सुबह - सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’ [हिंदी कहानी] | Subah - Sudarshan 'Priyadarshini' [Hindi Kahani]

        कोई लौट कर जवाब ही नही देता।
                अपनी ही आवाज बार-बार लौट कर
                        आ जाती है।
                                उम्र के साथ आवाज की लम्बाई भी
                                        अपने से शुरू हो कर अपने
                                                तक ही रह जाती है।

सुबह 

सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’


सुबह की किसी भी अजान से पहले, प्रभात फेरी से भी पहले किसी अजनबी सपने से आँख खुल गयी थी। बाहर अभी अँधेरा था। मन्दिर की कोई घंटी नहीं बजी थी। आंखें अभी आधी मिची सी अँधेरे में चश्मा ढूँढ़ रही थी कि नियोन घड़ी के हरे चमकते अक्षरों से समय का अंदाजा लगा सके। 

       कराह की तरह लम्बी सांस उच्छवास सी बन कर आप ही निकल गयी। बिस्तर से उठने के लिए सारे सपने झाड़ कर साफ़ किये और उन की सतरंगी सी किरणें अँधेरे में जगमगाने लगी। समय का कोई अंदाजा नहीं ... 

       अरे औ बंसी !

       अरे कहाँ है बंसी !

       कोई लौट कर जवाब ही नही देता। अपनी ही आवाज बार-बार लौट कर आ जाती है। उम्र के साथ आवाज की लम्बाई भी अपने से शुरू हो कर अपने तक ही रह जाती है। 

       बंसी ! अब के बंसी की पुकार से कमरा वापिस लौट आया। पूरे तीस साल बीत गये और अभी भी बंसी ... !

       यह बंसी कहाँ से आ गया सभी तोतों की तरह उड़ गये ... वह क्यों नही उड़ता ?

       धरती-आकाश बदल गये। यह चेतना की अचेतनता नही बदलती, गाहे-बेगाहे उभर कर सामने खड़ी हो जाती है। 

       जल्दी से हाथ मुहं धो ले रे और चाय का कप बना दे। देख लेना अगर तुहारे बाबू जी उठे हो ... नही तो रहने देना।  

       माँ  मम्मा ... अरे यह किस की आवाज है !

       विभु उठ गया क्या !

       क्या चाहिए बेटा आ रही हूँ ... 

       पलंग से उतरते चादर में पैर फंस गया, क्या ससुरी उम्र, जब से जवानी गयी है कोई काम ठीक से होता ही नहीं। 

       कहते है जवानी में पैर सीधे नही पड़ते – गलत !

सुदर्शन प्रियदर्शिनी 
जन्म: लाहौर  अविभाजित पाकिस्तान (1942)
बचपन: शिमला
उच्च शिक्षा: चंदीगढ़
सम्प्रति: अमेरिका में १९८२ से
पुरूस्कार, सम्मान
महादेवी पुरूस्कार : हिंदी परिषद कनाडा
महानता पुरूस्कार : फेडरेशन ऑफ इंडिया ओहियो
गवर्नस मीडिया पुरुस्कार : ओहियो य़ू. एस .ऍ
शोध प्रबंध: आत्मकथात्मक शैली के हिंदी उपन्यासों का अध्ययन
हरियाणा कहानी  पुरूस्कार 2012
हिंदी चेतना एवं ढींगरा फैमिली फाउंडेशन - कहानी पुरूस्कार (१९१३)

प्रकाशित कृतियाँ
उपन्यास 
रेत के घर  (भावना प्रकाशन )
जलाक       (आधार शिला प्रकाशन)
सूरज नहीं उगेगा ( ओल्ड बुक उपलब्ध नही है )
न भेज्यो बिदेस  नमन प्रकाशन
अब के बिछुड़े
कहानी संग्रेह 
उत्तरायण  (नमन प्रकाशन)
शिखड़ी युग (अर्चना प्रकाशन)
बराह  (वाणी प्रकाशन)
यह युग रावण है   (अयन प्रकाशन)
मुझे बुद्ध नही  बनना  (अयन प्रकाशन)
अंग -संग
में कौन हाँ (चेतना प्रकाशन) - पंजाबी कविता  संग्रह
सम्पर्क:
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
246 stratford drive
Broadview Hts. Ohio 44147
U.S.A
फोन: (440)717-1699
ईमेल: sudershenpriyadershini@yahoo.com
       पैर तो बुढ़ापे में कोई सीधा नही पड़ता, और कोई कल सीधी नही पडती। सब कुछ डरा-डरा भयभीत सा उखड़ा-उखड़ा उल्टा सीधा पड़ता है। कितनी बार मालती को अपने आप को झिड़कना पड़ता है कि क्यों अभी तक अतीत में जी रही है। पर आदत है बस जाती नही। अतीत में जीने की या भविष्य के अनिश्चय को भोगने की शुरू से लत पड़ी है अब क्या पीछा छोड़ेगी। 

       दिन चड़ता है, उठता है, रोज नया का नया, पर मालती का दिन - बस अतीत की किसी आवाज में डूब जाता है। किसी की आवाज, किसी की, पदचाप किसी की मनुहारी, मीठी चंचल हंसी से ही शुरू होता है और तब वह सारा दिन उसी उधडे-बुन में डूबती उतरती रहती है। एक तरह से तो अच्छा ही है, कल्पना के पंखों पर चढ़ रोज अतीत की गलिया लांघ आती है, जहाँ उस की आज की उम्र का लंगड़ापन भी उसे नही रोक पाता। उड़ लेती है अपने ही मायावी काल्पनिक पंखो पर और मुस्काती रहती है। 

       बस एक ही बात समझ से परे रहती है कि कैसे चिड़ियाँ चुग जाती है खेत,  कैसे चेह्चाहटें सन्नाटों में बदल जाती है। फिर कैसे बचपन और जवानी न चाहते हुए भी खेलते-खेलते थक कर बुढ़ापा बन जाते है। और एक दिन अपनी ही लाठियां भरभरा कर गिर जाती है। जैसे चार पायो वाली खटिया के पाये कोई निकाल दे। तब एक बंजर, जर्जर और खुरदरी खाट रह जाती है - रगड़ने के लिए तिल-तिल जीने के लिए। 

       केवल नेपथ्य में आवाजें सुनाई देती है। 

       मुझे चार बजे छुट्टी होगी - पहुंचते-पहुंचते पांच बज ही जायेंगे। 

       मेरी आज बॉस के साथ स्पेशल मीटिंग है - शायद रात हो जाये ... !

       मेरे स्कूल के बाद गेम की प्रेक्टिस है माँ - आते-आते अँधेरा हो जाएगा। 

       आज मेरा हलवा खाने का बहुत मन हो रहा है अम्मा ! शाम को हो सके तो थोड़े पकौड़े निकाल लेना - मेरा दफ्तर का एक दोस्त आएगा मेरे साथ। 

       झोली भर-भर जाती थी इन संदेशों से। ... आज ये सारी आवाजें नेपथ्य में कैसे चली गयी ... ... 

       क्या मेरी आवाज भी किसी को आती होगी !

       मुझे साढे छ: बजे बस से उतार लेना ... 

       बंसी दोपहर बच्चों को खिला-पिला कर खुद खेलने न लग जाना और उन्हें धूप में निकलने नही देना ... 

       आज शीला आये तो कहना परसों आये, थोड़े छोटे-मोटे मशीन के काम है, कर लेगी और बच्चों को भी पढ़ा देगी । 

       मेरी आवाजें भी कहीं है बची हुई या कहीं उन की नई-नई इमारतों के नीचे दब गयी है। सुनाई नही देती। मुझे स्वयं ही सुनाई नही देती। दूर किसी खंडहर में कहीं दबी पड़ी होंगी। । खंडहर को कौन छेड़े ! और देखे कि नीचे क्या है ?

       कौन दबा पढ़ा है उन के घरो में या कहीं दिलो की किन्ही तहों के नीचे !

       कुछ था बीच में - जो अब नही है। 

       एक दूसरे तक पहुंचने के बीच जैसे दुनिया भर का भूगोल फ़ैल गया है। जो हाथ इतनी आसानी से पहुंचते थे आज आसमान छूने जैसे हो गये हैं। सब कुछ है पर आवाजें नही है। 

       यहाँ-वहां पूरा सन्नाटा है - पूरी शांति है। अंदर तक फैला हुआ सन्नाटा ! जिसने आत्मा को, मन को, मस्तिष्क को भी गूंगा कर दिया है। 

       गूंगी हो गयी है मेरी सारी काया ! बहरी भी होती काश ! फिर ये आवाजें तो न सुनाई देती। आवाजें आज भी नेपथ्य में खिडखिड कर हंसती है और सुदूर किसी अतीत में खोकर भी अपनी सी लगती हैं। जैसे किसी ने मिजराव पहने बिना मृदंग पर अपनी अंगुली रख दी हो और कोई अनजाना सा स्वर बज उठा हो। 

       वह कई बार सोचती है उन गूंजती आवाजों को कैद कर के रख ले - कहीं सहेज ले और उन की प्रतीक्षा किये बगैर उन्हें जब चाहे बटन दबा कर सुन ले ... बटन वाली मशीन तो मिल जाएगी - पर वे आवाजें !

       चलो छोडो !

       पांवों पर ज्यादा जोर डाल कर - घुटनों को थोडा दबा कर बिस्तर से उठने की कोशिश में कितना समय चला जाता है। बाहर अभी घुप्प अँधेरा है। अभी सूरज के उठने का समय नही हुआ। अभी मुर्गे की बांग तक सुनाई नही दी या देगी ... चिड़िया अभी शायद कहीं चोंच में चोंच डाले अपने तिलस्म में होगी ... पर मेरी आँख खुल गयी है और उन में बंद सपने - बिखर कर तितर-बितर हो गये है।  

       मुंह में दबाये चुरुट के धुंए की तरह समय उड़ता चला जाता है। जिन्दगी से कैसी दाँत- काटी दोस्ती और पल्लू पकड़ कर चलने जैसी अधीनता पाल लेते है हम ... पर जब जिन्दगी के रास्ते अलगते है तो बलख और बुखारा बन जाते है। 

       क्यों बिसूर रही हूँ ... ये फैसले भी अपने थे ... उन फैसलों में कहीं ऐसा समय कल्पना में नही था बस। कल्पनाये सपनों से ऊँची नही उड़ सकती, नही उडी। सपने बहुत ऊँचे थे लेकिन दूर भविष्य में देखने की दूर दृष्टि बहुत कमजोर ... कौन जानता था कि एक दिन ऐसी जगह होगी, ऐसी धरती होगी कि अपनी भाषा में आपकी कोई बात न समझ सकेगा ... न लिख कर ही समझाया जा सकेगा। आप अपनी प्यास को ओठो में ही समोए प्यासे रहेंगे। जो प्यास की पहचान रख सकते या कर सकते थे ... वह कहीं दूर - अपनी -अपनी चोंचे सम्हाले - अपनी किल्लोंलो में मस्त होंगे। उन की ख्याली आवाजें भी यहाँ तक न आएगी। 

       उन के साथ -- आप का कोई नाता है या कभी रहा था - वह भी धीरे-धीरे आप ही भूल जाएगा। कभी-कभार कहीं सुरंग में अनुगूँज सी कोई आवाज उभरेगी - तो लगेगा अपनी ही आवाज लौट कर आ रही है। उस की पहचान के लिए भी  बार-बार कानो पर हाथ दे कर - उस का एंगल बदल-बदल कर सुनने का यतन करना पड़ेगा।

       मालूम नही क्यों इतनी देर लगती है मोह -भंग होने में। 

       सामने का दरवाजा खोल दिया है। हवा का निस्वच्छ झोंका - एक बार रात की सारी उजा-बजक को धो पोंछ गया है। आँखे भी खुल गयी है। चेहरे पर शायद कोई ताजगी जैसी महसूस हो रही ही। सूरज अभी दूर सामने वाले घर के पिछवाड़े - दीवार के साथ सर टिका कर बैठा है ... फिर भी आदतन प्रणाम कर दिया है। नयी किरण - नयी आशा ले कर आना। 

       फिर सोचती हूँ - कैसी आशा - कैसी किरण ... ! 

       चिड़िया चहचहाने लगी हैं - एक - दो - तीन - रसोई की और मुड कर - धीरे-धीरे उन का दाना मुट्ठी में भर कर आंगन में रखे बर्ड-फीडर में डाल दिया है - चिड़िया झपट-झपट कर मुंह मार रही हैं। सूर्य की स्मित घर के फूलों पर उतर आई है। उठूँ चाय का पानी रख दूं। ... 

       एक और सुबह उग आयी है। 

सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’

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