Prem Bhardwaj on Muktibodh & Fascism
पार्टनर, बस अब फासिज्म आ जाएगाप्रेम भारद्वाज
वह चलता रहा। उसका चलना एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे तक का सफर था। बेशक बीच-बीच में रोशनी के कुछ बिंब ओर मीनारें मिलीं। लेकिन उन रोशनियों का दायरा बहुत तंग था। अंधेरा अंतहीन। सपने भीतर सपना की तर्ज पर अंधेरे भीतर अंधेरा और आगे बढ़ा।
देश ही क्या पूरी दुनिया में उजालों के बरअक्स अंधेरा घना हुआ है। सच सामने लाने वाले खबरनवीसों की बढ़ती हत्या और रचनाकारों में ‘बचने’ की प्रवृत्ति में इजाफा इस बात की तस्दीक करता है।दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर तुम्हें लेने
वहां के छोटे-बड़े साहित्यकार क्यों आए थे
‘धर्मयुग’ में छपा तुम्हारा रेखाचित्र
उतना डरावना क्यों था?
और हाथों में फूल लिए
तुम्हारी अर्थी के आगे चलने वाले
श्रीकांत वर्मा के डगों में
उतना उत्साह क्यों था
उतनी आशा और उतना विश्वास
ओ समय की व्यथा
समय का आतंक
और समय की आशा
अपने कंठ से बोलनेवाले कवि
तुम डबरे में सूरज-सा उगे
और डूब गए...
[ नंदकिशोर नवल
2 अक्टूबर 1966 ]
...
...गुजरे सितंबर महीने की 11 तारीख को मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्यतिथि थी। वह बीत चुकी। ‘मुक्तिबोध पर पुनर्विचार’ का राजधानी दिल्ली में महाआयोजन हो चुका। मुक्तिबोध को दुनिया छोडे़ भी आधी सदी बीत गई। लेकिन ‘अंधेरे में’ का काव्य-नायक, उसे किसी ने देखा है? लोगों को वह भले ही न दिखाई देता हो, लेकिन वह है हमारे बीच। अब वह बूढ़ा हो चला है। भीष्म पितामह की तरह सब कुछ देखते हुए यंत्रणा में जीने के लिए अभिशप्त। उसे किसी देवता ने इच्छामृत्यु का वरदान नहीं दिया। किन्हीं कौरवों की किसी सत्ता के प्रति उसकी कोई निष्ठा-प्रतिबद्धता भी नहीं। न ही वह किसी राजदरबार में है। वह भीष्म की तरह महान योद्धा भी नहीं है। फिर है क्या वह? हमारे भीतर की अथक-अजर-अमर बेचैनी। किसी कोने में दबी ईमानदारी, सच्चाई, संवेदनशीलता और अथाह दर्द। अदम्य जिजीविषा जो जिंदगी के बाद भी खत्म नहीं होती।
गुजरात में हुए दंगों ने एक ऐसा अंधेरा रचा जिसके बारे में कुछ कहना हाल ही में आए जनमत के खिलाफ जाना है।
‘अंधेरे में’ के काव्य-नायक का कोई नाम नहीं है। वह मुक्तिबोध है, और नहीं भी। जिसमें मुक्ति का बोध है, वह मुक्तिबोध है। मुक्ति की कामना या उसका बोध बेचैनी की दुनिया में ले जाता है, हमें एक गहरी नींद से जगाता है। पिछले पचास साल के समय ने इस काव्य-नायक की कमर को झुका दिया है, चेहरे पर झुर्रियां गहरी हो गई हैं... लेकिन बेचैनी वही है। वह पहले से ज्यादा तीव्र हुई है। जैसे-जैसे आदमी कमजोर होता जाता है, समय कम बचा रह जाता है। सब कुछ हाथ से फिसलता जाता है। बेचैनी लगातार जवान होते हुए परवान चढ़ती है। मुश्किल यह है कि इस काव्य-नायक को, किसी अजगर की तरह जकड़े ‘अजगरी अंधेरे’ को भारी-भरकम शब्दों और मुक्तिबोध की कविता पर दी गईं महान टीकाओं और आलोचना-ग्रंथों से समझना थोड़ा मुश्किल है। इस अंधेरे, उस काव्य-नायक मुक्तिबोध और उनकी जानलेवा बेचैनी को जानने-समझने के लिए बस संवेदना ही काफी है। बुद्धि से नहीं, जरा दिल की नजर से भी देखा जाए मुक्तिबोध, अंधेरे और उस बेचैनी को। समय के वही बंद कमरे। कमरों में वही घना अंधेरा। उसमें बेचैन संवेदना को कंधे पर लादे लगातार चक्कर काट रहा काव्य-नायक। वह नायक होने की अपनी तमाम विशेषताएं खो चुका है। खलनायकों के खल-छल वक्त में असली नायक की हैसियत सच्चाई के बंद कारागार में निरंतर चक्कर काटते, अपना मस्तक फोड़े लहूलुहान होने भर की रह जाती है। आधी शताब्दी बीतने के बाद भी लगातार चक्कर काटते हुए उसके पैर नहीं थके। उम्र ढल गई। वक्त बदलकर भी उसके हिसाब से नहीं बदला। जिंदगी की दीवारों से पलस्तर तो क्या ईंटें भी ढहने लगी हैं। इसके बरअक्स बेचैनी तीव्र हुई है। अंधेरे गहरे होकर एक खौफनाक रहस्यलोक रच रहे हैं... जुलूस में रोशन होने वाली लाल मशालें कम हुई हैं। सीने का बड़ा घाव अब पीठ पर उभर आया जो दिखता नहीं, सिर्फ उसकी पीड़ा बेहाल करती है। आगे बढ़ने के पहले ‘अंधेरे में’ के काव्य-नायक के बारे में...।
जब हर शय अपनी शक्ल बदल रही है, चेहरे को पहले से ज्यादा बेहतर और सुंदर कर रही है तो तय जानिए कि फासिज्म का चेहरा भी बदला है।
नामवर सिंह इस कविता का नायक मुक्तिबोध को नहीं मानते। उनके लिए यह अस्मिता की खोज है। रामविलास शर्मा तो मुक्तिबोध को रुग्ण मानते थे। ‘अंधेरे में’ को उन्होंने विभाजित व्यक्तित्व की कविता कहा। नंदकिशोर नवल जरूर मुक्तिबोध को ही काव्य-नायक मानते हैं। इसकी उन्होंने कई माकूल वजहेेें भी गिनाई हैं। लेकिन पहले टी.एस. इलियट का वह कथन, ‘लेखक अपने समय के बारे में लिखकर स्वयं अपने बारे में ही लिखता है’ और चेखव की वह बात, ‘अगर मैं जिंदा हूं, सोचता हूं, लड़ता हूं, सहता हूं तो वह मेरे लेखन में झलकेगा।’ जूलियस फ्यूचिक अपनी पुस्तक ‘फांसी के तख्ते से’ में खुद ही कथा-नायक हैं। यह पुस्तक जेल में फांसी के इंतजार में लिखी गई है। उन्होंने लिखा, ‘हम सदा मौत को मानकर चलते थे। स्वयं मेरे नाटक (जिंदगी) का अंत अब पास है। मैं वह अंत नहीं दिखा सकता, क्योंकि मैं अभी नहीं जानता वह क्या होगा? और अब यह नाटक नहीं, जिंदगी है। असलियत की जिंदगी में तमाशा देखने वाले नहीं होते। तुम सब उसमें हिस्सा लेते हो। अगर फांसी का फंदा मेरा गला घोंट देता है, तब भी लाखों-करोड़ों लोग बच जाते हैं जो उसका (मेरी कहानी) का सुखद अंत लिखेंगे।’ नोबेल पुरस्कार विजेता नार्वीजी लेखक क्नूट हैम्सुन के उपन्यास ‘भूख’ में नायक का कोई नाम नहीं है। जैसे समय बीतता है, उसे अपने आपसे वंचित कर दिया जाता है। वह उस अंधकार में झांकता है जो भूख ने उसके लिए बना दिया है और वह पाता है कि वहां भाषा की रिक्तता है, ‘मैं कुछ दूर अंधेरे में ताकता रहा। अंधकार के इस गंदे पदार्थ को जिसका कोई अंत नहीं था, मेरी समझ के पैमाईस से परे था अंधेरा। उसकी मौजूदगी मुझे दबाए जा रही थी। अंधेरे ने मेरे दिमाग को धर दबोचा था और मुझे एक मिनट का चैन नहीं। अगर मैं इस अंधेरे में घुल जाऊं, अंधेरे में तब्दील हो जाऊं तो...।’
अब वह वक्त आ गया है कि हमें अपनी आदत सुधारनी होगी, वर्ना हमारी भी वही परिणति होगी जो मुक्तिबोध की हुई।
‘अंधेरे में’ कविता के नायक मुक्तिबोध हैं। इस कविता के मूल में मुक्तिबोध के जीवन से जुड़ी दो अहम चीजेें हैं, जिनका प्रभाव इस कविता में दिखाई देता है बल्कि वह इन दोनों घटनाओं के पायों पर खड़ी है। पहला नागपुर की इंप्रेस मिल में मजदूरों पर हुआ गोलीकांड जिसे बहैसियत ‘नया खून’ के रिपोर्टर मुक्तिबोध ने खुद अपनी आंखों से देखा था। दूसरी घटना 19 सितंबर 1962 को घटित हुई जब जनसंघ की मांग पर मध्य प्रदेश सरकार ने मुक्तिबोध द्वारा माध्यमिक विद्यालयों के लिए तैयार की गई पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ को प्रतिबंधित कर दिया। इस निर्णय से वह गहरे सदमे में थे। वह कई दिनों तक परेशान रहे। दरअसल, उनका सदमा राजनीति की भयंकर प्रतिक्रिया का नतीजा था। अपनी पुस्तक के जब्तीकरण को वह लेखक की विचार-स्वतंत्रता और लेखन-स्वतंत्रता के लिए खतरनाक मानते थे। भोपाल में नेहरू जी के निधन का समाचार सुनकर अचेत अवस्था में ही मुक्तिबोध शोकाकुल हो उठे, ‘पार्टनर, बस अब फासिज्म आ जाएगा।’ भोपाल में मुक्तिबोध की पुस्तक की प्रतियां जलाई गईं। रायपुर में जनसंघ ने उनके विरुद्ध प्रस्ताव पास किया। उसी वक्त भारतीय जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय ने कहा, ‘यह पुस्तक लेखक के विकृत मस्तिष्क की उपज है।’ इस घटना को मुक्तिबोध ने व्यापक राजनीतिक संदर्भ में देखा और त्रस्त हो उठे। अब जैसे उनका दुःस्वप्न उनके सामने आकर खड़ा हो गया। इसी दुःस्वप्न की महान कलात्मक परिणति है - ‘अंधेरे में’।
अस्वीकार
बेचैन करता है।
बेचैनी
आक्रोश में ढलती है।
आक्रोश कभी भी
सत्ता-व्यवस्था के लिए
सुहाना नहीं होता।
- प्रेम भारद्वाज
...ज्ञानरंजन तो अक्सर कहा करते हैं कि जो अपने दौर की व्यवस्था का प्रखर विरोधी होता है, उसे व्यवस्था अपने ढंग से मिटा देती है। कई बार ऐसे हालात बना दिए जाते हैं कि प्रतिरोध करने वाला व्यक्ति असमय फना हो जाता है। भुवनेश्वर, निराला, मुक्तिबोध, राजकमल चैधरी, धूमिल, गोरख पांडेय से लेकर अब तक की एक लंबी परंपरा है। ‘अंधेरे में’ के काव्य-नायक और मुक्तिबोध की बेचैनी, नाराजगी, भय, आशंका एक है। वे दोनों एक ही हैं। मुक्तिबोध मिट गए। बेवक्त मिटा दिए गए। लेकिन उनके देहांत के बाद भी काव्य-नायक अंधेरे समय में लगातार भटकता रहा। रोशनी की तलाश में। रोशनी मजबूत हौसलों की। मशाल सच की, संवेदनाओं का नगर, उस नगर में मनुष्यता के मोहल्ले, प्रेम से भरे लोगबाग। अमूमन कठोर यथार्थ से घबराकर दिल को तसल्ली देने या खुद को खुश करने के लिए लोग फैंटसी रचते हैं। लेकिन मुक्तिबोध के लिए जो कठिन यथार्थ है उससे वह भागते नहीं। अलबत्ता उसे अभिव्यक्त करने के लिए जो फैंटसी रचते हैं, वह भी बेहद भयावह और रहस्यमयी है। अंधेरे का विकल्प रोशनी है, रंगीनी नहीं। बचाव से अपमान भी होता है। मुक्तिबोध बचना नहीं, अपने समय को बेधना चाहते थे। इस कोशिश में तीर ने पलटा खाया और समय का तीर उनके जिगर के आर-पार हो गया। खुद को नींबू की तरह रस के रूप में अपना सारा लहू निचोड़कर ‘अंधेरे में’ जैसी कविता रचने वाले मुक्तिबोध ने अपनी पुस्तक की जब्ती पर लिखा है, ‘देश में जो जनतांत्रिक स्वतंत्रता है, वह उपेक्षा के द्वारा छीनी भी जा सकती है। मेरी कविता ‘अंधेरे में’ एक आशंका है। अंधेरे में आशंका का वातावरण है, कहीं हमारे भारत में ऐसा-वैसा न हो।’
मुक्तिबोध तो भौतिक रूप से मिट गए। लेकिन ‘अंधेरे में’ के नायक ने अब तक की यात्रा में इस देश-दुनिया में अंधेरे के कई रंग और पड़ाव देखे। उसने देखा कि कैसे एक हौलनाक आशंका हकीकत की शक्ल में ढलती है। उनके मरने के साल भर बाद ही पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, भीषण अकाल आया, तेलंगाना में गोलीकांड और नक्सलवाद का जन्म। देश भर में आंदोलन का उभार और उसके दमन को भी इस नायक ने देखा। उसने देखा कि फिर '71 में पाक के साथ युद्ध और अभिव्यक्ति और लोकतंत्र पर सबसे बड़े प्रहार का दौर इमरजेंसी भी आया। जब कई जेल गए तो कई भयवश रेंगने लगे। तब सैकड़ों रातें उसने रोकर-सिसककर गुजारी। वह बेचैन संवेदना को कंधों पर गठरी की तरह लादे बाढ़, सूखे, उदासी, मायूसी, दमन, भ्रष्टाचार, पूंजीवाद की सीढ़ियों पर चढ़ता-उतरता रहा। वह हर घटना पर कभी भयभीत हुआ, कभी उदास, कभी आंसू की जगह रक्त छलक आया उसकी आंखों में। भोपाल गैस त्रासदी, खालिस्तान का खौफ और इससे भी ज्यादा स्वर्ण मंदिर पर टैंकों का चलना। वह चलता रहा। उसका चलना एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे तक का सफर था। बेशक बीच-बीच में रोशनी के कुछ बिंब ओर मीनारें मिलीं। लेकिन उन रोशनियों का दायरा बहुत तंग था। अंधेरा अंतहीन। सपने भीतर सपना की तर्ज पर अंधेरे भीतर अंधेरा और आगे बढ़ा। जमीनी सरोकार को लेकर होने वाले आंदोलन पीछे छूट गए। उन्हें बिलकुल नष्ट करने के लिए आया राम मंदिर आंदोलन। रोटी से जरूरी राम हो गए। नायक ने देखा कि कैसे सांप्रदायिक माहौल रचकर तब लालकृष्ण आडवाणी ने खुद को नायक बना लिया। मंडल आंदोलन की काट के लिए शुरू किए गए इस उन्माद ने अयोध्या को महाभारत के कुरुक्षेत्र में तब्दील कर सरयू को रक्तरंजित कर दिया। विवादित ढांचा ध्वस्त। पूरा देश दंगे की आग में जब धू-धू जल रहा था तब ‘अंधेरे में’ के नायक के भीतर और बाहर अंधेरा इतना गहरा हुआ कि वह चीखना तक भूल गया। आंदोलनों, सरोकारों, संबंधों की कब्र पर उदारीकरण के महल की नींव डाली गई। इसके साथ ही पूरे देश में भ्रष्टाचार की बयार बहुत तेज हो गई।
देश-दुनिया के लोगों के साथ यह नायक इक्कीसवीं सदी में बिना चाहे और बगैर किसी कोशिश के दाखिल हो गया। अभी वह दो कदम ही आगे बढ़ा था कि गुजरात में हुए दंगों ने एक ऐसा अंधेरा रचा जिसके बारे में कुछ कहना हाल ही में आए जनमत के खिलाफ जाना है। जो उस अंधेरे के जिम्मेदार थे उन्होंने देश को रोशनी का पयार्य बना देने का सुनहरा ख्वाब दिखाया है। विकास की हवा बहाने का वादा किया है। इनके आने के साल भर पहले ही दिल्ली विश्वविद्यालय के सिलेबस से रामानुजम का लेख हटा दिया गया। मकबूल फिदा हुसैन को इस कदर मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा कि वह देश छोड़ गए। हाल ही में वेंडी डोनिगर की किताब ‘दि हिंदू : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को प्रतिबंधित कर दिया गया। देश ही क्या पूरी दुनिया में उजालों के बरअक्स अंधेरा घना हुआ है। सच सामने लाने वाले खबरनवीसों की बढ़ती हत्या और रचनाकारों में ‘बचने’ की प्रवृत्ति में इजाफा इस बात की तस्दीक करता है। हैरतअंगेज ढंग से और मुक्तिबोध की काव्य-पंक्ति के विपरीत गढ़-मठ ज्यादा मजबूत हो रहे हैं, अभिव्यक्ति पर बढ़ते खतरे के कारण माहौल लगातार दहशतजदा होता जा रहा है। जब हर शय अपनी शक्ल बदल रही है, चेहरे को पहले से ज्यादा बेहतर और सुंदर कर रही है तो तय जानिए कि फासिज्म का चेहरा भी बदला है। बहुत संभव है कि एक झटके में उसे आज पहचाना भी न जा सके। इसका चेहरा भी पहले के बनिस्पत सुंदर और नर्म हुआ है। लेकिन इससे भरम मत पालिए कि वह रहमदिल हो गया है या उसके कातिलाना इरादों में कोई बदलाव आया है। आज की तारीख में हिटलरी अंदाज में कत्लो-गारद नहीं मचाया जा सकता। अलबत्ता आज हमारे जनतांत्रिक अधिकारों को हड़प लेना ही फासिज्म है। हिटलर ने भी जर्मनी का बहुत विकास किया। औरंगजेब के शासन में देश का विकास बहुत हुआ। इन दिनों भी विकास का शोर है। वर्तमान का विजयी जुलूस। सत्ता के जामिम पर कई ऐसे लोग बैठे हैं जो ‘अंधेरे में’ के जुलूस में शामिल रहे। जनरल, सेनापति, उद्योगपति और शहर का कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद। दिन में तो वे महान बने रहते हैं। लेकिन रात में भूत-पिशाच बन जाते हैं। नायक ने उन्हें पहचान लिया था। फासिज्म को किसी भी तरह से आधार प्रदान करने वाले लोग जनता के हत्यारे होते हैं। उनके चेहरे से नकाब नोंचने वाले को वे जान से मार देते हैं, ‘मारो गोली दागो साले को।’ पचास साल बाद ‘अंधेरे में’ का नायक तब की तुलना में आज ज्यादा बेचैन है। नायक तो वह तब भी नहीं था। कभी नहीं था। वह तो कवि और हम पाठकों की हिमाकत है कि सबसे कमजोर को भी नायक मान लेते हैं। लेकिन अब वह वक्त आ गया है कि हमें अपनी आदत सुधारनी होगी, वर्ना हमारी भी वही परिणति होगी जो मुक्तिबोध की हुई। जरा गौर कीजिए अब हमारे साहित्य-समाज में जान को जोखिम में डालकर रचने वाले लोग कितने बचे रह गए हैं। अब तो बचे हुए लोग भी बहुत कम बचे हैं। एक ‘अंधेरे में’ से दूसरे अंधेरे का सफर मुक्तिबोध के काव्य-नायक की ही नहीं हमारी भी जैसे नियति नहीं भी तो एक यथार्थ है। और कोई भी फैंटसी इससे मुक्ति नहीं दिला सकती। हमें एक और मुक्तिबोध चाहिए जो वर्तमान समय के अंधेरे की भयावहता-रहस्यमयता बता सके। लेकिन उसके लिए उसे मरना होगा। लेकिन मरना कोई भी नहीं चाहता, फिर...
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'पाखी' अक्टूबर-2014 अंक का संपादकीय
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