वैष्णव जन ते तेने कहिये जे पीड़ परायी जाणे रे - पूनम सिन्हा Review of Bhagwandas Morwal's Novel Narak Masiha

अँधेरे अरण्य के बीच

पूनम सिन्हा


जब अठारहवीं शताब्दी के अंत में जर्मनी का समूचा समाज सड़ांध मार रहा था तो बेहतरी की एकमात्र आशा देश के साहित्य में दिखलाई पड़ी - फ्रेडरिक एंगेल्स 

‘कोई भी मानव-संस्था ऐसी नहीं है जिसके अपने खतरे न हों। संस्था जितनी बड़ी होती है, उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ उतनी ही अधिक रहती हैं। लोकतंत्र एक महान संस्था है और इसलिए उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ उतनी ही अधिक हैं। इसलिए इलाज यही है कि दुरुपयोग की संभावना कम-से-कम कर दी जाए, यह नहीं कि लोकतंत्र ही न बनाये जाएँ।’(महात्मा गाँधी, यंग इंडिया, 7-5-1931-अंग्रेजी से)।

Hindi Books written by Bhagwandas Morwal - भगवानदास मोरवाल की पुस्तकें
हमारे यहाँ जो गैरसरकारी संगठन हैं, उनमें बहुत कम ऐसे हैं, जहाँ मिशन के रूप में काम होते हैं। निश्चित वित्तीय सहयोग के अभाव में जहाँ चंदा उठाया जाता है और चंदे के बल-पर सारे आयोजन होते हैं। कुछ ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो फर्जी हैं, कागज पर हैं। कुछ ऐसे हैं जहाँ सारे ताम-झाम एवं आयोजन कमाने-खाने के लिए किये जाते हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने अपने उपन्यास ‘नरक मसीहा’ में लूटतंत्र से जुड़े ऐसे ही गैर सरकारी संगठनों की भीतरी दुनिया के कड़वे सच को पाठकों के समक्ष रखा है। ऐसी दुनिया का सच, जो गरीबों, मजलूमों के नाम पर ठगी की तिजारत करती है। ऐसी संस्थाओं को साम्राज्यवादी देशों से तो सहायता मिलती ही है, विभिन्न देशेां के नौकरीपेशा लोग भी अपने वेतन से पैसे बचाकर आर्थिक सहयोग करते हैं। इन संस्थाओं का जो वृहत् जाल बिछा है उसको कैसे काटा जाए और उसका दुरुपयोग कैसे कम-से-कम किया जाये, यह विचारणीय है। उपन्यास में कम्युनिस्ट नेता सोहनलाल ‘प्रचंड’ और गाँधीवादी नेता गंगाधर आचार्य तमाम सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ संघर्ष करते हैं, किन्तु उनके विरोधी स्वर नक्कारखाने में तूती बन जाते हैं, सांगठनिक नहीं बन पाते।

उपन्यास पढ़ते हुए प्रथम द्रष्ट्या लगता है कि उपन्यासकार का पूरा ध्यान एनजीओ की दुनिया के छद्म को उजागर करने पर है। किन्तु कम्युनिस्ट नेता सोहनलाल ‘प्रचंड’ एवं गाँधीवादी गंगाधर आचार्य की विचारधाराओं के क्रमशः क्षीण एवं मंद पड़ते जाने के जिक्र के द्वारा वर्तमान समय में इन दोनों विचारधाराओं पर पुनर्विचार एवं इनके पुनर्विकास की आवश्यकता के संकेत भी उपन्यास में लक्षित हैं। ‘प्रचंड’ एवं आचार्य जी की बातें कड़वी, किन्तु सच हैं। अतः न तो कबीर ‘प्रचंड’ से आँखें मिला पाता है न बहन भाग्यवती आचार्यजी की बेधक और सत्यवेधी दृष्टि का सामना कर पाती हैं।

यह अकारण नहीं है कि उपन्यास आरंभ होने के पूर्व उपन्यासकार ने गाँधी की उक्ति अंकित की है। अकारण तो यह भी नहीं है कि उपन्यास की प्रथम पंक्ति में ही गंगाधर आचार्य का पदार्पण होता है और वह प्रथम परिच्छेद में आरंभ से अंत तक उपस्थित दिखाई देते हैं। पूरे उपन्यास में वर्तमान विसंगतियों के प्रति उनके द्वंद्व, उनकी चिन्ता, उनकी अकुलाहट दिखती ही है, उपन्यास के अंतिम परिच्छेद में भी वे शुरू से आखिर तक हैं। उपन्यास का अंत भी बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन ते तेने कहिए जे पीड़ परायी जाणे रे’ से होता है। इस उपन्यास के विमर्श का एक मजबूत कोण गाँधीवादी दर्शन पर भी बनता है। पुस्तक के व्लर्ब पर अंकित कथन से भी यह बात पुष्ट होती है।

भगवानदास मोरवाल अपने उपन्यासों में समस्याओं की अलग-अलग जमीन कोड़ते दिखाई देते हैं। उनके प्रथम उपन्यास ‘काला पहाड़’ में मेवात के हिन्दू एवं मुसलमानों की साझा संस्कृति एवं उस संस्कृति में दरार डालने वाले कारकों की पड़ताल है तो ‘बाबल तेरा देस में’ उपन्यास में मुस्लिम समाज की स्त्रियों की जहालत का लेखा-जोखा प्रस्तुत है। तीसरे उपन्यास ‘रेत’ में कंजरों के जीवन, विशेषकर देह का पेशा करने वाली कंजर स्त्रियों के जीवन का आख्यान है तो चैथे उपन्यास ‘नरक मसीहा’ में गैर सरकारी संगठनों के द्वारा समाज के विकास की आड़ में मजबूती से जड़ जमा चुके लूटतंत्र का बखिया उधेड़ा गया है। साथ ही स्वार्थबहुल छवियों के द्वारा किये जा रहे सामाजिक अन्तर्घात के सामने अपने उसूलों के प्रति ईमानदार मार्क्सवादी एवं गाँधीवादी नेताओं की निरुपायता एवं तज्जनित कसमसाहट एवं द्वन्द्व का गुफन हुआ है।

नरक मसीहा’ की पहली ही पंक्ति है,‘ऐसी प्रचंड गरमी गंगाधर आचार्य ने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं देखी।’ शासन, गैर सरकारी संगठन एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गठजोड़ से जो एक नया साम्राज्यवाद कायम हुआ है, उसमें एक तरफ वातानुकूलित कोठियों, गाड़ियों, पाँच सितारा होटलों एवं हवाई यात्राओं का सुख उठा रहे कुछ लोग हैं तो दूसरी तरफ सिद्धांतों एवं मूल्यों को अपनी छाती से चिपकाये गंगाधर आचार्य एवं कामरेड सोहनलाल ‘प्रचंड’ जैसे लोग हैं, जो जीवन के क्षरित मूल्यों के असह्य ताप से संघर्ष करते हैं। इस उत्तर आधुनिक उपभोक्तावादी क्रूर समाज की बाजारवादी राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था में उनका संघर्ष कुंद होने लगता है। अपने ही घर में ‘प्रचंड’ का पुत्र तथागत उनके सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाते हुए प्रश्न खड़े करता है। तथागत अपनी पत्नी के साथ एनजीओ खोलना चाहता है। ‘प्रचंड’ इसका विरोध करते हुए उन्हें नसीहत देते हैं, ‘क्या तुमने भी अचानक आई क्रांतिकारी भगोड़ों, कैरियरवादियों और मुक्त चिन्तकों की इस फौज में शामिल होने की तैयारी कर ली है?’ तथागत जब कहता है कि उनका नागरिक संगठन ग्रासरूट लेवल पर काम करेगा तो ‘प्रचंड’ धधक उठते हैं, ‘आखिर तुम किस ग्रासरूट की बात कर रहे हो-उसकी जो अपने नाम पर मिलने वाले उस पैसे को देख ही नहीं पाता जो उसका एनजीओ बटोरकर लाता है....... या फिर उसकी जो कभी इन ग्रासरूटी लीडरों, या कहिए बुद्धिजीवी थानेदारों को मिलने वाली मोटी पगार, उनकी विदेश यात्राओं, उनके शाही रहन-सहन और एसी कारों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बोतलों से घिरे लेपटौपी सेमिनार, सम्मेलनों के बारे में सोच नहीं सकता। तुम्हारे इन ग्रासरूटी वर्करों को पता ही नहीं चलता कि ऊपर क्या खेल हो रहा है। इन्हें तो इकट्ठा ही तभी किया जाता है जब इनके एनजीओ के डायरेक्टर या तथाकथित सीईओ और विदेशी दाताओं के बीच डील पक्की हो चुकी होती है। सच्चाई तो यह है कि सारे फैसले ये डायरेक्टर और सीईओ खुद लेते हैं...... बरखुरदार, जिस दिन इस एनजीओ की दुनिया में सामूहिक फैसले लिये जाएँगे, उन दिन दुनिया-भर के गरीबों और मेहनतकशों की तकदीर ही बदल जाएगी।’ पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि तथागत ने तो देखा है कि ‘प्रचंड’ ने सिद्धांतों को जीवन का अंग बना लिया जबकि दूसरों ने सिद्धांतों को प्रोफेशन तक सीमित रखा। ये तो गरीबों और मेहनतकशों की तकदीर बदलने के सपने देखते रहे और दूसरों के बच्चे चले गये अमेरिका और यूरोप पढ़ने। यानी एक तरफ साम्राज्यवाद को गाली दो, दूसरी तरफ वारिसों को वीजा दिलवाने के लिए इन्हीं एजेंसियों की परिक्रमा लगाते फिरो। तथागत ‘प्रचंड’ से कहता है, ‘बाबूजी असलियत से क्यों मुँह मोड़ रहे हो। आपके चाहने से नहीं बदलने वाली है यह दुनिया।........... बाबूजी, आप बेकार परेशान हो रहे हैं। इस कोठरी की दीवारों पर टँगी इन पुरानी पड़ चुकी लेनिन और माक्र्स की तस्वीरों से बतियाना छोड़िए और बाहर आकर देखिए कि दुनिया कितनी बदल चुकी है। जिन गाँधीवादियों की रूखी बिवाइयों से आजादी का खून रिसता था, आज वही पाँव जमीन पर नहीं टिकते हैं। जिन वामपंथियों का गला साम्राज्यवादियों के खिलाफ नारे लगाते हुए सूख-सूख जाता था, आज वही इनके सबसे बड़े बौद्धिक दलाल बने हुए हैं।’’ कामरेड प्रचंड सोचते हैं, ‘सचमुच उन्हें यह तख्त अब बदल देना चाहिए वरना ऐसा न हो कि किसी दिन यह अचानक चरमरा कर ध्वस्त हो जाए। हटवा देंगे अपने इस सीलन भरे कमरे से इस पुराने तख्त को जो उनके संघर्षशील अतीत और दुनिया बदलने के सपनों का साक्षी रहा है।’ ‘प्रचंड’ का ऐसा सोचना क्या अभिधात्मक अर्थ सम्प्रेषित करता है? नहीं। निहितार्थ यह है कि ‘प्रचंड’ अपने को हताश और हारा हुआ महसूस कर रहे हैं।

अपने समय एवं समाज के सच को केन्द्र में रख कर रची गयी रचनाएँ किस प्रकार हममें राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों की विद्रुपताओं को समझने की दृष्टि विकसित करती है, यह ‘नरक मसीहा’ को पढ़ते हुए अनुभव किया जा सकता है। एंगेल्स के अनुसार जब अठारहवीं शताब्दी के अंत में जर्मनी का समूचा समाज सड़ांध मार रहा था तो बेहतरी की एकमात्र आशा देश के साहित्य में दिखलाई पड़ी। इस उपन्यास में गैर सरकारी संगठनों की वास्तविक दुनिया पुनःसृजित हुई है, जिसमें प्रवेश करने पर हाड़-मांस के पात्र ही नहीं, तत्संबंधी समूचा परिदृश्य ही जीवित पात्र की तरह पूरी भयावहता के साथ सम्मुख आ खड़ा होता है। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद हम गैर सरकारी संगठनों की दुनिया के कटु यथार्थ को एक नयी समझ से लैस होकर देखते हैं। इनके घेरे में लोकसंस्कृति भी खतरे में है। लोक एवं जातीय संस्कृति के पण्यीकरण के द्वारा गैर सरकारी संगठन निरंतर फल-फूल रहे हैं। ये तो लोगों के सपनों एवं संस्कृति को भी उद्योग में बदल रहे हैं। जो कुछ भी समाज के लिए हितकर है, बचा लेने योग्य है, सब पर इनका कब्जा है। के. सच्चिदानन्दन कहते हैं ‘संस्कृति का उद्योग लोक और देसी संस्कृति की उपेक्षा नहीं करता। यदि उसने उपेक्षा कर दी होती तो संभवतः ये बच भी जातीं। लेकिन वह तो इन्हें विदेशों में निर्यात करने योग्य कलाकृतियों में बदल देता है, जो अमीरों के ड्राइंग रूम और मृत्य-पर्व मनाने वाले संग्रहालयों में सजाने के काम में आते हैं।’

प्रोफेसर पूनम सिन्हा
हिन्दी विभाग
बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय,
मुजफ्फरपुर
ईमेल: SNPPOONAM@GMAIL.COM
मोबाईल: 09470-444376
उपन्यासकार ने एनजीओ संस्कृति को केन्द्र में रखते हुए उससे जुड़े एक-एक तार की शिनाख्त की है। मुख्य कथा में किसानों की ऋण-समस्या, उससे जुड़ी किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएँ, आदिवासियों की समस्याएँ आदि कई महत्त्वपूर्ण एवं ज्वलंत आसंग अन्तर्वेशित हैं। गैर सरकारी संगठनों के कत्र्ताधर्ता के लिए किसान एवं आदिवासी नरम चारा हैं। किसान से नौकर बन चुके राजगढ़ गाँव के हिम्मतसिंह से भूतपूर्व मार्क्सवादी और अब सर्वहारा फाउंडेशन का कर्ताधर्ता कबीर कहता है कि ‘हमारी राजगढ़ में माइक्रो फाइनेंस की योजना है। क्या इसके लिए यहाँ के लोग तैयार हो जाएँगे?......माइक्रो फाइनेंस से मेरा मतलब है कि गरीबों को अपना काम शुरू करने के लिए छोटे-मोटे कर्ज दिए जाएँ।’ गोदान में रायसाहब बेलारी गाँव के लोगों से नजराना वसूल करने के लिए होरी को पटियाते हैं और होरी गदगद है कि रायसाहब उसे अन्य ग्रामीणों की तुलना में ज्यादा अपना मानते हैं। इक्कीसवीं सदी का हिम्मतसिंह एवं राजगढ़ के अन्य किसान कर्ज के दलदल में फँसने का परिणाम भुगत चुके हैं। कर्ज के नाम से हिम्मतसिंह की रूह काँप उठती है। कर्ज का मारा प्रेमचन्द के उपन्यास ‘गोदान’ का स्वतंत्रतापूर्व का किसान होरी ही नहीं है, जो किसान से मजदूर बनाता है और असमय मर जाता है, बल्कि इक्कीसवीं सदी का किसान हिम्मतसिंह एवं उसकी तरह के लाखों किसान हैं, जो मालिक से मजदूर बन चुके हैं। इनके सामने दो ही विकल्प बचते हैं-आत्महत्या अथवा बदतर एवं बेआबरू जिन्दगी। हिम्मत सिंह कबीर से कहता है, ‘‘ना साब, हमें या करज ते दूर ही रक्खो। या ने हम मालिक ते नौकर बना दिए। बिना करज के सुखी थे। ना हम या करज के चक्कर में पड़ते ना हमारी या जमीन की कुर्की होती।’’ (तारीफ की बात यह है कि कुर्क की गयी जमीन का मालिक भी अब कबीर ही है।) ‘‘साब, या गरीब आदमी के कनै थोड़ी-सी जमीन-जायदाद के अलावा दूसरी पूँजी वाकी आबरू होवे, अगर वो भी नीलाम हो गई तो सिवाय मरने के और कुछ ना बचे है।’’ कबीर की पत्नी और ग्रासरूट फांउडेशन की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सानिया पटेल जब कबीर से माइक्रो फाइनेंस के विषय में पूछती है तो वह कहता है ‘‘पार्टनर भारत जैसे गरीब मुल्कों की गरीबी मिटाने की यह एक नई टकसाल है। एक ऐसी टकसाल जिससे दुनिया भर के एनजीओ दोनों हाथों से नोट उलीच रहे हैं। अगर इसमें कामयाबी मिल गई, तो समझो सारे पाप धुल गए जाएँगे। इसलिए सोच रहा हूँ कि सर्वहारा माइक्रो फाइनेंस और ग्रासरूट फाइनेंस के नाम से दो कंपनियाँ रजिस्टर्ड करा लूँ।’’ ग्रासरूट, जहाँ घास ही घास रह गई है, जड़ों का कुछ पता नहीं है। ‘इस गरीब मुल्क की ये ऐसी नई-नई दुकानें हैं जो खुद को उपनिवेश बनाने पर अमादा हैं जिनके ये तथाकथित सोशल वर्कर और एक्टिविस्ट यानी ये ‘नरक मसीहा’ ब्लैकमेलिंग से लेकर चार सौ बीसी के सारे हथकंडों को अपनाने में इतने माहिर हैं कि उनकी बेईमानी भी कुछ वक्त बाद ईमानदारी नजर आने लगती है।’ कबीर, सानिया जैसे लोग किसान, आदिवासी एवं इन जैसे निरीह लोगों के हिस्से के पैसे ही नहीं हजम करते हैं, बल्कि इनके श्रम का भी शोषण करते हैं।

एनजीओ के नाम पर मजलूम लड़कियों को गोद लेकर घरेलू नौकरानी के रूप में उनके श्रम का जो शोषण होता है, उसका लोमहर्षक वर्णन इस उपन्यास में है। डॉ. अम्बेदकर दलित महिला उद्धार सभा की सुप्रीमो सुमन भारती ऐसी ही एक लड़की मारथा एक्का से स्वयं तो घरेलू नौकरानी का काम लेती ही हैं, परिषद् की उपसचिव मिसेज मौर्य को खुश करने के लिए उनकी बेटी की शादी में उसे वहाँ काम करने के लिए पहुँचाती हैं। वहाँ जिस अमानवीय ढंग से उससे निरंतर काम लिया जाता है, वह सिहरा देने वाला है। इतना ही नहीं, जब सुमन भारती मारथा को लेने मिसेज मौर्य के यहाँ जाती हैं तो मिसेज मौर्य उनसे मारथा एक्का को अपने लिए माँगती हैं, जैसे मारथा एक्का एक जीती-जागती लड़की न होकर सामान हो। मिसेज मौर्य कहती हैं, ‘एनजीओ के नाम पर आपको और मेड मिल जाएगी पर मुझे नहीं मिलेगी। मेरी भी अगर कोई एनजीओ होती तो आपसे कहने की जरूरत नहीं होती।’

कबीर एवं सानिया जैसे लोगों को पैसे ही नहीं पद भी चाहिए। कबीर आदिवासियों की जमीन की रक्षा के नाम पर उन्हें एकत्रित कर जनाधिकार सत्याग्रह पदयात्रा निकालता है। इसमें गाँधी के अनुयायी और अन्य समान विचारधारा वाले सैकड़ों संघर्षशील लोग शामिल होते हैं। लेकिन सत्याग्रहियों का जत्था जैसे ही आगरा के पास पहुँचता है, सरकार के प्रतिनिधियों से कबीर की अपने हित-साधन की डील चलभाष पर तय हो जाती है। कबीर को राष्ट्रीय सलाह परिषद् का सदस्य बनने का आश्वासन भी मंत्री जी से मिल जाता है। कबीरझूठे आश्वासन देकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच रैली भंग करता है। भोले-भाले आदिवासियों को तो अपने छले एवं ठगे जाने का एहसास तक नहीं होता है। ‘सत्याग्रहियों के नाम पर जो साम्राज्यवादी घुसपैठिये पूरी पदयात्रा के दौरान जगह-जगह नजर आते थे, वे भी न जाने कहाँ गायब हो गये। सारे लोकवाद्य और बापू के प्रिय भजन एकाएक खामोश हो गये। अपने हक की लड़ाई में शामिल आदिवासी परिवार जनसैलाब में खो गये।’ उनमें से कुछ आदिवासी अपने क्षेत्र में लौट गये होंगे, कुछ नगर के नर्क में खो गये होंगे और कुछ मर-खप गये होंगे। रैली में शामिल शांता बाई ने तो कहा ही था, ‘हमारी धरती तो छिन गई, अब जा देह को का करें, नेक-नेक करिके मरिबे ते तो अच्छो है कि एक बर ही मरि जावें।’ उपन्यास के इस प्रसंग से भूमिअधिग्रहण के खिलाफ इन दिनों किसानों द्वारा हो रही रैलियों का ध्यान में आना स्वाभाविक है। इन रैलियों में राजनीतिक नेताओं के पहुँचने से किसान संगठनों में नाराजगी है। किसान संगठनों का कहना है कि यह एक सामाजिक आंदोलन है, जिसका राजनीतिक आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। रचना दृष्टि काल के सातत्य में विचरण करती है। भगवानदास मोरवाल का मेवात के गाँवों से गहरा परिचय है। किसानों के रक्त को सोख लेने-वाली समस्याएँ क्या और कहाँ हैं, इसे वे अपने गाँव एवं किसान जीवन के अनुभव क्रम में समझ चुके हैं। ‘जिस लेखक की जड़ उसकी अपनी जातीयता की मिट्टी में दृढ़ता से गड़ी हुई नहीं होती, वह अपने साहित्य में एक झूठ की सृष्टि करता है। उसकी भावना, उसका नैतिक सौन्दर्य बोध तथा उसकी भाषा सभी हवाई होते हैं। निश्चित रूप से किसी भी लेखक के लिए अपनी जातीय भाषा, संस्कृति और जन-समुदाय तथा इतिहास की उपेक्षा करना बहुत खतरनाक है, क्योंकि यही तो वे चीजें हैं जिन्होंने उसे अनुभूति, ज्ञान, आँख और कान प्रदान किये हैं, यानी संपूर्ण जीवन।’ मोरवाल जी ने इस उपन्यास में ग्राम एवं नगर जीवन के अपने अनुभवों एवं भाषा का दोहरे संसाधन के रूप में उपयोग किया है। उन्होंने गाँव के मिट्टी सने शब्दों को झाड़-पोंछकर उनका उपयोग इस प्रकार किया है कि उनमें ताजगी भरी चमक आ गयी है। उपन्यास में आद्यन्त व्यंग्य की धार ने कथ्य को प्रभावी बनाया है। नये विषय एवं भाषा के नये तेवर के साथ प्रस्तुत यह उपन्यास देश एवं समाज की समस्याओं के आभ्यंतर की पहचान कराने में सफल है।

केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में उपनिदेशक होने के कारण उपन्यासकार एनजीओ की दुनिया के अनुभव से लैस है। अनुभव की प्रामाणिकता के कारण उपन्यास में वर्णित समस्याओं के आभ्यंतर की पहचान एवं पड़ताल करने में वह सफल हुआ है। उपन्यासकार ने मुख्यकथा के साथ आनुषांगिक प्रसंगों को कुशलता से समेटते हुए उपन्यास को अभिप्रेत परिणति तक पहुँचाया है। ‘नरक मसीहा’ में आदर्श को थामे हुए कम्युनिस्ट मोहनलाल ‘प्रचंड’ और गाँधीवादी गंगाधर आचार्य हैं तो दूसरी तरफ बहन भाग्यवती हैं जो जुगाड़ के द्वारा राष्ट्रीय बाल एवं महिला कल्याण परिषद् की अध्यक्ष बनकर दफ्तर के वातानुकूलित कक्ष एवं गाड़ी का सुख उठाते हुए गैर सरकारी संगठनों को दिये जाने वाले अनुदानों पर कमीशन पाने के यत्न में लगी रहती हैं। कैसी विडम्बना है कि गंगाधर आचार्य जून की लू से भरी दोपहरी में दिल्ली की सड़कें नापते हुए सर्वोदयी कल्याण सभा के लिए ग्रांट पाने के लिए परिषद् अध्यक्ष भाग्यवती के दफ्तर में घंटों प्रतीक्षा करते हैं। कॉमरेड सोहनाल ‘प्रचंड’ अपने सिद्धांतों एवं मूल्यों के साथ उम्र की ढलान पर सीली हुई कोठरी में खस्ताहाल तख्त पर उद्विग्न होकर पड़े रहते हैं। बहन भाग्यवती तो गंगाधर आचार्य के सामने ‘प्रचंड’ के कम्युनिस्ट चेले कबीर के द्वारा पैसे बटोरे जाने का किस्सा प्रेरक प्रसंग की तरह बखान करती हैं, ‘क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जनाधार सत्याग्रह यात्रा के नाम पर विदेशों से भी धन मिला है कबीर को..........इतना ही नहीं इसके सर्वहारा फांउडेशन को अमेरिका यूरोप से सिल्वर रूट फेस्टिबल, गोल्डन पाथ, हिमालय दर्शन, जल सागर जैसी अनाम परियोजनाओं के नाम पर लाखों डाॅलर यूरो के रूप में इतना अनुदान मिला है कि उन्हें रुपयों में तब्दील कर उनके पीछे लगे शून्यों को गिना जाए तो गिनते-गिनते आपको चक्कर आ जाए......।’ कबीर और सानिया ही नहीं, इस मामले में इंस्टीच्यूट फाॅर वीमेंस स्टडीज की डायरेक्टर डॉ. वंदना राव, अखिल भारतीय अबला मंच की अध्यक्ष सरला बजाज, डॉ. अम्बेदकर दलित महिला उद्धार सभा की सुमन भारती, राहत फाउंडेशन चलाने वाली अमीना खान एवं हारमनी फॉर गोल्डन फाउंडेशन की सीईओ टीना डालमिया सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इनके लिए संगठन कमाने- खाने एवं लूट-खसोट के साधन हैं। ‘इस देश की गरीबी, भूखमरी, कुपोषण, जैसी असाध्य बीमारियों को मिटाने के नामपर पौंड, डाॅलर और यूरो को हथियाया जाता है।’ शासन, गैर सरकारी संगठनों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गठजोड़ से लूटतंत्र दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। वैचारिक शून्यता के इस युग में सारी सम्पत्ति कुछ थोड़े से लोग हथिया लेना चाहते हैं। यहाँ गाँधी का कथन याद आता है, ‘प्रकृति हरेक मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए यथेष्ट सामग्री मुहैया कराती है पर थोड़े से लोगों के लाभ के लिए कदापि नहीं।’ क्षोभ होता है जब भाग्यवती गंगाधर आचार्य को नसीहत देती हैं, ‘ऐसा भी क्या अनुशासन जिसे आदमी जिन्दगी भर छाती से चिपकाए रखे।’

भगवानदास मोरवाल
अपने गहरे कथात्मक अन्वेषण , अनुसन्धान और अछूते विषयों को केंद्र में रख कर हिंदी कथा -साहित्य में अपनी अलग और देशज छवि बनाए व बचाए रखने वाले कथाकार का नाम है भगवानदास मोरवाल l अपने लेखन के माध्यम से लोक-मानस की अनुकृतियों को उकेरने वाले कथाकार भगवानदास मोरवाल की समकालीन हिंदी-कथा साहित्य में एक विशिष्ठ पहचान है l प्रचलित विमर्शों के बरअक्स मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों, सर्वसत्ता व लोकविरोधी तत्वों , तथा आम आदमी की प्रबल अदम्यता और जिजीविषा की पड़ताल करनेवाले इस कथाकार ने मेवात की पृष्ठभूमि पर आधारित काला पहाड़, बाबल तेरा देस में, कभी जरायमपेशा कही जानेवाली एक जाति-समूह को केंद्र में रख कर लिखा गया उपन्यास रेत , और हाल में भारत में पिछले कुछ दशकों में तेज़ी से पनपी एनजीओ संस्कृति की पड़ताल करता नरक मसीहा जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं l हरियाणा के काला पानी कहे जानेवाले मेवात में जन्मे इस कथाकार के लेखन की बड़ी विशेषता है गहरी तरल संलग्नता , सूक्ष्म संवेदनात्मक रचना-कौशल तथा गज़ब की किस्सागोई l सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ हाशिये की खुली चुनौती और प्रतिरोध दर्ज़ करने वाले , तथा कथा-साहित्य में अपनी एक विश्वसनीय जगह बना चुके इस कथाकार के बिना आज समकालीन कथा-साहित्य पर बात करना नामुमकिन है l
जन्म : 23 जनवरी , 1960 जिला मेवात हरियाणा के छोटे-से कस्बे नगीना के अत्यंत पिछड़े मजदूर परिवार में.
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी) एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा.
लगभग सात (1981 से 1987) वर्षों तक स्वतंत्र पत्रकारिता.
कृतियाँ -
उपन्यास:
काला पहाड़ (1999), बाबल तेरा देस में (2004), रेत (2008 एवं 2010 में उर्दू में अनुवाद ), नरक मसीहा (2014)
कहानी संग्रह :
सिला हुआ आदमी (1986), सूर्यास्त से पहले (1990), अस्सी मॉडल उर्फ़ सूबेदार (1994), सीढियाँ, माँ और उसका देवता (2008), लक्ष्मण-रेखा (2010), दस प्रतिनिधि कहानियां (2014)
कविता संग्रह:
दोपहरी चुप है (1990)
अन्य:
कलयुगी पंचायत (1997) बालोपयोगी एवं अन्य दो पुस्तकों 'हिंदी की श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ' तथा 'इक्कीस श्रेष्ठ कहानियां ' का संपादन .
सम्मान/पुरस्कार :
'श्रवण सहाय एवार्ड' (2012), 'जनकवि मेहरसिंह सम्मान' (2010) हरियाणा साहित्य अकादमी 'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' (2009) कथा (यूके) लन्दन 'शब्द साधक ज्यूरी सम्मान' (2009) 'कथाक्रम सम्मान ' लखनऊ (2006) 'साहित्यकार सम्मान' (2004) हिंदी अकादमी ,दिल्ली सरकार 'साहित्यिक कृति सम्मान' (1999) हिंदी अकादमी ,दिल्ली सरकार 'साहित्यिक कृति सम्मान' (1994) हिंदी अकादमी ,दिल्ली सरकार पूर्व राष्ट्रपति श्री आर.वेंकटरमण द्वारा मद्रास का 'राजाजी सम्मान' (1995) 'डा. अम्बेडकर सम्मान' (1985) भारतीय दलित साहित्य अकादमी पत्रकारिता के लिए 'प्रभादत्त मेमोरियल एवार्ड' (1985) तथा 'शोभना एवार्ड' (1984).
-जनवरी 2008 में ट्यूरिन (इटली) में आयोजित भारतीय लेखक सम्मलेन में शिरकत.
-पूर्व सदस्य , हिंदी अकादमी , दिल्ली सरकार एवं हरियाणा साहित्य अकादमी .
सम्प्रति: उप निदेशक ,केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ,भारत सरकार, नई दिल्ली
संपर्क : WZ-745G, दादा देव रोड, नज़दीक बाटा चौक , पालम ,नई दिल्ली-110045
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उपन्यास की अन्तर्वस्तु उपन्यासकार के अनुभव की दुनिया है। लेकिन कोई भी अनुभव रचनाकार के मानस की भट्ठी में पककर नये रंग-रूप में अभिव्यक्ति पाता है। एक सौन्दर्य शास्त्री का कथन है, ‘कला संसार की जटिलतम वस्तु है।’ ‘नरक मसीहा’ की कथावस्तु जहाँ कहीं ले जाती है मन वहीं गोते लगाने लगता है। खा-पीकर अघायी हुई महिलाएँ अपने व्यक्तिगत हित साधन के लिए आरक्षण बिल के समर्थन में रैली निकालना चाहती हैं। समाजविज्ञानी वंदनाजी इसके लिए आचार्य गंगाधर को जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठाना चाहती हैं। आचार्यजी उनकी मंशा भाँप लेते हैं। अतः कहते हैं कि ‘‘वंदना जी, गाँधीवादी होने का यह अर्थ नहीं है कि उसका जब चाहे, जहाँ चाहो छौंक लगा दो। जहाँ चाहो, जब चाहो पोस्टर की तरह चिपका दो और जब जी चाहे फाड़कर कूड़ेदान में डाल दो।..........बुरा मत मानना वंदना जी, थोड़ी कड़वी बात कह रहा हूँ, पर सच यह है कि आज हमने सत्याग्रह, अनशन, उपवास जैसे शब्दों के अर्थ और उनकी तार्किकता को हास्यास्पद ही नहीं बल्कि खत्म कर दिया है। बात-बात पर सत्याग्रह-अनशन, मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट या जंतर मंतर की ओर दौड़ पड़ना जैसे एक फैशन बन गया है।’ जंतर मंतर एवं इंडिया गेट पर आये दिन होने वाले धरनों एवं रैलियों की भीतरी सच्चाई को उपन्यासकार ने पूरी बेबाकी से उजागर किया है ‘ये कोई पुरातात्त्विक ऐतिहासिक स्थल न होकर, ऐसे सार्वजनिक संडास बन गये हैं कि देश में मरोड़ कहीं भी उठे, बस गांधी टोपी पहनकर दौड़ लो, इन संडासों की तरफ और अपना मीडिया, वह तो लौटा लिये जैसे इनकी धोने के लिए चैबीस घंटे तत्पर ही रहता है।’ दबाव डालकर भी परिषद अध्यक्ष भाग्यवती एवं उपसचिव मिसेज मौर्य आचार्य से ग्रंाट के पैसे का गलत समायोजन कागज पर नहीं करवा पाती हैं। सिविल सोसाइटी की असलियत को आचार्य जी समझ चुके हैं। वे भाग्यवती से स्पष्ट कहते हैं, ‘‘...........मैं आपसे यही निवेदन करने आया हूँ कि मुझे इस ठगों और धोखेबाजों के स्वर्ग से मुक्त करिए.........मुझे निहत्थों के विरुद्ध होने वाली यह हिंसा जो भले दिखाई न देती हो, अब बर्दाश्त नहीं होती।..........मैं सर्वोदयी कल्याण सभा की अपनी इस छोटी-सी मैली-कुचली दुनिया में खुश हूँ.........इतना आत्मबल तो बापू ने सिखा ही दिया है कि दीन-हीनों के बीच कैसे रहा जाता है।’’ जब बहन भाग्यवती से गंगाधर आचार्य को पता चलता है कि सरकार ने सानिया पटेल को गाँधी स्मृति एवं दर्शन का डायरेक्टर नियुक्त किया है, तो उनके मुँह से सानिया के लिए बधाई की जगह ‘हे राम!’ निकलता है। ‘उन्होंने धीरे से नजर घुमाकर पूरे चैम्बर पर दृष्टिडाली तो लगा जैसे बापू की हत्या के समय उछटे खून के सूखे छींटों से पूरी दीवारें सनी हुई हैं। चैम्बर में दाखिल होते हुए जो ठहाके उन्होंने सुने थे, उन्हें अब लग रहा है जैसे ये ठहाके बापू के झूठे वारिसों द्वारा उनकी हत्या की खुशी में मनाए जाने वाले जश्न के ठहाके हैं।’ गांधीजी ने अपने एक अंग्रेज मित्र को पत्र में लिखा था, ‘मेरी समस्त शक्ति और सामथ्र्य की मेरी क्षमता से बढ़कर परीक्षा हो रही है लेकिन चारों तरफ, अंधकारमय वातावरण के वावजूद मुझमें निराशा का भाव नहीं है। एक कल्याणकारी सत्ता के अस्तित्व में मेरा विश्वास है जो सभी मानवीय योजनाओं को तहस-नहस और छिन्न-भिन्न कर देती है।’ (गांधी और माक्र्स , डॉ. मदन गोपाल, पृ.-30)।यही विश्वास संभवतः गंगाधर आचार्य का संबल है। वे लू के तेज थपेड़ों के बीच राजघाट पहुँचते हैं। ‘जबतक गंगाधर आचार्य बापू के चरणों में बैठे रहे और समाधि स्थल के मुख्य द्वार से हरहराकर आते लू के थपेड़े शरीर से टकराते रहे तबतक लगता रहा जैसे ये लू के थपेड़े नहीं, बर्फ की घाटी से गुजरकर आते हवा के ठंडे झोंके हैं। पश्चिम में तन कर खड़े आग उगलते सूरज की प्रचंड धूपभी मानो चंदन का लेप-सी लग रही है। लग रहा है जैसे पूरी देह किसी भीजी हुई चादर में लिपटी हुई है।’ अपनी सारी आत्म स्वीकृतियों को बापू के चरणों में अर्पित कर गंगाधर आचार्य समाधि स्थल से गाँधी शांति प्रतिष्ठान की ओर ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ परायी जाणे रे’ गुनगुनाते हुए पैदल चल पड़े।

यहाँ फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला-आँचल’ के गांधीवादी वामनदास की याद बरबस आती है। गांधीजी की मृत्यु के बाद के प्रसंग में हम देखते हैं कि देश में सत्ता के दलालों, कालाबाजारियों, तस्करों के होठों पर मुस्कुराहट है। इनके प्रतिरोध में वामनदास आपने जीवन को ही दाँव पर लगा देते हैं। गांधीवादी वामनदास तस्करी की कपड़े, चीनी, एवं सीमेंट से लदी हुई पचास बैलगाड़ियों के सामने चैरपैरा (चोरराह) में रुकावट के रूप में अडिग खड़े हैं। उन्हें कोई वहाँ से डिगा नहीं पाता। कुछ देर पहले जो मुर्गे की हड्डी करकरा रहे थे, वे अब बावनदास के ऊपर बैलगाड़ियाँ चलवाकर उनकी हड्डी करकरा देते हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच नाहर नदी है। बावनदास की चिथड़ी लाश को उनकी झोली एवं खंजरी सहित पाकिस्तान क्षेत्र में फेंक दी जाती है। अगली सुबह पाकिस्तानी पुलिस बावनदास की लाश को नाहर नदी में डाल देती है और उनकी झोली इस पार यानी भारत क्षेत्र के एक दरख्त की डाली में लटका देती है। ‘बावन ने दो आजाद देशों की, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बस दो डेग में ही नाप लिया।’ जिस पेड़ की डाली से बावनदास की झोली का फीता झूल रहा है अब वह दुखियारों के लिए चेथरिया पीर है। ‘मैला आँचल’ के बावनदास अपने को शहीद कर देते हैं और ‘नरक मसीहा’ के गंगाधर आचार्य स्वार्थबहुल छवियों से अपना पीछा छुड़ाकर गाँधी के समाधिस्थल पर ठौर पाते हैं। गांधीवाद का ठौर कहाँ है? गाँधीवाद के बिना हमारा ठौर कहाँ है? भगवानदास मोरवाल ने कई अनुत्तरित सवाल इस उपन्यास के माध्यम से खड़े किये हैं, जो देर तक और दूर तक पाठकों का पीछा करते हैं।

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