विमलेश त्रिपाठी की कविताएं | Poetry : Vimlesh Tripathi

कोलकाता में रहने वाले विमलेश त्रिपाठी, परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत हैं। इनका जन्म बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में  7 अप्रैल 1979 को हुआ है। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही। प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन। विमलेश देश के विभिन्न शहरों  में कहानी एवं कविता पाठ करते रहते हैं ।
पुस्तकें“हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली • अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
संपर्क:
साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
ईमेल: bimleshm2001@yahoo.com
मो० : 09748800649





वि म ले श  त्रि पा ठी  की  क वि ता एं


कविता और रहने के लिए जगह

घोर क्रूरताओं से भरे और संबंधहीन हो चुके समय के बीच
कविता बची है अब भी
पत्थर में दबी दूब की तरह
अभी-अभी रोशनी से आँख मिलाती

और मैं खुश हूँ
कि जिंदा रहूँगा अभी बहुत समय तक
अपने हिस्से की जमीन पर
बीज छींटता
मचान पर बैठा कौए उड़ाता

सरकार चाहे जैसी हो
कविता के लिए थोड़ी सी जगह
अब भी बची है

और कहीं नहीं तो खेत के मचान पर
किसी किसान की मोतियाबिंदी आँख में
किसी औरत के पल्लू में
किसी बच्चे के कंचे से निकलती रोशनी में
वह बची है अब भी

शासन चाहे जैसा हो
यह देश अब भी रहने लायक है
और मैं खुश हूँ
कि सिर ऊँचा किए जिंदा रहूँगा
अपने देश में अभी कुछ अरसा और..।



गुमनाम


जब भी मैं सड़क पर निकलता हूं मेरे दोस्त
तो एक परछाई मेरे साथ चलती है
सिरफ वही जानती है कि मैं लिखता-विखता हूं
वह रिक्सावाला नहीं समझता कि दो दिन पहले मैंने
उसी को समर्पित कर लिखी है एक कविता
रास्ते में मिलने वाले लोग नहीं समझते
कि मेरा सारा लेखन कर्म सिर्फ उनके लिए ही है
मैं उन्हीं का आदमी हूं
रात-दिन उन्ही की बेहतरी के लिए सोचता

इस कविताहीन समय में नामी है बाजार
राजनीति के पहरूए नामी हैं
इंगलिश-विंगलिश में लिखने वाला लेखक भी कम नामी नहीं
गुमनामी में तो हिन्दी कविता और हिन्दी का कवि है मेरे दोस्त

एकदिन ऐसे ही मैं गुमनाम मर जाऊंगा
जला दिया जाऊंगा निमतल्ला घाट पर
मेरे साथ जल जाएंगे मेरे तमाम अच्छे शब्द
जो इस देश के अच्छे लोगों के लिए हैं

हे मेरे दोस्त मेरे मरने के पहले
कोई नहीं हटाएगा मेरी गुमनामी का तोहमत नहीं थामेगा मेरे शब्दों को

पता नहीं कब समझें वे करोड़ों लोग कि कलम धरने से लेकर
लहू के अंतिम बूंद तक मैं उन्हीं का ही आदमी हूं
जो मुझे अपना नहीं समझते...।।


घोर कविताहीन समय में 

हर ओर जब हो रही थी तेजाबी बारिश
उफन रहा था समुंदर सूखती जा रही थी नदियां
पेड़ मुरझा रहे थे अट्टहास कर रहा था एक बदसूरत आदमी
मैं अंधेरी सड़क पर दौड़ रहा था बेतहाशा
कुछ अच्छे शब्दों की तलाश में कि एक अच्छी कविता लिख सकूँ

मैं महानगर की सड़कों पर दौड़ रहा था
वहां औरतों की चीखे थीं भिखारियों की कराह
अंधेरे में घूम रहे थे सिपाही
जो सिपाही की तरह नहीं लगते थे

मैं हारकर-लौटकर जाता तो कहां
मेरा घर जल रहा था मेरे बच्चे जल रहे थे आग और धुएं में घुटकर
यह समय कविता लिखने का नहीं
अपने जलते हुए घर पर पानी छींटने का था

और देखिए न मैं अब भी अंधेरे में भटक रहा था
कुछ अच्छे शब्दों की तलाश में
इस घोर कविताहीन समय में
मैं पूरी करना चाहता था एक मुकम्मल कविता।


डर

एक डर है जो मेरे लहू में आकर बैठ गया है
मेरे धमनियों को आते हैं
आजकल डरावने सपने

मैं एक ऐसे देश में रहता हूँ
जहां का हर तीसरा आदमी डरा हुआ है
हमारे समय में डर
स्थायी भाव की तरह बैठ गया है
आजकल डरा-डरा रहता हूँ
पता नहीं किस दिशा से कोई बुरी खबर आ जाए
पता नहीं कब हवा का झोंका
एक तेज अंधड़ में बदल जाए
बिजली के तार में शार्ट सर्किट हो
और मेरा घर धू-धू कर जलने लगे
मेरी कविताएं डरी हुई हैं
सच कहते-कहते हांफने- कांपने लगती हैं
मेरे शब्दों ने काले लिवास पहन लिए हैं
वे रात में निकलते हैं रात की शक्ल में

मेरे सपने में एक डरा हुआ कवि आता है रोज
उसे सच बोलने की सजा मिली है
वह मुझे कविता लिखने से रोकता है
बार-बार

एक डरे हुए समय में हर सुबह
मैं निडर होने का अभिनय करता हूँ
चलता हूं इस तरह
कि कोई मुझे डरा हुआ न समझे

एक डरा हुआ आदमी मुझसे टकराता है
और अपना सारा डर
मेरे उपर उड़ेल कर जल्दी से कहीं भाग जाना चाहता है


मैं


चलते-चलते चला आया हूं इस अजनबी दुनिया में
मुझे यहीं जन्म लेना था
यहीं पलना-बढ़ना था

यहां सूरज की रोशनी कम है
रात की अवधि असीम
मैं हाथ बढ़ाता हूं किसी फूल की तरफ
और मेरे हाथ झुलस कर काली छाया में बदल जाते

मैं किसी को चूमने से पहले ही
मुर्दे की तरह बर्फ में बदल जाता हूं

खुद के चेहरे को देखता हूं
तो नाक की जगह आंख
और आंख की जगह कान दिख रहा है

क्या यहां रहकर
मुझे झूठ की चादर ओढ़नी होगी
धोखे और फरेब कर के ही बच सकता हूं मैं

बहुत दिन से ऊब चुका मैं
पास बहती नदी में कुछ शब्द फेंकता हूं
और फिर तेज-तेज चलना शुरू कर देता हूं...।।

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1 टिप्पणियाँ

  1. परमाणु ऊर्जा विभाग में काम करते हुएं भी लगता हैं आपको कविताओं से प्रेम बहुत हैं, अगर में सत्य कह रहा हूँ तो विश्वास मानिए कविता कभी मर नहीं सकती...

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