उपन्यास लिखना,
निजी ज़िन्दगी को
हलाक कर के,
नई ज़िन्दगी शुरु करने जैसा है

बक़लम ख़ुद
मृदुला गर्ग
'मिलजुल मन' उपन्यास का एक अध्याय, जिसका कुछ हिस्सा मृदुला गर्गजी ने साहित्य अकादमी के साहित्योत्सव के ''आमने सामने'' कार्यक्रम में १३ मार्च २०१४ को पढ़ा था -
क़रीब चालीस बरस हो गये, कथा साहित्य लिखते, पर आज भी, जब कोई पूछता है, आप क्यों लिखती हैं, तो माक़ूल जवाब नहीं सूझता। ईमानदारी से कहें तो माक़ूल जवाब है भी नहीं। कुछ अर्सा लेखन कर लो तो साँस लेने की तरह, नामाक़ूल-सा जैविक कर्म बन जाता है। उसे जो चाहो नाम दे लो। दीवानगी, भावावेग, चिंतन, प्रतिरोध, इस दुनिया से अलग दुनिया बनाने की पैगम्बरी ख्वाहिश। जो कहोगे, वाजिब होगा। पर जो नहीं कह पाओगे, ज़्यादा वाजिब होगा। कुछ अपरिभाषित-सा, जो जीने की मजबूरी की तरह, स्वतः होता चला जाता है।
उपन्यास वह बला है, जिसमें हम अपनी रज़ामंदी से हलाक होते हैं, दूसरों के हाथों
यूँ मैंने गद्य की सभी विधाओं पर लिखा है पर आज बात उपन्यास पर करूँगी। क्योंकि मेरे लिए तो आज उपन्यास की नवाज़िश का दिन है। जब भी उपन्यास पर बात होती है, एक सम्पादक का कथन याद आ जाता है। बोले कि इसमें है क्या, रोज़ एक पन्ना लिखिए, साल भर में 365 पन्नों का उपन्यास हो जाएगा। बात थी तर्क-सम्मत। पर इसका क्या करे कोई कि, पहला पन्ना लिखने में ही 10 ज़रब 365 दिन लग जाएं। और कभी ऐसा हो कि एक पन्ना फ़ी रोज़ के बजाय, पूरा अध्याय फ़ी रोज़ लिखा जाए और 26 दिनों में उपन्यास तैयार हो जाए।
मौत तो साहब, पहला पन्ना लिखने में है। मुझे क्या बुरा था मरना ग़र एक बार होता। दसियों बरस तक, मर-मर कर पहली पंक्ति लिख पाने का अनुभव, कठगुलाब और मिलजुल मन लिखते हुए हुआ। कुल 26 दिनों में ज़िन्दगी और मौत को यकसां, तेज़ रफ़्तार से झेल जाने का अनुभव, सिर्फ़ चित्तकोबरा लिखते हुए हुआ।
उपन्यास, सिर्फ लेखक नहीं लिखता, दो परतों पर साँस लेता वक़्त भी लिखता है। एक वह, जिसमें लेखक खुद जीता है और एक वह, जिसमें वह किरदारों को जिलाता है। उपन्यास की भाषा भी, लेखक की लाख निजी होते हुए, उसकी चुनी हुई नहीं होती। उसे किरदार चुनते है; वह वक़्त चुनता है, जिसमें वे जीते हैं।
कह सकते हैं, उपन्यास लेखन का सत्व है, अतिक्रमण। व्यक्ति द्वारा समष्टि का और समष्टि द्वारा व्यक्ति का अतिक्रमण। तमाम उम्र के अनुभवों से, मर-खप कर जो विश्व दृष्टि प्राप्त करो, उसीके द्वारा निजत्व का अतिक्रमण। कथानक में घटित का अतिक्रमण। समय, इतिहास और समाज से प्रतिबद्ध रहते हुए, वाद की एकांगी प्रतिबद्धता का अतिक्रमण। चाहे वाद जो हो, मार्क्सवाद, नारीवाद, पुरुषवाद, सामन्तवाद, परम्परावाद, या दुनिया बदलने का पैगम्बरवाद; किसी एक से, या अनेक से भी बँध कर, साहित्यिक कृति या कोई कलाकृति कैसी रची जा सकती है, मेरी समझ में कभी नहीं आया। प्रतिबद्ध मैं हूँ। पूरी तरह। पर मेरे तईं, वही प्रतिबद्धता अडिग रह पाई, जिसका सम्बन्ध उस विश्व दृष्टि से था, जो ईमानदार अनुभूति से उपजी थी और सबसे न्याय की माँग करती थी। बाक़ी सभी वाद-प्रतिवाद, जब-जब, लेखन पर हावी होने को हुए, ख़ुद डोलायमान नज़र आये; कभी इस रुख तो कभी उस रुख। बहुतेरे वाद देखे-पढ़े, सुन-गुने पर पूर्ण निर्दोष, एक को भी न पाया। न किसी एकांगी मत में, रचना करवाने का माद्दा दिखा। जब जीवन की जटिलता समझी, विडम्बना झेली, विरोधाभास परखा, तभी कथानक में, अनुभूति के साथ वैज्ञानिक दृष्टि का समावेश हो पाया और तभी रचना का साज़ोसामान बना।
दरअसल उपन्यास लिखना, निजी ज़िन्दगी को हलाक कर के, नई ज़िन्दगी शुरु करने जैसा है। पुनर्जन्म जैसी नहीं, जो मिले तो हो पूरी तरह अपनी। यह नई ज़िन्दगी औरों से उधार ली हुई होती है। बतौर पेशबीनी, खुद को लो या दूसरों को, फ़र्क नहीं पड़ता। हर हाल,परकाया प्रवेश करना पड़ता है। बार-बार काया को पहचानने-समझने की कोशिश करो। अपने जिये, देखे-सुने, पढ़े-गुने की बिना पर ही, ख़ुद को नकारों और दूसरों की ज़िन्दगी में दाख़िल हो। फिर उसे ऐसे लिखो जैसे ख़ुद जी रहे हो। तुम लिखो क़िस्सा; पाठक को लगे, उसकी आप बीती है। कुछ पन्ने लिख लेने पर तुम भी भूल जाओ कि, बीती भले तुम पर हो, अब वह कहानी है उनकी, जो उपन्यास के किरदार बन चुके। और अपनी कहानी कहलवाने के लिए, तुम्हें माध्यम की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। यानी, उपन्यास वह बला है, जिसमें हम अपनी रज़ामंदी से हलाक होते हैं, दूसरों के हाथों।
इस आपबीती और जगबीती की टकराहट को मैंने, अपने इस उपन्यास "मिलजुल मन" में अलग ही ढंग से महसूस किया। इसमें औपन्यासिक कथ्य और जीवनी का जो मिश्रण है, वह स्वतःस्फूर्त ज़रूर है, पर मेरा अनजाना नहीं है। बरस 2000 में ही मुझे इसका नाम सूझ गया था। अमूमन, कहानी या उपन्यास का नाम और पहली पंक्ति, क़रीब-क़रीब साथ सूझते हैं। पहली पंक्ति के ज़ेहन में आते ही उसका आगाज़ हो जाता है। जैसे अनित्य का। इंतिहा में 26 दिन लगें या 10 ज़रब 365। हासिल की ख़ुदा जाने। इस बार नाम सूझ गया पर पहली पंक्ति नहीं सूझी। शायद इसलिए कि ज़ेहन में पूरा कथानक और किरदार मौजूद थे। पर वह शिल्प नहीं सूझ रहा था, जो अहम किरदार की शख्सियत को इस तरह बयान कर सके कि, वह असल भी रहे और औपन्यासिक भी बन जाए।
किरदार सिर्फ़ मेरा नहीं, पूरे हिन्दी साहित्य जगत का जाना-माना था। पर पहचाना उसे किसी ने कतई न था। क़सूर उनका नहीं था। वह थी ही ऐसी लेखक, जो अपनी काया में यूँ जीती थी मानों पर-काया में जी रही हो। उसकी ज़िन्दगी का त्रास, विडम्बनापूर्ण उतार-चढ़ाव,और उस त्रास को धता बतलाने का उसका दमख़म, क़िस्से से ज़्यादा हैरतअंगेज़ था। बिना औपन्यासिक जामा पहनाए, ऐसे पेचोख़म भरे किरदार के साथ इंसाफ़ नहीं किया जा सकता था। और इंसाफ़ मुझे करना था ज़रूर, क्योंकि पहले कभी हुआ न था। सात बरस गुज़र जाने पर, एक रात बारह बजे, मुझे वह शिल्प सूझा, जिसमें यह, जीवनी होते हुए उपन्यास और उपन्यास होते हुए जीवनी हो सका। आप समझ सकते हैं, उसे लिखने में किस क़दर त्रास रहा होगा। इसीलिए उसका कलेवर ख़ूब ज़िन्दादिल और दिल्लगीबाज़ है। त्रास झेलने का बेहतर तरीका हो तो - मुझे इल्म नहीं है।
यही कारण होगा, चाहे शिल्प का आग्रह कह लें, कि ज़िन्दगी में पहली मर्तबा, बिना कलम पकड़े, उपन्यास, सीधा कम्प्यूटर पर टाइप किया। नीत्शे ने कहा था न, जब उसने टाइपराइटर पर लिखा तो सोच की धारा बदल गई। वही मेरे साथ हुआ। मेरे लिए कम्प्यूटर एक मायावी शै था, मेरी किरदार की मानिन्द। किरदार कब तर्क को, और कम्प्यूटर कब लिखने की बेसब्री को दग़ा दे जाए, पता नहीं रहता था। तो कम्प्यूटर की दग़ाबाज़ी पर यक़ीन ने पूरा उपन्यास, ज़बरदस्त व्यग्रता, दुश्चिन्ता और हौलेदिल में लिखवाया। लिख डालो रात-रात जग कर कि कौन जाने, कब, पहाड़ी नदी को मैदान में उतारना पड़े। यूँ उतरी आखिर मैदान में ही, पर अपने अन्दरूनी तर्क के चलते। जब उसके किरदार असल ज़िन्दगी के पेच में उलझ, मासूमियत खो, जवान हो लिये, मुल्क को साथ लिये।
आप उसके प्रमुख प्रवक्ता को न पहचानें या न पहचानना चाहें तो मुज़ायका नहीं है। आपबीती को क़िस्सा समझ कर पढ़ें तब भी हर्ज नहीं है। शायद बेहतर हो, क्योंकि उसमें वह वक़्त भी है, जो हमारे मुल्क पर आज़ादी के फ़ौरन बाद आया था। और वक़्त, किरदार से ज़्यादा अहम होता है। फिर वह था भी एकदम औपन्यासिक। उपन्यास के किरदारों की मानिन्द, विडम्बना, मासूमियत और दिलदारी से भरा। फिर कुछ बरस बीतते–न बीतते मासूमियत खो, चकरघिन्नी-सा जो घूमा, मुल्क भी और किरदार भी, तो किस कदर दिल को लगी दिल्लगी हुई, आप समझ सकते हैं।
एक बात और। इसे लिखते हुए, चालीस बरस बाद, आख़िर मेरी समझ में आ गया कि मैं क्यों लिखती हूँ। चारों तरफ़ छाये त्रास से पैदा हुई दिल की लगी को झेल पाने का, इससे बेहतर हथियार क्या होगा, कि कत्ल भी न करना पड़े और इंसाफ़ भी हो जाए?
मृदुला गर्ग
नीचे दी गयी कड़ियों पर जा के आप मिलजुल मन के दो हिस्सों को पढ़ सकते हैं
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