद विमर्श को ही आगे बढ़ाना है, किन्तु इसने प्रकारांतर से कुछ उन ज़रूरी सवालों को केंद्र में ला खड़ा किया है जिस पर लेख में बात नहीं की गई है।शालिनी माथुर को समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्रियों की बेबाक़ी काफी विचलित करती है। गौर करने वाली बात है कि अपने लेख के पहले पैरे में ही वे समकालीन हिंदी लेखन को साहित्य के रूप में ही खारिज कर देती हैं। उनका यह मत है कि स्त्री-मुक्ति की चेतना के नाम पर साहित्य को पोर्न के स्तर तक गिरा दिया गया है। वे यह भी प्रतिपादित करने की कोशिश करती हैं कि समकालीन साहित्य में जो स्त्रियाँ खुलेपन के साथ लिख रही हैं, वे ऐसा कुछ बुजुर्ग संपादकों के निर्देश पर कर रही हैं और उन्हें आनंदित करने के एवज में समुचित पुरस्कार भी प्राप्त कर रही हैं।इस लेख के शीर्षक में भी यही अभिप्रेत निहित है। यहाँ सवाल सिर्फ एक है कि आलोचना की यह कौन सी शैली है जिसमे तयशुदा निष्कर्षों और को टूल बना कर विषय का संधान किया जाता है?सार्थक आलोचना विषय के संधान से निष्कर्ष पर पहुँचने का उपक्रम है, न की इसके उलट।
सात-आठ साल के बच्चे का आज जिस प्रकार का विसंगतिपूर्ण सेक्स का एक्सपोजर है, हमारी चिंता का ज्यादा बड़ा विषय वह होना चाहिए - सौरभ शेखर

       दरअसल यह पूरा लेख मोरल पोलिसिंग के उसी टोन में लिखा गया है जिसमे तमाम दक्षिणपंथी संगठन, भगवाधारी पार्टियाँ, खाप पंचायतें और सामंतवादी परिवेश की बड़ी-बूढ़ियाँ बात करती हैं।समाज पर पितृसत्ता की जकड़ मजबूत करने का काम सिर्फ अल्प-शिक्षित और स्वार्थ-प्रेरित समूह नहीं करता है, प्रबुद्ध वर्ग का एक तबका भी जाने-अनजाने अपनी सोच और काम से उसे मजबूत बनाता चलता है।मैं यह नहीं कहता कि शालिनी माथुर अपने लेख में जो आपत्तियां उठातीं हैं वे जेनुइन नहीं हैं:बल्कि स्त्री लेखन की यह उन्मुक्तता उनके जैसी कई स्त्रियों और पुरुषों को चिंतित कर सकती है, मगर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि पढ़े-लिखे होने का यह न्यूनतम तकाजा है कि हम इसका निर्णय कर सकें कि हमारी कौन सी चिंताएं सही हैं और किनका आधार कमज़ोर है.. दूसरे, हमें यह भी देखना होगा कि क्या हमारा समाज संक्रमण के उस मुहाने पर तो नहीं खड़ा है जहाँ कुछ बड़े बदलावों के लिए हमें न सिर्फ तैयार रहना है बल्कि अपनी भावनाओं को भी इतना तो सख्त करना ही है कि वे हर दूसरे पल आहत न हो जाएँ।
कोई भी साहित्य जो जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तुत नहीं करता, अधूरा और अविकसित साहित्य है - सौरभ शेखर 

       इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय समाज दुनिया के सबसे पाखंडी समाजों में से एक है। विशेष कर सेक्स को लेकर हमारे यहाँ जो पाखंड और विरोधाभास है, वह 'विक्टोरियन प्रूडरी' की याद दिलाता है। १९वीं शताब्दी में इंग्लैंड में नैतिकता के मापदंड कैसे थे इसका अंदाजा इस से लगाया जा सकता है कि सार्वजनिक तौर पर 'लेग' की बजाये 'लिंब' कहना श्रेयस्कर समझा जाता था।ऐसे भी उदाहरण हैं टेबल के पायों को टेबलक्लोथ से ढँक कर नहीं रखने को अशिष्टता माना जाता था। और उसी विक्टोरियन इंग्लैंड में वेश्यावृति और बच्चों का यौन शोषण चरम पर था। संकीर्ण माहौल में सेक्स को ले कर इस प्रकार की ग्रंथियां आम तौर पर देखी जाती हैं, जिसमे चोरी-छिपे कुछ भी करना तो अनैतिक नहीं समझा जाता , मगर खुले में सेक्स पर बात करना भी वर्जित किया जाता है।कोई इन तथ्यों से लाख मुंह चुराए मगर सच यह है कि हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ यौन हिंसा के प्रति किसी प्रकार की कोई संवेदनशीलता नहीं है, जहाँ भयानक यौन वंचना (Sexual Starvation ) है, मानसिक यौन विकृतिओं और कुंठाओं से जहाँ हर क्षण हमारा सामना होता है। हम रोज़ एक ऐसे बाज़ार से गुज़रते हैं जो स्त्री देह का अंधाधुंध अवयविकरण करता है।जहाँ पितृसत्तातमक शोषण की जड़ें स्त्रियों की लाज और शील की अवधारणाओं की जमीन में धंसी हुईं हैं: एक ऐसा समाज में जो अपनी जड़ता के चलते बड़े पैमाने पर किशोरों के यौनुन्मुख होने और उससे उपजने वाले खतरों के लिए रणनीति बनाना तो दूर उस पर चर्चा करने से भी हिचकता है ।क्या साहित्य का यह कर्म नहीं है कि वह सृजन के दायरे में इन तमाम मुद्दों को भी शामिल करे?
हमें पाठक के विवेक पर भरोसा रखना चाहिए कि वह पोर्न, सॉफ्ट पोर्न और साहित्य में यौनिकता के बीच अंतर कर सकता है - सौरभ शेखर

       कई बार ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को 'साहित्य में यौनिकता' मात्र से समस्या है। वे मानवीय जीवन के तमाम दूसरे पहलुओं पर तो बात करते हैं।।मगर सेक्स को सिर्फ बेडरूम तक महदूद करना चाहते हैं। उन्हें तब और भी ज्यादा तकलीफ़ होती है जब कोई स्त्री सेक्स पर बात करना शुरू करती है। ऐसा करते हुए वे यह भूल जाते हैं कि हमारे समाज में एक तिहाई आपराधिक घटनाएं सेक्स रिलेटेड होती हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि पुरुष की बराबरी का अर्थ महज आर्थिक बराबरी नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की बराबरी है। आख़िर स्त्रियाँ यौनिकता जैसी नैसर्गिक वृति पर क्यों बात न करें? आधुनिक समय में चुप्पियों को प्रश्रय देने वाले किसी भी समाज की पक्षधरता खालिस कबीलाई मानसिकता नहीं तो और क्या है? दरअसल, यह लेख उसी मध्ययुगीन सोच की एक कड़ी है जिसके तहत पुरुषों ने अपनी सत्ता का उपयोग स्त्रियों की ऐसी स्कूलिंग के लिए किया है जिसके प्रभाव में वह अपनी सहज यौनेच्छा तक को पाप समझती है और उसके प्रकटीकरण की कल्पना मात्र से उसकी रूह काँप उठती है। ऐसे में, खेदजनक बात यह है कि संतुष्ट यौन और शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के अंतर्संबंध जैसे अत्यंत संवेदनशील और सामजिक दृष्टि से प्रासंगिक विषय पर अपेक्षित गंभीरता से विचार करने की जगह सुविधाजनक संशयवाद का सहारा लिया जाता है।
 यह लेख एक भारी आवेश की मनःस्थिति में लिखा गया लगता है, जिसमे वे लेखिकाओं पर न सिर्फ अनाप-शनाप आरोप लगाती हैं, कहानियों को सन्दर्भ से इतर उद्धृत करती हैं, बल्कि किसी भी आलोच्य कहानी के कथ्य में प्रवेश करने की जहमत नहीं उठातीं - सौरभ शेखर 

       इसके अलावा इस बहस का ज़रूरी बिंदु यह भी है कि क्या मुख्यधारा के साहित्य में यौनिकता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए? यहाँ मैं दुनिया भर के इरोटिक लिटरेचर और भारतीय शिल्पकला का हवाला न देते हुए स्वयं को सिर्फ मौजूदा प्रश्नों तक ही सीमित रखने की ही कोशिश करूँगा। अक्सर यह बचकाना तर्क दिया जाता है कि घर में पढ़ी जाने वाली किताबों में सेक्स की बात कैसे की जा सकती है? साहित्य में सेक्स का चाहे जितना भी समावेश में हो, वह इन्टरनेट पर मौजूद सेक्स की भौंडी छवियों और हर दूसरे विज्ञापन में परोसे जाने वाले सेक्स डोज़ की तुलना में नगण्य ही है। सात-आठ साल के बच्चे का आज जिस प्रकार का विसंगतिपूर्ण सेक्स का एक्सपोजर है, हमारी चिंता का ज्यादा बड़ा विषय वह होना चाहिए। मेरा यह आशय नहीं है कि सेक्स की सर्व सुलभता साहित्य में इसके होने का ठोस कारण है मगर कोई भी साहित्य जो जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तुत नहीं करता, अधूरा और अविकसित साहित्य है। हम एक ओर तो अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी साहित्य के पिछड़ने का रोना रोते हैं वहीँ हमारी दिलचस्पी यौनिकता जैसे मौलिक मानवीय सरोकार का निषेध करते हुए अपने साहित्य को विपन्न और हीन बनाये रखने में है।मैं इस तर्क से ज़रूर सहमत हूँ कि मुख्यधारा के साहित्य में 'क्रूड' या फूहड़ की जगह नहीं होनी चाहिए।कलात्मक और कथ्यात्मक चित्रण नाम की महीन रेखा गंभीर और चालू साहित्य को अलग करती है। लेकिन हमें पाठक के विवेक पर भरोसा रखना चाहिए कि वह पोर्न, सॉफ्ट पोर्न और साहित्य में यौनिकता के बीच अंतर कर सकता है। किसी भी रचना में यदि सेक्स का समावेश सिर्फ पब्लिसिटी और बाज़ार के हवाले से किया गया है तो यह भांपना बहुत मुश्किल नहीं है।मगर इसी एक चश्मे से सेक्स का चित्रण करने वाली समस्त कहानियों को देखना अनुचित है।
लक्षणा और व्यंजना भी कोई चीज होती है। कम से कम एक आलोचक से इतनी आलोचनात्मक समझ की अपेक्षा तो की ही जा सकती है - सौरभ शेखर

       शालिनी माथुर के लेख को ले कर मेरी दूसरी प्रमुख आपत्ति उनके गंभीर पूर्वाग्रह से है। यह लेख एक भारी आवेश की मनःस्थिति में लिखा गया लगता है, जिसमे वे लेखिकाओं पर न सिर्फ अनाप-शनाप आरोप लगाती हैं, कहानियों को सन्दर्भ से इतर उद्धृत करती हैं, बल्कि किसी भी आलोच्य कहानी के कथ्य में प्रवेश करने की जहमत नहीं उठातीं। उदाहरण के तौर पर जयश्री राय, जिनके प्रति उनकी कटुता छुपाये नहीं छुपती, की 'सुख का दिन' एक बढ़िया और ज़रूरी कहानी है। इस कहानी में लेखिका जिस कुशलता के साथ मध्यवर्गीय परिवारों की गलाज़त, मर्दों के टुच्चेपन और स्त्री के दैहिक शोषण आधारित सामन्ती व्यभिचार की कलई खोलती है वह देखने लायक है। इतना ही नहीं कहानी का अंत तो और भी झकझोरने वाला है जिसमे वे खोखले पुंसत्व के आडम्बर को एक झटके में धाराशाई करती हैं। मगर अफ़सोस कि शालिनी माथुर को इस कहानी में से उद्धृत किये जाने लायक सिर्फ वही प्रसंग लगे जो यूँ तो कहानी के कथ्य की आवश्यकता हैं मगर अलग से पढ़े जाने पर अश्लील लगते हैं। उसी तरह गीताश्री की कहानी 'ताप' की थीम भी समाज में व्याप्त यौन विकृति और दैहिक इच्छाओं का सामर्थ्यविहीन लिजलिजापन है।ऐसी इच्छाएं कई बार परिवार के भीतर दारूण परिस्थितियां रचती हैं। कथाकार यदि इन परिस्थितियों को चित्रित करती है , इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह उनकी वकालत कर रही है।लक्षणा और व्यंजना भी कोई चीज होती है। कम से कम एक आलोचक से इतनी आलोचनात्मक समझ की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। जिन कहानियों (यथा- औरत जो नदी है, जयश्री राय) में वर्णित देह संबंध की बात वे करती हैं वे सब प्रेम सम्बन्धों की परिणति हैं और ये कहानियाँ पुरुषवादी मानसिकता पर व्यंग्य भी करती हैं। कई बार जिसकी हम फैंटेसी कह कर खिल्ली उड़ाते हैं, कल को वह भी एक सच हो सकता है। रचनाकार सिर्फ अपने समय की प्रवृतियों को प्रस्तुत ही नहीं करता उनके हश्र की भी कल्पना करता है। दूसरे, कहीं किसी कहानी की थीम में प्रेम और भावना रहित दैहिक सम्बन्ध आते भी हैं तो आज के भौतिकवादी परिवेश में क्या यह एक सामान्य घटना नहीं है? यथार्थ का पोस्टमार्टम चाहे जितना विद्रूप और कष्टकारी हो, हमें सत्य के कुछ और करीब लाता है। किसी ख़ास मंशा से प्रेरित हो कर सन्दर्भ से काट कर पेश किया गया श्लील उद्धरण अश्लील प्रतीत हो सकता है। शालिनी के स्वयं के लेख जो उद्धरण कोट किये गए हैं, वे उन्हें जस का तस रखने की बजाये संकेतों में भी तो अपनी बात कह सकती थीं। मगर ऐसा करने से लेख वह अपेक्षित प्रभाव नहीं जगा पाता जिसकी उन्हें कामना रही होगी। दूसरे शब्दों में ये उद्धरण जस का तस रखना उनके लेख के कथ्य की अनिवार्यता है। श्लील और अश्लील के फतवे देने के पहले। एक आलोचक को यही दृष्टि विकसित करनी चाहिए। उसे निश्चित होना चाहिए जिन बिन्दुओं से उसकी आपत्ति और असहमति है वे आरोपित हैं या कथ्यनुरूप।
सोशल मीडिया में इस लेख के तथ्यात्मक होने की की दुहाई देनेवाले उत्साही नवालोचक शालिनी माथुर के इस आलोचकीय व्यवहार पर क्या कहेंगे मैं नहीं जानता - सौरभ शेखर

       मामला सिर्फ दृष्टिदोष का ही नहीं दृष्टिहीनता का भी है। नतीजतन शालिनी माथुर इस पूर्वाग्रही पाठ के दौरान कहानी में वर्णित तथ्यों की अनदेखी करते हुये उसे मिसकोट भी करती हैं। उदाहरण के तौर पर 'पाखी' में ही प्रकाशित कहानी देह के पार (जयश्री राय) का उदाहरण द्रष्टव्य है। शालिनी माथुर का कहना है कि उक्त कहानी की नायिका एक पुरुष वेश्या को खरीदती है। जबकि सच यह है कि संदर्भित कहानी की नायिका, जो एक पुरुष वेश्या से प्रेम करती है, अपने प्रेमी को खरीद-बिक्री के खेल से निकाल कर प्यार और भरोसे की दुनिया का हिस्सा बनाना चाहती है। मुझे लगता है यहाँ कहानी का वह हिस्सा जरूर उद्धृत किया जाना चाहिए-

"तुम्हारी दोस्त हूँ... तुम्हें खरीदकर, तुम्हारी कीमत लगाकर तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहती... फिर तो उन्हीं की जमात में खडी हो जाऊंगी जिन्होंने तुम्हे आज यहाँ ला खडा किया है- पतन की कगार पर...

उसकी बात सुनकर अभिनव के चेहरे का रंग एकदम से बदल गया था। जैसे गोरी रंगत पर राख पड गया हो..

- फिर... यह रूपये...?

- उधार समझकर रख लो । घर भेजना है न ...

- हाँ , और तुम...? यह थोडे-से शब्द कहते हुए ही जैसे वह यकायक थक गया था।

- मैं... मैं फिर आऊंगी तुम्हारे पास- बार-बार लौटकर- इसी तरह... कहाँ जाऊंगी- जा पाऊंगी भला...

- मगर तुम्हें मुझ से कुछ नहीं चाहिए ?... मेरा मतलब, बदले में... अभिनव एकदम से उलझ गया था जैसे। यह बातें इस दुनिया की नहीं, इस जमाने की नहीं... कहाँ की है वह , किस जमीन की, किस मिट्टी की....

- चाहिए, तुम्हीं से चाहिए, बहुत कुछ... मगर इस तरह से नहीं... चाहती हूँ, स्वयं को पूरी तरह से उसे देना जिसे बिना मूल्य दे सकूँ, और पाना भी- बिना मूल्य ही... यह बाजार-हाट नहीं अभि, मन की दुनिया है, यहाँ सौदा कुछ इसी तरह से होता है- जान की कीमत सिर्फ जान..." 

       स्पष्ट है कि शालिनी माथुर अपने बने-बनाए निष्कर्षों को पाठकों पर थोपने के लिए कहानी के तथ्यों से भी खिलवाड़ करती हैं। संयोग से यह कहानी मेरी पढ़ी हुई थी इस कारण इस आलोचकीय बेईमानी को मैं समझ सका। सोशल मीडिया में इस लेख के तथ्यात्मक होने की की दुहाई देनेवाले उत्साही नवालोचक शालिनी माथुर के इस आलोचकीय व्यवहार पर क्या कहेंगे मैं नहीं जानता।
स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर ब्लू फ़िल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप करते हुए धड़े-पकड़े जाते रहे हैं - शालिनी माथुर

       शालिनी माथुर की यह हास्यास्पद आपत्ति भी है कि जया जादवानी की कहानी 'समन्दर में सूखती नदी' में 'प्रौढ़ पुरुष और युवा लड़की स्त्री-पुरुष संबंधों पर सात पृष्ठ लम्बी चर्चा करते हैं'।अव्वल तो भले यह उनकी नज़र में नामुमकिन हो, नामुमकिन है नहीं, दूसरे यदि यह वास्तव में संभव नहीं है मगर लेखिका की कल्पना में संभव है तो भी इसके कहानी में होने की ठोस वजह है। कहानियों को देखने का यह कैसा संकीर्ण दृष्टिकोण है जिसमे आलोचक कल्पना को पूरी तरह यथार्थ से ढँक देना चाहती है? ज्योति कुमारी की कहानियों की आलोचना में वे इस कदर निमग्न हो जाती है की उन्हें 'आज भी असली प्रेमी एक-दूसरे को खून से चिट्ठी लिखते' दिखाई पड़ते हैं।पूछना लाजिमी है कि नई पीढ़ी से उनका ऐसा डिस्कनेक्ट क्यों है कि वे उसे सिर्फ ढकोसलों के माध्यम से समझना चाहती हैं? उल्लेखनीय है कि ज्योति कुमारी ने उक्त कहानी में एक किशोरी के पहले समागम के अनुभव से उत्पन्न वितृष्णा को रूपायित करने के लिए वीर्य में लिथड़ने के मेटाफर और अतिरेक के मनोविज्ञान की युक्ति का सहारा लिया है। शालिनी माथुर अपने विश्लेषण के दौरान कथानक के पीछे चल रही लेखकीय युक्ति को बिना समझे कहनियों का सतही पाठ तैयार कर देती हैं।

       यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि शालिनी माथुर हवा में तीर चलाने का अच्छा-ख़ासा शौक़ रखती हैं।आख़िर उनके इन हल्के वक्तव्यों को कितनी गंभीरता से लिया जा सकता है:

क) 'इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है'।

ख़) 'हिंदी लेखन में सारी सत्ता ऐसे मर्दों के हाथ में है जिनके अपने निजी जीवन में स्त्रियों का न कोई आदर-सम्मान है और न ही स्थान।'

ग) 'यह स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहा उन्मादग्रस्त आनंद नृत्य है'

       अपने इन स्वीपिंग स्टेटमेंट्स के लिए वे माफ़ी न भी मांगें, उनका शर्मसार होना तो बनता ही है। सच तो यह है कि पूरे आलेख में शालिनी का अवलंब तथ्य और तर्क की बजाये 'मेरा विश्वास है', 'मेरा मानना है', 'मेरा यकीन है', जैसे आत्म-मुग्ध प्रकृति के जुमले हैं। ज़ाती हमले करने की रौ में वे अपने लेख में एक जगह कहती हैं कि- "स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर ब्लू फ़िल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप करते हुए धड़े-पकड़े जाते रहे हैं"। देश और दुनिया के एक बड़े युवा समुदाय में अश्लील चुटकुलों, एस एम एस, एम एम आस आदि के विपुल विनिमय को देखते हुये यह बात भी आंशिक रूप से ही दुरुस्त लगती है शालिनी जी! लेकिन क्या आपको पता नहीं कि स्वच्छंद और खुले विचारों वाले युवक-युवतियों को देख कर ठीक ऐसे ही लोग कुढ़ते, जलते-भूनते, फब्तियां कसते और गालियाँ बकते पाए जाते हैं?
यह ज़रूरी है कि गैरकानूनी और अनैतिक के बीच के बुनियादी फर्क को मद्दे नज़र रखा जाये। कानून तो विरोधाभासी होते ही हैं। जैसे, भूख कानूनी नहीं है जबकि चोरी कर के पेट भरना गैरकानूनी है - सौरभ शेखर

       अधिनायकवादी और फासिस्ट प्रवृतियों की एक बड़ी पहचान यह है कि वे नैतिक-अनैतिक, अच्छा-बुरा, सही-गलत को कानूनी-गैरकानूनी की तर्ज़ पर संहिताबद्ध करना चाहती हैं। नैतिकता काल, परिस्थिति, भूगोल, पर्यावरण, पीढ़ी, स्थान और संस्कृति सापेक्ष होती है। इसके विविध आयामों की एकरेखिये व्याख्या बचकानापन है। उदाहारण के तौर पर जयश्री राय की कहानी 'समंदर बारिश और एक रात' (जिसके पात्र विदेशी हैं) के पात्रों की नैतिकता, उनकी जीवन शैली और आचार-व्यवहार को को लखनऊ और पटना के नैतिक मापदंडो से नहीं परखा जा सकता है। उसी तरह, एक पारंपरिक सास की नैतिकता बहू के सिन्दूर न लगाने से आहत हो सकती हैं, जबकि इसके ठीक विपरीत सिंदूर न लगाना किसी मॉडर्न शहरी लड़की के लिए फैशन तो एक आत्मचेता स्त्री के लिए पितृसत्ता के प्रतिरोध का प्रतीक हो सकता है। ऐसे में भारत जैसे भीषण आर्थिक, सामजिक और लैंगिक विषमता वाले मुल्क में समाज में सब के लिए नैतिकता का मानक एक-सा कैसे हो सकता है? यूँ भी एक सभ्य समाज की कल्पना करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए विषमता से बड़ी अनैतिकता और क्या होगी। इस लिहाज से यह ज़रूरी है कि गैरकानूनी और अनैतिक के बीच के बुनियादी फर्क को मद्दे नज़र रखा जाये। कानून तो विरोधाभासी होते ही हैं। जैसे, भूख कानूनी नहीं है जबकि चोरी कर के पेट भरना गैरकानूनी है। कहने का आशय यह है कि अगर हम नैतिकता पर बहस करने चले हैं तो निष्पक्ष निष्पत्तियों पर पहुँचने के लिए हमें इसके गतिमान पैमाने चुनने होंगे। अपनी सोच, परंपरा और मूल्यों से इतर समाज के नजरिए को भी सम्मान सहित समझना होगा। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि सिद्धांत के तौर पर नैतिकता की बात करना और किसी रचना में अभिव्यक्त नैतिकता पर विचार करने में भी बहुत बड़ा अंतर होता है। किसी कहानी के दृष्य या वाक्य विशेष को उसके संदर्भों और कहानी के मूल्यगत निष्कर्षों से विलग कर अपनी नैतिकता के पैमाने से जाँचने-परखने का काम अमूमन विरोधाभासी और हास्यास्पद निष्कर्ष तक ही पहुंचता है। मसलन कोई कहानी जिसके संवाद या जिसकी घटनाएँ अन्यथा अश्लील प्रतीत होती हैं, वह अंततः अश्लीलता के विरुद्ध एक आख्यान के रूप में समाप्त हो सकती है या एक नैतिक सन्देश छोड़ सकती है। अपेक्षित लेखकीय उदारता और आलोचकीय विवेक के अभाव में अपनी दृष्टि की जद से बाहर का सब कुछ असत्य, काल्पनिक और अविश्वसनीय जान पड़ता है। परिणामत: जटिलताओं में सर खपाने की बजाये स्टीरियोटाइप समझ विकसित कर ली जाती है। दरअसल, समकालीन हिंदी साहित्य में मुखर और निर्भीक महिला साहित्यकारों का बढ़ता दखल और उनकी बढती लोकप्रियता इर्ष्या प्रेरित लेखकों और आलोचकों की एक फौज खड़ी कर रही है, जो आलोचना के माध्यम से निजी स्कोर सेटल करने में विश्वास रखते हैं। बहरहाल, इतना तो तय है कि शालिनी माथुर को अपने लेखन में और शालीनता बरतने की ज़रूरत है। 
 (‘पाखी’ के फरवरी अंक में प्रकाशित)

सौरभ शेखर

एफ-२/७, मंगलम, अभय खंड-III,
इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद, उ.प्र.-२०१०१०
मो: 0987 38 66653

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3 टिप्पणियाँ

  1. आपके लेख से आंशिक तौर पर सहमत हूँ, कुछ असहमतियां भी हैं ! शालिनी माथुर के लेख पर प्रतिक्रियास्वरूप एक लेख हमने भी लिखा है ! देखें..http://articlesofpiyush.blogspot.in/2014/02/blog-post.html

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