पास-फेल
राजेंद्र यादव
“विल यू प्लीज़ गेट्टाऊट!“ उस व्यक्ति ने दरवाज़े की तऱफ़ उँगली उठाकर कहा, “प्रोफ़ेसर साहब, आप बुज़ुर्ग आदमी हैं। .खुद एक जिम्मेदार जगह पर होकर कैसे ऐसी बात... “
उन्हें उसका चेहरा कुछ-कुछ पहचाना-सा लग रहा था, लेकिन ठीक से याद नहीं आ पाया। फिर भी अपने से आधी उम्र के उस लड़के को इस तरह का व्यवहार करते देखकर उनके कान तमतमा उठे, ज़बान लड़खड़ाई, कहा, “प्रोफ़ेसर, मेरी बिट्टी की शादी का सवाल न होता तो...शायद...शायद...उसे इस साल बी.ए. कर ही लेना...“
अजब सपना है, सोते हुए ही उन्होंने सोचा।
एकदम चौंककर प्रो. भार्गव की आँख खुल गई। उन्हें लगा, जैसे वे अपने ही खर्राटों की आवाज़ से चौंककर उठे हैं; लेकिन दूध का गिलास चुपचाप मेज़ पर रखकर बिट्टी लौट रही थी। बीना ने उन्हें पलक झपकते देखा तो उसके पीले चेहरे पर विनोद की मुसकराहट का आभास उभर आया, “बाबू जी, क्या हाल है तुम्हारा भी! कुर्सी पर ही बैठे सो रहे हो, लेट जाओ न। इम्तहान की कॉपियाँ तो एक तरफ रख देते। लाओ, मैं रख दूँ।“ वह सहमी-सहमी सी लौट पड़ी, जैसे अभी प्रोफेसर डाँट देंगे।
“आज तो बहुत ही थक गया, बिट्टी। ढेर कॉपियाँ जाँची हैं। फिर भी पड़ी ही हैं। सुबह श्रीवास्तव आएगा, तभी खत्म होंगी। पता ही नहीं, कब सो गया...“ वे सफाई-सी देते बोले। फिर भटककर पूछा, “बज क्या गया?“ टेबल-लैंप के पास दो टाँगों से खड़ी घड़ी देखी तो चौंक पड़े, एक-चालीस। उनका हाथ सबसे पहले अपने होंठों पर गया। बचपन में सोते समय उनके मुँह से लार निकलने लगती थी सो आज भी हाथ अनजाने ही उधर बैठ जाता है। बाद में हर बार हँसी आती है। चश्मा उतारकर उँगलियों से पलकें और त्रिकुटी के नीचे नाक का हिस्सा मसलते हुए बोले, “तू अभी तक सोई नहीं! डेढ़ साल से बीमार है, सुबह ही इम्तहान में जाना है, दो-दो बजे तक जागेगी तो वहाँ जाकर क्या खाक करेगी?“ सारी बात उन्होंने ऐसे निर्जीव स्वर में कही, जैसे रटी हुई बात थी और इसे कह देना एक ज़रूरी फ़र्ज़ था। जम्हाई लेते-लेते उन्हें अपनी बात का महत्व ध्यान आ गया। झट तनकर बोले, “दूध लेकर तू क्यों आई! तेरी अम्मा कहाँ गई? गज्जू से क्यों नहीं रखवा देतीं ये वो? कोई और नहीं बच गया था घर में? बोलो, लड़की के इम्तहान हैं और वही दूध लाए उठाकर आधी रात में? हैं?“
“तो क्या हो गया बाबू जी, सब सो रहे हैं इस वक्त...“
तब तक प्रो. भार्गव के.एन. गर्ल्स कॉलेज की लम्बी-लम्बी कॉपियों को गोद से उठाकर सामने रखी छोटी-सी मेज़ पर रख चुके थे और कुर्सी पर मोड़कर रखे गए दोनों पैरों को हाथों की मदद से नीचे उतार रहे थे। उन्होंने गौर से बीना को देखा। उसकी आँखों को घेरे काले-काले दायरों में चमकती आँखें उनके भीतर गहराई तक चुभती चली जाती हैं और उस चुभन से तड़पकर वे सिर झुका लेते हैं। ऊपर टेबल-लैंप का शेड था, इसलिए उसके चेहरे पर अँधेरा था। गहरी साँस को दबाकर उन्होंने कहा, “बिट्टी, अब जाकर सो जाओ।“ उनकी समझ में ही नहीं आया कि क्या कहें या क्या करें कि मन की बेचैनी को रास्ता मिले। इच्छा हुई, बिट्टी की माँ को झंझोड़कर जगा दें। बिट्टी अपराधी की तरह चली गई। उसका यों चुप-चुप कहना मान लेना प्रोफ़ेसर साहब को तिलमिला देता है।
लेकिन सुबह ही प्रोफ़ेसर साहब रसोई के दरवाज़े पर मौजूद थे, “तुमसे हज़ार बार कहा बिट्टी की माँ, बिट्टी के इम्तहान हैं, उससे कोई काम मत करवाओ, लेकिन तुम हो कि सुनती ही नहीं हो। पढ़ाई में रात को दो-दो बजे तक जागे और दूध भी वही लेकर आए? एक तो बीमार लड़की, ऊपर से इम्तहान—लेकिन तुम्हें जैसे ़ख्याल ही नहीं है। तुम्हें क्या है, इस बार फिर रह जाए, तुम्हारी बला से। तुम्हें तो बी.ए. और प्राइमरी स्कूल सब बराबर हैं।“
“अच्छा, तुम मेरी जान तो खाओ मत सुबह-ही-सुबह। ऐसा ही तरस आता है तो .खुद क्यों नहीं आ जाते? जाओ, तुम्हारा पूजा का सामान गज्जू ने रख दिया। जाकर पूजा कर लो...“
प्रोफ़ेसरनी उनकी बातों को ऐसे हल्के ढंग से लेती है, जैसे वे एकदम बच्चे हों और बकवास करना उनकी आदत हो। पिछले दो-तीन साल से घर के भीतर एक अजीब-तनाव सा वे महसूस करते रहते हैं, और उन्हें हमेशा ऐसा लगता है, जैसे वे ही उस तनाव का केन्द्र हैं। मानो उनके और बाकी परिवार के बीच में एक दूरी आ गई है जिसे वे हर क्षण समझते हैं, शब्द नहीं दे पाता। बिट्टी अपने कमरे में घूम-घूमकर कुछ रट रही थी। आनन्द दिमा़ग तेज़ करने के लिए .खुद ही पालथी मारकर बैठा बादाम पीस रहा था, और मुन्नी अपने स्कूल के स़फेद किरमिच के जूतों पर गीला स़फेदा लगा रही थी। उन्हें गीता का चौथा अध्याय पढ़ते-पढ़ते लगा, ये सब लोग धीरे-धीरे उनके लिए कितने अनजान और अपरिचित हो गए हैं। जैसे बिजली है, नल है, घर की व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक वे भी हैं। कभी मुन्नी लपककर उनकी गोद में नहीं आई, कभी आनन्द लाड़ में उनके साथ सोने को नहीं मचला, कभी अरविन्द ने अपनी माँगें रखते हुए पैसे नहीं माँगे। और बिट्टी? बिट्टी तो जैसे कभी उनकी बेटी रही ही नहीं। अपने अकेलेपन और असहाय स्थिति में उनका दिल पिघलने लगा, लेकिन जैसे ही मुन्नी ने जाकर रेडियो खोला और 'मैं कब से खड़ी इस पार...अँखियाँ थक गईं पन्थ निहार... की तीखी सुरीली आवाज़ में लता मंगेशकर सीलोन से गाने लगी तो मानो किसी ने भक्-से दियासलाई लगा दी। जल्दी-जल्दी पूजा खत्म की और वहीं से दहाड़ते हुए उठे, “इस रेडियो में मैं आग लगा दूँगा एक दिन। किसने खोला यह...बताओ, किसने खोला? सुबह-सुबह भजन नहीं, पूजा नहीं...सब, यह 'सी ए टी कैट’ और 'आजा रे परदेसिया’ होने लगा। ये घर है या होटल? किसी को ध्यान नहीं कि कोई पूजा कर रहा है, कोई पढ़ रहा है, किसी के इम्तहान हैं—बस, लिया और यह रेडियो खोल दिया। कहाँ गई यह मुन्नी की बच्ची?“
खट से रेडियो बन्द हो गया।
वे लपके हुए फिर रसोई के दरवाज़े पर आ खड़े हुए। रसोई में धुआँ भरा था। प्रोफेसर की आँखों में पानी भर आया। रसोई में चूल्हे की आग और पास ही स़फेद छाया जैसी पत्नी के अलावा एकाध बर्तन ही चमकता दिखाई दे रहा था। इसी बात से उनका सिर और भन्ना उठता है। यह बिट्टी की माँ उनकी किसी बात को गम्भीरता से लेती ही नहीं—मानो वे तो पागल हैं सो बके चले जा रहे हैं, और आप हैं कि मज़े से बटलोई में कलछुल घुमा रही हैं। उनके मन में आया कि घड़ौंची पर रखे घड़े को उठाकर ज़ोर से ज़मीन पर दे मारें, ताकि इसे यह तो पता चले कि उन्हें बहुत ज़ोर से गुस्सा आ रहा है। लेकिन मन में कहीं यह भी ध्यान था कि बीना अभी इम्तहान देने जाएगी, उसका मूड खराब नहीं होना चाहिए। उन्होंने जाकर दबे गले से पूछा, “यह गज्जू कहाँ है?“
“बिट्टी के लिए रिक्शा लाने गया है।“ भीतर से उपेक्षा-भरा-सा स्वर आया।
तब उन्हें ध्यान आया कि वे मुन्नी पर गुस्सा होकर आए थे। कुछ पल खड़े-खड़े पास ही कनस्तर में लगी तुलसी के पत्ते को तोड़कर कुतरते रहे, फिर हाथ झटककर बोले, “इतना तो धुआँ कर रखा है कि आदमी एक मिनट खड़ा नहीं रह सकता।“ बड़बड़ाते हुए मुन्नी के कान खींचते लौटे तो फिर कुछ याद आ गया। वापस बीना के कमरे के दरवाज़े पर आ गए। बीना नहाकर आई थी और सिर्फ ब्लाउज़ और पेटीकोट पहने बाल सामने की ओर करके जल्दी-जल्दी दूसरी चोटी कर रही थी—साथ ही शृंगार मेज़ पर किताब खुली रखी थी, और रह-रहकर उसमें से कुछ देखती भी जाती थी। बीना को नहाने जाते या नहाकर आया हुआ देखकर प्रोफ़ेसर साहब को हमेशा पिछली घटना याद हो आती है—और फिर पता नहीं उनके मुँह का स्वाद कैसा कसैला-कसैला हो जाता है। गुस्सा उस दिन भी नहीं आया था, और बाद में भी नहीं आता, लेकिन दिल पर छाया कुहरा घना और गाढ़ा हो उठता है। सहसा वर्तमान में आकर वे बोले, “गज्जू रिक्शा लेने गया है न, अभी शायद श्रीवास्तव भी आता हो, कह दूँगा, पहुँचा आएगा।“
बीना ने नाक के स्वर में अनखाकर कहा, “आंप तों आंफत कंर देंतें बांबूं जी, मैं चंलीं जांऊँगीं न। क्यां हुंआं, रेवां भीं तों हैं।“
“ठीक है, ठीक है। मैंने तो एक बात कही। अब देर मत करो, टाइम हो गया। और देखो, घबराना नहीं। ़खूब शान्तचित्त से लिखना। साथ में दो-चार सन्तरे ज़रूर ले जाना। ज़रा भी दिल घबराया, दो फांकें खा लीं। हम तो छ:-सन्तरे खा डालते थे।“ अपनी अन्तिम बात से उनके चेहरे पर मुसकराहट आ गई। मैट्रिक के इम्तहान में छिलके को गौर से देख रहे थे कि इन्विजि़लेटर ने आ दबोचा, सन्तरे के भीतर छोटे-से पर्चे में जवाब लिख लाए थे। उस दिन जवाब के पर्चे को सन्तरे की फांक के साथ ही खाना पड़ा। बीजों से मुँह कड़वा हो गया था, लेकिन जान बची...
अचानक उनका ध्यान बीना की सूखी-सूखी बाँहों पर गया, झुर्रीदार गर्दन पर गया, आवश्यकता से बड़े सर पर गया और मुर्झाए चेहरे की ओर सीधे देखने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। पूछा, “दवा आ गई?“
“आ जाएगी बाबू जी, अब तो ठीक हूँ।“ अपने बीमार शरीर के मरियलपने से लजाकर बीना तिरछी मुड़कर बोली।
“ठीक है, पत्थर! मैं पूछता हूँ, दवा क्यों नहीं आई?“ उनका गुस्सा फिर भड़क उठा, “यों ही डॉक्टर को पैसा झोंकना है तो सबमें उठाकर आग क्यों नहीं लगा देते? डेढ़ साल हो गया, लगकर दवाई ही नहीं की जाती! ज़रा ठीक हुए तो अंह, कौन दवा पिए! पड़ गए तो बाबू जी लाएँगे ही!“ वे फिर रसोई की तऱफ पलटे, “यह आनन्द कहाँ है? इससे ज़रा-सी दवा नहीं लाई जाती? क्यों जी, तुमसे मैंने कितनी बार कहा कि बिट्टी की दवा में ढील मत करो। लेकिन नहीं, ज़रा जहाँ फायदा दीखा, फिर चिन्ता किसे है?...सारी फिक्र बस मैं ही करूँ। लगकर दवा ही नहीं कराई जाती। अस्सी-अस्सी रुपए डॉक्टर को बिल देते दो साल होने आए...“
प्रोफ़ेसरनी भीगती दाल के भगोने के सामने हाथ लगाकर पानी उडेलती हुई छिलके और दाल अलग-अलग कर रही थी। बीच में ही सिर उठाया, भौंहें तरेरकर तीखे स्वर में बोली, “तुम्हें कुछ काम नहीं है?“
“हम पागल हैं! हम बेवकूफ हैं सो बके जा रहे हैं!“ अब स्थिति प्रोफ़ेसर साहब के हाथ से बाहर हो गई—वे सारे गले से चिल्लाने लगे।
थोड़ी देर में जब बीना स़फेद ब्लाउज़ और स़फेद साड़ी पहने, हाथ में एक कॉपी और दवात लिए निकली तो सहसा प्रोफ़ेसर भार्गव चुप हो गए। काली डोरी से बँधी घड़ी वाले दूसरे हाथ में एक छोटा-सा स़फेद रूमाल था। उससे वह बार-बार आँखें और मुँह पोंछ रही थी।
“अच्छा अम्मा, मैं चलती हूँ।“ उसने होंठों तक रूमाल वाला हाथ ले जाकर कहा। उसकी गर्दन के नीचे खुले ब्लाउज़ से झाँकती उसकी छाती अजीब चपटी-सी दीखती थी। वहाँ खड़ा काला पेन उभरी हुई हँसली की हड्डियों के बीच में लटका लगता था।
उन्हें लगा, बीना रोकर आ रही है। रूमाल वाले हाथ के बावजूद उसके काँपते होंठ दीख रहे थे। अपराधी की तरह नरम पड़कर कहा, “रिक्शा आ गया?“
“हाँ, साब।“ गज्जू ने कमरे के भीतर से ही चिल्लाकर कहा।
“वहाँ हाँ-साब क्या लगा रखा है, “ उसे आने का अवसर दिए बिना ही उन्होंने कहा, “जा, बिट्टी को पहुँचा के आ।“
“चली जाऊँगी बाबू जी,“ बुझे-से स्वर में बीना ने कहा, “साथ में रेवा भी तो है।“
उन्हें याद आया, पिछली बार इम्तहानों में त्रिलोक ही उसे पहुँचाकर आया करता था।
“हाँ-हाँ, बड़ी चली जाएगी।“ उन्होंने हाथ झटक दिया। “और सुनो गज्जू; अच्छे-अच्छे चार-छ: सन्तरे लेते जाना। जाओ, देर मत करो। घंटा बजने ही वाला होगा। पहुँचने में भी तो पाँच-दस मिनट लेगा रिक्शा।“ बीना पड़ोसिन सहेली रेवा को लेने आगे-आगे चली गई थी। दोनों पहले मन्दिर जाएँगी, फिर इम्तहान देने। उन्होंने उधर लपकते गज्जू को फिर पुकारा, “और देखो, सुनो, डॉक्टर साहब के यहाँ शीशी और पर्चा रखते जाना। मैं .खुद दवा ले आऊँगा। जाओ।“
लेकिन उसे रोककर फिर बताना पड़ा, “जब पर्चे शुरू हो जाएँ तो दस मिनट वहीं रहना। फिर दौड़कर खाना खा जाना। पता नहीं बिट्टी को किस चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए। तबीयत वैसे ही खराब है।“ तब उन्हें ध्यान आया, वे भी तो खड़े थे, लेकिन बिट्टी ने माँ से ही जाने की बात कही। वे जैसे बिलकुल पराए हों।“
उन लोगों के जाते ही बिट्टी की माँ रसोई से निकल आई और पसीने से झलझलाए मुँह को ज़ोर से पल्ले से पोंछती बोली, “ हाँ, अब बोलो। मार जब से बकर-बकर लगा रखी है, यह तो नहीं कि जाकर अपनी कॉपियाँ जाँचें। मैं पूछती हूँ, तुम्हें अक्कल कब आएगी? जैसे-जैसे बुढ़ाते जा रहे हो, तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ते जा रहे हैं। लड़की इम्तहान देने जा रही है और आप यहाँ दुनिया-भर की बकवास किए जा रहे हैं; पता है, भूखी गई है? अब क्या खाक करके आएगी इम्तहानों में? बीमार है! बीमार है! बड़े हमदर्दी जताने आए। बिट्टी घुल-घुल के मरी जा रही है, राम जाने क्या हो गया है बेचारी को! अपने घर होती तो दो बच्चे खेलते होते। बीमार है! छब्बीस साल की होने आई, न शादी की चिन्ता, न ब्याह की...“ प्रोफ़ेसरनी की आँखें और गला भर आए।
प्रोफ़ेसर को अब अपनी ग़लती महसूस हो रही थी। बहुत ही असहाय स्वर में बोले, “तुम तो बिट्टी की माँ, हर बार इस तरह कहती हो, जैसे मेरा ही कुसूर हो...“
“हाँ, तुम्हारा कुसूर है, तुम्हारा कुसूर है। कितनी बार कहूँ? तुम्हें ही आग लगी थी...ट्यूशन कर-करके जिन भाइयों को जिन्दगी-भर पढ़ाया, अब उनमें से आकर कोई नहीं मरता। तब तो—'भाभी, बिना घड़ी के पढ़ाई चल कैसे सकती है,’ 'भाभी, कॉलेज को देर हो जाती है, भैया से कहकर साइकिल दिला दो’...अपने बेटा-बेटी को न खिलाकर उनके गड्ढे में भरा...“
अपने दो भाइयों को उन्होंने अपने पास रखकर पढ़ा क्या दिया, बिट्टी की माँ उन्हें जि़न्दगी-भर ताने देती है इसी बात के। और यहीं वे चुप भी हो जाते हैं। करें भी क्या? आज उनमें से कोई दो-दो साल तक खत तक नहीं डालता। बड़ा लड़का इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उन्होंने चाहा था कि कम-से-कम दोनों भाई मिलकर ही उसका खर्च उठा लें तो मकान बनवाने का कज़ार्, बीना के ब्याह, आनन्द और मुन्नी दोनों को पढ़ाने का बोझ वे उठा लेंगे। एक पाई जोड़ने की फुर्सत ही कहाँ मिली अभी तक उन्हें! भाई खाने-कमाने लायक हुए तो बच्चे बड़े हो गए। आज भी उन्हें दुनिया-भर के नोट्स लिखने पड़ते हैं, इम्तहान की कॉपियों का जुगाड़ करना पड़ता है। भाइयों के प्रति अपना फर्ज पूरा करने का सन्तोष उन्हें ज़रूर है; लेकिन अब उनका रुख देखकर पत्नी के सामने आँख नहीं उठा पाते। यह उनकी सबसे कमज़ोर नस है, और बिट्टी की माँ है कि कोई मौ़का नहीं चूकती। हर वक्त वही छेदने वाली बातें। अब तो जोश आता है, किसी दिन सीधे कैलाश की तरफ चल पड़ें...।
डॉक्टर की तरफ जाते हुए उन्हें लगा, धूप बहुत तेज़ होने लगी है। ताँबे के रंग की चम-चम करती छोटी-छोटी कोंपले अब ज़्यादा हरी और बड़ी हो गई हैं। गर्मियाँ आ गईं। पहले सोचा, कुछ देर रुककर जाएँगे या गज्जू को भेज देंगे, लेकिन एक तो बिट्टी के इम्तहान में जाते व़क्त व्यर्थ का झमेला खड़ा करने की अपराध-भावना ने और फिर बीना की माँ के वाग्बाणों ने उनके कर्तव्य ज्ञान को इतना कोंच दिया कि वे कॉपियाँ जाँचने को 'फिर’ पर छोड़कर चल ही पड़े। कह आए, “श्रीवास्तव आए तो बैठाना, और देखो, उसे कुछ चाय-पानी करा देना।“ सचमुच, उस समय शोर मचाकर उन्होंने अच्छा नहीं किया। एक बिट्टी की माँ है, जब तक बीना चली नहीं गई, ज़बान नहीं खोली। वे उसके मन की गहराई और समझदारी के जाने कब से क़ायल है! पता नहीं आजकल क्या होता जा रहा है उन्हें! लगता है, अब तो सचमुच ही बुड्ढे होते जा रहे हैं। साढ़े दस बजे थे और इम्तहानों की तरफ जाने वाली भीड़ से सड़क खाली हो गई थी। दो-एक लड़के साइकिलों पर सिंगल और डबल लपके चले जा रहे थे। उनमें से किसी ने नमस्कार किया तो का़फी दूर निकल जाने पर प्रोफेसर साहब को ध्यान आया—पीछे मुड़कर देख। यह भी बुढ़ापे की ही निशानी है क्या? हमेशा अपने में ही खोए-खोए रहना। उन्हें याद आया, बीना की माँ ने जब उन्हें बूढ़ा कहा तो गुस्सा नहीं आया, वर्ना पहले इस बात से वे गदर कर देते।
दोनों हाथों में इंजेक्शन की सिरिंज पकड़े झाग निकालती सुई की नोक पर निगाहें गड़ाए ही डॉक्टर गुप्ता ने कहा, “आइए प्रोफ़ेसर साहब, बैठिए। बिट्टी का तो आज इम्तहान होगा न? कौन-सा पर्चा है? आज तो पाँचवाँ होगा? तबीयत कैसी है?“
“चली तो गई है, अब पता नहीं कैसी रहती है तबीयत! मना किया, तो मानी ही नहीं।“ चिन्तित स्वर में बोले, “गज्जू को भेज ता दिया है साथ। बीच में ही कहीं साँस का दौरा उठ आए तो बेचारी से सँभला भी नहीं जाएगा। बहुत रोकते हैं, लेकिन रात-रात भर पढ़ती है। कहती है, नींद ही नहीं आती।“ उन्हें पिछली रात की बात याद हो आई।
“गज्जू क्या कर लेगा?“ डॉक्टर गुप्ता आज पन्द्रह साल से उनके परिवार के डॉक्टर और मित्र दोनों हैं। पास ही स्टूल पर बैठे युवक की खुली पतली-सी बाँह पर स्पिरिट लगाते हुए उनके माथे पर बल पड़ गए, “कमाल करते हैं भार्गव साहब आप भी। लड़की बीमार है और गज्जू को भेज दिया है! अरे, तुम बाप हो, सो तो गए नहीं, गज्जू को भेज दिया। वो साला कहीं बैठ के बीड़ी पिएगा। तुम बूढ़े हो गए लेकिन...“ शेष वाक्य पूरा करने की उन्होंने ज़रूरत नहीं समझी।
प्रोफ़ेसर को लगा कि, फिर ग़लती हो गई। थूक निगलकर बोले, “वो तो साथ भेज दिया है यों ही। दवा लेकर तो मैं ही जा रहा हूँ।“ ध्यान आया कि इतनी छोटी-छोटी बातें अब उन्हें याद नहीं रहती। सफाई दी, “डॉक्टर साहब, आप लोग हमारी मुसीबतों का अन्दाज़ा तो लगाते नहीं कि कैसे हम जी रहे हैं। इसी वजह से मैं इन्विजि़लेटर नहीं बना। मार कॉपियों के गट्ठर-के-गट्ठर चले आ रहे हैं। लड़के अलग नाक में दम किए हैं—कोई आशीर्वाद लेने चला जा रहा है, कोई कुछ पूछना चाहता है। सोचता था, एक चक्कर कॉलेज का लगा आता। खैर, अब यहीं आ जाएगा जिसे काम होगा। आज या कल से पास कराने वालों के फेरे लगने शुरू होंगे...“ फिर सपना याद आया। वे उस चेहरे को याद करने की कोशिश करने लगे। उन्हें लगा, उस प्रोफ़ेसर का चेहरा बहुत ही पहचाना हुआ था, अभी बस याद ही आ जाएगा।
इस बीच डॉक्टर ने इंजेक्शन लगा दिया था और पर्चे पर कुछ लिखने लगा था। बोला, “इस पचड़े को छोड़िए और लड़की की तऱफ ध्यान दीजिए। अभी तक तो खैर पढ़ाई और इम्तहान थे, बेचारी पर मेहनत पड़ती थी। अब इसे पूरा आराम दीजिए। और देखिए, जैसे ही तबीयत सँभले, आप सारे काम छोड़कर शादी कर डालिए। कितनी है?—चौबीस की तो होगी?“
“कहाँ डॉक्टर साहब, अभी इक्कीस की भी तो पूरी नहीं हुई है।“ हालाँकि वे जानते थे, पिछली सितम्बर में बीना ने पच्चीसवाँ पूरा किया है। याद आया कि जो उन्हें पन्द्रह साल से जानता है, डेढ़ साल से लड़की का इलाज कर रहा है, वह उसकी उम्र नहीं जानेगा? हो सकता है, बीना से ही पूछ लिया हो। फौरन ही विषय को दूसरा मोड़ दिया, “कहाँ शादी कर दूँ डॉक्टर साहब? मेरी तो अ़कल काम नहीं करती। डेढ़ साल से बेचारी को ऐसा रोग लगा है कि सिमटने में ही नहीं आता। पिछली बार रह गई न, सो लगता है, उसी का सदमा बैठ गया है। इस बार बी.ए. कर ले तो शादी कर दें।“
“कोई लड़का-वड़का है निगाह में?“ डॉक्टर ने सिगरेट का कश खींचा और सिरिंज की डिबिया के ढक्कन में रखी स्पिरिट को उँगलियों में मसलते हुए कहा, “अपने उन भाइयों-वाइयों से कहो न, पढ़ाया-लिखाया, अब इतना-सा काम नहीं करेंगे? तुम उनसे कुछ माँग तो रहे नहीं हो?“
एक बार और भाइयों को पत्र लिखने का निश्चय करके प्रोफ़ेसर ने गहरी साँस ली, “कहाँ डॉक्टर साहब, कोई किसी का भाई-वाई नहीं है—सब झूठ बात है। सोचता हूँ, गर्मियों की छुट्टियों में .खुद ही निकलूँ तो तलाश करूँ। अब सबसे बड़ी लड़की है, इतने लाड़-प्यार से पाली है, देखते-भालते ऐसी-वैसी जगह भी तो दिया नहीं जाता। लड़के को भी लिखा कि इंजीनियरिंग कॉलेज में तेरे साथ ही कोई लड़का पढ़ता हो तो उसे बता—वह भी नहीं सुनता। वह तो कहता है, चाहे जिस जात का लड़का पकड़कर शादी कर दो; लेकिन हमसे तो, सच्ची बात है डॉक्टर साहब, मक्खी निगली नहीं जाती। हम पुराने ज़माने के ही सही, मगर यह सब हमसे नहीं होगा। छोटी की तो अभी पाँच-सात साल ऐसी चिन्ता नहीं है...डॉक्टर साहब, आप विश्वास कीजिए, तीन साल होने आए, मुझे सारी-सारी रात नींद नहीं आती फिक्र के मारे...और नतीजे में सिर भारी रहता है। ज़रा-से में दिमा़ग थक जाता है। कल सोचा, कुछ कॉपियाँ ही खत्म कर ली जाएँ सो बैठे-बैठे ही नींद आ गई। बिट्टी ने जगाया...“ उन्हें सन्तोष हुआ, कल रात कॉपियाँ जाँचते समय सो जाने का कारण जैसे .खुद उनकी समझ में अब आया हो।
दवा लेकर घर की तऱफ आते हुए उनके मन में फिर खींच-तान थी—परीक्षा केन्द्र की तऱफ चल जाएँ या घर जाकर गज्जू के हाथ भेज दें। अब तो आनन्द भी पार्क से लौट आया होगा। सच पूछा जाए तो वे अब बीना की सूरत से बचने लगे थे। जाने कैसा-कैसा होने लगता था उनका जी उसे देखकर—बुझी हुई मटमैली-सी आँखें, झुर्रीदार गर्दन और मुरझाया-मुरझाया चेहरा, सूखा और निर्जीव-सा शरीर। लगता था, उसे बीमार कर डालने की सारी जि़म्मेदारी उनकी है—वरना कभी बीना को देखकर उनकी छाती गर्व से तन जाती थी कि बिट्टी गुण में ही लाखों में एक नहीं, रूप में भी आगे है। अब तो जब भी कोई उन्हें लड़की की शादी की बात सुझाता, उनका सिर भन्ना उठता। दिन में यह बात इतनी बार सुननी पड़ी थी कि उनका मन होता, सामने वाले का मुँह नोच लें—साले, लड़की मेरी है, मैं नहीं करता शादी। तुम्हारे पेट में दर्द क्यों होता है? लोगों से बातें करते उन्हें डर लगता था, 'स्टा़फ-रूम’ में बिलकुल चुप रहते। उन्हें लगता, प्रिंसिपल के नोटिस पर बातें करने वाला साथी अगली बात उनकी लड़की के बारे में ही कहेगा; कि हाजि़री के लिए चिरौरियाँ करने वाला या किसी फारम को पेश करने वाला हर विद्यार्थी जानता है कि प्रोफ़ेसर भार्गव की एक लड़की है, वह पच्चीस साल की हो गई है, लेकिन उसकी अभी तक शादी नहीं हुई है, पहले यह लड़की इसी कॉलेज में पढ़ती थी, लेकिन कोई घटना हो गई सो उठा ली है। रास्ते में लोग मिल जाते और बातें करते हुए उनकी लड़की का जि़क्र न करते तो उन्हें .खुद ही झुंझलाहट होने लगती—कम्ब़ख्त असली बात क्यों नहीं कहता, क्यों इधर-उधर की बातों में व़क्त बरबाद कर रहा है? मगर साथ ही डरते रहते, कहीं अगला वाक्य उसी बात को लेकर न हो। आज सुबह घूमते समय विद्यार्थियों के आचरण अनुशासनहीनता पर बातें करते-करते प्रोफ़ेसर कपूर ने ही सवाल रख दिया, “क्यों भार्गव साहब, कोई लड़का-वड़का नहीं मिला...?“ और सहसा उन्हें लगा कि वे का़फी दूर चले आए हैं, उन्हें बहुत थकान महसूस होने लगी है...इस बहस के बीच उनकी लड़की के लिए लड़के की बात कहाँ से आ गई? लेकिन इसी बात में कहीं बहुत गहरे लड़की के लिए लड़के का संकेत भी है, यह उन्होंने फौरन पकड़ लिया। और उनका मन हुआ कि कपूर का टेंटुआ पकड़कर झकझोरते हुए ची़ख-ची़खकर कहें—'हाँ-हाँ, मेरी लड़की छब्बीस साल की हो गई है, उसकी शादी नहीं हुई है, मैं पागल हो गया हूँ, लेकिन उसका विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की बहस से क्या ताल्लुक?’
और वह संकेत का डंक जिस घटना की ओर होता है, उसे आज पाँच-छ: साल होने आए थे, लेकिन प्रोफ़ेसर भूल नहीं पाते थे। शायद तभी उन्हें लगता था कि कोई भी उसे नहीं भूला है, और सभी लड़की की शादी की बात करने के बहाने उसी बात का मज़ा लेते हैं। उन्हें आज भी अपनी वह गुस्से से काँपती मूर्ति दिखाई देती है—कैसे उन्होंने बीना के खुले बालों को पकड़कर उसे कोठरी में ला पटका था (बालों में लगा गुलाब आज भी अंगारे की तरह धधकता दिखाई देता है)। पत्नी के रोकते रहने पर भी झपटते हुए बेंत लाए थे और फिर दरवाज़ा बन्द करके बीना को रुई की तरह धुना था। पत्नी पहले तो चिल्लाती और किवाड़ पीटती रही थी और फिर हारकर बोली थी, “तुम्हें भी कसम है माँ-बाप की, असल के हो तो आज बेटी को काटकर रख देना...“ और बाहर से भूखी शेरनी की तरह खौलती रही थी। लड़का अरविन्द चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, “मैंने भी इस घर में भंगिन को बहू बनाकर न रखा तो मेरा नाम नहीं। देखता हूँ, बाबू जी किस-किसके प्राण लेते हैं...“ लेकिन उस समय वे भूल गए थे कि वे इतिहास-विभाग के अध्यक्ष एक प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर हैं। बीना और उसके हिमायतियों को उन्होंने जाने कितनी-कितनी गन्दी गालियाँ सुनाई थीं। इस बात से उन्हें और गुस्सा आता जा रहा था कि बीना रोई-चिल्लाई बिलकुल नहीं थी और घुटनों में सिर दिए चुपचाप पिटती रही थी। हारकर उन्होंने बेंत एक तऱफ फेंक दी और बालों को झटककर सिर उठाया, पूरी ताकत से गालों पर दो बार झापड़ मारे और 'मर जाने दो भूखी। खबरदार जो किसी ने भी खाना-वाना दिया तो खोदकर गाड़ दूँगा’ का हुकुम देकर हाँफते हुए बाहर निकल आए थे। पत्नी की ओर देखने की हिम्मत नहीं पड़ी थी और सीधे अपने कमरे में जाकर इस तरह पड़ गए थे, जैसे किसी ने छत से धक्का देकर गिरा दिया हो! इस कम्ब़ख्त लड़की ने उन्हें कहीं का नहीं रखा। कल वे कॉलेज में मुँह कैसे दिखाएँगे? अब सारा शहर जान जाएगा। बाहर छोटी मुन्नी अम्मा की साड़ी पकड़े रो रही थी और आनन्द दम साधे पढ़ने का बहाना कर रहा था। पत्नी कुछ नहीं बोली थी। इस ज़रा-सी लड़की की हिम्मत कैसे हो गई इतनी? सीख कहाँ से गई ये सारी .खुराफातें...दिन-भर गन्दे-गन्दे गाने गाएगी, सिनेमा की बातें करेगी तो और सीखेगी क्या?
जाड़े की साँझ थी। ठंड और ज़ुकाम के मारे सिर में दर्द था, सो रोशनी बुझाकर कमरे में लेटे थे, तभी बाहर बगीचे में किसी के धीरे-धीरे बोलने की आवाज़ जैसी लगी। उन्हें लगा कि दाल में काला है। चुपचाप बाहर आए। अमरूद के पेड़ के नीचे कोई चौड़ी-सी छाया खड़ी थी। “कौन है?“ उन्होंने ज़ोर से पूछा। एकदम लगा, जैसे छाया थर्रा गई। उन्होंने और ज़ोर से पूछा, “बोलता क्यों नहीं? कौन है?“ और तब तक वह चौड़ी छाया दो हिस्सों में बँट गई। कोई घर की तऱफ दौड़ा। शोर मचाने के लिए खुला उनका मुँह आधा खुला ही रह गया—बीना। दूसरी छाया अब भी खड़ी थी। वे कुछ कहते, इससे पहली बनाई हुई भारी आवाज़ में वह व्यक्ति बोला, “प्रोफ़ेसर साहब, गोली मार दूँगा। मेरे पास बन्दू़क है, अगर आप हिले तो ठीक नहीं होगा।“ जब तक वह व्यक्ति धीरे कदमों से बाहर निकला, प्रोफ़ेसर भार्गव स्तब्ध खड़े रहे!—भय और आश्चर्य से जड़, स्तब्ध! और जब उन्हें होश आया तो उन्होंने पाया कि गुस्से से उनकी नस-नस तन रही है...
इतना पिटकर भी बीना ने लड़के का नाम नहीं बताया। दो दिन तक प्रोफ़ेसर साहब की तबीयत ़खराब रही...। उन्हें लगता था कि शहर का हर जीवित प्राणी इस घटना को जान गया है और उन्हें अजीब-अजीब निगाहों से देखता है। वे निगाहें उनके सारे शरीर पर उसी तरह की नीलें उछाल देती हैं जैसे बीना के शरीर पर उछल आई थीं। पड़ोसी आए, प्रोफ़ेसर आए, लड़के और यार-दोस्त आए, लेकिन उन्होंने किसी से कोई बात नहीं की—दिल कमज़ोर है और उन्हें इस तरह के दौरे अ़क्सर पड़ जाया करते हैं। कॉलेज में उन्हें ऐसा लगा, जैसे वे जेल से छूटे कैदी हैं और हर आँख उन्हीं पर चिपकी है, मानो कहती हो—ये प्रोफ़ेसर भार्गव है, इन्हें तो हम बड़ा सीधा आदमी समझते थे। इन्हीं की लड़की थी...फिर अपने को समझाते कि उनके सिवा इस बात को और जानता ही कौन है? जैसे-तैसे क्लास में पहुँचे। हाजि़री लगाने के लिए गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। पुकारा, “वीरेन्द्रसिंह...“
“प्रेज़ेंट!“
और वे सहसा चौंककर ठिठक गए। सही है, यही लड़का 'सर’ कभी नहीं कहता, लेकिन...लेकिन यह आवाज़ तो...जैसे सुना ही न हो इस तरह उन्होंने, फिर पुकारा, “वीरेन्द्रसिंह...“
“प्रेजेंट!“—वही ढंग, वही आवाज़। अभी-अभी मोटरसाइकिल खड़ी करके आया है, इसलिए 'पाइलट गॉगल्स’ नहीं उतारे, उधर देखने में चौंधा लगता है। उन्होंने याद करने की कोशिश की कि रात मोटरसाइकिल की आवाज़ सुनाई दी थी या नहीं। दूसरे नाम की ओर बढ़ते हुए उन्हें लगा, जैसे उसकी पतली मूँछों के नीचे हल्की मुसकराहट है...। पूरे पीरियड वे मन-ही-मन सोचते रहे कि इससे क्लास के बाद स्टा़फ-रूस में आने को कहा जाए या नहीं। प्रबन्ध-समिति के बहुत प्रभावशाली मेंबर कुँवर दिग्विजय सिंह का लड़का है। उन्हीं की बदौलत तो वे कॉलेज में प्रिंसिपल तक को कुछ नहीं समझते। पार्टी के आदमी हैं, बेकार नाराज़ हो गए तो रहना मुश्किल हो जाएगा। फिर व्यर्थ ही बात का प्रचार होगा।
रजिस्टर लेकर सिर झुकाए बाहर निकले तो वीरेन्द्र बगल में चल रहा था। बोला, “ 'प्रौसरसा’, कुछ तबीयत खराब है क्या?“ उस उद्धत और उद्दंड वीरेन्द्र के स्वर में एक अजीब नरमी थी।
“ऊंऽऽ?“ वे चौंके, “हाँ...यों ही, तुम जानो मौसम बदल रहा है न। एकदम सर्दी पड़ने लगी।“
“आज बीना भी नहीं दिखी।“ उसने जैसे हिचककर कहा।
धँसा काँटा फिर कसक उठा। सिर मोड़कर देखा, “हाँ, यों ही। उसकी भी तबीयत कुछ ़खराब है न। मौसी आई है, कहती है, कुछ दिनों को हमारे ही यहाँ भेज दो।“
सहसा प्रोफ़ेसर भार्गव के दिमा़ग में एक बात आई। उन्होंने ़गौर से वीरेन्द्र को ऊपर से नीचे तक देखा...मान लो बिट्टी की जोड़ी...लेकिन आने से पहले ही विचार उन्होंने त्याग दिया। घर-बाहर वाले जान खाएँगे, बनने को मिश्रा और भार्गव बनते हैं, कहाँ मुँह गड़ाया है जाकर...।
उन दिनों उनका स्वभाव कुछ अजीब चिड़चिड़ा और कटखना हो गया था—लगता था, जैसे सारी दुनिया में वे ही अकेले रह गए हैं। उन्होंने चाहे किसी से कुछ भी न कहा हो, लेकिन बात सारे शहर में फैल गई। एकाध बार किसी चित्रकार-विद्यार्थी ने ब्लैकबोर्ड पर एक मोटरसाइकिल की तसवीर बना दी, जिसकी पिछली सीट पर एक लड़की बैठी थी। ऊपर लिखा था—“बाबूजी...टा...टा...“ उस दिन न तो वे पढ़ा पाए और न देर तक घर जाने को ही मन किया। दशहरे की छुट्टियाँ हो गई थीं, वरना प्रोफ़ेसर साहब के मन में उन दिनों सचमुच आत्महत्या कर डालने का विचार ज़ोर मारने लगा था। बीना का संगीत, कढ़ाई-सिलाई-बुनाई सब छुड़ा दी गई, वह इम्तहान में भी नहीं बैठी। और लगातार छ: महीने मौसी के यहाँ ही रही। मन में वे निहायत ही परेशान थे कि जल्दी-से-जल्दी उसके लिए लड़का तलाश करना है, लेकिन कुछ दिनों को इसलिए टाल दिया कि बात ज़रा ठंडी हो ले। बहरहाल लड़का तो तलाश करना ही है।
एक दिन कुर्सी पर खोल पहनाते हुए प्रोफ़ेसरनी ने बताया, “आज उमा आई थी!“ वे प्रतिक्रिया जानने को रुकीं। उमा ने अपनी इच्छा से पिछली साल पड़ोसी लड़के कुलश्रेष्ठ से शादी कर ली थी—.खुद वोरा खत्री थी। बड़ी चर्चा रही थी इस शादी की सारे शहर में। बहुत विरोधी था दोनों घरों का; लेकिन शादी कर आने के बाद ही दोनों ने सूचना दी थी और उसके बाद से उमा कॉलेज में हीरोइन बनी घूमती थी। प्रोफ़ेसर भार्गव को उमा से बीना का मिलना-जुलना कभी पसन्द नहीं रहा। आगे प्रोफ़ेसरनी ने बताया, “बड़ा अ़फसोस जता रही थी कि बीना क्लास में सबसे तेज़ लड़की थी और इम्तहानों में नहीं बैठ पाई। बीना को कोई खत भी आया है उसके पास। लिखा है...“ वे फिर हिचकीं, सोचती रहीं कि अगली बात कह दें या नहीं, “कहती थी कि बाबू जी व्यर्थ परेशान न हों...बीना शादी करेगी तो वीरेन्द्रसिंह से...नहीं तो जि़न्दगी-भर...“
“तुम्हारा दिमा़ग तो नहीं ़खराब हो गया है बिट्टी की माँ...?“ वे बात काटकर एकदम बोले। मन हुआ कि बीना यहाँ होती तो झोंटा पकड़कर दीवार से दे मारते। “बड़ी आई! जि़न्दगी-भर कुँआरी रहेगी ये...आजकल की ये लड़कियाँ...बिट्टी ये सारी बातें सीख कहाँ से गई आखिर? बालिश्त-भर की छोकरी है और दुनिया-भर की आ़फत मचा रखी है।“ उमा की बातें सुनाती पत्नी को कसकर झापड़ मारने की इच्छा को बड़ी मुश्किल से रोक पाए, “उमा से कह देना, ़खबरदार, आगे से जो इस घर में ़कदम रखा तो मुझसे बुरा कोई न होगा। उनकी क्या है, वो भंगी से शादी कर लें—नीच जात, न संस्कार, न अच्छे-बुरे का विचार। अब ये ज़रा-ज़रा से बेटा-बेटी ही सब कुछ हो गए? उसको तुमने यहाँ आने क्यों दिया? मुन्नी भी देखकर बिगड़ेगी या नहीं? एक वो हैं साहबज़ादे...सो सीधे मुँह बातें ही नहीं करते। उनका अलग मुँह फूला है।“
और बात सच थी। उस दिन के बाद अरविन्द ने पिता से मुश्किल से एक दर्जन वाक्य बोले होंगे। आज इंजीनियरिंग कॉलेज में है, लेकिन कभी उन्हें पत्र नहीं लिखता। जो भी पूछना, माँगना हुआ, माँ को लिख दिया। प्रोफ़ेसर साहब ने बीना के लिए लड़का तलाश करने के लिए लिखा तो माँ को लिख दिया—'मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ, लड़के तलाश करने नहीं। बाबू जी .खुद ही तलाश कर लें।’
बीना आई तो जैसे बिलकुल बदल गई थी। वह बात-बेबात हँसने वाली बीना, हमेशा दबी-सकुचाई-सी निगाहों से बचती रही। लोग इस कमरे में होते तो वह उसमें चली जाती, और उसमें होते तो चुपके से इधर खिसक आती। अब तो सुबह पूजा भी करने लगी थी। उसकी बुझी-बुझी निस्तेज आँखें ऐसी लगतीं जैसे किसी ने दो शीशे के टुकड़े जड़ दिए हों, जिनके पीछे न किसी रोशनी की किलकारियाँ गूँजती हैं और न परछाइयाँ मंडराती हैं। उसे देखकर अकारण ही उसकी धुनाई करने के लिए प्रोफ़ेसर भार्गव के हाथ खुजलाया करते और उसकी अनुपस्थिति में उन्हें न जाने क्यों उस पर बड़ी दया आया करती। और इस सबके ऊपर सौदे होते रहे...किसी लड़के की कीमत दस हज़ार थी तो किसी की एक कार वाला बंगला, कोई विदेश पढ़ने का खर्चा माँगता था तो किसी को प्राइमरी से लेकर एम.ए. तक की अपनी पढ़ाई का बिल चाहिए था। 'आप जो भी करेंगे, सो अपनी लड़की के लिए ही तो करेंगे...उसमें हमारा क्या है?’ उसकी इच्छा होती, क्यों न वे अरविन्द के लिए ऐसी तगड़ी रकम वसूल कर लें कि दोनों लड़कियों की शादियाँ बिना सिरदर्द के आराम से हो जाएँ। आखिर उनसे भी तो लोग माँगते ही हैं। मगर अरविन्द तो उनके अस्तित्व तक से इनकार करता है। ऊपर से बीना का यह पराए घर में गले पड़ी अनाथ लड़की जैसा रहने का ढंग उन्हें और भी उद्विग्न क्षुब्ध रखता था। पत्नी ने फिर डरते-डरते बताया, “बिट्टी का मन है, कम-से-कम बी.ए. करके कहीं टीचरी कर ले। उसके साथ पढ़ने वाली बहुत-सी लड़कियाँ पढ़ाने लगी हैं...“
“हाँ...हाँ, कर ले,“ उन्होंने अप्रत्याशित नरमी से कहा, “आजकल तो लड़कियाँ सब काम करती ही हैं। मन भी बहला रहेगा। लेकिन बी. ए. तो करना ही होगा। प्राइवेट के लिए तैयारी ही तो हमें क्या है? कॉलेज में तो अब मैं नहीं जाने दूँगा।“ अपनी ही बात से उनका गला भर आया। बिट्टी इतनी पराई हो गई? अब सीधे बात भी नहीं कर सकती! पता नहीं, बीना अपने को अपराधी अनुभव करती थी या नहीं; लेकिन दिन-दिन अपने को नगण्य और गौण बनाती जाती। लगता था, जैसे उसे दौरे आते हों, कभी मना करने पर भी घर का सारा काम .खुद करती। एक-एक कमरे को धोती, झाड़-पोंछ करती, बर्तन माँजती और कपड़े धो डालती, और कभी-कभी दिन-दिन बीमार की तरह पड़ी रहती। न किसी से बोलती, न चालती। सीने की धुन आई तो रात-दिन मशीन पर गर्दन झुकाए बैठी है, नहीं तो ह़फ्तों किताब हाथ से नहीं छोड़ रही है। वह मानो अपने रहने-खाने का बदला देती रहना चाहती थी। प्रोफ़ेसर को विश्वास था कि शीघ्र ही वह 'नार्मल’ हो जाएगी।
एक दिन 'स्टा़फ-रूम’ में पास खड़े लड़के की दऱखास्त पर कुछ लिखते हुए प्रोफ़ेसर वर्मा ने कहा, “भार्गव साहब, देखिए, यह बेचारा एक ब्राह्मण लड़का है बहुत ग़रीब है। जब तक कोई और इन्तज़ाम नहीं हो जाता, पढ़ाई का खर्चा मैं ही दे रहा हूँ। कोई काम-धाम हो तो बताइए इसे, कुछ मदद हो जाएगी। एम. ए. में आया है...“
उन्होंने देखा, हाथ के धुले खद्दर के कपड़े पहने दीन-असहाय-सा लड़का खड़ा है, गेहुएँ चेहरे पर हल्के-हल्के चेचक के निशान हैं। वर्मा बता रहे थे, “घर पर कोई नहीं है। माँ है सो सी-पीसकर अपना गुज़ारा करती है।“ उनके मुँह से निकला, “मैं क्या बताऊँ? मेरी तो ऐसी जान-पहचान भी नहीं है,“ फिर कुछ सोचकर बी. ए. के विषय पूछ बैठे। बोले, “हमारी बिट्टी इस बार बैठ रही है, अगर ठीक समझो तो एकाध घंटा उसे तैयारी करा दिया करो।“ पहले एक बार मन में कहीं शंका ज़रूर आई, लेकिन लड़के का दीन-हीन चेहरा देखा और अपने को समझा लिया, वहाँ बिट्टी की माँ तो रहेगी ही।
“सुनो, आज शुक्ला जी के घर से आई थीं, अभी बनारस से आई हैं। वहाँ कोई बड़ा अच्छा लड़का बता रहा थीं। कहती थीं, कॉलेज में पढ़ाता है। तुम चले जाओ न,“ जैसे वाक्यों के बीच बिट्टी ने इम्तहान दे डाला और अच्छे नम्बरों से पास भी हो गई।
प्रोफ़ेसर भार्गव को पीरियड लेना था और बीना अभी तक गुसल़खाना घेरे थी। पता नहीं क्यों, उस घटना के बाद से वे बीना से बड़ी नम्रता से पेश आते थे। दो-चार चक्कर लगाकर तीसरी बार आए, “बिट्टी, कितनी देर है मुन्नी?“
“बस, अभी निकली बाबू जी! नहा तो ली, ज़रा-से कपड़े धो लूँ।“
“पीछे धो लेना बेटा, मुझे देर हो रही है।“
“अच्छा, बाबू जी...“
कोरी साड़ी उल्टी-सीधी लपेटकर बीना जल्दी से बाहर आ गई तो प्रोफ़ेसर भार्गव ने भीतर घुसकर दरवाज़ा बन्द कर लिया। गुसल़खाने में एक तऱफ बीना के कपड़े पड़े थे, उन्हें यों ही एक तऱफ सरकाने लगे तो लगा, भीतर कोई का़गज़ है। साबुन का रैपर होगा, पहले सोचा। फिर पता नहीं क्या सोचकर कपड़े उठाकर का़गज़ देखने लगे। बीना के ब्लाउज़ में एक मुड़ी हुई चिट्ठी रखी थी; हाँ, चिट्ठी ही तो थी। नीले-नीले का़गज़ के आठ-दस तह किए गए दोनों तऱफ भरे हुए दो पन्ने। वे कॉलेज भूल गए, उनके हाथ काँपने लगे। 'मेरी जवान बीना...’ से पत्र शुरू होता था और नीचे 'कैसे कहूँ तुम्हारा, त्रिलोक’ पर समाप्त!—प्रेम-पत्र? तो अब इस कम्ब़ख्त को भी पर निकल आए! कल तक खाने को नहीं था, आज प्रेम-पत्र लिखने लगे! चाहे लिखने को कॉपियाँ न हों, लेकिन पत्र का का़गज़ देखो...!
इस बार पत्र उन्होंने वहीं रख दिया, चुपचाप गम्भीर भाव से बाहर आए और तैयार होकर चले गए। गुसल़खाने से निकलते ही बीना को झपटते हुए भीतर घुसते उन्होंने देखा तो मन-ही-मन हँसे—लड़की सबको बेवकू़फ समझती है। कॉलेज में त्रिलोक को बुलाया, “बिट्टी की पढ़ाई कैसे चल रही है?“ उन्होंने मन में दोनों को पास-पास खड़ा करके तोला। कहावत याद आई, कागा चला हंस की चाल।
“जी, उम्मीद तो है। मेहनत तो बहुत कर रही हैं।“
“तुम्हें तो कोई तकली़फ नहीं है?“
“जी, अब तो आपकी कृपा...“
“आगे क्या करने का इरादा है?“
“गाँव जाकर खेती की देखभाल करूँगा। पिताजी जिस प्राइमरी स्कूल में मास्टर थे, वह अब मिडिल हो गया है, वहीं नौकरी मिल जाएगी। का़फी है...“
“घर पर कौन-कौन हैं?“
“जी, माँ और...और...उसकी बहू...“
प्रोफ़ेसर साहब को जैसे किसी ने छाती में मुक्का मारा हो। एकदम कुछ बोलते नहीं बना। घूंट भरकर बोले, “त्रिलोक, बिट्टी का नाम तुम्हारा खत ग़लती से मैंने पढ़ लिया है। तुम ग़रीब आदमी हो, दो-दो बीवियों को खिलाने को लाओगे कहाँ से?“ फिर अप्रत्याशित प्यार से कहा, “जाओ, बचपना मत करो।“
उन्हें अपने ऊपर .खुद आश्चर्य हो रहा था कि इस बार उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आया। लड़के उनके यहाँ आते थे और टटोलती-सी निगाहों से जब भीतर की ओर देखते तो गुस्से से उनके तन-बदन में आग लग जाती थी, लेकिन इस इतनी बड़ी घटना से कुछ भी नहीं हुआ। एक बात से उन्हें मन-ही-मन सन्तोष ज़रूर था कि पिछली बार वीरेन्द्र से वे कुछ भी नहीं कह पाए थे, क्योंकि .खुद वह कॉलेज के मशहूर लड़कों में से था; दिग्विजय सिंह का लड़का तो था ही। इस बार चाहो तो त्रिलोक को मसलकर रख दें, लेकिन उन्होंने मानसिक सन्तुलन नहीं खोया। उसे देखते रहे और गहरी साँस लेकर चुप ही रहे।
घर आकर उन्होंने निहायत ही निरुद्विग्न भाव से दो सूचनाएँ दीं। एक थी बीना को, “बिट्टी, आज त्रिलोक मिला था कॉलेज में। उसे कहीं और जगह अच्छा काम मिल गया है, मैंने कह दिया, उसे ही कर लो। अपने स्वार्थ से क्या है? ग़रीब लड़का है, जहाँ ज़्यादा पैसे मिलें वहीं काम करना चाहिए। उसे घर पर भी तो भेजना होता है, माँ है, बहू है...“ अपनी समझ में उन्होंने बीना को सूचना दे दी कि वह विवाहित है। आगे बोले, “मेरे विभाग में वह लड़का है न श्रीवास्तव, उससे कह दूँगा। तुम्हारी तैयारी करा दिया करेगा...“
“अच्छा, बाबू जी!“ बीना ने सिर हिला दिया और चुप हो गई। उन्हें भीतर से रोना आने लगा, इस लड़की में 'क्यों’ और 'क्या’ तक पूछने की हिम्मत नहीं है।
दूसरी सूचना थी बीना की माँ को, “लखनऊ में लड़का तलाश कर लिया है, इम्तहान के बाद शादी कर देंगे...लड़के की दूसरी शादी है, पहली से एक बच्ची है। लेकिन तुम्हीं बताओ बिट्टी की माँ, क्या करें? ढंग का लड़का अपनी बिरादरी में मिलना नहीं है, वही पोथी-पचा बाँचने वाले लड़के हैं, आखिर कब तक बिट्टी कुँआरी बैठी रहेगी? अभी फिर मुन्नी की भी फिकर करनी होगी। लड़का बुरा नहीं है, देखोगी तो .खुश हो जाओगी। अच्छा खाता-पीता घर है, एकाउंटेंट है, भरा-पूरा परिवार।“
बीना ने सुना तो रो-रोकर ढेर कर दिया। क्यों नहीं बाबू जी उसके लिए ज़हर ला देते? उसे नहीं करनी शादी-वादी। वह किसी श्रीवास्तव-व्रीवास्तव से नहीं पढ़ेगी। .खुद ही तैयारी कर लेगी। एक साल का खर्चा बाबू जी और उठा लें, फिर कहीं टीचर होकर वह उन्हें बिलकुल निश्चिन्त कर देगी। फिर धीरे-धीरे उसे बुखार रहने लगा। इम्तहान में बैठी तो सही, लेकिन नतीजे में नाम ही नहीं आया। बीना बहुत बीमार रहने लगी। प्रो. भार्गव को हमेशा लगता रहता था कि बीना की बीमारी का सारा उत्तरदायित्व उन्हीं पर है, लेकिन उनकी समझ में नहीं आता था कि आखिर अपराध कहाँ है उनका? जब-जब वे इन सारी घटनाओं का सिंहावलोकन करते, उन्हें अपनी ग़लती ही नहीं मिलती—उन्होंने जो कुछ भी किया, बेटी की भलाई के लिए ही तो किया...मगर जैसे उनको समझने को कोई तैयार ही नहीं है...घरवालों ने तो जैसे उनका मूक बहिष्कार कर रखा है...इतने दिनों जिनके लिए रात को रात और दिन को दिन नहीं समझा, वे ही लोग अब...
अपनी बौना-सी परछाईं को हर कदम से पकड़ते हुए प्रो. भार्गव सचमुच इस तरह चले जा रहे हैं, जैसे कोई सत्तर साल का बूढ़ा चला आ रहा हो....इन दिनों उन्हें अपने घर-परिवार सबसे एक अजीब वैराग्य-सा होने लगा था। लगता था, जैसे किसी को भी उनकी ज़रूरत नहीं है, एक दिन वे यों ही अपनी इहलीला समाप्त कर देंगे और थोड़े से दिखावटी रोने-पीटने के बाद सारा ढर्रा फिर यों ही चलने लगेगा...सारी जि़न्दगी वे पागल कुत्ते की तरह इधर-से-उधर टकराते रहे, आखिर उन्होंने क्या पाया...? परिवार के हर प्राणी की आँखों में दीखता अपमान और उपेक्षा ही तो...इस परिवार के कारण न तो वे धन कमा पाए, न यश...।
घर की ओर वाले मोड़ पर उन्होंने गहरी साँस ली और मन की भीतरी सतहों से ऊपर वर्तमान की सतह पर आ गए। दवा वे .खुद दे आएँ या घर चले जाएँ। वहाँ गज्जू आ गया होगा, उसे दे देंगे। बीना से सामना होने के हर अवसर से वे बचते थे...उसे देखकर उन्हें जो हो जाता है, उसे वे बयान नहीं कर सकते। आखिर अपने से हारकर वे घर की तऱफ चले आए। यहीं से भेज देंगे। बैठक खुली देखी तो माथा ठनका—जाने कौन आ मरा! अभी ढाई सौ कॉपियाँ जाँचने को पड़ी हैं। अपनी यूनिवर्सिटी तो है नहीं, आखिर कब तक रोकेंगे? अब तक तो हर हालत में पहुँच जानी चाहिए थीं—तकाज़े पर तकाज़े चले आ रहे थे। फिर बाहर ताला लगी साइकिल पहचानी तो याद आया, अरे यह तो अपना श्रीवास्तव है। जाने याददाश्त को क्या लकवा मारता जा रहा है? श्रीवास्तव व उनका प्रिय विद्यार्थी था और उसे इसी साल उन्होंने अपने विभाग में मुस्त़िकल कराया था। अव्वल आया था यूनिवर्सिटी में—यदि राजनीति नहीं आ गई होती तो 'सर जदुनाथ सरकार गोल्ड-मैडल’ इसे ही मिलना चाहिए था। श्रीवास्तव से उन्होंने ही .खुद कहा था, “इन्विजि़लेशन तो शाम को है। सुबह आकर ज़रा नम्बर चढ़ाने (टेबुलेटिंग) व़गैरा में मदद कर देना।“ विद्यार्थी-जीवन में इसकी ही लिखी एक किताब प्रोफ़ेसर साहब के नाम से चलती थी—क्या करें, प्रकाशक माना ही नहीं। कहने लगा, आपके नाम से दो-चार सौ कॉपियाँ बेच लेंगे। इसके लिए वे अभी तक मन में कचोट महसूस करते हैं।
श्रीवास्तव कोट को कुर्सी की पीठ पर लटकाकर मेज़ के सहारे बैठा कॉपियाँ जाँचने में व्यस्त था। प्रोफ़ेसर साहब को प्रसन्नता हुई—अब ये कॉपियाँ सिमट जाएँगी। यह एक लड़का है और एक अपने बच्चे हैं। उन्होंने रूमाल से चेहरे और गर्दन की पसीना पोंछते हुए कहा, “क्या गर्मी पड़ने लगी है अभी से, आगे तो पता नहीं क्या होगा? अरे श्रीवास्तव, तुम्हें आए देर हो गई क्या? मैं तो सुबह से ही तुम्हारी राह देख रहा था...कह गया था कि चाय-पानी पिलाकर बैठाना। ठीक है...ठीक है...बैठे रहो।“
सम्मान को औपचारिकता के लिए ही वह नहीं उठा था, उसने लपककर उनके पाँव छुए और उनके हाथ की दवा की शीशी लेता हुआ बोला, “मैं तो .खुद ही सोच रहा था कि अलस्सुबह ही आ जाऊँगा, लेकिन आज की डाक से उस स्कॉलरशिप की स्वीकृति मिल गई...“
“आ गई...?“ वे गद्गद होकर पुलक उठे।
“जी हाँ, अब तो हम यूनिवर्सिटी के ज़रिए खबर देकर चलने की तैयारी ही करनी है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में सीट मिली है। 'पासपोर्ट’ व़गैरा में दो-एक महीने तो लग ही जाएँगे। अम्मा अभी से शोर मचाए हैं कि दो साल को जाकर क्या करेगा, यहीं ठीक है...“
“भई, बहुत ही .खुशी हुई। तुम यों ही डर रहे थे। मैं तो तभी कहता था कि तुम जैसे लड़के को कोई नहीं रोक सकता। बूढ़ों की बातों पर ध्यान मत दो।“ वे विभोर हो उठे। श्रीवास्तव को उन्होंने बगल में खींच लिया।
“सब आपका आशीर्वाद है, सर!“
“अरे, तुम जीवन में बहुत ऊँचे जाओगे।“ उन्होंने मानो नए सिरे से आशीर्वाद दिया। कामना की कि उनका आशीर्वाद सफल हो जाए। और तभी बीसों बार आई इच्छा नए सिरे से ऊपर ऊभर आई—काश, यह लड़का ब्राह्मण होता...तो...तो...वे फिर जल्दी से सोच डालते—तो बिट्टी की चिन्ता से मुक्त हो जाते। ठंडी और थकी हुई साँस लेकर बोले, “मैं भी ज़रा बिट्टी की दवा लेने चला गया था...।“
“आज तो उनका छठा पर्चा है न, बहुत कमज़ोर हैं बिचारी। प्रौसरसा, आप इस बार इन्हें किसी पहाड़ पर क्यों नहीं भेज देते...?“
“हाँ, सोच तो यही रहा हूँ...! असल में मैं बताऊँ, कमज़ोरी सुसरी क्या करेगी? न खाती है, न पीती है, रात-रात भर पढ़ना। इन इम्तहानों में तो इसने हद कर दी। सोना भूल गई। अच्छी या बुरी कहो, बिट्टी में यही आदत है, जिस काम के पीछे लग जाए, उसमें अपने-आपको एकदम भूल जाती है।“ फिर उन्हें बीना की दवाई की बात याद आ गई। ज़ोर से पुकारा, “गज्जू, ओ गज्जू!“
“लाइए, मैं लाता हूँ बुलाकर! बताइए, काम क्या है?“ श्रीवास्तव इस समय हर काम करने को तैयार था।
“अरे कुछ नहीं, बिट्टी की दवा पहुँचानी थी। जाने कहाँ मर जाते हैं सब? अभी तक आनन्द भी नहीं लौटा। श्रीवास्तव, तुम्हीं दे आओ न दौड़कर।“ उन्होंने कुर्ते की जेब से रुपया निकालकर कहा, “और सुनो, दो-एक सन्तरे भी देते आना। कहना, घबराए नहीं...लो।“
“जी, ठीक है, इसकी क्या ज़रूरत है...“
“लो न! मैं तो सोचता हूँ कि इम्तहान के बाद बिट्टी की तन्दुरुस्ती की तऱफ ध्यान दूँ। ज़रा ये इम्तहान हो जाएँ, फिर पीछे वाली जगह सा़फ करवाके एक बैडमिंडन कोर्ट बनवा देंगे। अभी तो तुम जा नहीं रहे, दो-तीन महीने तो हो ही। ज़रा हाथ-पाँव हिलेंगे तो कुछ तबीयत सुधरेगी...हमारी बिट्टी वैसे तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करती रहती है...“ उन्होंने सोचा, अभी दो-तीन महीने तो श्रीवास्तव को रोका ही जा सकता है, फॉर्म तो उन्हें ही भेजना हैं। .खुद अपने-आपसे डरते हुए-से उन्होंने बीना को श्रीवास्तव के पास खड़ा करके देखने की कल्पना की। आगे जब दोनों में घनिष्ठता बढ़ जाएगी तो थोड़ी मजबूरी दिखानी पड़ेगी। सिविल-मैरेज में तो खर्चा भी कम ही पड़ता है। लेकिन हमारी बिट्टी कम्ब़ख्त है बहुत कमज़ोर...विरोध करना तो जानती ही नहीं...कहीं इसकी नौबत ही न आए...मगर खैर...
और कॉपियों के सामने बैठते हुए उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ, मानो सचमुच ही यह भारी समस्या हल हो गई। वे व्यर्थ ही परेशान थे। श्रीवास्तव साइकिल की डोलची में दवा की शीशी सँभालकर खड़ी रख रहा था। मानो यों ही उन्होंने हल्के से मुसकराकर पूछा, “और तुम शादी कब कर रहे हो?“
श्रीवास्तव शरमा गया। सकुचाकर बोला, “अभी जल्दी क्या है सर? बाहर हो आऊँ।“ उसने कुर्सी की पीठ से उतारकर कोट पहन लिया।
“बाहर जाने और शादी से क्या मतलब? अरे, ज्यादा-से-ज्यादा दो साल लगेंगे। शादी तो यहीं से करके जा सकते हो। वहीं से मेम लानी हो तो बात दूसरी है।“ उन्होंने श्रीवास्तव के द्वारा जाँची गई कॉपियों की गड्डी बनाकर सामने रखी और ज़रा गहरे थकने की कोशिश करते हुए कहा, “बाप ने कोई तलाश कर ली है या अभी इरादा ही नहीं बना है?“
इस बार वह हँसकर दूसरी तरफ देखते हुए बोला, “उनकी क्या है सर! अम्मा और वो तो दोनों हर व़क्त पीछे पड़े रहते हैं। कहते हैं, किसी ने लिखा है—स्कॉलरशिप मिले न मिले, लड़का तो आगे पढ़ने को जाएगा ही।“ फिर कुछ देर चुप रहकर बोला, “अभी मन ही नहीं है सर! अभी से क्या है, बहुत जि़न्दगी पड़ी है...“
काश, उनके दोनों लड़कों में से भी कोई ऐसा ही मेधावी होता, इसी तरह सोचता और इसी ढंग से कह सकता! उभरती उदासी दबाकर बोले, “हाँ, वही तो मैं भी कहता हूँ। मैं तो भाई, .खुद इस बात को मानता हूँ कि लड़कों को .खुद ही शादी-ब्याह करने चाहिए और जब तक कुछ तेज़ और समर्थ लड़के साहस नहीं करेंगे—यह सारी गन्दगी खत्म नहीं होगी। अब हम लोग बुड्ढे हुए, कहाँ-कहाँ मारे फिरें...? हमारी पसन्द तुम्हें रुचे-न-रुचे। मैंने तो अरविन्द से कहलवा दिया है, हम कुछ नहीं खोजेंगे। .खुद ही जो कुछ करना-कराना हो, कर-करा लेना। हमें ़खबर दे देना। जहाँ तुम्हारे यार-दोस्त आएँगे, हम भी उसी तरह शामिल हो जाएँगे...। लड़कों को सामने आना चाहिए...“
वे महसूस कर रहे थे कि साइकिल उठाकर सीढ़ियों के नीचे रखने को तैयार श्रीवास्तव को देर हो रही है, फिर भी एक बात कहने को लोभ नहीं रोक पाए, “और देखो, सच बात मेरे मन की पूछो तो इस बाहर-बाहर जाने की झंझट के मैं ़िखला़फ हूँ। क्या रखा है इसमें? आज ऐसा क्या है जो अपने देश में नहीं है? आप दो साल बाहर ़खराब करके आओ, और वही तीन-चार सौ की नौकरी करो। इतना तो तब तक यहीं मिलने लगेगा। प्रबन्ध-समिति में सब अपने ही आदमी हैं, सो रुपए तो बिना किसी दि़क़्कत के बढ़वाए जा सकते हैं...“
श्रीवास्तव के चेहरे पर हँसी या जाने क्या भाव देखकर वे सहसा बीच में ही चुप हो गए। उन्हें ऐसी खिसियाहट लगी, जैसे किसी की जेब में हाथ डालें और वह हँसकर बाहर निकाल दे और निश्चिन्तता से एक ओर चल दे। लगा, कुछ ज्यादती कर गए। अपने को सँभालकर एकदम बनावटी हँसी हँस पड़े, “मेरा भी अजब हाल है भई, क्या करूँ, बुड्ढा हो गया हूँ। बातें करने लगता हूँ तो ध्यान ही नहीं रहता। अच्छा, तुम चलो, जल्दी आना...“ ध्यान आया, इधर वे बात-बात में अपने को बुड्ढा कहने लगे हैं—मानो अपनी बहक जाने की आदत का कारण दे रहे हों...
श्रीवास्तव ने साइकिल नीचे उतारकर खड़ी कर दी, तभी सुनाई दिया, “और सुनना...“ वह साइकिल स्टैंड पर खड़ी करके फिर आया। वे देखते ही बोले, “और देखो, बिट्टी को समझा देना ज़रा, घबराए-वबराए नहीं। बहुत ही कमज़ोर दिल की है। खूब शान्ति से पर्चे करे। थोड़ी-बहुत देर रह गई हो तो तुम्हीं साथ लेते आना...तुम समझाओगे तो...“
“जी, अच्छा।“ श्रीवास्तव जल्दी से भागा। पता नहीं, फिर बुलाकर क्या बताएँ!
और प्रोफ़ेसर भार्गव का सारा मन जैसे ग्लानि से भर उठा। कॉपियों की गड्डी मेज़ से उठाकर गोद में रख ली। अपने ऊपर उन्हें बड़ी झुंझलाहट आ रही थी, क्यों वे इतने ज़्यादा बहक जाते हैं। इतना भी होश उनको नहीं रहता कि सामने वाला क्या सोच रहा है? कितना हँस रहा होगा श्रीवास्तव उनका आशय समझकर! सचमुच, उनके तो अब 'रिटायर’ होने के दिन आ गए...बुद्धू थोड़े ही है—सब समझता होगा।
बड़ी बेचैनी और घुटन-सी उन्हें भीतर महसूस होने लगी। भीतर बहुत ज़ोर से लग रहा था, जैसे वे कुछ करना चाहते हैं, लेकिन समझ में नहीं आता था, उन्हें करना क्या चाहिए कि जी को चैन मिले। भीतर रेडियो बज रहा था—यानी मुन्नी आ गई है। इसे अभी से रेडियो सुनने का ऐसा शौ़क है। उमड़ते गुस्से और मचलन को बहलाते हुए वे जँची कॉपियों के नम्बर जोड़-जोड़कर त़ख्ते पर चढ़ाने लगे। मन में आया, ज़ोर से ची़खकर पानी माँगें। लेकिन सुनेगा कौन? सचमुच, उनकी जि़न्दगी बेकार गई—तीस साल होने आए, यही कॉपियाँ, यही नम्बर, यही इम्तहान और यही सब कुछ। कुछ भी तो उन्होंने नहीं किया; आजकल के लड़के कितनी आसानी से बाहर चले जाते हैं, डॉक्टर बन जाते हैं—जो चाहते हैं सो कर डालते हैं। वे तो घर से बिलकुल कटे हुए, अपरिचित-अनजान और बाहर से असफल...उन्होंने मानो कभी इन महत्वाकांक्षाओं को जाना ही नहीं...माँ-बाप ने गृहस्थी लाद दी, सो ढोते चले आ रहे हैं...
एक कॉपी पर सवाल के सामने बिलकुल खाली पन्ना पड़ा था...वहाँ श्रीवास्तव ने लाल पेन्सिल से गोला बना दिया था, अगला पन्ना खाली, एक और गोला...फिर एक और गोला...पूरी कॉपी खाली। बस, पहले पन्ने पर जनानी लिखावट में सवाल की ऩकल-भर कर दी गई है—झल्लाकर कॉपी बन्द कर दी। ऊपर नीले में घेरकर लाल-लाल गोला बना दिया। यों ही नीचे की कॉपियों को गिना, फिर नम्बरों पर निगाह गई। उससे नीचे की कॉपी में 15 नम्बर, उससे नीचे 19 नम्बर, फिर 11 नम्बर...यह श्रीवास्तव बहुत कड़ाई से जाँचता है।
भन्नाकर उन्होंने कॉपियाँ एक तऱफ फेंक दीं और ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा उठे, “ये कम्ब़ख्त लड़कियाँ कुछ भी नहीं पढ़तीं। यों ही फैशन में माँ-बाप का पैसा बरबाद करती हैं...“ फिर पूरे गले से दहाड़े, “ मुन्नी, रेडियो बन्द करती है या आकर धुनाई करूँ...“
'खट्!’ रेडियो बन्द हो गया, लेकिन वही गाना दीवारों के पार पड़ोस के घर से भी आता सुनाई देता रहा।
Thanks Rajkamal Publications for making this story available
साभार राजकमल प्रकाशन
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