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कविताओं की अनुपम अनुगूँज - अमिय बिन्दु Poems and their Echoing - Amiya Bindu

संवेदना, प्रयोग और बिम्ब की अनुपम छटा

 अमिय बिन्दु

कुमार अनुपम स्मृति के कवि हैं। स्मृतियों का समुच्चय उनके मन पर आघात करता है और फिर पककर कविता के रुप में बाहर आता है।

हिन्दी के युवा कवियों में जिन रचनाकारों पर लगातार चर्चा होती रही है, उनमें कुमार अनुपम का स्थान विशेष उल्लेखनीय है। उनकी कविताओं पर यह चर्चा साहित्य के गलियारों में कई स्तरों पर होती रही है। साहित्य अकादमी की नवोदय योजना के अन्तर्गत प्रकाशित उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘बारिश मेरा घर है’ के बाद तो उनके शिल्प और प्रयोग को लेकर खासा बवाल भी काटा गया। कवि की मौलिकता के बरअक्स उसका संघनित होता अनुभव इस विवाद का एक पक्ष रहा। अपनी कविताओं द्वारा कवि अपने अनुभूत सत्य को इस तरह कहना चाहता है कि उसका पाठक ‘प्रभावित’ हो और यह प्रभाव निश्चित रूप से आकर्षण की कोटि का होता है। कुमार अनुपम का यही चाहना उनके पाठकों के लिए जरूरी है और निश्चित रूप से साहित्य की शास्त्रीय परम्पराओं में मान्य भी है।

          कुमार अनुपम न सिर्फ नवोन्मेषों के कवि हैं बल्कि उनकी काव्य संवेदना और बुनावट भी एक साहस की मांग करती है। आज के दौर में जबकि अतुकांत कविताओं पर लोग लय न होने का आक्षेप कर कविता को बचाने की बात करते हैं ऐसे समय में गद्य की तरह सीधी पंक्तियों में अपनी बात को सलय कहने की चुनौती स्वीकार करना बिना साहस के सम्भव नहीं है। वे अपनी निजी संवेदनाओं को भी कविता में ऐसे बुनते हैं कि वह सदियों से चले आ रहे काव्यानुभव जैसे सुरम्य मालूम पड़ते हैं।

          कुमार अनुपम स्मृति के कवि हैं। स्मृतियों का समुच्चय उनके मन पर आघात करता है और फिर पककर कविता के रुप में बाहर आता है। लेकिन यह नैराष्य नहीं बल्कि जिजीविषा को प्रकट करता है। ‘तीस की उम्र में जीवन-प्रसंग’ में वे व्यक्तिगत स्मृति को साधते हैं तो पूरी कविता संग्रह में कई जगहों पर बानबे में हुए ढांचे के विध्वंस को विभिन्न बहाने से याद करते हैं। यह सब उनकी स्मृतियों के लिए आघात की तरह ही हैं लेकिन इन स्मृतियों में भी जिजीविषा गहरे तक पैठी रहती है - मेरे बाल गिर रहे हैं और ख्वाहिशें भी/फिर भी कार के साँवले शीशों में देख/उन्हें सँवार लेता हूँ/ आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है/लेकिन सफर का भरोसा/कायम है मेरे कदमों और दृष्टि पर...

          आजकल कविताओं में राजनीति की, उसके सन्दर्भों की भरमार होती है लेकिन कुमार अनुपम की कविताएँ पहली अनुभूति में तो अ-राजनीतिक महसूस होती हैं परन्तु गहरे अर्थों में वे राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल करती हुई भी लगती हैं। सत्ता की निरंकुशता, उसका अमानवीय रवैया, लोगों को हाशिए पर किये जाने की जुगत, लोकतंत्र की जर्जर हालत सब कुछ कविता की पारदर्शी दीवार से साफ-साफ दिखता है। यह सब समझने के लिए किसी विशेष दृष्टि की दरकार नहीं परन्तु कविताओं की अनुगूँज सुननी पड़ती है। इस संग्रह की एक कविता ‘भनियावाला विस्थापित’ में विस्थापितों के दर्द को बखूबी उकेरा गया है- ‘जब धकेल दिया गया हमें/टिहरी डेम की बेकार टोकरियों की तरह/छूट गए वहीं/बहुत से अभिन्न/जो सिर्फ नदी-पहाड़ दरख्त-जंगल/कीट-पखेरू सरीसृप-जंतु खेत-खलिहान/धूप-हवा जमीन-आसमान नहीं/परिवार के सदस्य थे हमारे।

          बदलते समय को चित्रांकित करने के लिए कवि ने शब्दों का जो आवरण तैयार किया है वह संवेदनाओं को झकझोरता है। ‘विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज़’ इस संग्रह की ऐसी ही एक कविता है जिसमें समय की धारा को मुड़ते हुए चित्रांकित किया गया है। जितनी बार आप इस कविता को पढि़ये उतनी बार आपको अपने समय की, अपने आसपास की गतिविधियों की गन्ध मिलेगी जिसमें मांस की सड़ाँध, पुरातन के जलने की चिड़चिड़ी आवाज सुनने को मिलेगी। कवि का चित्रकार मन यहाँ शब्दों से एक तस्वीर तैयार करता है- ‘पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों/पर थमी थी घर की ईंट ईंट/ऊहापोह और अतृप्ति का कुटुंब/वहीं चढ़ाता था अपनी तृष्णा पर सान.............कि अपनी बरौनियों से भी घायल होती है आँख/बावजूद इसके, जो था, एक घर थाः’ इसी कविता का एक दूसरा चित्र जो एक साथ कई स्तरों के दृश्य उपस्थित करता है-‘घटित हुआ/प्रतीक्षित शक/कि घटना कोई/घटती नहीं अचानक/किश्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती/सूखती है धीरे-धीरे भीतर की नमी/मंद पड़ता है कोशिकाओं का व्यवहार/धराशाई होता है तब एक चीड़ का छतनार/धीरे-धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति/एक प्रजाति/षड्यंत्र के गर्भ में बिला जाती है।’ इसे आप निरा अ-राजनीतिक कविता मान सकते हैं, देख सकते हैं। जबकि यह सर्वसत्तावाद के खिलाफ सबसे मजबूती से खड़ी होती कविताओं में है। यह बाजार के खिलाफ भी हाथ उठाती है तथा विश्व के विविधता रहित होते जाने तथा किसी एक महाशक्ति के बढ़ते वर्चस्व के खिलाफ भी खड़ी होती है।

          अपने गाँव के कीर्तनिए किनकू महाराज को याद करते हुए भी एक साथ कई सवालों से जूझते हैं। एक ओर तो बानबे के ढांचा विध्वंस की जो कसक थी, उसे व्यक्त करते हैं और दूसरी ओर कम्यूनिस्ट होने और कर्म-निष्ठ होने के अन्तर को बड़ी स्पष्टता से रेखांकित करते हुए चलते हैं। इसी तरह संग्रह की ‘बेरोजगारी’ कविता भी अपने कथ्य के साथ-साथ शिल्प में भी चुनौतीपूर्ण है। आत्मप्रलाप या आत्महीनता की बजाय मनुष्य के सहज गौरव को बचाए रखते हुए बेरोजगारी को संरचनात्मक दोष की तरह कवि ने बखूबी व्यक्त किया है। संवेदना के धरातल पर यह उन लोगों को उघाड़ती है जिनके लिए सफलता का अर्थ कुछ और है और बेरोजगारी का अर्थ असफलता है। ‘वे किसी जज की तरह देखते थे हमारे आरपार जैसे बेरोजगारी सबसे बड़ा अपराध है इस दौर का और कुछ तो करना ही चाहिए का फैसला देते यह बूझते हुए भी कि कुछ करने के लिए जरूरी है और भी बहुत कुछ....... हम कुछ क्यों नहीं कर पा रहे तमाम महान संसदीय चिंताओं की मानवीय जैविकी में इसका शुमार ही नहीं था।

          मनुष्य की संवेदनशीलता पर सबसे बड़ा आघात आज की सूचना क्रान्ति ने किया है। यह महसूस कर सकना किसी कवि या कलाकार मन के कुव्वत की ही बात है। आज का समाज सूचना को शस्त्र की तरह देखता है, शक्ति की तरह देखता है। लेकिन इन सूचनाओं का असल असर कहाँ पड़ता है, वह मनुष्य को किस तरह से रसहीन कर रहा है इन चन्द पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है- सूचनाओं के झाग में लथपथ अचानक/कुछ ऐसा लगा कि खबरों में नहीं बची है/पिपरमिंट-भर भी सनसनी/ इतना अभ्यस्त और आदी बना दिया है एक मीडिया ने हमें/कि उदासीन या नृशंस अथवा क्रूर की हद तक कुंद’

          जब एक कलाकार का मन काव्यात्मक होता है तो उसकी संवेदना केवल शब्दों और उसके अर्थ तक नहीं रह जाती बल्कि वह अपनी अर्थवत्ता में ही संवेदनशील हो उठता है। निराला ने जब सरोज-स्मृति लिखा था तो पुत्री की सुन्दरता का वर्णन जिस तरह तलवार की धार पर चलने जैसा रहा होगा उसी तरह सद्योप्रसवा पत्नी के अस्तित्व का वर्णन करने के लिए अनुपम को ऐसे ही धार पर चलना पड़ा होगा। निश्चित ही बच्चे के जन्म के बाद पति-पत्नी का रिश्ता एक मोड़ लेता है लेकिन ऐसा मोड़ शायद ही हिन्दी साहित्य में पहले कहीं सुना गया हो- तुम्हें छूते हुए/मेरी उँगलियाँ/भय की गरिमा से भींग जाती हैं......कि तुम/एक बच्चे का खिलौना हो......कि तुम्हारा वजूद/दूध की गंध है/एक माँ के संपूर्ण गौरव के साथ/अपनाती हो/तो मेरा प्रेम/बिल्कुल तुम्हारी तरह हो जाता है/ममतामय।

          कोई कवि अपने आस पास की छोटी मोटी हलचलों से अछूता नहीं रह पाता। संवेदनशीलता उसकी एक अनिवार्य परिणति होती है। लेकिन कुमार अनुपम का बाहरी और भीतरी परिवेश बहुवर्णी है, बहुरंगी है। इसमें ग्रामीण जीवन का गहरा भूरा और स्लेटी रंग भी है तो कस्बे का ताम्बई रंग भी है और ऊपर बढ़ते हुए महानगरीय जीवन का सुनहला रंग भी व्याप्त हो जाता है। वे इन सब रंगों के बीच भी हाशिए पर रह रहे समुदायों और लोगों को अपनी कविता में खींच लाते हैं। उनकी कविताओं में समुद्री मछुवारे भी हैं जिनके लिए रोटी और पोथी दोनों समुद्र है। संग्रह में ‘कामगारों का गीत’, ‘बेरोजगारों का गीत’, ‘प्रतीक्षावादी का गीत’, ‘दूब का गीत’ और ‘बालूः कुछ चित्र’ जैसी कविताएँ हैं जो हिन्दी के स्थापित साहित्य के लिए अछूते विषय रहे हैं।
कविता को सामाजिक अभिव्यक्ति माना जाता है। ऐसा जरूरी समझा जाता है कि भले ही कुछ वैयक्तिक कहा जाये लेकिन कविता के कहने और उसकी अर्थवत्ता के दौरान उसमें व्याप्त वैयक्तिकता का विगलन हो जाना आवश्यक होता है। कुमार अनुपम के इस संग्रह की कुछ कविताएँ जैसे कि ‘रोजनामचा’ और ‘ऑफिस तंत्र’ अपने शिल्प में बेहद वैयक्तिक लगती हैं। लेकिन अपनी अर्थवत्ता में यह व्यापक सत्य की तरह लगती हैं जो आज के आपाधापी भरे जीवन में सत्य की तरह गर्हित है। रोजनामचा का यह दृश्य आज के हर कामकाजी व्यक्ति का सत्य है कि- ‘सुबह काम पर निकलता हूँ/और समूचा निकलता हूँ..........शाम काम से लौटता हूँ/और मांस मांस लौटता हूँ समूचा।

बारिश मेरा घर है
कुमार अनुपम
साहित्य अकादमी,
रवींद्र भवन, फीरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली-1,
पृष्ठ - 156
कीमतः 85 रु.
sahityaakademisales@vsnl.net
          आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि काव्य के लिए केवल अर्थग्रहण से ही काम नहीं चलता बल्कि उसमें बिम्बग्रहण भी होना ही चाहिए। संग्रह की कविताओं में बिम्ब के खूब-खूब प्रयोग मिलते हैं। चाहे लेटी हुई रोशनियाँ हों या गाडि़याँ प्रेमिकाओं की तरह लेट हों या फिर प्रतीक्षा मन में लू की तरह भस्म रट रही हो ऐसे प्रयोगशील बिम्ब कवि को अलग धरातल पर ले जाते हैं। दरअसल हर वस्तु का एक सामान्य और एक विशेष पक्ष होता है। विशेष पक्ष को देख पाना ही कवि की अपनी प्रतिभा है, जिसकी समता वर्णनों में शिव के तीसरे नेत्र से की गई है। सामान्य रूप गुण में इस विशिष्ट का आभास कर पाने की क्षमता कवि की दृष्टि को विशिष्ट बनाती है जो एक चिन्तक, एक दार्शनिक, एक वैज्ञानिक से नितान्त भिन्न होती है। कवि का कहन भी समाज के लिए एक नया सत्य होता है, एक नई बात होती है और वहीं चिन्तक, दार्शनिक या वैज्ञानिक भी नये सत्य समाज के सामने लाता है लेकिन कवि का सत्य लोगों को सुना हुआ सा लग सकता है, जाना हुआ लग सकता है। सबसे बढ़कर यह जाना हुआ या सुना हुआ लगना ही कवि की सफलता है अन्यथा पाठक कोई नया तथ्य पाने के लिए कविता की ओर नहीं आता बल्कि वह अपनी साधारण से साधारण बात को नये तरीके से कहे जाने, देखे जाने के लिए आता है। और ऐसी दृष्टि से आया पाठक कुमार अनुपम के पास सहज होकर बैठा रह सकता है।


          इस संग्रह में कुल छिहत्तर कविताएँ हैं। किसी एक, दो या तीन धारा की कविताओं में इन्हें नहीं समेटा जा सकता। हर कविता अपने वजूद में अलग और नितान्त विशिष्ट है। कविताओं में किए गए अनूठे काव्य प्रयोग, उनके विलक्षण शिल्प और सर्वथा नवीन काव्य परम्परा की खोजी ललक अनुपम का नाम सार्थक करती है। अपने आसपास के मिथकीय व्यक्तित्वों का आवाहन और प्रतिबिम्बन जैसे कि किनकू महाराज का रेखांकन उनकी कविता को एक विशिष्ट धार देता है। कविताओं का विषय बहुत विस्तृत है इसमें व्यक्ति के मनोविज्ञान, भविष्य की अनिश्चितता, नैतिकता और मानवीय मूल्य, प्रेमाकुल मन, ऐन्द्रिक आनन्द आदि को बहुत कायदे से रेखांकित किया जा सकता है। संक्षेप में कहें तो परम्पराओं को उनके सिरों से उघाड़कर उसे आधुनिक और समकालीन बनाने की ईमानदार कोशिश कुमार अनुपम ने अपनी इन कविताओं में की है। अभी यह इनका पहला काव्य संग्रह है। इस संग्रह को पढ़कर इस युवा कवि के और संग्रहों की प्रतीक्षा बेसब्री से है।

अमिय बिन्दु
फोन- 9311841337


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