उनके (जगदम्बा प्रसाद दीक्षित) पासंग हिन्दी साहित्य में न कोई था, न है, न होगा - मृदुला गर्ग | Mridula Garg remembering Jagdamba Prasad Dixit


जगदम्बा प्रसाद दीक्षित

जन्म 1934 बालाघाट (महाराष्ट्र) - मृत्य 20 मई  बर्लिन 

प्रज्ञा और करुणा के अद्भुत मिश्रण के जादूगर को मेरी नतमस्तक श्रद्धांजलि

मृदुला गर्ग 

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित प्रतिरोध की प्रज्वलित मशाल की तरह थे, साहित्य में और अपने जीवन में भी। इमरजैन्सी के दौरान जेल काटी, हर प्रकार की सस्ती लोकप्रियता से कन्नी काटी। और उस प्रतिरोध को, अपनी अनन्य प्रज्ञा और कलाकौशल से मिला कर, कालजयी उपन्यास व कथानक रचे। हिन्दी में प्रतिरोधी साहित्य पढ़ना हो तो उनके दो उपन्यास पढने ही पढ़ने होंगे। इतिवृत और अकाल। मेरा मानना है, गहराई में जा कर देखें तो वे एक ही उपन्यास के दो खण्ड मालूम होंगे। इतिवृत में उन निर्णायक क्षणों की विवेचना है, जब द्वितीय पंचवर्षीय योजना के तहत गांवों को हाशिये पर धकेलने की आर्थिक नीति बनी थी। आज जब इतनी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और प्रेमचन्द के महाजनों की जगह ख़ुद सरकार और देसी-विदेशी बैंकों ने ले ली है तो इस स्थिति की शुरुआत कब और कैसे हुई, उसका पठन-मनन करना निहायत ज़रूरी है। इतिवृत ने बहुत पहले इस शुरुआत का आकलन कर दिया था। उसकी परिणति को अपने त्रासद शिखर पर पहुँचने में क़रीब चालीस बरस लग गये और उतने ही दीक्षित जी को अपने उपन्यास की अगली कड़ी, अकाल लिखने में लगे। फिर भी अकाल का प्रकाशन उस परिणति के चरम पर पहुँचने से बहुत पहले हो गया था। यानी एक बार फिर वे भविष्यदृष्टा की तरह उभर कर आये थे।

          वे अपने उपन्यास मुर्दाघर के लिए विख्यात हैं। शायद वह उपन्यास देश के लब्धप्रतिष्ठित नेताओं की अदूरदर्शिता पर उस तरह प्रहार नहीं करता जैसे इतिवृत और अकाल। इसलिए वे बेबाक सत्य और विवेचन से डरे हमारे आलोचकों को फिर भी स्वीकार्य हो गया पर इन उपन्यासों का नीतिगत प्रतिरोध उन्हें बर्दाश्त नहीं हो पाया। 

          दीक्षित जी मात्र प्रतिरोध और प्रज्ञा की मशाल भर नहीं थे। वे जितने बेबाक, उग्र और ईमानदार थे उतने ही भाव प्रवण भी। एक हिजड़े पर लिखी उनकी कहानी मुहब्बत उसका प्रमाण है और तभी न वे फ़िल्मों के लिए प्रेम गीत भी लिखा करते थे!

          उनसे संवाद के स्वाद के तो कहने ही क्या थे। उनके साथ संवाद का हर पल, हर क्षण, हर वाक्य भीतर ज्वालामुखी धधका देता था, पता नहीं विचार के कितने बन्द कपाट खुल जाते थे; कितने दिन उनकी कही बातें सोचते-विचारते गुज़र जाते थे। उन्हें एक बृहद् ग्रन्थ भारत की सभ्यता और आर्थिक स्थिति के अन्तर्सम्बन्ध पर लिखना चाहिए था, जो उन्होंने शुरु तो किया पर खत्म नहीं। मैं समझती हूँ कि उनके पासंग हिन्दी साहित्य में न कोई था, न है, न होगा।

          प्रज्ञा और करुणा के अद्भुत मिश्रण के जादूगर को मेरी नतमस्तक श्रद्धांजलि।

मृदुला गर्ग
26 मई 2014
नई दिल्ली

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