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अंधेरे के सैलाब से रोशनी की ओर बढ़ती आत्मकथा - भावना मासीवाल

समीक्षा


अंधेरे के सैलाब से रोशनी की ओर बढ़ती आत्मकथा

भावना मासीवाल 




आत्मकथा ‘स्व’ का विस्तार है साथ ही स्व से सामाजिक होने की प्रक्रिया जिसमें ‘आत्म’ अपना और ‘कथा’ सबकी होती है । आत्मकथा को ‘स्वीकारोक्ति’(कन्फेशन’) और ‘यादों’ (मेमरी) से जोड़ कर भी देखा जाता है, जहाँ स्वयं के प्रति अपराध बोध का होना था जिसका जिक्र रूसो ने किया है । आरंभिक दौर की पुरुष आत्मकथाओं में जिसे देखा जा सकता है । महिलाओं के संदर्भ में आत्मकथा लेखन का आशय स्वीकारोक्ति का भाव आना नहीं था बल्कि स्वयं के अनुभवों के माध्यम से समाज और राजनीति के भयावह चेहरों को सामने लाना था । आत्मकथा लेखन का ‘स्व’ के माध्यम से सामाजिक होने का यह भाव महिलाओं को विशेष प्रभावित करता है जिसका प्रभाव महिला आत्मकथा लेखन का तेज़ी से उभरना रहा । महिला लेखन में आज आत्मकथा लेखन सशक्त विधा के रूप अपनी मुकम्मल पहचान बना चुका है । महिलाएं जिसके जरिए एक ओर जागरूक हो रही हैं तो दूसरी ओर समाज व राजनैतिक व्यवस्था के प्रति सुधार की अपेक्षा कर रही हैं । अपने लेखन से उन तमाम महिलाओं को पुनः जीवित भी कर रही हैं जो परिवार, समाज, धर्म और राजनीति के नाम पर लगातार छली जा रही हैं । महिला आत्मकथा लेखन का पहला स्वर भारत में 1865 में बंगाल में सुनाई देता है जहाँ से यह महाराष्ट्र की ओर रुख करता है । 1910 में ‘हमारे जीवन की यादे’ रमा बाई रानाडे की मराठी में पहली आत्मकथा आती है जिसके बाद आत्मकथा का सिलसिला आगे बढ़ता है जिसमें पार्वती बाई आठवले, लक्ष्मी बाई तिलक, बेबी कामले, माधवी देसाई, मलिका अमर शेख, ललिता बाई पटवर्धन, शांता कृष्ण काम्बले, अनीता भारती, कौसल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौरे आदि महिलाएं प्रमुख रही । महाराष्ट्र की इस कर्मभूमि से ही आशा आपराद भी आती हैं । आशा आपराद की आत्मकथा ‘दर्द जो सहा मैंने’ मराठी से हिंदी में स्वयं इनके द्वारा किया गया अनुवाद है । 

मुस्लिम समाज में महिलाओं द्वारा लिखी गई यह पहली महिला आत्मकथा नहीं है इससे पहले भी 1984 में मलिका अमर शेख की ‘मला उध्वस्त व्हॉयचय’, 1989 में बेनजीर भुट्टो की ‘डॉटर ऑफ़ द ईस्ट’ जो बाद में ‘डॉटर ऑफ डेस्टिनी’ नाम से आती है हिंदी में जिसे ‘मेरी आप बीती’ नाम से जाना गया, 1994 में इस्मत चुगताई की ‘कागज़ी है पैहरन’, 1997 में किश्वर नाहीद की ‘बुरी औरत की कथा’, 1999 में तसलीमा नसरीन की ‘मेरे जीवन के दिन’ जिसके बाद इनकी आत्मकथाओं के बांग्ला में छह खंड और आते हैं 2002 में ‘उताल हवा’, 2003 ‘द्विखंडिता’, 2004 ‘वे अंधेरे दिन’, 2006 ‘मुझे घर ले चलो’ 2010 में ‘नहीं, कहीं कुछ भी नहीं..’ और 2012 में ‘निर्वासन’, 2013 में जोहरा सहगल की ‘करीब से’ मुस्लिम महिलाओं की आत्मकथाएं आती हैं । यह सभी महिला आत्मकथाएं मुस्लिम समाज और महिलाओं पर केन्द्रित हैं साथ ही एक ऐसे वर्ग की महिलाओं द्वारा लिखी गई जिनका संघर्ष समाज और राजनीति से अधिक रहा फिर वह चाहे पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमत्री बेनजीर भुट्टो हो या पाकिस्तान की नारीवादी लेखिका किश्वर नाहीद या भारतीय मूल की नारीवादी विचारधारा की लेखिका इस्मत चुगताई हो या बांग्ला देश से निर्वासित तसलीमा नसरीन । इन सभी महिलाओं का संधर्ष राजनैतिक रहा जो इनकी आत्मकथाओं में सशक्त रूप से उभर कर आता है ।

आशा आपराद की आत्मकथा मुस्लिम पृष्ठभूमि पर लिखी एक आम महिला की आत्मकथा है । वह आम महिला जो सत्ता के गलियारों तक पहुँच बनाने में अभी नाकाम है जिसका संघर्ष क्षेत्र उसका परिवार समाज और धर्म है जिससे बाहर आकर सोचने व समझने का मौका न सत्ता उसे देती है न ही समाज । वह लिखती हैं - ‘मैंने अपने आप को ढूँढने की कोशिश जिंदगी भर की ।...क्योंकि ‘अपनों ने जो पहचान कराई थी वह सारी बाते कहीं भी नहीं थीं..’..था तो ‘घर्म, रुढ़ि, रीति-रिवाज, परम्परा जैसे पत्थरों से बनी दीवारों के कैदखाने’.. । आशा आपराद की आत्मकथा ‘दर्द जो सहा मैंने’ उनके इसी खोए हुए अस्तित्व की तलाश का सफरनामा है । इसी कारण इनका संघर्ष क्षेत्र सत्ता के गलियारों से कुछ दूर परिवार व समाज पर ही अधिक केंद्रित रहा है । बावजूद इन सबके वह परिवार में व्याप्त सत्ता संबंधों को स्पष्ट करती हैं जिसे हम अधिकतर अनदेखा कर देते हैं । सत्ता संबंध केवल राष्ट्र को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि उससे कहीं अधिक उसमें रह रहे आमजन को प्रभावित करते हैं । प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध व भारत में जारी आज़ादी के संघर्ष से जहाँ 1947 में देश आजाद होता है वहीं दूसरी ओर समानता और बंधुत्व का नारा टूटता है । देश आजाद होकर भारत और पाकिस्तान बनता है और कीमत चुकानी पड़ती है आम आदमी को । आशा आपराद का परिवार विभाजन की इन नीतियों से प्रभावित होता है । साम्प्रदायिक दंगों की आड़ में एक खुशहाल मुस्लिम परिवार बदहाली का जीवन जीने पर मजबूर होता है । जिसका प्रभाव न केवल इनके वर्तमान पर होता है बल्कि भविष्य में आशा आपराद के जीवन पर भी स्पष्ट दिखाई देता है । बचपन से ही अभावों से घिरा जीवन, उस पर छः बहनों का होना, माँ की नजरों में ख़ुद के लिए उपेक्षा, तमाम उम्र घर की चारदीवारी में अकेले संघर्ष करना और ख़ुद की पहचान के लिए प्रयत्नशील रहने की अदम्य जिजीविषा इनमें रही । 

भारतीय समाज में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर यदि गौर किया जाए तो यहाँ आर्थिक अस्थिरता अधिक है साथ ही महिलाओं को लेकर रूढ़िगत विचारधारा का चलन भी । जो मुस्लिम पर्सनल ला एक्ट के तहत कार्यरत है। ऐसे में विवाह, तलाक, पर्दा, परिवार नियोजन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर बंदिशे अधिक मिलती है । कौन कह सकता है यह ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फूले की कर्मस्थली है ? जिन्होंने स्त्री शिक्षा को लेकर कार्य किया। कौन कह सकता है  यह अम्बेडकर की कर्म भूमि है जिन्होंने दलितों और स्त्रियों की आवाज़ को बुलंद किया ?  कौन कह सकता है यह गाँधी और विनोबा की पुण्य स्थली है ? बावजूद इन सबके आज इसी समाज में मुस्लिम महिलाएं शिक्षा को तरस रही हैं । समाज का जातीय और वर्गीय चरित्र आज भी सबसे अधिक यहीं देखा जाता है। आशा आपराद अपने स्वयं के प्रयत्नों और शिक्षा पाने की अदम्य लालसा के चलते ऐसे मुस्लिम समाज में अपनी शिक्षा के अधूरे सपने को पूरा करती हैं जहाँ शिक्षा पाना अपराध करने से कम नहीं था । समाज के इस दोयम दर्जें के वर्ग को पुनः स्थापित करने व उनको जीने के लिए प्रेरित करती हैं । महिलाओं से जुड़ी संस्था ‘मुस्लिम सत्यशोधक मंडल’ और ‘महिला दक्षता समीति’ में कार्यरत रहती हैं और मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर मोर्चा भी संभालती हैं । वह समाज में महिलाओं के लैंगिक शोषण के प्रश्न को भी उठाती है और लिखती हैं ‘औरत का पेट बढ़ाने वाले बहुत से थे पर ज़िम्मेदारी की उंगली अपनी ओर न उठे इसके बारे में सजग थे’। परिवार व समाज में महिलाओं के उत्पादन व पुनरुत्पादन के श्रम की स्थिति से यह वाकिफ है जहाँ बच्चा पैदा करने से लेकर उसकी परवरिश तक की जिम्मेदारी केवल माँ की है पिता का कार्य केवल अपना ‘वीर्य’ देना भर है । जिससे वह स्वयं भी जूझती हैं और उनकी जैसी तमाम महिलाएं आज भी जूझ रही हैं । 

यह आत्मकथा धर्म, जाति और वर्ग के आपसी गुथे परिवेश को भी इंगित करती है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शब्दों में कहें तो ‘हर छोटी जाति अपने से छोटी एक और जाति ढूँढ लेती है’। जाति का मसला केवल हिंदू समाज में ही नहीं हैं बल्कि ‘काम के अनुसार भारत के मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था आई ..मुल्ला-मौलवी, मुजाविर शेखर, सय्यद, पिंजारी, शिकलगार, पट्वेगार आदि’.. भारतीय समाज में व्याप्त जाति का प्रश्न मुस्लिम समाज में भी रहा, जिसका विरोध आशा आपराद करती हैं क्योंकि इसने मुस्लिम समाज और उसकी गतिशीलता को तो अवरुद्ध किया साथ ही हिंदू समाज में व्याप्त जातीय अस्पृश्यता को भी अपना लिया । मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज अपनी इसी संकीर्णता के कारण प्रगति नहीं कर सका जिसके लिए लेखिका लिखती हैं ‘नदी का सफर सागर की ओर चलता है न कि नाले की ओर’। मुस्लिम समाज में बढ़ता पिछड़ापन, अशिक्षा, बेरोजगारी और तमाम तरह की समस्याएं समाज की इसी असंतुलित जातीय विभाजन का परिणाम रही । मुस्लिम समाज भी आज कई जातियों में विभाजित है वह भी समाज के तथाकथित निम्न तबके के प्रति अछूत का व्यवहार रखता है जिससे जाना जा सकता हैं कि अम्बेडकर की यह भूमि आज भी जातीय संघर्षों से ऊपर नहीं उठ पाई है । इतना ही नहीं मुस्लिम समाज का वर्गीय चरित्र भी आत्मकथा में उभर कर आता है जहाँ इनके अपने परिवार के रिश्तेदार ही इन्हें वर्गीय असमानता का बोध कराते हैं । 

इस्लाम में क़ुरान शरीफ का महत्व मुस्लिम समाज के लिए वही है जो हिंदूओं के लिए वेद और गीता का है तथा सिखों के लिए गुरूग्रंथ साहेब का । समय के साथ-साथ इन धर्म ग्रंथों पर पुनः विचार की आवश्यकता महसूस की जाती रही है । आशा आपराद भी ‘कुरान शरीफ’ की पुनर्व्याख्या की बात करती है जहाँ महिलाओं को दिए सभी अधिकार ‘क़ुरान शरीफ’ की सत्ता द्वारा व्याख्यित व्याख्याओं में दबा दिए गए हैं । आशा आपराद न केवल स्वयं के लिए बल्कि मुस्लिम समाज के लिए धर्म की पुनर्व्याख्या और धर्म को खुद से पढ़ने की बात करती हैं ‘हर मुसलमान को ‘क़ुरान’ अपनी भाषा में समझ लेना आवश्यक है, जिससे बहुत-सी गलत फहमियाँ तो मिट जाएंगी’। धर्म के पुनरावलोकन का जो प्रश्न हिंदू धर्म ग्रथों को लेकर महिलाओं में उठा और उठ रहा है जिसका कारण महिलाओं के संदर्भों में धर्म की सत्ता प्रदत व्यक्तिगत व्याख्या रही है । आशा आपराद की आत्मकथा धर्म और सत्ता के इन नियामक संबंधो पर पुनर्विचार की बात करती है ।

लव-जिहाद के नाम पर चलने वाली आज की राजनैतिक गहमागहमी के बीच यह आत्मकथा पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर सामान्य व्यक्ति इतना ‘कोंशियस’ नहीं होता जितना की आज के राजनेता । स्वयं आशा आपराद का संबंध  मुस्लिम समाज से अधिक हिंदू समाज से रहा । उनके संघर्ष के सहयोगियों की यदि बात की जाए तो सबसे अधिक हिंदू रहे । हिंदू धर्म उसके रीति-रिवाज, यहाँ तक की उनके ईश्वर के प्रति आस्था का भाव भी यहाँ रहा । वह लिखती हैं –‘मंदिर से बचपन से एक अनोखा नाता जुड़ गया जो भविष्य में अधिक दृढ़ हुआ । यह मेरे विश्राम का स्थान बन गया । यहाँ की ठंडक ने मेरे झुलसते मन पर धीरे से फूंक का काम किया..’।  ऐसे में लव-जिहाद जैसे मुद्दे कोरी लफाजी जान पड़ते हैं जिनका उद्देश्य साम्प्रदायिक तत्वों को हवा देना है या कहें राजनितिक माहौल गर्म करना भर है । यही साम्प्रदायिक असंतोष और डर,  बावरी विध्वंस के बाद भी समाज में देखा गया, जब मुस्लिम जान कर बचपन में विद्यालय में शर्मिदा होना पड़ता है, कभी घर किराए पर नहीं मिलता तो कभी उनकी पदोन्नति को रोका जाता है तो कभी बीजिंग जाने के पासपोर्ट को । संदेह के घेरे में रहने पर हमेशा ही इन्हें मजबूर किया गया । बावजूद इन सबके हिंदू घर्म और उससे जुड़े लोग इनके अधिक करीबी रहे । 
दर्द जो सहा मैंने ...(आत्मकथा):  आशा आपराद
राजकमल प्रकाशन पेपरबैक्स
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
प्रथम संस्करण-2013, पृ-275, मूल्य-195
आत्मकथा का पूरा कलेवर 60 छोटे-2 गीतों की पक्तियों के तर्जुमों से बना है । जो आत्मकथा के शीर्षक की भांति ही आत्मकथा के उप-विषयों को सार्थक करते हैं । आत्मकथा जहाँ परिवार, समाज, जाति, वर्ग और धर्म पर बात करती है उसकी थोड़ी गहराई में यदि जाएं तो यह ‘युनिवर्सल सिस्टर वुड’ की टूटती अवधारणा पर भी हमारा ध्यान केन्द्रित करती है । आखिर क्यों एक महिला दूसरी महिला के प्रति नफरत का भाव रखती है जब वह स्वयं उसकी अपनी बेटी है । आशा आपराद अपनी पूरी आत्मकथा में अपने और अपने माँ के संबंधों पर लिखती हैं जो उनके प्रति सौतले से भी बुरा रहा । उनके जीवन का एक संघर्ष तो खुद को अपनी माँ से दूर करना और स्वतंत्र होकर जीने का रहा । माँ के संबंध में यही विचार प्रभा खेतान का भी है जिसका जिक्र वह अपनी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ में करती हैं । सवाल यह है कि कैसे सामजिक और आर्थिक परिस्थितियां महिलाओं के चरित्र का निर्माण करती हैं और वहीं महिलाएं जब सत्ता सबंधों को अपनाने के क्रम में ‘पावर’ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं तो अपने से कमज़ोर को दबाती हैं । आशा आपराद की माता का चरित्र भी समाजिक संरचना की ही उपज है जो उन्हें अपने पति और बेटी से नफरत करने पर मजबूर करता है । महिलाओं के ऐसे चरित्रों का आज मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना आवश्यक है । 


भावना मासीवाल

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
महाराष्ट्र-442005
मोबाईल: 09623650112
ईमेल: bhawnasakura@gmail.com
कुल मिलाकर देखा जाए तो आशा आपराद की आत्मकथा ‘दर्द जो सहा मैंने’ उनके पारिवारिक संबंधों में टकराहट के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति 12वर्ष की उम्र में विवाह, तलाक, इस्लाम में परिवार नियोजन का विरोध, पुनरुत्पादन के असीमित श्रम के बोझ तले दबने, अशिक्षा के कारण समाज में स्वयं के अधिकारों के प्रति सजग न हो पाना जैसे सवालों को उठाती है । दूसरी ओर एक महिला के दूसरी महिला के प्रति व्यवहार का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक नजरिए से अध्ययन करने को विवश करती है । परिवार. समाज, धर्म और राजनीति में स्थापित सत्ता सम्बंधों को पुनः नई दृष्टि से देखने की बात यह आत्मकथा करती है । आत्मकथा का एक कमज़ोर पक्ष उसकी भाषा है । आशा आपराद द्वारा मराठी से हिंदी में अनुवाद के दौरान कई-कई जगह न केवल मराठी के शब्दों को बल्कि वाक्यों व संवादों को उसी रूप में छोड़ दिया गया है । भाषा का यह पक्ष हिंदी भाषी पाठक को आत्मकथा पढ़ने के दौरान बार-बार परेशान करता है । बावजूद इन कमज़ोर पक्षों के मुस्लिम महिला के तौर उनकी यह आत्मकथा मुस्लिम समाज में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति को जानने का एक अच्छा प्रयास है आखिर क्यों भारत में आत्मकथा के विकास क्रम में मुस्लिम महिलाओं की गिनी-चुनी आत्मकथाएं ही सामने आई ? जिनमें भी इस्मत चुगताई का नाम ही प्रमुख रूप से लिया जाता है । यह विचारणीय प्रश्न है कि क्यों हमारे ही देश में महिलाओं का एक ऐसा वर्ग है जिसे आज भी अपनी आवाज़ उठाने का मौका नहीं मिला? देखा जाए तो आत्मकथा मुस्लिम महिलाओं से जुड़े इन प्रश्नों को चिन्हित करती है जिन्हें अधिकतर हम नजरअंदाज कर देते हैं । साथ ही मुस्लिम समाज की शैक्षिक तथा रोजगार की स्थिति पर भी गंभीरता से विचार करने को प्रेरित करती है ।

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