हास्य नाटिका
कहाँ हो तुम परिवर्तक ?
अशोक गुप्ता
अशोक गुप्ता
305 हिमालय टॉवर, अहिंसा खंड 2, इंदिरापुरम,गाज़ियाबाद 201014
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ऐबी – एक लंगड़ा बना हुआ आदमी
फरेबी – एक अंधा बना हुआ आदमी
एक चाय वाली
(लंगड़ा कर चलते हुए ऐबी का प्रवेश. वह मंच का चक्कर लगता है. तभी फरेबी का प्रवेश, जो ऐबी को देख कर आवाज़ लगाता है)
फरेबी - अरे ऐबी, आज लंगड़ की स्टाइल में निकले हो, क्या इरादा है ?
ऐबी – तुम भी तो आज सूरदास बने घूम रहे हो, प्लान तुम्हारा भी कुछ चौकस ही होगा.
फरेबी - हां, कल लोगों की दिहाड़ी का दिन था... तो आज खरीदारी का दिन होगा. उनकी खरीददारी, तो अपनी झपटमारी....
ऐबी – मैं तो मंदिर की तरफ निकल रहा था, वहां मेरा बिना झपटमारी किये काम हो जाता है.
फरेबी - अरे कोई तो करता होगा झपटमारी वहां भी ?
ऐबी – हां, पंडे पुजारी बहुत लोग हैं, भगत भी पंचम हैं इस हुनर में. वह रूपइया भर झपटते हैं तो चवन्नी भर हमें मिल जाता है धरम के नाम पर.
फरेबी - सही बात है.. चल इसी बात पर चाय पिला. बहुत सर्दी है यार. आज चाय वाला भी नजर नहीं आ रहा है ( आँख पर हथेली रख कर खोजता है )
* आवाज़ लगते हुए चायवाली का प्रवेश
फरेबी - अरे, आज तुम आई हो लिप्टन वाली ?
चायवाली – दिख नहीं रहा है क्या ? क्या सचमुच आँखें चली गयीं ? हे भगवान !
ऐबी – ठीक कहा लिप्टनवाली. जब भगवान वालों की ही आँखें चली जायं तो सब अच्छे भलों को अंधा, लंगड़ा, लूला बनना पड़ता है.
फरेबी - ... आज हमारे दद्दू कहाँ निकले हुए हैं जो तुम्हें आना पड़ा?
ऐबी – क्या बताएं, उनको भी बलात्कार करने का शौक चढ़ गया है. कहते हैं कि मुफ्त की मस्ती है, कानून सज़ा का भी कोई डर नहीं है.
ऐबी और फरेबी एक साथ – क्या...?
चायवाली – हां सच में.... बताओ क्या निर्भया वालों को सज़ा हुई ? क्या बलात्कार होने कम हुए ? तुम्हारे दद्दू भी दो-चार कर लेंगे तो क्या बुरा है, आखिर मेरे साथ भी तो बलात्कार ही करते हैं.
फरेबी - ( शरमा कर ) ठीक है, ठीक है. चलो चाय पिलाओ. गरम, कड़क और मीठी, दमदार, जो अन्धों की भी आँखें खोल दे.
ऐबी – असली नकली दोनों अन्धों की....
फरेबी - चुप चुप चुप, ऐसी बात नहीं करते, अंदर हो जायेगा.
चायवाली चाय देती है. ऐबी फरेबी दोनों मस्ती से फूंक मार मार के चाय पीते हैं.
ऐबी – ( चाय पीते पीते आलाप लेता है)
ओह रे नदी मिले ताल के जल में
ताल मिले पोखर में...
फरेबी - ओय पागल, उल्टा गा रहा है. ‘ताल मिले नदी के जल में ‘
ऐबी – नहीं हमारे लिये यही सही है. अमीर बड़ा है, हम छोटे हैं, हमारी चोरी-चकारी और झपटमारी से बड़ों का पैसा छोटों तक आ जाता है. तो नदी मिली न ताल पोखर से..
फरेबी - अरे बुद्धू, यह उल्टा इसलिये है क्योंकि पूंजीपति बड़ा है सागर जैसा और सरकार छोटी है नदी जैसी, इसीलिए सरकार का पैसा हमेशा पूंजीपति के पास जाता है.
ऐबी – अरे हां बिल्कुल ठीक. जनता सबसे छोटी है, ताल भी नहीं, पोखर की तरह और उसका पैसा सरकार के पास जाता है. बड़ी वाली जनता इस से बची रहती है.
चायवाली – ( उकता कर ) जल्दी चाय पियो और खिसक लो. वर्ना...
फरेबी - वर्ना क्या... क्या जान खतरे में है, ?
चायवाली – जान नहीं, धरम खतरे में है. वो कन्वर्टर लोग आ रहे हैं न ?
ऐबी – कौन कन्वर्टर..? क्या करते हैं ?
चायवाली – करते क्या हैं, उठा कर धरम बदल देते हैं.
फरेबी - चलो अच्छा है, कभी कपड़े बदलने के तो दिन आते नहीं, धरम ही बदल जायगा.
चायवाली – इतना आसान नहीं है, एक से बदल कर छूटोगे तो दूसरा दबोच लेगा. जबरन, और पीछे कहीं पहले वाला भी अपना दांव लगाए खड़ा होगा.
ऐबी – वो छोड़ो, यह बताओ, कि धरम बदल जाने पर क्या झपटमारी पर पाबंदी लग जायेगी...?
फरेबी - क्या धरम बचा ले जाने पर बिना अंधे-लंगड़े हुए रोटी मिल जायेगी ?
ऐबी – अगर कन्वर्ट होने से बच गये तो क्या बिना रिश्वत दिये नौकरी मिल जायेगी...?
फरेबी - और फिर अभी हमारा धरम हैं कौन सा ? हमें तो अपने ही धरम वालों के आगे गिडगिडाना पड़ता है.
ऐबी – कितने ही पुलिसवाले अपने धरम के हैं, क्या वह अपना हफ्ता छोड़ देते हैं.
फरेबी - बी ए पास हूँ. मेरे ही धरम का बाबू भी था जिसने नौकरी पर रखने के लिये पच्चीस हज़ार का मुंह खोला था, कहा था कि अफसर भी अपनी बिरादरी का है, तीन महीने में वसूल करा देगा, मेरे पास केवल दस थे, उसने ठेंगा दिखा दिया, और...
ऐबी – .... जिसे वही नौकरी मिल गयी वह दूसरे धरम का था. वह भी खालिस, कन्वर्टेड वाला नहीं था.
फरेबी - ठीक कहते हो गुरु - महंगाई, भ्रष्टाचार, अन्याय अनाचार सब धर्मनिरपेक्ष हैं. सामने दिख रहे धरम का तो साफ़ सुथरा चोला भी नहीं है. मैला है, हमारे इस चीकट से भी ज्यादा.
चायवाली – तो क्या तुम्हें किसी कन्वर्टर से कोई डर नहीं है...?
ऐबी फरेबी एक साथ – बिल्कुल नहीं, तुम्हें है क्या ?
चायवाली – मुझे क्या डर होगा? मेरा तो बलात्कार होना ही है, वह भी तो धर्मनिरपेक्ष है. अपन लोगों का धरम जाने या बचे रहने से कुछ नहीं बदलेगा. हम हाल में अपंग और विपन्न ही रहेंगे.
ऐबी फरेबी - तो फिर तुम भी हमारे साथ चलो, हम ही कन्वर्टर को ढूँढते हैं. न कुछ तो एक शगल ही रहेगा.
चाय वाली – ठीक है, चलो
(तीनों लोग हाथ में हाथ डाल कर मंच का आधा चक्कर लगाते हैं और फिर ठहर कर आवाज़ लगाते हैं )
संविद स्वर – कहाँ हो तुम परिवर्तक ?
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