
लोमहर्षक सत्य कथा या उपन्यास: मृदुला गर्ग की कलम से
जितना कल्पनातीत है उतना ही यथार्थ है, विश्वास पाटील के मराठी उपन्यास "द ग्रेट कंचना सर्कस" का फलक। हिन्दी में इसका अनुवाद रवि बुले ने किया है। अनुवाद पढ़ते हुए एक पल को भी नहीं लगता कि हम मौलिक कृति नहीं पढ़ रहे। इसलिए मेरी यह भूमिका मौलिक कृति के लिए ही है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब जापान ने बर्मा पर अचानक भयानक बमबारी शुरू की तो दुर्योग से, अपने करतब दिखलाने को रंगून से मिला आमंत्रण स्वीकार कर, असम का मशहूर सर्कस वहाँ गया हुआ था। अचानक, अनुमान से काफ़ी पहले जापान ने रंगून पर भयानक बमबारी शुरू कर दी। सर्कस के कलाकार और तरह-तरह के जंगली जानवर, जैसे बाघ, दरियाई घोड़ा, हाथी और ट्रेन्ड करतबी घोड़े वहीं फंस गए। बाहर निकलने का कोई इंतज़ाम नहीं था। और तो और, डर से पगलाई स्थानीय ब्रितानी सरकार की पुलिस ने, गोली मार कर उनके सब जंगली जानवरों की हत्या कर दी। सर्कस वालों ने बचाने की कोशिश की तो पुलिसवाले उन्हें भी उसी तरह मार गिराने को तैयार हो गए। सिर्फ़ दो जानवर भाग कर जंगल में छिपने में कामयाब हो गए; राजसी और बुद्धिमान हथिनी, राजमंगला और सुपरतेज़ धावक व करतब में पारंगत घोड़ा, फक्कड़राव। सरकार के हुक्म से सर्कस के ही नहीं, स्थानीय चिड़ियाघर के सभी जंगली जानवरों की भी नृशंस हत्या कर दी गई। सच में, उस समय जितना आतंक दुश्मन जापानी फ़ौज का था, उतना ही ब्रितानी हुक्मरान का, जिनके अफ़सरों को अपनी जान-माल के सिवा किसी की परवाह नहीं थी।
खतरनाक और रोमांचक वापसी की यात्रा
यूँ शुरू हुई वापसी की खतरनाक, रोमांचक, मानव और पशु को एक डोर में बांधे चुनौतीपूर्ण और शौर्यपूर्ण यात्रा। उस में सरकारी अमला रोड़े ही अटकाता रहा, कहीं कोई मदद इमदाद नहीं की।
क्या नहीं था, सर्कस के पात्रों को चुनौती देने के लिए?
युद्ध, बमबारी, ज़मीनी गोलाबारी, हत्या, बलात्कार, मारपीट, यंत्रणा, नरभक्षी पक्षी- पशु-मानव, उफ़नती नदी, महीनों बेरोक होती घोर बरसात, दलदल, भूख, हैज़ा, मौत। इन सबके बीच 520 कि.मी लंबा सफर। मर्द, औरत, बच्चे, एक हाथी और एक घोड़े के साथ। सामूहिक पशु संहार से बच निकल कर, घने जंगल में शरण लेने के कुछ दिन बाद राजमंगला और फक्कड़राव ने अपने साथी मर्द-औरतों- बच्चों को ढ़ूँढ़ निकाला। फिर कई मर्तबा, ऊँची घास और बाँसों से आछादित घने जंगल में उन्हें अपनी पीठ का सहारा देते रहे।
तो मंज़र यह था। एक तरफ़ बर्मा पर बम बरसाते जापानी हमलावर। दूसरी तरफ़, मरो तो मरो, हमें क्या, कहते ब्रितानी भगोड़े। बीच में फंसे बर्मी और हिंदुस्तानी। करें या मरें! वे नहीं मरे। यानी सब नहीं मरे। बहुत कुछ किया और जो किया अकेले या उससे ज़्यादा सर्कस की आपसदारी के दम पर।
यह है द ग्रेट कंचना इंटरनेशनल सर्कस की चुनौतीपूर्ण साहसिक कथा।
दुश्मन और हुक्मरानों का आतंक
उन्हें संत्रास देने के लिए दुश्मन जापानी ही नहीं, वहाँ के ब्रितानी हुक्मरान भी कम नहीं थे। उनके तमाम प्यारे और कीमती जानवरों का संहार तो कर ही चुके थे। आगे के रास्ते पर, एक तरफ़ जापानी फ़ौज सब कुछ तहस नहस कर रही थी, तो दूसरी तरफ़ पीछे हटती ब्रितानी फ़ौज भी जहाँ-जहाँ से हटती, वहाँ के अन्न भंडार, दूकानें, खेत खलिहान, जला कर राख कर देतीं। जिससे वह दुश्मन के हाथ न आये। वह तो वाजिब था। पर उनके पीछे जो मुसीबत की मारी, अचानक दौलतमंद से ग़रीब हुई अपार जनता, पैदल चली आ रही थी, वह जीवित कैसे रहेगी, उसकी उन्हें तनिक परवाह न थी!
उन्होंने आश्वासन दिया गया था कि एक बार किसी तरह रंगून से मिचिना पहुँच गये तो उनकी तमाम समस्याएं खत्म हो जाएंगी। वहाँ का हवाई अड्डा खुला था। वहाँ से उन्हें हवाई जहाज़ से गोहाटी पहुँचा दिया जाएगा। पर जब असीम मुसीबतें झेल कर वे और अनगिनत अन्य एशिया के लोग वहाँ पहुँचे तो, हवाई जहाज़ में ब्रितानी डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर, अपना परिवार, स्टाफ़ और साज़ो सामान ले कर उडनछू हो गया। स्कूल की छोटी बच्चियों तक को साथ ले जाने से इन्कार कर दिया।
जंगल की पाठशाला: 520 किमी का साहसिक सफर
तब उनके पास, अकल्पनीय रूप से घनघोर और बेरोक बरसात में, 520 कि. मी लम्बा घना जंगल, पैदल पार करने के सिवा, कोई विकल्प न बचा। जंगल भी कैसा, ऐसा जहाँ कन्द, मूल फल तक नहीं मिलते थे। हाथ लगते बस जंगली केले और बाँस की ताज़ा कोपलें। उनके साथ कभी मछली, केंकड़े और जंगली घास उबाल कर पेट भरने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। किसी दिन बारिश ज़रा थम जाती और क़िस्मत अच्छी होती, तो मर्द जंगली नदियों के पार जा कर, कहीं घास के बीच उगे सफ़ेद मशरूम लाने में कामयाब हो जाते, तब तो जश्न भी मन जाता। पूरी तरह पके जंगली केले भी तोहफ़े की तरह होते। वरना उस डरावने हरदम बरसते पानी के नीचे, बाँस उनका एकमात्र संबल था। उसी से झोंपड़ी बनाते, जो चार- छह दिन में गल जाती। उसी से इरली बना कर छतरी की तरह इस्तेमाल करते और उसी का गूदा खा, जीवित रहते। उसी से सूप या पेहीन बनाते, जो मांड के पानी का साथी बनता। उसी से चटाईयाँ बनाते, जो दलदली मिट्टी में लेटने पर कुछ राहत देतीं। और तो और, बाँस को छाँट कर गठानों वाले हिस्से के उन कारीगरों ने प्याले भी बना लिये थे, जिनमें जब तक मयस्सर हुई, ब्लैक कॉफ़ी पी गई।
इस सत्यकथा में केवल स्त्री पुरुष, कंचना और राघव, नायिका-नायक नहीं हैं। हथिनी राजमंगला और घोड़ा फक्कड़राव भी हैं। अंत में वही दोनों करतबी पशु सबकी जान बचाते हैं।
सर्कस के आधे जन तो वहीं शहीद हो गये, राजमंगला और फ़क्कड़राव भी। फिर भी बची रही मानवीय संवेदना। सुनिए, नायिका कंचना के शब्द।
"जंगल की पाठशाला में यह सबक सीखा है। बहादुरी के साथ साथ संयम, सहनशीलता, धीरज।” पर उसकी सबसे बड़ी खासियत है उसकी मानवीयता, जो उसने हज़ार तकलीफ़ सह कर भी खोई नहीं। तभी तो छोटी ब्रितानी स्कूल छात्राओं को साथ ले कर जंगल का सफ़र करने पर जब कोई अपत्ति करता है तो कहती है, “कोई किसी देश, धर्म, जाति या नस्ल का हो, मुझे फ़र्क नहीं पड़ता। मैं उसकी रक्षा से इंकार नहीं कर सकती। उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकती।”
मानवीयता और विश्वासघात का चित्रण
यूं तो शौर्य हो, मेधा, बहादुरी या कलाकारी, सर्कस के सभी सदस्य एक दूसरे पर इक्कीस पड़ते हैं। पर अंतत: आपसी सद्भाव और स्नेह के बिना तमाम गुण भोथरे पड़ जाते हैं। उसे हम सही तौर पर पहचान लें, यह तय करने के लिए, लेखक विश्वास पाटील, महज़ उसकी कमी से नहीं, उसके विलोम यानी विश्वासघात से भी हमें परिचित करवा देते हैं।
सर्कस के भीतर अकेला सायबु ऐसा पात्र है जो राघव को एक नहीं कई बार जान से मारने का षड्यंत्र रच चुका है। जो उससे उसकी संपत्ति और यश छीनना चाहता है, जिसकी बुरी नज़र उसकी पत्नी पर भी रही है। प्रभु कृपा से कंचना और राघव इस कलंक से पार पा लेते हैं।
सर्कस के करतब और जीवन का उत्सव
पर इस पुस्तक में केवल संघर्ष और दिलेरी ही नहीं है। जितने विस्तार और सूक्ष्मता से युद्ध, बमबारी, इंसानी अहंकार, प्राकृतिक विपदा और आघात के चित्र अंकित किए गए हैं, उसी बारीकी से सर्कस के करतब और उनके लिए की गई तैयारी का भी चित्रण किया गया है। भयावह बाघ लक्ष्मी के खुले मुँह में अपना सिर घुसाने और सकुशल निकालने का अभ्यास करती कंचना, वाक़ई आपके रोंगटे खड़े कर देती है। वैसे ही राघव का हवा में गुलाटियाँ खा-खा कर गति से दौड़ते फक्कड़राव घोड़े की पीठ पर सवारी करने का निरंतर अभ्यास भी। लगता है, लेखक एक बहुत बड़े केनवास पर कई-कई मिनिएचर पेंटिंग उकेर रहा है। एक-एक स्ट्रोक जितनी गहराई से विषय को पकड़ता है, उतनी ही बारीकी से पूरे फलक को हमारे सामने खोल कर रख देता है। कुछ देर के लिए, हमें सर्कस के तमाम गुर ज्ञात हो जाते हैं। पर हम यह भी जान जाते हैं कि वे करतब उतनी ही कलाकारी की मांग करते हैं, जितनी शास्त्रीय संगीत या नृत्य। वे आम आदमी के बूते की बात नहीं है।
कमाल की बात यह है कि तमाम उत्कट भयावहता, क्रूरता, यातना, भुखमरी, कॉलरा, युद्ध, बेरहमी और मौत पर मौत के बावजूद, पुस्तक पढ़ते हुए, पाठक रोते-रोते, सहसा पाठक, पात्रों की जिजीविषा से आह्लादित-अचम्भित हो, दांतों तले उंगली दबा, महसूस कर उठता है; वह किसी उत्सव से हो कर गुज़र रहा है।
मानवता की जीत: एक लोमहर्षक प्रसंग
इसका एक लोमहर्षक और मार्मिक प्रसंग तब आता है, जब कंचना को पता चलता है कि जापानी फ़ौज की एक टुकड़ी ने राघव को बन्दी बनाया हुआ है। और ब्रितानी फ़ौज के बारे में जानकारी लेने के लिए उसे हर तरह से यंत्रणा दे रहा है। ख़तरे की परवाह न कर, कंचना वहाँ पहुँच जाती है। तब उन दोनों के बीच के प्यार और आस्था को देख, जापानी कर्नल चकित रह जाता है। तभी राघव का प्रियवर और करतब दिखलाने में अनूठा घोड़ा, फक्कड़राव भी उसकी सीटी पहचान कर दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचता है। जापानी कर्नल सर्कस के करतब देखने को उतावला हो जाता है। महीनों से हत्या-मारकाट और यातना देने के सिवा उसने कुछ देखा-महसूसा न था। वह राघव की बेड़ियाँ-हथकड़ियाँ खोल देता है और तब जो खेल राघव और फक्कड़राव मिल कर दिखलाते हैं; टुकड़ी के तमाम लोग मन्त्रमुग्ध हो, गुल-गपाड़ा मचाने और हँसने-खिलखिलाने लगते हैं। कर्नल मान जाता है कि राघव और उसका साथी, जिन्हें उन्होंने कबसे बन्दी बनाया हुआ था; और जिन्होंने भयावह यंत्रणा के बावजूद एक शब्द भी नहीं उगला था; आतंकवादी नहीं, कलाकार थे। कंचना व उसके अन्य सर्कस के बाशिन्दे भी। वह उन्हें रिहा कर देता है और रास्ते के लिए कुछ टीनबन्द खाने का सामान भी देता है। उस बर्बर जल्लाद का मानव में तब्दील होने; यहाँ तक कि उसकी आँखों में आँसू आ जाने को, कंचना सत्य की तरह स्वीकार करती है; यह उसकी असीम मानवीयता का उदाहरण है।
मृत्यु के रौद्रतम प्रहार के सामने खड़ा जीवन का आलिंगन करता, हँसता-खिलखिलाता, प्रेम करता लघु मानव और पशु, आसमान की ऊँचाई छूने लगता है और हमें भी जीवन को बहादुरी ही नहीं, प्रेम से जीने का सबक देता है। एक अन्य मानवीय प्रसंग की बात कहना ज़रूरी है। आपको मिचिना का वह क्रूर और अहंकारी डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर याद होगा, जिसने मिचिना में अपने हवाई जहाज़ में नन्ही स्कूल की बच्चियों को पनाह देने से इन्कार कर दिया था। कंचना उसके सामने घुटनों के बल गिर कर, उन अनजान बच्चियों को ले जाने को गिड़गिड़ाई भी थी पर उस पर कोई असर नहीं हुआ था। आखिर वे सिर्फ़ संयोग से कंचना की पनाह में आ गई थीं, थीं तो अपरिचित, अजनबी और ब्रितानी, जो लोग उनसे इतनी बदसलूकी कर चुके थे। पर वह इंसान थी और डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर, दरिंदा। अन्त में, जब वे भारत की सीमा में पहुँच गये और उन्हें अस्पताल नसीब हुआ तो नौ बच्चियों में से पाँच ही जीवित बची थीं। पर वहाँ जो देखा, अद्भुत था। वही कलेक्टर, दयनीय बना, सबकी मदद करता घूम रहा था। मालूम होता है कि उसकी अपनी बेटी भी हैज़े की शिकार हो कर प्राण त्याग चुकी थी। कोई यह सुन कर खुश नहीं होता पर सब समझ रहे थे कि था वह दैवी न्याय।
जीवन का उत्सव: सर्कस की वापसी
ऐसी पुस्तक का अंत त्रासदी से उबर कर ही हो सकता था। होता है। सर्कस वापस अपनी ज़मीन पर पहुँचता है और कुछ महीनों के विश्राम के बाद, फिर से शो करता है। लोगों का आह्वान करते हुए वह कहता है, जो आयेगा, हँसता हुआ, खुश हो कर जायेगा और जो नहीं आयेगा, तो पक्का पछतायेगा।
उसी की तर्ज पर मैं कहना चाहती हूँ, द ग्रेट कंचना सर्कस उपन्यास को ज़रूर पढ़ें, जो पढ़ेगा, खुश हो कर रहेगा और जो नहीं पढ़ेगा, पक्का पछतायेगा।
मृदुला गर्ग
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नई दिल्ली 110048
फ़ोन: 9958661937
लेखक परिचय: विश्वास पाटील
विश्वास पाटील आधुनिक मराठी साहित्य के यशस्वी उपन्यासकार और नाटककार हैं। उनका जन्म 28 नवम्बर 1959 को रेलवे कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के एक किसान परिवार में हुआ। उन्होंने एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य) और एल.एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की है। वे महाराष्ट्र प्रशासनिक सेवा में वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। अपने उपन्यास ‘महानायक’ के लेखन के संदर्भ में उन्होंने जापान, इटली, थाईलैंड, बर्मा, जर्मनी, अमेरिका, फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड और इंग्लैंड की यात्राएँ कीं। अब तक उन्हें पचास से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें प्रमुख हैं—केंद्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार, महाराष्ट्र शासन का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार, प्रियदर्शिनी राष्ट्रीय पुरस्कार, महाराष्ट्र साहित्य परिषद् पुरस्कार, नाथ माधव पुरस्कार, मराठी साहित्य सम्मेलन मढेकर पुरस्कार आदि।
अनुवादक: रवि बुले
इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद रवि बुले ने किया है। रवि बुले ने अनुवाद के माध्यम से विश्वास पाटील की इस कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाया है, और मृदुला गर्ग की भूमिका के अनुसार, यह अनुवाद इतना सहज और प्रभावी है कि पढ़ते समय यह मूल रचना जैसा ही प्रतीत होता है।
पुस्तक विवरण: द ग्रेट कंचना सर्कस
पुस्तक का नाम: द ग्रेट कंचना सर्कस
लेखक: विश्वास पाटील
अनुवादक: रवि बुले
पृष्ठ: 350
प्रकाशन वर्ष: 2024
ISBN: 9789362873064
भाषा: हिंदी
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
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यह साहसिक कथा क्यों पढ़ें?
विश्वास पाटील की यह कृति न केवल एक साहसिक कथा है, बल्कि मानवीयता, प्रेम, और जिजीविषा की एक अनूठी मिसाल भी है। रवि बुले का हिंदी अनुवाद इसकी मूल भावना को बरकरार रखता है, और मृदुला गर्ग की यह भूमिका इसकी गहराई को और उजागर करती है। यदि आप हिंदी साहित्य, ऐतिहासिक कथाओं, और साहसिक यात्राओं के शौकीन हैं, तो यह किताब आपके लिए है।
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प्रकाशक के बारे में
यह पुस्तक वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है।
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