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अनंत बौद्धिकता के मूर्ति को सलाम | Anant Vijay pays Homage to U. R. Ananthamurthy

अनंत बौद्धिकता के मूर्ति को सलाम

अनंत विजय

यू आर अनंतमूर्ति ज्वाजल्यमान बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनकी राजनीति में गहरी रुचि थी और हमेशा दूसरों की बातें सुनने को तैयार रहते थे - आशुतोष वार्ष्णेय, प्रोफेसर अंतराष्ट्रीय अध्ययन और समाज विज्ञान, ब्राउन विश्वविद्यालय...
जिस शहर को यू आर अनंतमूर्ति ने नया नाम दिया था। बैंगलोर को बेंगलुरू बनाने की मुहिम छेड़ी थी। अपने उसी शहर में कन्नड़ के महान साहित्यकार अनंतमूर्ति ने अंतिम सांसें ली। यू आर अनंतमूर्ति का मानना था कि बैंगलोर गुलामी का प्रतीक है और इस नाम से औपनिवेशिकता का बोध होता है, लिहाजा उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद बेंगलुरू नाम दिलाने में सफलता हासिल की थी।
अनंतमूर्ति का जाना कन्नड़ साहित्य के अलावा देश की बौद्धिक ताकतों का कमजोर होना भी है।
कई सालों से नियमित डायलिसिस पर चल रहे अनंतमूर्ति पिछले कई दिनों से किडनी में तकलीफ की वजह से अस्पताल में थे। शुक्रवार 22, अगस्त को उनकी तबीयत इतनी बिगड़ी की उनको बचाया नहीं जा सका। यू आर अनंतमूर्ति अपने जीवन के इक्यासी वर्ष पूरे कर चुके थे और दिसंबर में बयासी साल के होनेवाले थे। अनंतमूर्ति का जाना कन्नड़ साहित्य के अलावा देश की बौद्धिक ताकतों का कमजोर होना भी है। अनंतमूर्ति देश के उन बौद्धिक शख्सियतों में थे जिनकी पूरे देश को प्रभावित करने वाले हर अहम मसले पर राय होती है, लेकिन इन बौद्धिकों में से कम ही लोग अपनी इस राय को सार्वजनिक करते हैं । अनंतमूर्ति उन चंद लोगों में थे जो अपनी राय सार्वजनिक करने में हिचकते नहीं थे। गांधीवादी समाजवादी होने के बावजूद यू आर अनंतमूर्ति किसी विचारधारा या वाद से बंधे हुए नहीं थे । उन्होंने जहां गलत लगा वहां जमकर प्रहार किया। सच कहने के साहस का दुर्लभ गुण उनमें था। जिस तरह से उन्होंने कट्टर हिंदूवादी ताकतों का जमकर विरोध उसी तरह से उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज में जाति प्रथा जैसी कुरीति और समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर प्रहार किया। नतीजा यह हुआ कि कट्टरपंथी हिंदू ताकतें उनसे खफा हो गई और ब्राह्मणों को इस बात की नाराजगी हुई कि उनकी जाति में पैदा हुआ शख्स ही ब्राह्मणवाद पर हमले कर रहा है। विडंबना यह कि मार्क्सवादी लेखक भी उनको अपना नहीं समझते थे। उनकी शिकायत थी कि अनंतमूर्ति नास्तिक नहीं है। इसी बिनाह पर वामपंथी उन्हें खास तवज्जो नहीं देते थे और प्रकारांतर से उनके लेखन को ध्वंस करने में लगे रहते थे।
आलोचकों का मानना है कि ‘संस्कार’ उपन्यास ने कन्नड साहित्य की धारा मोड़ दी।

एक साक्षात्कार में अनंतमूर्ति ने जोर देकर कहा था कि उनके लिए आलोचकों से ज्यादा अर्थ पाठकों का प्यार का है। इस सिलसिले में उन्होंने एक उदाहरण देते हुए बताया था कि उर्दू के शायरों के लिए श्रोताओं की एक ‘वाह’ और ‘इरशाद’ आलोचकों की टिप्पणियों से ज्यादा अहमियत रखती है। अपनी इसी बेबाक और बेखौफ शैली की वजह से अनंतमूर्ति इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान विवादों से घिर गए थे। अनंतमूर्ति ने कहा था कि अगर नरेन्द्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो देश छोड़ देंगे। इस बयान के बाद उनपर चौतरफा हमले शुरू हो गए थे। धमकियां मिलने लगी थी, उन्हें सरकार को सुरक्षा मुहैया करवानी पड़ी थी। बाबवजूद इसके अनंतमूर्ति अपने बयान पर कायम रहे थे। चुनाव नतीजों में नरेन्द्र मोदी को अभूतपूर्व सफलता के बाद अनंतमूर्ति ने कहा था कि उन्होंने भावना में बहकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बयान दे दिया था। वो भारत छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते हैं क्योंकि और कहीं वो रह नहीं सकते या रहने का साधन नहीं है। यह थी उनकी साफगोई और सच को स्वीकार करने का साहस। यह गुण हमारे लेखकों में देखने को मिलता नहीं है। भगवा ब्रिगेड चाहे अनंतमूर्ति से लाख खफा हो लेकिन वो इस बात पर हमेशा एतराज जताते थे कि इस तरह के कट्टरपंथियों को भगवा कहना उचित नहीं है। लगभग तीन साल पहले दिल्ली के आईआईसी में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा था कि भगवा बहुत ही खूबसूरत रंग है और इस तरह की हरकत करनेवालों को भगवा के साथ जोड़ना उचित नहीं है। यह उनके व्यक्तित्व का ऐसा पहलू था जो कम उभरकर सामने आ सका। अनंतमूर्ति की राजनीति में गहरी रुचि थी और वो चुनाव भी लड़े और पराजित भी हुए। दरअसल अनंतमूर्ति ने बर्मिंघम युनिवर्सिटी से जो शोध किया था उसका विषय था – फिक्शन एंड द राइज ऑफ फासिज्म इन यूरोप इन द थर्टीज । अनंतमूर्ति के पूरे लेखन पर इस विषय की छाया किसी ना किसी रूप में देखी जा सकती है ।

पचास और साठ के दशक में कन्नड साहित्य परंपरा की बेड़ियों से जकड़ा हुआ था। लगभग उसी दौर में यू आर अनंतमूर्ति ने लिखना शुरू किया और अपने लेखन से उन्होंने साहित्य के परंपरागत लेखन और सामाजिक कुरीतियों पर जमकर प्रहार किए। यह वही दौर था जब अपनी कविताओं के माध्यम से पी लंकेश और अपने नाटकों से माध्यम से गिरीश कर्नाड कन्नड समाज को झकझोर रहे थे । इसी दौर में अनंतमूर्ति ने कन्नड साहित्य में नव्य आंदोलन की शुरुआत की। अनंतमूर्ति के उन्नीस सौ छियासठ में छपे उपन्यास ‘संस्कार’ ने कन्नड साहित्य और पाठकों को झटका दिया। इस उपन्यास में अनंतमूर्ति ने जातिप्रथा पर जमकर हमला बोला है। अनंतमूर्ति के इस उपन्यास को भारतीय साहित्य में मील के पत्थर की तरह देखा गया। आलोचकों का मानना है कि इस उपन्यास ने कन्नड साहित्य की धारा मोड़ दी। अनंतमूर्ति ने अनेकों उपन्यास और दर्जनों कहानियां लिखी । उन्हें उनके साहित्यक अवदान के लिए 1994 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उन्नीस अठानवे में उनको पद्मभूषण से सम्मानित किया गया ।

दिसंबर उन्नीस सौ बत्तीस में कर्नाटक के शिमोगा में पैदा हुए यू आर अनंतमूर्ति ने मैसूर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम किया फिर बर्मिंघम विश्वविद्यालय से पीएचडी । उन्नीस सौ सत्तर से मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया। अनंतमूर्ति साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और नेशनल बुक ट्रस्ट के मुखिया भी रहे । इसके अलावा अनंतमूर्ति ने पुणे के मशहूर फिल्म और टेलीविजन संस्थान का दायित्व भी संभाला । कर्नाटक सेंट्रल य़ुनिवर्सिटी के चांसलर भी रहे । देशभर में होनेवाले साहित्यक फेस्टिवल में अनंतमूर्ति की मौजूदगी आवश्यक होती थी । वो भाषणों से वहां होनेवाले विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करते थे। अपनी जिंदगी के अस्सी पड़ाव पार कर लेने के बावजूद वो लगातार लेखन में जुटे थे और अखबारों में नियमित स्तंभ लिख रहे थे। इन दिनों ‘स्वराज और हिंदुत्व’ नाम की किताब पर काम कर रहे थे । इस किताब के शीर्षक से साफ है कि उन्होंने स्वराज को हिंदुत्व के नजरिए से देखने की कोशिश की होगी। ब्राउन विश्वविद्यालय में अंतराष्ट्रीय अध्ययन और समाज विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने सही कहा कि यू आर अनंतमूर्ति ज्वाजल्यमान बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जिनकी राजनीति में गहरी रुचि थी और हमेशा दूसरों की बातें सुनने को तैयार रहते थे । ऐसे शख्स का जाना ना केवल साहित्य समाज की क्षति है बल्कि समाज में भी एक रिक्ति पैदा करती है । सलाम अनंतमूर्ति ( वो हमेशा ‘जी’ और ‘सर’ कहे जाने के खिलाफ रहते थे )
पिछले दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय अनंत विजय की साहित्य की दुनिया में लगातार आवाजाही है । अनंत अपने समय के सवालों से टकराते हैं और उस मुठभेड़ से पाठकों को रूबरू कराते हैं । अबतक अनंत विजय की चार किताबें आ चुकी है । इस वर्ष प्रकाशित अनंत विजय की आलोचना की किताब - विधाओं का विन्यास में पिछले एक दशक में अंग्रेजी में प्रकाशित अहम किताबों की परख है । 




ईमेल : Anant.ibn@gmail.com

उनके (जगदम्बा प्रसाद दीक्षित) पासंग हिन्दी साहित्य में न कोई था, न है, न होगा - मृदुला गर्ग | Mridula Garg remembering Jagdamba Prasad Dixit


जगदम्बा प्रसाद दीक्षित

जन्म 1934 बालाघाट (महाराष्ट्र) - मृत्य 20 मई  बर्लिन 

प्रज्ञा और करुणा के अद्भुत मिश्रण के जादूगर को मेरी नतमस्तक श्रद्धांजलि

मृदुला गर्ग 

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित प्रतिरोध की प्रज्वलित मशाल की तरह थे, साहित्य में और अपने जीवन में भी। इमरजैन्सी के दौरान जेल काटी, हर प्रकार की सस्ती लोकप्रियता से कन्नी काटी। और उस प्रतिरोध को, अपनी अनन्य प्रज्ञा और कलाकौशल से मिला कर, कालजयी उपन्यास व कथानक रचे। हिन्दी में प्रतिरोधी साहित्य पढ़ना हो तो उनके दो उपन्यास पढने ही पढ़ने होंगे। इतिवृत और अकाल। मेरा मानना है, गहराई में जा कर देखें तो वे एक ही उपन्यास के दो खण्ड मालूम होंगे। इतिवृत में उन निर्णायक क्षणों की विवेचना है, जब द्वितीय पंचवर्षीय योजना के तहत गांवों को हाशिये पर धकेलने की आर्थिक नीति बनी थी। आज जब इतनी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और प्रेमचन्द के महाजनों की जगह ख़ुद सरकार और देसी-विदेशी बैंकों ने ले ली है तो इस स्थिति की शुरुआत कब और कैसे हुई, उसका पठन-मनन करना निहायत ज़रूरी है। इतिवृत ने बहुत पहले इस शुरुआत का आकलन कर दिया था। उसकी परिणति को अपने त्रासद शिखर पर पहुँचने में क़रीब चालीस बरस लग गये और उतने ही दीक्षित जी को अपने उपन्यास की अगली कड़ी, अकाल लिखने में लगे। फिर भी अकाल का प्रकाशन उस परिणति के चरम पर पहुँचने से बहुत पहले हो गया था। यानी एक बार फिर वे भविष्यदृष्टा की तरह उभर कर आये थे।

          वे अपने उपन्यास मुर्दाघर के लिए विख्यात हैं। शायद वह उपन्यास देश के लब्धप्रतिष्ठित नेताओं की अदूरदर्शिता पर उस तरह प्रहार नहीं करता जैसे इतिवृत और अकाल। इसलिए वे बेबाक सत्य और विवेचन से डरे हमारे आलोचकों को फिर भी स्वीकार्य हो गया पर इन उपन्यासों का नीतिगत प्रतिरोध उन्हें बर्दाश्त नहीं हो पाया। 

          दीक्षित जी मात्र प्रतिरोध और प्रज्ञा की मशाल भर नहीं थे। वे जितने बेबाक, उग्र और ईमानदार थे उतने ही भाव प्रवण भी। एक हिजड़े पर लिखी उनकी कहानी मुहब्बत उसका प्रमाण है और तभी न वे फ़िल्मों के लिए प्रेम गीत भी लिखा करते थे!

          उनसे संवाद के स्वाद के तो कहने ही क्या थे। उनके साथ संवाद का हर पल, हर क्षण, हर वाक्य भीतर ज्वालामुखी धधका देता था, पता नहीं विचार के कितने बन्द कपाट खुल जाते थे; कितने दिन उनकी कही बातें सोचते-विचारते गुज़र जाते थे। उन्हें एक बृहद् ग्रन्थ भारत की सभ्यता और आर्थिक स्थिति के अन्तर्सम्बन्ध पर लिखना चाहिए था, जो उन्होंने शुरु तो किया पर खत्म नहीं। मैं समझती हूँ कि उनके पासंग हिन्दी साहित्य में न कोई था, न है, न होगा।

          प्रज्ञा और करुणा के अद्भुत मिश्रण के जादूगर को मेरी नतमस्तक श्रद्धांजलि।

मृदुला गर्ग
26 मई 2014
नई दिल्ली

आज मैं बिलख-बिलख कर क्यों रोती हूं - मैत्रेयी पुष्पा | Maitreyi Pushpa on #RajendraYadav

मैंने अपना मोबाइल उठाया है, राजेंद्र जी और फोनबुक में आपके नाम तक पहुंची हूं। वह चमक रहा है, लग रहा है अभी उस नंबर से घंटी बजेगी और आप बोल पड़ेंगे। झूठ नहीं बोलूंगी आपसे, फोन उठाया था आपका नंबर डिलीट करने के लिए लेकिन यह क्या, ऐसा लग रहा है कि यह नंबर ही मुझे चुनौती दे रहा है, मानो कह रहा हो, ‘मिटा सकोगी?’ हमेशा उस तरफ से आने वाली आपकी आवाज का अहसास अभी तक गया नहीं है, राजेंद्र जी। ऐसा लग रहा है कि अभी दूसरी ओर से आपकी जिंदादिल आवाज गूंजेगी- ‘हां कहो, मैत्रेयी, क्या-क्या कर डाला’।

       मुझे याद है, यह क्या-क्या कर डालने की चुनौती आप मेरे सामने तब से रखते आए जब से आपकी दृष्टि मेरे ग्रामीण लेखकीय विषयों पर पड़ी। और यही चुनौती मेरे अब तक के लेखकीय जीवन का आधार रही है। ऐसा क्या खोज लिया था आपने मेरे लेखन में... या आप ऐसे ही बीहड़ गंवई स्त्री लेखन की खोज में थे?

आज मैं बिलख-बिलख कर क्यों रोती हूं - मैत्रेयी पुष्पा | Maitreyi Pushpa on Rajendra Yadav        प हमेशा विस्मित करते थे, राजेंद्र जी। धुन के कितने पक्के थे आप। कितना कुछ छोड़ दिया अपनी धुन में, कितना कुछ गंवा दिया। अपने रचनात्मक लेखन को विराम देकर आपने हंस पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। आपका एक नया ही स्वरूप लोगों के सामने आया। जिस समय आपके समकालीन पुरस्कृत होते रहे, साहित्यिक पुरस्कारों से नवाजे जाते रहे, आप खोजते रहे उन आवाजों को, धूल झाड़ते रहे उन मूरतों की जिन पर दशकों क्या सदियों से किसी की नजर नहीं गई थी। और फिर दुनिया ने देखा हां, इस साहित्यिक जगत ने एक बार फिर विस्मय से देखा और कहा कि वह देखो राजेंद्र किन लोगों से लिखवा रहे हैं, उनसे जिन्हें कलम पकड़ने की तमीज नहीं। स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों को वह लेखक बना रहे हैं। लेखन के सौंदर्यशास्त्रियों ने इसे साहित्य को कुरूप करने की साजिश बता दिया। लेकिन आपको न किसी की सुननी थी न आपने सुनी। बस अपनी धुन में लगे रहे।

       र फिर दुनिया ने देखा कि ओह! इन अनगढ़ आवाजों में वो दर्द, वो सच्चाई दबी हुई थी, जिसे राजेंद्र यादव के अलावा भला और कौन सामने ला पाता। आपके इस योगदान को भला कौन नकार सकेगा?

       ज मुझे आपका हंस में लिखा वह संपादकीय याद आ रहा है जिसमें आपने कहा था, कि मैत्रेयी ड्रॉइंग रूम के लेखन को बाहर निकाल कर खेत-खलियानों में ले आयी। मैत्रेयी फणीश्वर नाथ रेणु और रांगेय राघव के बाद वह तीसरा नाम है जो धूमकेतु कि तरह साहित्य के आकाश पर छा गया। और मैं समझ जाती की रेणु और रांगेय राघव के साथ जोड़कर आप मेरे लिए कौन-से आदर्श तय कर रहे हैं। इन नामों से जोड़कर आप मुझे उन भयानक दृश्यों से भरी दुनिया में बार बार प्रवेश करने के लिए मजबूर कर देते जिनकी कल्पना शहरी मध्य वर्ग की स्त्रियां तो कम से कम नहीं कर सकतीं।

       ब ठहरकर सोचती हूं कि क्या यह सब कुछ मैं आपके सामने खुद को प्रमाणित करने के लिए कर रही थी? हां उस समय तो यही स्थिति थी मेरी, जैसे किसी छोटे बच्चे की अपने अध्यापक के सामने होती है, बेहतर से बेहतर करके दिखाना कि उसके टीचर की बात झूठी न पड़े।

       प कहते थे, ‘हिंदी की लेखिकाएं आत्मकथा नहीं लिखतीं। लिखती हैं तो परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली लिखती हैं, पति परायणा स्त्रियों की कथाएं तो आदिकाल से चली आ रही हैं जिनमें दुख दर्द झेलना और चुप रहना सद्गुण की कसौटी है। अब मैं आपका इशारा ही समझने लगी थी और अपनी समझ से भी लगा कि वह वक्त आ गया है जब मुझे अपने निजी जीवन का खुलासा कर देना चाहिए कि क्यों मैं चाक और अल्मा कबूतरी लिखती हूं? क्यों मैंने इदन्नमम लिखा?

       राजेंद्र जी, लेखन की दुनिया में आप मेरे साथ थे और जो मैंने आपकी छवि देखी या अनुकूल स्त्री होने के नाते बनाई, उसी का रूप ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में है। मैं यह मानती हूं कि कोई पुरुष बलिष्ठ होने के कारण बलात्कार तो कर सकता है संबंध नहीं बना सकता क्योंकि संबंध स्त्री की रजामंदी से बनता है। माना कि पुरुष प्रलोभन देकर स्त्री को राजी करता है तो मैं प्रलोभन को औरत का लालच जैसा दुर्गुण समझती हूं। हमारा हक यह भी तो है कि हम उस वस्तु का मोह छोड़ दें जिसकी कीमत हमारी अस्मत है और हम इसे लुटाना नहीं चाहते। मेहनत का रास्ता मुश्किलों भरा होता है, तो साहित्य का रास्ता तपस्या का और इंतजार का भी। राजेंद्र यादव ने शुरुआत में लगातार मेरी पांच कहानियां लौटा दीं कहिए कि परिश्रम के साथ प्रतिभा का उपयोग करने के लिए ललकारा और मैंने उनकी चुनौती सहर्ष स्वीकार की। कोई शॉर्टकट नहीं, कोई रियायत नहीं... उनका कहना मेरे लिए सिर्फ इतना था- ‘मैत्रेयी, मैं साहित्य के मामले में बहुत कठोर टीचर हूं।’

       पने जीवन में मैं जब-जब दुखी हुई मैंने राजेंद्र जी को पुकारा। मेरे एक वक्तव्य को लेकर, उसे गलत भाषा का रूप देकर लोगों ने उनके व मेरे वे संबंध बताने चाहे, जिनकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी। इस तरह के पर्चे पूरे देश के हिंदी समाज में पहुंचाए गए। तब मैं बहुत विचलित हो गई थी।


मैंने राजेंद्र जी से पूछा था - आपके जीवन में बहुत सी स्त्रियां आई हैं , मेरा और आपका संबंध कैसा है? वे थोड़ा हंसे और कहा - मैत्रेयी हमारा संबंध पूछ रही है! थोड़ी देर बाद बोले, ‘सोचने पर यही लगा कि मेरा और तुम्हारा संबंध द्रौपदी और कृष्ण जैसा है। है न?’ - मैंने मन ही मन कहा हां, राजेंद्र जी, हां ऐसा ही है!

       राजेंद्र जी ने हंस का संपादन तो अपने उत्तरकाल में ही संभाला उसके पहले तो वे रचनात्मक लेखन ही करते थे। लेकिन मुझे उनके रचनात्मक लेखन की तुलना में उनका वैचारिक लेखन ही भाता है, प्रेरित करता है। मुझे हमेशा इस बात का खेद रहेगा कि राजेंद्र जी जिस वैचारिक धरातल पर खड़े होकर लिखते थे, उस धरातल पर जाकर उसे समझने वाले लोग कम ही हुए। नतीजा, उनके लिखे पर विवाद खड़े किए गए। अनावश्यक विवाद। बार-बार यह कहा गया कि राजेंद्र जी ने स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श छेड़ा। काश ऐसा कहने वालों ने उनकी बातों को ठीक से समझा होता। उन्होंने हमेशा यही कहा कि स्त्री का शरीर ही उसका बंधन है। उसका मन तो आजाद है, उसके सहारे उन्मुक्त पंछी सी वह कहीं भी जा सकती है।

       क्या-क्या याद करूं... स्मृतियों का भरा पूरा खजाना है, ऐसे कम वक्त में दर्ज हो पाएगा क्या? मेरे बाबा (पितामह) गठिया के रोगी थे, वे लाठी के सहारे ऐसे ही चलते थे, जैसे राजेंद्र जी बैसाखी के साथ चलते थे धीरे-धीरे। मैंने कहा था, ‘राजेंद्र जी, आपको देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अपने बाबा के साथ चल रही हूं, बार-बार आगे निकल जाती हूं, फिर रुक जाती हूं बचपन में। राजेंद्र यादव का उत्तर था, ‘तेरा सत्यानाश डॉक्टरनी, तुझे मैं अपना बाबा लगता हूं !’ वे मुझे डॉक्टरनी भी कहते थे - डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी! 

       बाबा नहीं रहे थे तो अपने बचपन में मैं बच्चे की तरह बहुत रोई थी मगर मैं अब तो बच्ची नहीं हूं, फिर आज मैं बिलख-बिलख कर क्यों रोती हूं... आपकी चुनौतियों के लिए, आपके साहित्यिक अनुशासन के लिए या किसी आप जैसे अपने के लिए...

       फिर भी मैं इस दुख की घड़ी में संकल्प लेती हूं कि आपकी हिदायतें मेरे साथ रहेंगी कि अच्छे से अच्छा रच सकूं। मेरी श्रद्धांजलि यही है।

आज (17 सितम्बर) हसरत जयपुरी की पुण्यतिथि है- सुनील दत्ता

वो अपने चेहरे में सौ आफ़ताब रखते हैं
इसीलिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं
                              - हसरत जयपुरी 
आज है उनकी पुण्यतिथि  
सलाम प्यार को, चाहत को, मेहरबानी को, सलाम जुल्फ को खुशबु की कामरानी को सलाम, सलाम गाल के तिलों को जो दिलो की मंजिल है - ऐसी शायरी के अजीमो शख्सियत हसरत जयपुरी का जन्म 15 अप्रैल 1918 को जयपुर में हुआ था। हसरत जयपुरी का नाम इकबाल हुसैन था। इन्होने अपनी पूरी शिक्षा दीक्षा जयपुर से हासिल की और इसके साथ ही शेरो-शायरी का हुनर इन्होने अपने मरहूम नाना से तालीम के रूप में हासिल किया। हसरत कहते है “बेशक मैंने शेरो - शायरी की तालीम अपने नाना से ली पर इश्क की तालीम मैंने अपनी प्रेमिका राधा से पाई”। उसने बताया कि इश्क क्या होता है। राधा मेरी हवेली के सामने रहती थी वो बहुत ही खुबसूरत थी और मैं उसे प्यार करता था। वो झरोखे से झाकती थी, तब मैंने अपने जीवन का पहला शेर लिखा उसके लिए “तू झरोखे से जो झांके, तो मैं इतना पुछू / मेरे महबूब तुझे प्यार करूँ या न करूँ”

       अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद चमड़े की झोपड़ी की आग बुझाने के लिए वो बम्बई आ गए, वहाँ पर उन्होंने आठ साल बस कंडेक्टरी की। हसरत साहब ने कभी हसीनाओ से टिकट का पैसा नही लिया वो कहते है, “मैं इन हसीनाओ को देखते हुए बस यही कहा करता था कि तुम खुदा की बनाई नेमत हो तुमसे टिकट के लिए पैसा नही लूँगा” और उनसे जो प्रेरणा मिलती मुझे वो गीतों-कविताओ में, घर आकर कागज के सीने में उतार देता। हसरत इन कामो के साथ ही मुशायरो में शिरकत करते, उसी दौरान एक कार्यक्रम में पृथ्वीराज कपूर उनके गीतों को सुनकर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने अपने पुत्र राजकपूर को हसरत जयपुरी से मिलने की सलाह दी। राजकपूर स्वंय हसरत जयपुरी के पास गये और उन्होंने उन्हें अपने स्टूडियो बुलाया और वहाँ पर उन्होंने हसरत साहब को एक धुन सुनाई। उस धुन पर हसरत साहब को गीत लिखना था।
धुन के बोल कुछ इस तरह के थे “अबुआ का पेड़ है वही मुंडेर है, आजा मेरे बालमा काहे की देर है”  हसरत जयपुरी ने धुन सुनकर अपनी फ़िल्मी जीवन का पहला गीत लिखा

“जिया बेकरार है, छाई बहार है आजा मोरे बालमा तेरा इन्तजार है”। 
फिल्म “बरसात” के लिए लिखे इस गीत ने हसरत जयपुरी को पूरे देश में एक नई पहचान दी। हिंदी फिल्मो में जब भी टाइटिल गीतों का जिक्र होता है, तो सबसे पहले हसरत जयपुरी नाम लिया जाता है।  दीवाना मुझको लोग कहे (दीवाना) , 'दिल एक मंदिर है’ ,’ रात और दिन दीया जले’ , ‘तेरे घर के सामने इक घर बनाउगा’, ‘गुमनाम है कोई बदनाम है कोई’,’दो जासूस करे महसूस’ जैसे ढेर सारे फिल्मो के उन्होंने टाइटिल गीत लिखे, इसके साथ ही हसरत जयपुरी ने लिखा “अब्शारे-गजल” में

ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी

वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा
हथेली पे उसके हिना महकी महकी

ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी

सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई
ऐ "हसरत" वो बाद-ए-सबा महकी महकी

उन्होंने प्रेम को प्रतीक माना ...

हसरत जयपुरी ने अपनी उस प्रेमिका के लिए बहुत से गीत लिखे जहाँ वो बोल पड़ते है

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई भी दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत पे ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल

       इन्होने अपने प्यार का इजहार बहुत ही शानदार तरीके से किया पर हसरत कभी अपनी उस पहली प्रेमिका को कह नही पाए और उन्होंने जो अपना पहला प्रेम पत्र लिखा था उसको वो कभी अपनी राधा को नही दे पाए तब राजकपूर ने उनके प्रेमपत्र को एक फिल्म में इस्तेमाल किया “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कही तुम नाराज न होना कि तुम मेरी जिन्दगी हो तुम मेरी बन्दगी हो”

       हसरत के गीतों में अंतर वेदना के साथ प्रेम की असीम गहराई है। हसरत जयपुरी की जोड़ी राजकपूर के साथ 1971 तक कायम रही। “मेरा नाम जोकर” और “कल आज और कल” की बाक्स आफिस में विफलता के कारण राजकपूर से उनकी जोड़ी टूट गयी और राजकपूर ने फिर आनन्द बख्शी को अपने साथ ले लिया। इसके बाद हसरत जयपुरी ने राजकपूर के लिए 1985 में प्रदर्शित फिल्म “राम तेरी गंगा मैली” में “सुन साहिबा सुन” गीत लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ। हसरत जयपुरी को दो बार फिल्मफेयर एवार्ड पुरूस्कार से सम्मानित किया गया। हसरत जयपुरी ने यों तो बहुत रूमानी गीत लिखे लेकिन असल जिन्दगी में उन्हें अपना पहला प्यार नही मिला। हसरत ने तीन दशक लम्बे फ़िल्मी कैरियर में 300 से अधिक फिल्मों के लिए करीब 2000 गीत लिखे। अपने गीतों से श्रोताओ को मन्त्र मुग्ध करने वाला शायर 17 सितम्बर 1999 में चिर निद्रा में विलीन हो गया और छोड़ गया अपने लिखे वो गीत जो उसने सादे कागज के कैनवास पे उतारे थे और अलविदा कह दिया उसने इस दुनिया को। ऐसे शायर को आज उनकी पूण्य तिथि पर शत शत नमन।

सुनील दत्ता  (स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक)

आज है उनका जन्म दिन "शकील बदायुनी" - सुनील दत्ता

हरि ॐ ... 
मन तरपत हरि दर्शन को आज
मोरे तुम बिन बिगरे सब काज ..

     जीवन के दर्शन को अपने कागज के कैनवास पर लिपिबद्द करने वाले मशहूर शायर और गीतकार शकील बदायुनी का अपनी जिन्दगी के प्रति नजरिया उनके शायरी में झलकता है। शकील साहब अपने जीवन दर्शन को कुछ इस तरह बया करते है।

मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा कि मोहब्बतों का हूँ राज़दान
मुझे फ्रख है मेरी शायरी मेरी जिन्दगी से जुदा नही।

     शकील अहमद उर्फ़ शकील बदायुनी का जन्म 3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदायुँ जिले में हुआ था। शकील साहब ने अपनी शिक्षा बी ए तक की और उसके बाद 1942 में वो दिल्ली चले आये। उस वक्त देश स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर से गुजर रहा था। शकील का शायर दिल भी देश के हालात का जायजा ले रहा था तभी तो शकील का शायर बोल पडा

जिन्दगी का दर्द लेकर इन्कलाब आया तो क्या
एक जोशिदा पे गुर्बत में शबाब आया तो क्या

     शकील साहब अपनी रोजी रोटी के लिए दिल्ली में आपूर्ति विभाग में आपूर्ति अधिकारी के रूप में नौकरी करनी शुरू कर दी, उसके साथ ही उन्होंने अपनी शायरी को बदस्तूर जारी रखा। शकील बदायुनी की शायरी दिन ब दिन परवान चढने लगी और वो उस वक्त मुशायरो के जान हुआ करते थे। उनकी शायरी मुशायरो में एक अजीब शमा बाँध जाया करती थी।
शायद आगाज हुआ फिर किसी अफ़साने का
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने को

     शकील की शायरी ने पूरे देश में अपना एक मुकाम हासिल किया, उस समय शकील साहब की शोहरत बुलन्दियो पर थी। अपनी शायरी से बेपनाही कामयाबी से प्रेरित हो उन्होंने दिल्ली छोड़ने का मन बना लिया और नौकरी से त्यागपत्र देकर 1946 में वो दिल्ली से मुम्बई चले आये। मुम्बई में उनकी मुलाक़ात उस समय के मशहूर फिल्म निर्माता ए आर कारदार उर्फ़ कारदार साहब और महान संगीतकार नौशाद से हुई। नौशाद साहब के कहने पर शकील बदायुनी ने पहला गीत लिखा ....
हम दिल का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे
हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे

     यह गीत नौशाद साहब को बेहद पसन्द आया इसके बाद शकील साहब को कारदार साहब की “दर्द“ के लिए साइन कर लिया गया। वर्ष 1947 में अपनी पहली ही फिल्म “दर्द” के गीत “अफसाना लिख रही हूँ दिले बेकरार का...” कि अपार सफलता से शकील बदायुनी फ़िल्मी दुनिया में कामयाबी के शिखर पर पहुँच गये। उसके बाद शकील साहब ने कभी ताउम्र पीछे मुड़कर नही देखा. वो सुपर हिट गीतों से फ़िल्मी दुनिया को सजाते रहे।

रूह को तड़पा रही है उनकी याद
दर्द बन कर छा रही है उनकी याद

     शकील बदायुनी के फ़िल्मी सफर पर अगर गौर करे तो उन्होंने सबसे ज्यादा गीत, संगीतकार नौशाद के लिए लिखे, जो अपने जमाने में सुपर हिट रहे। वो सारे गीत देश के हर नौजवानों के होठो के गीत बन गये - इश्क करने वालो के और इश्क में नाकाम होने वालो के। शकील साहब ने भारतीय दर्शन से जुड़े अनेकों गीत लिखे जो आज भी हर सुनने वालो के दिल और दिमाग को बरबस ही एक ऐसी दुनिया में लेकर चले जाते हैं, जहाँ उसे सुकून का एहसास होता है। “ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले” , मदर इण्डिया के गीत “दुनिया में हम आये है तो जीना ही पडेगा जीवन है अगर जहर तो पीना पडेगा”  ऐसे गीतों से उन्होंने जीवन के संघर्षो को नया आयाम दिया, प्रेम के रस में डुबते हुए उन्होंने कहा कि “दो सितारों का जमी पे है मिलन / आज की रात/ सारी दुनिया नजर आती है दुल्हन/ आज की रात... , दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ रहा है, तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करु , दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या न किया , कोई सागर दिल को बहलाता नही जैसे गीतों के साथ फ़िल्मी दुनिया की मील का पत्थर बनी फिल्म मुगले आजम में शकील बोल पड़ते है “इंसान किसी से दुनिया में एक बार मुहब्बत करता है , इस दर्द को ले कर जीता है इस दर्द को ले कर मरता है”

     “ प्यार किया तो डरना क्या / प्यार किया कोई चोरी नही की / छुप छुप आहे भरना क्या” जैसे गीतों को कागज और फ़िल्मी कैनवास पे उतार कर अपने गीतों को हमेशा के लिए अमर कर दिया। जब तक ये कायनात रहेगी और जब तक यह दुनिया कायम रहेगी, शकील बदायुनी को प्यार करने वाले उनके गीतों से अपने को महरूम नही कर पायेंगे। शकील बदायुनी को उनके गीतों के लिए तीन बार फिल्म फेयर एवार्ड से नवाजा गया - 1960 में “चौदवही का चाँद हो या आफताब हो” , 1961 में फिल्म “घराना” के  “हुस्न वाले तेरा जबाब नही” , 1962 में फिल्म “बीस साल बाद”  में “कही दीप जले कही दिल / जरा देख ले आ कर परवाने / तेरी कौन सी है मंजिल / कही दीप जले कही दिल”

     आज उनका जन्म दिन है बस इतना ही कहूँगा शकील बदायुनी ने अपने गीतों के साथ हर पल याद किये जायेंगे।

सुनील दत्ता .. स्वतंत्र पत्रकार .. समीक्षक

डॉ. शिव कुमार मिश्र को जलेस की श्रद्धांजलि

डॉ. शिव कुमार मिश्र की स्मृति में जनवादी लेखक संघ द्वारा 28 जून 2013 को आयोजित श्रद्धांजलि सभा में प्रस्तुत शोक प्रस्ताव



दिल्ली राजधानी क्षेत्र के लेखकों की यह सभा हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और चिंतक डा. शिवकुमार मिश्र के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। दिनांक 21 जून को अहमदाबाद के एक अस्पताल में देहावसान हो गया था जहां उनका इलाज चल रहा था जिससे उनके ठीक हो जाने की उम्मीद भी बनी थी। उनका अंतिम संस्कार दिनांक 22 जून को प्रात: 8.00 बजे वल्लभविद्यानगर में हुआ जहां उन्होंने अपना आवास बना लिया था।

          डॉ. शिव कुमार मिश्र का जन्म कानपुर में 2 फरवरी, 1931 को हुआ था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से एम.ए.,पी.एच.डी., डी.लिट. की तथा आगरा विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री प्राप्त की।

          डॉ. मिश्र ने 1959 से 1977 तक सागर विश्वविद्यालय में हिंदी के लेक्चरर तथा रीडर के पद पर कार्य किया। उसके बाद वे प्रोफेसर हो कर सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर (गुजरात) चले गये जहां वे हिंदी विभाग में 1977 से 1991 तक प्रोफेसर तथा अध्यक्ष रहे। वहीं से सेवानिवृत्त होकर वे स्वतंत्र लेखन कर रहे थेा

          डॉ. मिश्र ने यू.जी.सी. की वितीय सहायता से दो वृहत शोध परियोजनाओं पर सफलतापूर्वक कार्य किया। उनके 30 वर्षों के शोध निर्देशन मे लगभग 25 छात्रों ने पी.एच.डी. की उपाधि हासिल की। डॉ. मिश्र को उनकी मशहूर किताब, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन’ पर 1975 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला। भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के तहत 1990 में उन्होंने सोवियत यूनियन का दो सप्ताह का भ्रमण किया।

          मिश्र जी ने जनवादी लेखक संघ के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, आपात्काल के अनुभव के बाद अलग संगठन बनाने का एक विचारधारात्मक आग्रह सबसे पहले उन की तरफ़ से आया था। वे उसके संस्थापक सदस्य थे, वे जयपुर सम्मेलन में 1992 में जलेस के महासचिव और पटना सम्मेलन (सितंबर 2003) में जलेस के अध्यक्ष चुने गये और तब से अब तक वे उसी पद पर अपनी नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे थे। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वे अपनी वैचारिक प्रतिद्धता पर अडिग रहे । भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के इस समय भी वे सदस्य थे।

          मिश्र जी हिंदी के शीर्षस्थ आलोचकों में से एक थे। उनकी पुस्तकों में से प्रमुख हैं- 'नया हिंदी काव्य', 'आधुनिक कविता और युग संदर्भ', 'प्रगतिवाद', 'मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन: इतिहास तथा सिद्धांत', 'यथार्थवाद', 'प्रेमचंद: विरासत का सवाल', 'दर्शन साहित्य और समाज', 'भक्तिकाव्य और लोक जीवन', 'आलोचना के प्रगतिशील आयाम', 'साहित्य और सामाजिक संदर्भ', 'मार्क्सवाद देवमूर्तियां नहीं गढ़ता' आदि। उन्होंने इफको नाम की कोआपरेटिव सेक्टर कंपनी के लिए दो काव्य संकलनों के संपादन का भी बड़ी मेहनत व लगन से शोधपूर्ण कार्य किया, पहला संकलन था : 'आजादी की अग्निशिखाएं' और दूसरा, 'संतवाणी' । मिश्र जी के निधन से हिंदी साहित्य व हमारे समाज के लिए अपूरणीय क्षति हुई है। जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन ने अपना एक नेतृत्वकारी वरिष्ठ साथी खो दिया है।

           लेखकों की यह सभा मिश्र जी के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है तथा उनके परिवारजनों व मित्रों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करती है।


मास्टर मदन : भारतीय संगीत के दूसरे सहगल - सुनील दत्ता

master madana shabdankan sunil dutta singer मास्टर मदन सुनील दत्ता शब्दांकन पूण्यतिथि यादें गायक
1. गोरी गोरी बईयाँ- भजन

2. मोरी बिनती मानो कान्हा रे- भजन

3. मन की मन- ग़ज़ल

4. चेतना है तो चेत ले- भजन

5. बांगा विच - पंजाबी गीत

6. रावी दे परले कंडे वे मितरा- पंजाबी गीत

7. यूँ न रह-रह कर हमें तरसाइये- ग़ज़ल

8. हैरत से तक रहा है- ग़ज़ल

भारतीय संगीत जगत में अपने सुरों से जादू बिखरने वाले और श्रोताओं को मदहोश करने वाले पाश्वर्गायक तो कई हुए और उनका जादू भी सिर चढ़कर बोला, लेकिन कुछ ऐसे गायक भी हुए जो गुमनामी के अँधेरे में खो गये और आज उन्हें कोई याद नही करता। उन्ही में से एक ऐसी ही प्रतिभा थे “ मास्टर मदन “ …

     28 दिसम्बर 1927 को पंजाब के जालन्धर में जन्मे मास्टर मदन एक बार सुने हुए गानों के लय को बारीकी से पकड़ लेते थे। उनकी संगीत की प्रतिभा से सहगल काफी प्रभावित हुए। उन्होंने मास्टर मदन से पेशकश की - जब भी वह कोलकाता आये तो उनसे एक बार अवश्य मिले। मास्टर मदन ने अपना पहला प्रोग्राम महज साढ़े तीन साल की उम्र में धरमपुर में पेश किया था। गाने के बोल कुछ इस प्रकार थे “ हे शरद नमन करू“। कार्यक्रम में मास्टर मदन को सुनने वाले कुछ शास्त्रीय संगीतकार भी उपस्थित थे, जो उनकी संगीत प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए और कहा “इस बच्चे की प्रतिभा में जरुर कोई बात है और इसका संगीत ईश्वरीय देंन है”।

     मास्टर मदन अपने बड़े भाई के साथ कार्यक्रम में हिस्सा लेने जाया करते थे। अपने शहर में हो रहे कार्यक्रम में हिस्सा लेने के एवज में मास्टर मदन को अस्सी रूपये मिला करते थे| जबकि शहर से बाहर हुए कार्यक्रम के लिए उन्हें दो सौ पचास रूपये पारिश्रमिक के रूप में मिलता था।

     मास्टर मदन की प्रतिभा से प्रख्यात कवि मैथलीशरण गुप्त भी अत्यंत प्रभावित थे और उन्होंने इसका वर्णन अपनी पुस्तक “ भारत भारती “ में किया है।

     मास्टर मदन ने श्रोताओं के बीच अपना अंतिम कार्यक्रम कलकत्ता में पेश किया था जहाँ उन्होंने “राग बागेश्वरी“ गाकर सुनाया।

     उनकी आवाज के माधुर्य से प्रभावित श्रोताओं ने उनसे एक बार फिर से गाने की गुजारिश की। लगभग दो घंटे तक मास्टर मदन ने अपनी आवाज के जादू से श्रोताओं को मदहोश करते रहे। श्रोताओं के बीच बैठा एक शख्स उनकी आवाज के जादू से इस कदर सम्मोहित हुआ कि उसने उनहें उपहार स्वरूप पांच रूपये भेट किये।

     कुछ समय बाद मास्टर मदन दिल्ली आ गये जहाँ वह अपनी बड़ी बहन और बहनोई के साथ रहने लगे। उनकी बहन उन्हें पुत्र के समान स्नेह किया करती थी। दिल्ली में मास्टर मदन दिल्ली रेडियो स्टेशन में अपना संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। शीघ्र ही उनकी प्रसिद्धि फिल्म उद्योग में भी फ़ैल गयी और वह दूसरे सहगल के नाम से मशहूर हो गये। एक बार एक फिल्म निर्माता ने उनके पिता से मास्टर मदन के काम करने की पेशकश भी की लेकिन उनके पिता ने निर्माता की पेशकश को यह कह के ठुकरा दिया कि फिल्म उद्योग में मास्टर मदन के गुणों का सदुपयोग नही हो पायेगा। दिल्ली में ही मदन की तबियत प्राय: खराब रहा करती थी। दवाओं से उनके स्वास्थ्य में सुधार नही हो पा रहा था। इसीलिए वह स्वास्थ्य में सुधार के लिए दिल्ली से शिमला आ गये। मगर उनके स्वास्थ्य में कुछ ख़ास असर नही हुआ। महज १५ वर्ष की अल्पायु में 5 जून 1942 को शिमला में मास्टर मदन ने इस दुनिया से चिर विदा हो लिए। मास्टर मदन ने अपने सम्पूर्ण जीवन में महज आठ गीत रिकार्ड कराए थे।


मजरुह सुल्तानपुरी को याद करते - सुनील दत्ता

मजरुह सुल्तानपुरी

1 अक्टूबर 1919 − 24 मई 2000
चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज़ियादा 

 “एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल , जग में रह जाएगा प्यारे तेरे बोल”

   एक ऐसा हकीम जिसने आगे चलाकर अपनी कलम के जरिये पूरी दुनिया में अपना एक मुकाम हासिल किया | वो अजीम शक्सियत थे मजरुह सुल्तानपुरी साहब | उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर शहर में एक अक्तूबर 1919 को इसरार हसन खां उर्फ़ मजरुह सुल्तानपुरी के पिता सिराजुल हक़ खां साहब के यहाँ ऐसी अजीम शक्सियत ने जन्म लिया जो आगे चलकर पूरी दुनिया की आवाज बना | मजरुह के पिता उस वक्त ब्रिटिश शासन काल में सब इंस्पेक्टर थे | उनकी दिली तमन्ना थी की मजरुह ऊँची से ऊँची तालीम हासिल करे | मजरुह ने उनकी इच्छा का आदर किया और अपनी पिता की इच्छा के लिए उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तीब कालेज से यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा पास करके यूनानी मेडिकल की डिग्री हासिल करी और बाद में वह हकीम के रूप में काम करने लगे | पर मजरुह का रास्ता तो कुछ और था | उस दरम्यान उन्हें प्रगतिशील शायरों का साथ मिला और वे कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हुए | देश की बदहाली , बेचारगी उनसे देखी नही गयी |
    बचपन के दिनों से ही मजरुह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी करने का काफी शौक था और वह उन दिनों सुल्तानपुर में हो रहे मुशायरो में शिरकत किया करते थे | अपने शेरो-शायरी से उन्होंने आवाम का दिल जीत लिया उनका उस वक्त बड़ा नाम हुआ | इसी दरम्यान उन्होंने अपनी मेडिकल का करोबार बन्द कर दिया और अपना सम्पूर्ण ध्यान वो शेरो-शायरी में लगा दिया |
तभी तो मजरुह बोल पड़ते है
जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज़ियादा
मजरुह की शायरी का कैनवास बहुत बड़ा था उसमे उन्होंने बहुत से रंग भरे |
मजरुह ने तब कहा आवाम से
जला के मशाल-ए-जान हम जुनूं सिफात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले
दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले
   इसी दौरान मजरुह की मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई | जिगर मुरदाबादी की सलाह पर मजरुह सुलतानपुरी फिल्मो में गीत लिखने को राजी हो गये वर्ष 1946 में नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में बन रही फिल्म “शाहजहाँ” के लिए उन्होंने पहला गीत लिखा |
मेरे सपनो की रानी रूही रूही रूही


    नौशाद ने मजरुह सुलतानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा |  उस धुन पर "जब उसने गेसू बिखराए, बादल आया झूम के" जैसे शानदार गीत को इस रचना शिल्पी ने गढ़ दी | उसके बाद तो मजरुह सुलतानपुरी फिल्मो के हस्ताक्षर बन गये | उनकी लिखी नज्म हो या गजल हर एक के जुबान पे आते रहते थे |
    मजरुह सुल्तानपुरी के गीतों की एक बहुत ही लम्बी श्रृखला है | मजरुह ने जहाँ आवाम के दर्द को समझा और उनके जिन्दगी के जद्दोजहद को अपनी कलम से कागज के कैनवास पे उकेरा वही मजरुह ने श्रृंगार और प्रेम गीत भी लिखे
"तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनता जाऊ"
"छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा"
"दिल का भंवर करे पुकार / प्यार का राग सुनो"
"इक लड़की भीगी-भागी सी
सोती रातों को जागी सी
मिली इक अजनबी से
कोई आगे न पीछे
तुम ही कहो ये कोई बात है"
वर्ष 1964 में बनी फिल्म "दोस्ती" में इस रचना शिल्पी ने अपने रचित गीत से दो दोस्तों के अंतर-मन की वेदना को कुछ इस तरह अभिव्यक्ति दी
चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे
फिर भी कभी अब नाम को तेरे
आवाज़ मैं न दूँगा...
गीत फिल्म को देखने वालो के अंतर मन को स्पन्दित कर गया और इस गीत के लिए मजरुह सुल्तानपुरी को सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए "फिल्म फेयर एवार्ड" से नवाजा गया | कमाल अमरोही की फिल्म और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत फिल्म “ पाकीजा” के शानदार दर्द भरे गीत -
इन्हीं लोगों ने, इन्हीं लोगों ने
इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा
हमरी न मानो बजजवा से पूछो
हमरी न मानो सैंया ... बजजवा से पूछो
जिसने ... जिसने अशरफ़ी गज़ दीना दुपट्टा मेरा
लिखकर उस फिल्म को मील का पत्थर बना दिया |
    मजरुह ने नई पीढ़ी के जज्बात को भी खूब ऊर्जा प्रदान की “ पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा / बेटा हमारा ऐसा काम करेगा/ मगर ये तो, कोई ना जाने/ के मेरी मंज़िल, है कहाँ...

    मजरुह ने जहाँ रूमानी गीत लिखे वही मजरुह के गीतों में जीवन दर्शन भी मिलता है “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है/ ये उठें सुबह चले, ये झुकें शाम ढले/ मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले”

    मजरुह सुल्तानपुरी को अपनी वामपंथी विचार धारा और अपने गीतों के माध्यम से व्यवस्था के प्रति विद्रोह के चलते लगभग दो वर्ष कारावास भी झेलना पडा था | उस दौरान जब वो जेल में थे तो उनके परिवार की माली हालात ठीक नही थे | ऐसे में राजकपूर ने उनकी सहायता करनी चाही, पर स्वाभिमान से जीने वाले मजरुह ने उनसे सहायता लेने से इनकार कर दिया | इसके बाद राजकपूर ने उनसे एक गीत लिखने की पेशकश की और तब मजरुह सुल्तानपुरी ने जीवन के उस फलसफा की रचना की
“ इक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल
जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल
दूजे के होंठों को, देकर अपने गीत
कोई निशानी छोड़, फिर दुनिया से डोल”
इस गीत के एवज में राजकपूर ने उन्हें एक हजार रूपये दिए |
मजरुह सुल्तानपुरी के महत्वपूर्ण योगदान को सराहते हुए वर्ष 1993 में उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान "दादा साहब फाल्के" पुरूस्कार से नवाजा गया | मजरुह सुलतानपुरी फ़िल्मी दुनिया के पहले ऐसे गीतकार हुए , जिन्हें दादा साहब फाल्के एवार्ड प्राप्त हुआ |

    मजरुह सुल्तानपुरी ने चार दशक से भी ज्यादा लम्बे कैरियर में लगभग 300 फिल्मो के लिए करीब 4000 गीतों की रचना की | उनके रचित गीत आज भी लोगो की जुबान पे बनी हुई है और लोगो के होठ खुद ब खुद गुनगुनाते है | 24 मई 2000 को यह क्रांतिकारी, आवाम और सिने जगत का मशहूर शायर इस दुनिया को अलबिदा कह गया, यह कहते हुए...
अनहोनी पग में काँटें लाख बिछाए
होनी तो फिर भी बिछड़ा यार मिलाए
ये बिरहा ये दूरी, दो पल की मजबूरी
फिर कोई दिलवाला काहे को घबराये,
धारा, तो बहती है, बहके रहती है
बहती धारा बन जा, फिर दुनिया से डोल
एक दिन ...
इस महान शायर को शत शत नमन मेरा
सुनील दत्ता स्वतंत्र पत्रकार व विचारक


सुनील दत्ता - याद-ए कैफ़ी (आज 10 मई कैफ़ी की पुण्यतिथि है)

आज है कैफ़ी की पुण्यतिथि
प्यारका जश्न नई तरह मनाना होगा|
गम किसी दिल में सही गम को मिटाना होगा| 
“कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी"
कैफ़ी आज़मी पूण्यतिथि शब्दांकन सुनील दत्ता  kaifi azmi death anniversary sunil dutta


कैफ़ी आज़मी तरक्की पसंद तहरीक की अहम शख्सियत का नाम है, जिसने प्रगतिशील आन्दोलन और भारतीय जन नाट्य आन्दोलन को आगे बढाने में अपनी पूरी जिन्दगी पूर्ण आहूत कर दी| कैफ़ी एक मजबूत संगठनकर्ता के साथ—साथ उर्दू अदब के बेमिशाल इंकलाबी शायर थे| राष्ट्रीय चेतना से सम्पन्न कैफ़ी आज़मी के लिखे फिल्मो की गीत इतिहास रचते हुए दिखाई पड़ते है इन्होने इप्टा के लिए बहुत सारे नाटक और इंकलाबी गीत लिखे| काफी को फिल्मो में कहानी, पटकथा, संवाद लेखन में भी महारत हासिल था, तभी तो उन्हें देश के विभाजन पर बनी फिल्म” गरम हवा” पर एक साथ कहानी , पटकथा, सवाद लेखन के लिए तीन—तीन फिल्म फेयर एवार्ड हासिल हुए| ' नसीम ' फिल्म जो बाबरी मस्जिद विध्वंश को केंद्र में रखकर बनी उसमे दादा जी की भूमिका में कैफ़ी ने अकल्पनीय अभिनय भी करके अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया|

कैफ़ी उर्दू अदब में गजल के रास्ते से प्रवेश करते है, परन्तु आगे चलकर नज्मो के माध्यम से उर्दू शायरी में पूरी उंचाई तक पहुँचते है|

औरत, मकान, धमाका, तेलगाना, आवार सजदे, दूसरा बनवास जैसी नज्मो को अदब की दुनिया का हर शख्स ठीक ढंग से जानता है और कैफ़ी की काबलियत का लोहा मानता है| खाना—- मस्नवी के माध्यम से कैफ़ी ने उर्दू में मनस्वी की परम्परा को एक नया आयाम दिया अल्लामा इकबाल की नज्म "इब्लिस की मज्लिस—ए शुरा" जो 1936 में लिखी गयी थी के समानान्तर कैफ़ी आज़मी ने अपने वैचारिक धरातल को विस्तार देने के लिए इब्लिस की मज्लिस—ए—शुरा ( 1983 ) जैसी नज्म लिखी| नज्म के साथ—साथ कैफ़ी ने गजल कहना जारी रखा| कैफ़ी आज़मी न सिर्फ साहित्य, कला, संस्कृति के मोर्चे पर काम कर रहे थे| बल्कि साथ ही साथ सामाजिक बदलाव के लिए किसानो—मजदूरों के साथ जन संघर्षो के जितने पड़ाव आये कैफ़ी आज़मी ने उन आन्दोलनों में महत्व पूर्ण भूमिका अदा की|

पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से पांच—छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव मिजवा| मिजवा गाँव के एक प्रतिष्ठित जमीदार परिवार में उन्नीस जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ| अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चलकर अदब की दुनिया में कैफ़ी आज़मी नाम से बेमिशाल सोहरत हासिल की|

कैफ़ी के वालिद को आने वाले समय का अहसास हो चुका था| उन्होंने अपनी जमीदारी की देख रेख करने के बजाय गाँव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया| उन दिनों किसी जमीदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी—पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था| कैफ़ी के वालिद का निर्णय घर के लोगो को नागवार गुजरा| वो लखनऊ चले आये और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रांत में तहसीलदारी की नौकरी मिल गयी| कुछ ही दिनों बाद अपने बीबी बच्चो के साथ लखनऊ में एक किराए के मकान में रहने लगे| कैफ़ी के वालिद साहब नौकरी करते हुए अपने गाँव मिजवा से सम्पर्क बनाये हुए थे और गाँव में एक मकान भी बनाया| जो उन दिनों हवेली कही जाती थी| कैफ़ी की चार बहनों की असमायिक मौत ने न केवल कैफ़ी को विचलित किया बल्कि उनके वालिद साहब का मन भी बहुत भारी हुआ| उन्हें इस बात कि आशंका हुई कि लडको को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर यह मुसीबत आ पड़ी है| कैफ़ी के माता—पिता ने निर्णय लिया कि कैफ़ी को दीनी तालीम ( धार्मिक शिक्षा ) दिलाई जाय| कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया|

आयशा सिद्दीक ने एक जगह लिखा है कि  "कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गो ने एक दीनी शिक्षा गृह में इस लिए दाखिल किया था कि वह पर फातिहा पढ़ना सिख जायेंगे| कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिहा पढ़कर निकल गये "| 
कैफ़ी आज़मी पूण्यतिथि शब्दांकन सुनील दत्ता  kaifi azmi death anniversary sunil dutta
सुल्तानुल मदारिस में पढ़ते हुए कैफ़ी साहब 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कहानी संग्रह ” अंगारे” पढ़ लिया था, जिसका सम्पादन सज्जाद जहीर ने किया था| उन्ही दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफ़ी साहब ने छात्रो की यूनियन बना कर अपनी मांगो के के साथ हडताल शुरू कर दी| डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदरीस बन्द कर दिया गया| परन्तु गेट पर हडताल व धरना चलता रहा| धरना स्थल पर कैफ़ी रोज एक नज्म सुनाते| धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफ़ी की प्रतिभा को पहचान कर कैफ़ी और उनके साथियो को अपने घर आने की दावत दे डाली| वही पर कैफ़ी की मुलाक़ात एहतिशाम साहब से हुई जो उन दिनों सरफराज के सम्पादक थे| एहतिशाम साहब ने कैफ़ी की मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से कराई| सुल्तानुल मदारीस से कैफ़ी साहब और उनके कुछ साथियो को निकाल दिया गया| 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी साहब कानपुर चले गये और वह मजदूर सभा में काम करने लगे| मजदूर सभा में काम करते हुए कैफ़ी ने कम्युनिस्ट साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया| 1943 में जब बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफ़ी बम्बई चले गये और वही कम्यून में रहते हुए काम करने लगे सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफ़ी ने पढ़ना बन्द नही किया| प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर (फ़ारसी ) दबीर कामिल ( फ़ारसी ) आलिम ( अरबी ) आला काबिल ( उर्दू ) मुंशी ( फ़ारसी ) कामिल ( फ़ारसी ) की डिग्री हासिल कर ली| कैफ़ी के घर का माहौल बहुत अच्छा था| शायरी का हुनर खानदानी था| उनके तीनो बड़े भाई शायर थे| आठ वर्ष की उम्र से ही कैफ़ी ने लिखना शुरू कर दिया| ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार कैफ़ी ने बहराइच के एक मुशायरे में गजल पढ़ी| उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे| कैफ़ी की जगल मानी साहब को बहुत पसंद आई और उन्होंने काफी को बहुत दाद दी| मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफ़ी की प्रंशसा अच्छी नही लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्ही की गजल है ? कैफ़ी साहब को इम्तिहान से गुजरना पडा| मिसरा दिया गया—  "इतना हंसो कि आँख से आँसू निकल पड़े" फिर क्या कैफ़ी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई| लोगो का शक दूर हुआ ” काश जिन्दगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिन्दगी इस तरह गुजर जाती जैसे फूलो पर से नीमसहर का झोका” और फिर 23 मई 1947 में काफी आज़मी की शादी शौकत आज़मी के साथ सम्पन्न हुई कैफ़ी एक बेटी मुन्नी और एक बेटा बाबा आज़मी के वालिद बने| ग्यारह वर्ष तक बेटी मुन्नी बनी रही फिर अली सरदार जाफरी ने मुन्नी को शबाना आज़मी नाम दिया|

कैफ़ी की पत्नी शौकत आज़मी अपनी यादो का पिटारा खोलती है तो बोल पड़ती है, सरदार जाफरी ने शादी के मौके पर उपहार स्वरूप एक प्रति बहुत सुन्दर जिल्द बन्दी में प्रस्तुत की अन्दर सरदार जाफरी ने लिखा था ... “मोती के लिए” ( मेरा घरेलू नाम है )
जिन्दगी जेहद में है, सब्र के काबू में नही ,
नब्जे हस्ती का लहू, कापते आँसू में नही ,
उड़ने खुलने में है निकहत, खमे गेसू में नही ,
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नही|

उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे, उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे| ( कैफ़ी )

और दुसरे पृष्ठ पर लिखा था—-
“श” के नाम

“मैं तनहा अपने फन को आखिर—ए—शब” तक ला चुका हूँ| तुम आ जाओ तो सहर हो जाए| “ और सहर हो गयी| “श” शौकत बनकर उनकी जिन्दगी में आ गयी| शादी के बाद हम अँधेरी कम्यून के एक कमरे में आ गये| कम्यून की दुनिया मेरे लिए एक बिलकुल अलग और नई दुनिया थी| पीपल और कटहल के बड़े—बड़े पेड़ो से घिरी हुई| यह जगह बहुत ही सुनदर थी और उससे सुन्दर वह के लोग| खुले विचारों वाले| पारदर्शिता, मानवता से प्रेम करने वाले व्याकुल, परेशान, भूखे लोगो के लिए एक नया संसार बनाने की धुन में प्रयास रत लोग|

कामरेड ए० बी० बर्धन कुछ इस तरह याद करते है कैफ़ी को -  ” क्रान्ति के इस महान शायर” की गरजती आवाज लाखो लोगो को सम्मोहित कर देती थी आज खामोश हो गयी| लेकिन क्या ऐसा हुआ है ? कैफ़ी आज भी उन प्रगतिशील धारा के लोगो के बीच है और रहेंगे| उनके शब्द और उनकी आवाज इसकी प्रतिध्वनी उस हर जगह भी गूजती रहेगी, जहा मनुष्य भाई के रूप में मनुष्य के पास पहुंचता हो, भले ही उसका मत एवं उसकी जाति कुछ हो महिला अपनी बंधन एवं दासता की बेदी को तोडती हो और अपनी गरिमा एवं समानता के लिए उठ खड़ी होती हो, मजदूर शोषको के विरुद्ध अपने अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रहते हो और शोषण से मुक्त विश्व के लिए संघर्ष करते हो| कैफ़ी की पूरी शायरी धर्म निरपेक्षता, मानवतावाद अपने हमवतनो के लिए मनुष्य, सर्वोत्कृष्ट सृष्टि के लिए अजस्र प्यार से ओतप्रोत रही है|
कैफ़ी आज़मी पूण्यतिथि शब्दांकन सुनील दत्ता  kaifi azmi death anniversary sunil dutta


जावेद अख्तर साहब कैफ़ी के लिए लिखते है...
अजीब आदमी था वो...
मुहब्बतों का गीत था बगावतो का राग था
कभी वो सिर्फ फूल था कभी वो सिर्फ आग था
अजीब आदमी था वो
वो मुफलिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते है
वो जाबिरो से कहता था
तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज है
कभी पिघल भी सकते है
वो बन्दिशो से कहता था
मैं तुमको तोड़ सकता हूँ
सहूलतो से कहता था
मैं तुमको छोड़ सकता हूँ
हवाओं से वो कहता था
मैं तुमको मोड़ सकता हूँ
वो ख़्वाब से ये कहता था
के तुझको सच करूंगा मैं
वो आरजू से कहता था
मैं तेरा हम सफर हूँ
तेरे साथ ही चलूँगा मैं|
तू चाहे जितनी दूर भी बना अपनी मंजिले
कभी नही थकुंगा मैं
वो जिन्दगी से कहता था
कि तुझको मैं सजाऊँगा
तू मुझसे चाँद मांग ले
मैं चाँद ले आउंगा
वो आदमी से कहता था
कि आदमी से प्यार कर
उजड़ रही ये जमी
कुछ इसका अब सिंगार कर
अजीब आदमी था वो

 कैफ़ी ने अपनी जिन्दगी से रुखसत होते—होते ये नज्म कही थी, पूरे दुनिया के मेहनतकस आवाम से...

कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का, जो आज तक उधार सा है|

10 मई 2002 को यह इन्कलाबी शायर इस दुनिया से रुखसत हो लिया और अपनी आवाज अपनी आग उगलती नज्मो को हमारे बीच सदा—सदा के छोड़ गया यह कहते हुए|

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

सुनील दत्ता  (पत्रकार)

आभार इस लेख का कुछ अंश अभिनव कदम पत्रिका से लिया गया है

जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन

राहुल एक जिजीविषा .... आज  9 अप्रैल, उनका जन्म दिन है

-   सुनील दत्ता

जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन शब्दांकन shabdankan birthday Rahul Sankrityayan    आज के इस विराट पृथ्वी के फलक पर प्रकृति अपने गर्भ में अनेको रहस्य छुपाये रहती है | प्रकृति समय- समय पर इस खुबसूरत कायनात को नये- नये उपहारों से नवाजती आई है |
    कभी बड़े वैज्ञानिक, ऋषि, महर्षि, दर्शन वेत्ता साहित्य सृजन शिल्पी और इस खुबसूरत कायनात में रंग भरने वाले व्यक्तित्व से सवारती चली आ रही है |
    ऐसे ही एक बार सवारा था जनपद आज़मगढ़ को 9 अप्रैल 1893 को केदार पांडये ( राहुल सांकृत्यायन ) के रूप में ...
    राहुल सांकृत्यायन विश्व- विश्रुत विद्वान् और अनेको भाषाओं के ज्ञाता हुए थे |


    ज्ञान के विविध क्षेत्रो में उनका अवदान अतुलनीय है | भाषा और साहित्य के अज्ञात गुहाधकारो को आलोकित करने, इतिहास और पुरातत्व के अछूते क्षेत्रो को उदघाटित करने, विश्व- भ्रमण का कीर्तिमान बनाते हुए यात्रा वृतान्तो का विपुल साहित्य- सृजन और यात्रा- वृत्त को “ घुमक्कड़ शास्त्र “ के रूप में शास्त्र- प्रतिष्ठा देने, इसके साथ ही अपनी जीवन- यात्रा के पांच भागो में एक अनुपम आत्मकथा लिखने और अनेको महत्वपूर्ण ज्ञात- अज्ञात महापुरुषों की जीवनी प्रस्तुत करने से लेकर पुरातत्व, इतिहास, समाज दर्शन और अर्थशास्त्र के जीवंत पहलुओ को उदघाटित करने वाली विश्व प्रसिद्द कहानियों और उपन्यासों के सृजन, दर्शन एवं राजनीति पर समर्थ साहित्य रचना के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी, किसान- आन्दोलन की अगुवाई, राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक सिपाही की भाँती सक्रिय संघर्ष करते हुए उन्होंने विदेशो के विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य के रूप में अध्यापन और अपने समर्थ पद- संचरण से देश और विदेश के दुर्गम क्षेत्रो को अनवरत देखा- परखा |  गुरुदेव के “ एकला चलो रे “ का भाव इनके समग्र जीवन पर था |
    इतने कार्यो को एक साथ सम्पन्न करना एक साधारण आदमी के वश का कार्य नही हो सकता |
    वे चलते- फिरते विश्वकोश थे और कर्म शक्ति के कीर्तिमान थे | ऐसे महामानव शताब्दियों के विश्व- पटल पर अवतरित होते है राहुल उन्ही महापुरुषों की श्रृखला में एक थे |

जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन शब्दांकन shabdankan birthday Rahul Sankrityayan     राहुल जी के पूर्वज सरयूपार गोरखपुर जनपद के मलाव के पाण्डेय थे “ जो कभी आजमगढ़ के इस अंचल में आ बसे थे | मलाव से सर्वप्रथम गयाधर पाण्डेय आये और वह बस गये जिसे चक्रपाणीपुर कहते है | चक्रपाणी पाण्डेय उन्ही के पूर्वज थे जिनके नाम पर इस गाँव का नाम चक्रपाणीपुर पड़ा | सरयूपारीण ब्राह्मणों में सोलह प्रतिष्टित गोत्र है |
    राहुल की माता का नाम कुलवन्ती देवी और पिता गोवर्धन पाण्डेय एक बहन तथा चार भाइयो में सबसे बड़े राहुल जी निजामाबाद से मिडिल स्कुल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद वे आजमगढ़ के क्रिश्चियन मिशन स्कूल ( वेस्ली कालेज ) में अंग्रेजी पढने गये | उनका मन वहा नही लगा इसी कारण उन्होंने वाराणसी के डी. ए. वी स्कूल में प्रवेश लिया, परन्तु वहा भी वे अधिक दिन टिक न सके |
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    राहुल जी का बचपन उनके ननिहाल पन्दहां में बीता | नाना रामशरण पाठक फौजी रह चुके थे | इसीलिए वो अपने सैनिक जीवन के किस्से- कहानिया उन्हें सुनाया करते थे | बाल्यावस्था के राहुल को विभिन्न देशो- प्रदेशो के वर्णनों के किस्सागोई को सुनकर, उन्हें अपनी आँखों से देखने की इच्छा ने ही उनमे यायावरी का मानसिक आधार तैयार किया |
    सैर की दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहा
    जिन्दगानी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहा | 
    शायद इस शेर ने ही केदार पाण्डेय को राहुल का स्वरूप प्रदान किया |

    केदार से राहुल

        उनकी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है, कनैला के केदार पांडे का महापंडित राहुल साकृत्यायन में रूपांतरण |
    जीवन की यह यात्रा अन्य यात्राओं से कितनी लम्बी है ! कितनी दुर्गम ! कितनी साहसिक ! कितनी रोमांचक ! और कितनी सार्थक !
    लेकिन यह यात्रा कोरी “ यात्रा “ नही है और न ही “ यायावरी “ या “घुमक्कड़ी “ ! राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे, इसमें कोई संदेह नही |
    किन्तु कभी- कभी लगता है की उन्होंने अपने चारो ओर कवच की तरह घुमक्कड़ी का एक मिथक गढ़ लिया था | केदार पांडे घुमक्कड़ी के कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन नही बने ! घुमक्कड़ होने से पहले केदार पांडे घर के भगोड़े थे |
    सिद्धार्थ की तरह केदार नाथ भी एक दिन घर से भाग निकले | कारण निश्चय ही और था, लेकिन वह नही जिसका अत्यधिक प्रचार किया है : “ बचपन में “नवाजिन्दा बाजीन्दा की कहानी ( खुदाई का नतीजा ) पढ़ी | उसमे बाजीन्दा के मुँह से निकले “सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा “ इस शेर ने मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला, यद्धपि वह लेखक के अभिप्राय के बिलकुल विरुद्ध था | “ यह घटना 1903 की है | उस समय केदारनाथ की उम्र दस वर्ष की थी |
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    ”1904 की गर्मी चल रही थी | .... बहसा- बहसी के बाद कई घंटा रात चढ़े तिलक चढा | व्याह भी हो गया | उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था | जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूँ तो मालूम होता है, समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने पहला काम किया | 1908 में जब मैं 15 साल का था, तभी से मैं इसे शंका की नजर से देखने लगा था, 1909 के बाद से तो मैं गृहत्याग का बाकायदा अभ्यास करने लगा, जिसमे भी इस तमाशे “ का थोड़ा- बहुत हाथ जरुर था | ... 1909 के बाद घर शायद ही कभी जाता था, 1913 के बाद को तो वह भी खत्म- सा हो गया, और 1917 की प्रतिज्ञा के बाद तो आजमगढ़ जिले की भूमि पर पैर तक नही रखा |
    अपनी आत्म कथा “ मेरी जीवन यात्रा “ भाग एक में उन्होंने लिखा है - “ उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह “ तमाशा “ था | चार साल बाद ही जब मेरी उम्र 15 वर्ष हुई, तभी मैं “ इस तमाशे “ को शक की नजर से देखने लग गया था | 1909 में अर्थात एक साल बाद ही से मैंने इस बन्धन से निकल भागने के लिए घर को छोड़ देने का संकल्प और प्रयत्न शुरू किया | एक साल और बीतते- बीतते तो मैंने साफ़ तौर से और निश्चित रूप से यह मानना और कहना शुरू कर दिया कि मेरा विवाह हुआ ही नही |
    बारह वर्ष की अवस्था से ही उनके मन में घर त्यागने के विचार आने लगे | उन्होंने कई बार गृह- त्याग का प्रयास किया भी परन्तु परिवार वालो द्वारा पकड लाये जाते | इसी प्रयास में 14 वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये | जहा से बड़ी मुश्किल से उन्हें लाया गया | काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे | सन 1912 में एक दिन अकस्मात भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे | कुछ समय बाद वहा के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया | किन्तु वहा भी मन न लगने पर रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के लिए 1913- 14 में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े |
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    विद्रोही मन वहा भी नही टिका तो आर्य समाज स्वीकार कर वाराणसी वापस आये तथा संस्कृत व्याकरण एवं काव्य का अध्ययन करने लगे | पुन: 1915 ई. में आगरा भोजदन्त विद्यालय ( आर्य मुसाफिर खाना ) में मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू, अरबी एवं लाहौर जाकर फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया | 1916 ई. में यहाँ की शिक्षा पूरी कर ली | यही पर आजमगढ़ के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द ( बलदेव चौबे ) से उनकी दोस्ती हुई |राहुल 1916 से 1919 में लाहौर में संस्कृत अध्ययन की दृष्टि से रह रहे थे |     इसी दौरान गांधी जी ने 1919 में रौलट एक्ट का विरोध शुरू किया | इसी समय अमृतसर में जालिया वाला बाग़ का खूनी काण्ड भी हुआ | लाहौर में रहने के कारण प्रत्यक्ष राहुल को इन बर्बर घटनाओं की अनुगूज सुनाई पड़ी | उन्होंने आजादी की लड़ाई के नागपुर प्रस्ताव तथा अन्य मसविदो को पढ़ना शुरू किया और स्वंय स्वतंत्रता संग्राम में एक सेनानी के रूप में कूद पड़े | 1921 से 1925 तक राहुल राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे | 1922 में इन्हें छ: माह की सजा पर राजनैतिक कैदी के रूप में बक्सर जेल में रक्खा गया | 1923 में ब्रिटिश सरकार विरोधी वक्तव्य देने के कारण उन्हें दो वर्ष की सजा पर हजारीबाग जेल में रक्खा गया |
जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन शब्दांकन shabdankan birthday Rahul Sankrityayan     वहा से वो 1925 में मुक्त हुए | इसके बाद राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होने लगा |
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    घुमक्कड़ी जीवन

    1927- 28 के दौरान वे श्री लंका में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए | वहा वे बौद्ध भिक्षु बन गये तथा पालि भाषा का अध्ययन कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर बौद्ध भिक्षु बन गये तथा भगवान बुद्ध के पुत्र “ राहुल “ के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया |
    उनका मूल गोत्र सांकृत था, अत: उससे अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्होंने नाम के आगे बौद्ध परम्परा के अनुसार सांकृत्यायन शब्द भी जोड़ लिया | बौद्ध धर्म ग्रंथो के गहन अध्ययन- मनन के कारण उन्हें “ त्रिपिटीकाचार्य “ की उपाधि प्रदान की गयी |
    लंका में उन्नीस माह रहने के बाद बौद्ध धर्म- ग्रंथो की खोज में वे 1929 में नेपाल होते हुए तिब्बत गये |जहाँ भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध- ग्रन्थो की खोज की | राहुल बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु 1932- 33 में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले | 1936 में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके 1937 में पुन: रूस चले गये | कुछ ग्रन्थो की खोज में 1938 में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये | सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपन्थी विचार- धारा की तरफ हो गयी |
    भारत आ कर वे पुन: किसानो- मजदूरो से जुड़ गये तथा 1939 में अमवारी सत्याग्रह के कारण जेल गये | वहा से छूटने के बाद पुन: गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये | जहा 29 माह तक कारावास में रहे | गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे | जिसका पालन करते हुए 1943 तक बाहर ही रहे |
    1944 से 1947तक लगभग 25 महीने वे सोवियत संघ के लेलिनग्राद विश्व विद्यालय में संस्कृत तथा पालि के प्रोफ़ेसर रहे | वहा उन्होंने एलना से विवाह कर लिया जिससे “ इगोर राहुलोविच्च “ नामक पुत्र का जन्म हुआ | 1947 में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया |     हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद हो जाने के कारण उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया |जिसे उन्होंने स्वीकार किया पर राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रश्न पर कोई समझौता उन्हें स्वीकार नही था     सोवियत संघ की तत्कालीन व्यवस्था के कारण वे पत्नी एलना और पुत्र इगोर को भारत नही ला सके | राहुल जी ने मसूरी में हैपीविला के हार्नकिल्प नामक बंगले को खरीदकर वही रहने लगे | अपने एकाकीपन और अपने कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने टंकक कमला पेरियार से विवाह कर लिया | जिससे 1953 में पुत्री ज्या तथा 1955 में पुत्र जेता का जन्म हुआ | कमला पेरियार के साथ उनकी तीसरी शादी थी |
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    राहुल जी 1958 में साढे चार माह की यात्रा पर चीन गये | उसी वर्ष “ मध्य एशिया का इतिहास” नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्रदान किया गया |
    1959 में वे कमला जी के अनुरोध पर मसूरी छोड़कर दार्जिलिंग चले गये | उसी वर्ष उन्हें श्री लंका के विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं बौद्ध दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाया गया जिस पद पर वे मृत्युपर्यन्त रहे | जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन शब्दांकन shabdankan birthday Rahul Sankrityayan     हिन्दी की सेवा के लिए भागलपुर विश्व विद्यालय ने अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में उन्हें “ डाक्टरेट “ की मांड उपाधि से सम्मानित किया | राष्ट्रभाषा परिषद बिहार ने “ मध्य एशिया का इतिहास “ के लिए पुरस्कृत किया | काशी विद्वत सभा ने उन्हें “ महापंडित “ का अलंकरण दिया तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग ने “साहित्य वाचस्पति” का 26 जनवरी 1961 को भारत सरकार ने पद्मभूषण का अलंकरण प्रदान किया |
    सरस्वती ने अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित किया | जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को सामने लाता है |मानपत्र में लिखा था- “आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्दिवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है ? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे है | आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् है | तिब्बती, रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात है | राजनीति, इतिहास और दर्शन शास्त्र के पंडित है | आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्दार किया | हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा | “ एशिया का वृहद इतिहास ( भाग एक व दो ) लिखकर हिन्दी के बड़े अभाव को पूरा किया | उपन्यास, कहानी, निबन्ध यात्रा- साहित्य लिखकर आपने अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया | आपकी निष्ठा हम सबके लिए अनुकरणीय है | आप केवल हिन्दी संसार के ही नही बल्कि सारे देश के गौरव है इस अवसर पर सरस्वती के पुराने लेखक तथा देश के महान पण्डित एवं साहित्यकार के रूप में आपका सम्मान कर हम अपने को गौरवान्वित समझते है |
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    विराट व्यक्तित्व - - राहुल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था | कहा जाता है की उन्हें देशी- विदेशी 36 भाषाओं का ज्ञान था | विभिन्न भाषाओं को सीखने के लिए उन्होंने दिन- रात परिश्रम किया तथा अनेक कष्ट शे | उन्हें बंजारों की भाषा सीखने के लिए उनकी भैस व मुर्गिया चरानी पड़ी व उनकी मार भी सहनी पड़ी |
    प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने एक प्रसंग में कहा था “ राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत, अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपने सारे ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था |  निराला के शब्दों में कहे तो- “हिन्दी के हित का अभिमान वह, दान वह”
    प्रगतिशीलता का प्रश्न नामक निबन्ध में राहुल जी ने लिखा है | “ आज के साहित्यिक कलाकार या विचारक का लक्ष्य बिंदु जनता होनी चाहिए “ यह जनता उनका लक्ष्य बिंदु ही नही प्रस्थान बिंदु भी था | इसी के बीच से और इसी को ध्याम में रखकर उन्होंने साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा कुछ साहित्यकारों पर मूल्याकनपरक टिप्पणिया की | इस बात की उन्हें कभी चिंता नही रही, कि लोग उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगायेंगे |
    भाषा के सम्बन्ध में राहुल जी का विचार था की भाषा विशिष्ठ सम्पन्न कुछ लोगो की सर्जना नही है, बल्कि जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है |
    जनता द्वारा गढ़े गये शब्दों, मुहावरों और कहावतो को छोड़कर यदि साहित्य रचना का प्रयास किया गया तो वह साहित्य निष्प्राण होगा | इसे लेकर दो मत नही हो सकते है | यदि लेखक चाहता है कि उसकी भाषा अजनबी न हो उसमे विद्युत् धारा दौड़ती रहे तो उसे जनभाषा से सम्पर्क बनाकर रखना होगा | इसी कारण वे जनपदीय बोलियों के साहित्य और शब्दावली को आगे बढाने के पक्षधर थे |
    राहुल जी ने जिस प्रकार की विषम परिस्थितियों में रहकर हिन्दी के सेवा की वह अनुकरणीय है | एक ओर जहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तके लिखी, वही शासन शब्दकोश, तिब्बती- हिंदी शब्दकोश जैसे शब्दकोशों का निर्माण तथा तिब्बती, चीनी, रुसी आदि भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद का भी कार्य किया | हिन्दी उनके जीवन में स्थायी- भाव की तरह रची- बसी रही | उन्होंने इस बात को स्वंय भी स्वीकार किया है | “ अन्य बातो के लिए तो मैं बराबर परिवर्तन शील रहा, किन्तु मेरे जीवन में एक हिन्दी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है “
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    यह एक सामान्य नियम है कि हर महान व्यक्ति की तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षा तथा अवहेलना की जाती है और राहुल जी भी इससे बच नही सके |
    डा . मुल्कराज आनन्द ने लिखा है कि मैं रूस के कुछ कवियों को जानता हूँ जिन्होंने राहुल के शब्दों का दाय ग्रहण किया और उनकी वाणी जुल्म के विरुद्ध गूंज उठी तथा समतावादी समाज- निर्माण में सहायक हुई |
    राहुल के बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व में बड़ी महानता थी | डा . भागवत शरण उपाध्याय के अनुसार वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजली देकर संस्कृत से अरबी, फ़ारसी से अंग्रेजी, सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है | उनमे अदभुत ग्रहण शक्ति थी, जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान- भण्डार में घिसी- पिटी बातो को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सर्वश्रेठ सर्वोत्तम और सबसे जटिल सारतत्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला ( राहुल स्मृति 427) अन्य सभी बातो को अलग कर दे तो तिब्बत से प्राचीन ग्रंथो की जो थाती राहुल भारत ले आये थे वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है |
    राहुल की कहानिया अन्यो की भाँती व्यक्ति की कहानिया नही, अपितु जातियों और युगों की कहानिया है | जैसे अपने दो डग से राहुल ने धरती का कोना- कोना नाप डाला, उसी प्रकार अपनी अन्तर्प्रज्ञा से उन्होंने 8000 वर्ष के अतीत का भावबोध किया और अपने मांस- चक्षु से उस कालखण्ड के बदलते युगों के नर- नारी, परिवार- समाज, गण- समूह और राजशाही सामन्तशाही, खान- पान एवं संस्कृतियों का प्रत्यक्ष दर्शन किया | आधुनिक युग में केवल वे ही ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे जो यह साधिकार कह सकते थे कि पिछले आठ हजार वर्षो के इतिहास को मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख रहा हूँ | इसी विराट दृष्टि का दर्शन उनकी “ वोल्गा से गंगा “ की बीस कहानियों में देखने को मिलता है |
    ” वोल्गा से गंगा” की कहानियों का फलक अन्तराष्ट्रीय है | मध्य एशिया से वोल्गा नदी के तटवर्ती भू- क्षेत्र से एशिया के ऊपरी भू- भाग, पामीर के पठार, ताजकिस्तान, अफगानिस्तान- ग्नाधार ( कंधार ) कुरु, पंचाल, श्रास्व्ती, अयोध्या, नालंदा, कन्नौज, अवन्ती ( मालवा ) दिल्ली, हरिहर क्षेत्र, मेरठ, खनु पटना के विस्तृत भू- खण्ड और 6000 ई . पूर्व से लेकर 1942 ई की भारतीय सवतंत्रता की महाक्रान्ति तक के कालखण्ड को इसमें समेटा गया है | इस संग्रह में बीस कहानिया है जो सभी अपने में स्वतंत्र है पर वे कमश: एक ऐतिहासिक विकास का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमे आर्य जाति के विकास की कथा अंकित है |
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    ”मराठी लेखक डा प्रभाकर ताकवाले इन कहानियों के सम्बन्ध में लिखते है :
    ”वोल्गा से गंगा “ प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है | हिन्दी साहित्य में इतना विशाल आयाम लेकर लिखी यह प्रथम कृति है - - कामायनी में प्रसाद जी लाक्षणिक अवगुठन के प्रेमी होने के कारण उतने सुलझे हुए नही लगते, जितने राहुल जी “ वोल्गा से गंगा “ में है | राहुल जी आम आदमी की ऊँगली पकड़कर ठीक “आदम और इव “ तक पाठको को ले गये है - यह अदभुत कहानी- संग्रह एक नई दुनिया एक मटिरियल इन्टरप्रटेशन आफ हिस्ट्री- हमारे सामने उपस्थित करता है | कला, इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल, राजनीति, विज्ञान, दर्शन और न जाने कितने ज्ञान- विज्ञानों के अंगो का दोहन इन कहानियों में हमे मिलता है ( राहुल स्मृति पृष्ठ 167 )
    राहुल जी का एक पुराना कहानी संग्रह “ सत्तमी के बच्चे “ है इसकी कहानिया भी उपयुक्त दोनों कहानी संग्रहों के सांचे में ढली है | इसमें राहुल जी ने अपने ननिहाल पन्दहां ग्राम की बाल स्मृतियों को कथा के रूप में चित्रित किया है | सत्तमी के बच्चे संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी “ सत्तमी के बच्चे” ही है | उस गाँव की सत्तमी अहिरिन की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो अपने बच्चो को भर पेट भोजन और दवा तक का प्रबन्ध नही कर पाती है और उसके चार बच्चे अकाल ही काल कलवित हो जाते है |     ”डीहबाबा “ की कहानी में जीता भर के माध्यम से भर जाती की कर्मठता और स्वामिभक्ति के साथ उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है |
    ”पाठक जी “ उनके नाना का चरित्रगत संस्मरण है और पुजारी जी इसी प्रकार का उनके पिता जी का संस्मरण है | इनका भी उद्देश्य उच्च वर्ग की ब्राह्मण जाती की ठसक और मिथ्या अंह भावना के साथ उनकी भी गरीबी का चित्रण करना है | “जैसिरी” भी पन्दहां के ही एक सच्चे चरित्र है जिनमे अदभुत प्रतिभा थी | पर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी प्रतिभा का विकास नही हो पाया |
    ”दलसिंगार” राहुल जी के रिश्ते में पड़ने वाले नाना थे | ...उनके रोचक स्मरण इसमें है | “सतमी के बच्चे “ कहानी संग्रह में पात्रो के जीवन संघर्ष और आर्थिक संघर्ष को चित्रित किया गया है | एक प्रकार से एक छोटे ग्राम्य जीवन के पट पर बुनी गयी ये कहानिया विश्व के विशाल फलक पर चित्रित होने वाली “ वोल्गा से गंगा “ की कहानियों की एक पृष्ठभूमि है |
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    इस दृष्टि से चार कहानी संग्रहों के साथ उन्होंने नौ उपन्यास -
    1- बाईसवी सदी 1923
    2- जीने के लिए 1940
    3 सिंह सेनापति 1944
    4- जय यौधेय 1944
    5- भागो नही, दुनिया को बदलो 1944
    6- मधुर स्वपन 1944
    7- राजस्थानी रनिवास 1953
    8- विस्मृत यात्री 1954
    9- दिवोदास 1960
    10- निराले हीरे की खोज 1965
जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन शब्दांकन shabdankan birthday Rahul Sankrityayan     इनमे “ बाईसवी सदी “ और “ भागो नही दुनिया को बदलो “ में औपन्यासिक तत्व तो है पर वस्तुत: ये साम्यवाद के परचार्थ लिखी गयी पुस्तक है जिनका साहित्यिक दृष्टि से कम राजनितिक विचार धारणा की दृष्टि से अधिक महत्व है |
    अपने वैचारिक परिवर्तन की दिशाओं का संकेत तो उनकी जीवन- यात्रा के पृष्ठों पर मिलता ही है, साथ ही वे अपनी दुर्बलताओ को भी बेबाक ढंग से उसमे प्रगत करते चलते है | उसमे छिपाव और दुराव का बराबर अभाव मिलता है | वे अपनी सीमाओं को भी प्रगत करते है : वे व्यवहार में विनम्र एवं मृदुभाषी अवश्य थे पर अपनी वैचारिक मान्यताओं में इतने दृढ थे की उसमे अव्यवहारिकता का दोष लगना स्वाभाविक था ( खंड 4 पृष्ठ 449 )
    राहुल जी के सर्जनात्मक साहित्य में कथा और यात्रा साहित्य के पश्चात उनके जीवनी साहित्य का स्थान माना जा सकता है | हिन्दी में जब जीवनी साहित्य का अभाव था, उस काल के प्रमुख जीवनी लेखको में उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है |
    इस प्रकार हम यह कह सकते है की राहुल दर्शन, पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में भी मौलिक लेखक है जो अनुसन्धान के लिए संदर्भ सामग्री छोड़ गये है | उनके विचारों से सहमत होना न सहमत होना, दूसरी बात है पर उनके ज्ञान का उपयोग तथा उन पर आगे कार्य करना विद्वत- जगत की महती आवश्यकता है | हमे गर्व है राहुल सर्व समाज और सम्पूर्ण दुनिया के तो थे है पर उनकी जन्मभूमि हमारे पास है |
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    हम आभारी है जायसी के हस्ताक्षर डा. कन्हैया सिंह जी का जिन्होंने राहुल जी पे लिखने के लिए मुझे सामग्री उपलब्ध कराई |

सुनील दत्ता

29 1- 1960
sunil dutta सुनील दत्ताफाइन आर्ट्स - मॉस काम -समाज शास्त्र में मास्टर डिग्री व फोटोग्राफी में शोध कार्य
कार्य ....1985 से 1992 तक सिटी संवाददाता दैनिक जनमोर्चा के साथ ही इन सम्मानित समाचार पत्रों के लिए प्रेस छायाकार के रूप में कार्य
स्वतंत्र भारत वाराणसी , द पाइनियर , द टाइम्स आफ इंडिया , राष्ट्रीय सहारा , दैनिक आज, हिन्दुस्तान के लिए फोटोग्राफी का कार्य 1993 में साप्ताहिक अमरदीप के लिए जिला संवाददाता के लिए कार्य
1993 से 2002 तक दैनिक जागरण में प्रेस छायाकार के रूप में कार्य
2003 से 2004 तक दैनिक अमर उजाला में कार्य
वर्तमान में प्रगतिशील पत्रिका 'अभिनव कदम' के लिए कला सम्पादन
2011 से लोक संघर्ष व हस्तक्षेप ब्लॉग के लिए लेखन कार्य व स्वतंत्र पत्रकारिता कार्य ....
1968 से नाट्य जगत से जुड़ाव संस्था बंग सोसायटी , समान्तर नाट्य संस्था व वर्तमान में पिछले 20 वर्षी से भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़कर लोक कला , व नाटको का निर्देशन
प्रदर्शनियां...1982 में समानंतर संस्था द्वारा आयोजित छाया चित्रों की समूह प्रदर्शनी में हिस्सेदारी 1982 ऐतिहासिक भवन चन्द्र भवन में एकल छायाचित्रों के प्रदर्शनी ,1990 में नेहरु हाल में एकल प्रदर्शनी 1990 में बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के विजुअल आर्ट्स विभाग के कला वीथिका में एकल प्रदर्शनी ,1992 में ही इलाहाबाद संग्रहालय के बौद्द थंका कला विधिका में एकल प्रदर्शनी 1994 में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की समूह चित्रकारों की प्रदर्शनी में उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व , 1994 में अन्तराष्ट्रीय चित्रकार फ्रेंक वेस्ली के आजमगढ़ आगमन पर उनके सम्मान में एकल प्रदर्शनी का आयोजन 1995 में कला भवन में एकल प्रदर्शनी का आयोजन एवार्ड 1982 में समांनातर संस्था - नाट्य अभिनय के लिए पुरस्कृत 1990 में गोरखपुर परिक्षेत्र के पुलिस उप महानिरीक्षक द्वारा सम्मानित

1990 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम मोती लाल बोरा द्वारा राहुल सांस्कृत्यायन पुरूस्कार


1994 में राहुल जन पीठ संस्था द्वारा राहुल मान - चिन्ह द्वारा सम्मानित , 1995 में उत्तर प्रदेश प्रगतिशील जनर्लिस्ट एसोसियशन द्वारा बलदेव एवार्ड 1996 में अमरदीप समाचार पात्र द्वारा प्रेस फोटोग्राफी में विशिष्ठ पुरूस्कार , 1997 स्वामी विवेकानन्द एवार्ड ,1998 में संस्कार भारती द्वारा एवार्ड , 1999 में गोरखपुर किसान मेला के बेहतरीन कवरेज के लिए किसान एवार्ड ,2002, 2003, 2004, 2007, 2008, 2009 में आज़मगढ़ महोत्सव के बेहतरीन कवरेज के लिए महोत्सव एवार्ड प्रदान किया गया