भूख और रोटी बीच ‘भरम’ का चांद -- प्रेम भारद्वाज

अपनी सोच को विस्तार देने की गति को निरंतर बढ़ाना और उनसे जन्मे विचारों को शब्दों में परिवर्तित करने की कला को लगातार निखारना और समन्वय रखना मुश्किल कार्य है; किन्तु प्रेम भरद्वाज जी  'पाखी' में अपनी सम्पादकीय के ज़रिये पाठकों को इस महा-मुश्किल काम को करके दिखा रहे हैं.... 

भरत तिवारी

प्रेम भारद्वाज भूख और रोटी बीच ‘भरम’ का चांद

उसकी आंखें नम। 

उस नमी में 

इस दौर की सबसे उदास कविता। 

दर्द, उम्मीद, इंतजार और प्यार 

तैरने लगा। 

जब आंखों में प्यार तैरता है तो 

आदमी डूबता है, 

‘एक आग का दरिया है 

और 

डूबकर 

जाना 

है।’ 

.............

बाइस्कोप में वसंत

प्रेम भारद्वाज

...............

मैं अपनी आंखें बंद करती हूं सारी दुनिया निष्प्राण हो जाती है
मैं अपनी पलकें खोलती हूं सब कुछ फिर जन्म लेता है
मैं सोचती हूं मैंने तुम्हें अपने चित्त के अंदर निर्मित कर लिया है

तारे नीले और लाल में नर्तन करते जाते हैं
और स्वेच्छाचारी काला रंग दुलकियां मारता है
मैं अपनी आंखें बंद करती हूं सारी दुनिया निष्प्राण हो जाती है

मैं सपना देखती हूं तुम मुझे सम्मोहित कर शैय्या तक ले गए
और चित्त-भ्रांत हो मुझे गाया, विक्षिप्त हो मेरा चुंबन किया

ईश्वर आकाश से लुढ़काता है और नर्क की अग्नि धूमिल है
देवदूत और शैतान के बंदे बहिर्गमन करते हैं
मैं अपनी आंखें बंद करती हूं सारी दुनिया निष्प्राण हो जाती है

मैं कल्पना करती हूं तुमने जैसा कहा अपनी राह पर लौट आओगे
लेकिन मैं वृद्धा हो चुकी हूं और मैं तुम्हारा नाम भूल गई हूं

इसके बजाय मैंने एक गर्जन-पक्षी को प्रेम किया होता
कम से कम वसंत आने पर वे फिर से कोलाहल करते
मैं अपनी आंखें बंद करती हूं सारी दुनिया निष्प्राण हो जाती है

[ पागल लड़की का प्रेम-गीत / सिल्विया प्लाथ अनुवाद: आग्नेय ]

***

अब बाइस्कोप नहीं दिखाई देते। फिल्में दिखती हैं। आंगन नहीं, बालकनी होती है। प्रेम के महाकाव्यों और कहानियों के दिन लद गए, लप्रेक का युग बताया जा रहा है।

प्रेम की उम्र कम हो गई है। दवाओं की तरह इसकी भी एक्सपायरी डेट तय हो गई है। वह साल दो साल में दम तोड़ देता है। स्वार्थ के दौर में टिकाऊपन की गारंटी खोजना मूर्खता है।
...और अब इसके बाद... प्रेम... म... म से मोहब्बत, और म से मृत्यु भी। नगर का महानगर में तब्दील हो जाना मनुष्य के ‘मर’ जाने का मामला भी है। अक्सर छोटा होना, नहीं होने सरीखा होता है। फिर भी ‘लघु’ को महान साबित किया जा रहा है। बराक ओबामा के भारत दौरे के बावजूद। आंगन में चींटियों का रेंगना कोई खबर नहीं, हाथी का दाखिल होना बड़ी बात है। जिस वक्त विजय चौक में राष्ट्रपति परेड की सलामी ले रहे थे, उस वक्त विदर्भ में पांच किसानों ने आत्महत्या की। उसी दिन के अखबार में कॉमन मैन के रचनाकार आरके लक्ष्मण के निधन की खबर जैसे आम आदमी की आवाज की मौत थी। खैर... मॉल, सिनेमा, मल्टीप्लेक्स, चैनल के जमाने में बाइस्कोप के ‘होल’ से इस गोले के दृश्यों को देखने की इच्छा मन में उछाल मारने लग जाए तो क्या कीजिए? बाइस्कोप में वसंत को देखने से पहले कुछ ऐसे तीरनुमा सवाल जिनमें जिस्मो-जान बिंधे हुए हैं। तीर भी कैसे-कैसे? 

इस कायनात में पहले-पहल किसने, किसको और किन हालात में प्रेम किया होगा? प्रेम की प्रथम अनुभूति करने वाला दिल किसका रहा होगा। जब भाषा नहीं थी, तब उसने कैसे व्यक्त किया होगा खुद को? प्रथम मिलन, प्रथम जुदाई... प्रेम की पीड़ा में छलकने वाले पहले आंसू किसकी आंखों से टपके होंगे। प्रेम की पीड़ा से उपजे आंसू की प्रथम बूंद, क्या यह अच्छा होता कि उस पहली बूंद में इस सृष्टि का जन्म हुआ होता।

जब भाषा नहीं थी, शब्द भी सभ्यता के गर्भ में थे। जब भावों को अभिव्यक्त करने के वास्ते कोई चेहरा भी आदमी के पास नहीं था। वह गौरैया था, कबूतर था, सांप था, तोता-मैना था... और हम यह भी मान लेते हैं कि देह भी नहीं था। प्रजनन-क्रिया प्रेम तो नहीं ही मानी जा सकती। तब कैसे महसूस किया जाता होगा प्रेम को? इन पहेलीनुमा पकाऊ सवालों का आप जवाब ढूंढ़िए... कल्पना की उड़ान भरते हुए ई गोला से ऊ गोला की सैर करिए। तब तक हम बाइस्कोप का खेला देख लेते हैं। लेकिन जवाब जरूर ढूंढ़कर रखिएगा। अंत में हम आपसे पूछेंगे जरूर। ठीक है मिलते हैं एक बाइस्कोप ब्रेक के बाद...। 

प्रेम करते हुए अगर कोई खौफ में रहता है तो इसका मतलब है हम सब एक ऐसे हिंसक समय में जी रहे हैं जहां प्रेम की मनाही मगर हिंसा, छल, झूठ, फरेब की खुली छूट है।

‘दुश्मन’ (पुरानी) की मुमताज का बाइस्कोप नहीं है यह, ‘जो पैसा फेंको, तमाशा देखो’ गीत के साथ शुरू होता था। इसमें आगरा का ताजमहल, दिल्ली का कुतुबमीनार भी नहीं है— फिर क्या है, यह तो देखने के बाद ही पता लग पाएगा। बाइस्कोप वाला कोई परम ज्ञानी या फकीर मालूम होता है। सन से सफेद लंबे-लंबे बेतरतीब बालों वाले बूढ़े ने काला लिबास पहन रखा है। बाइस्कोप के बाहर लिखा है, ‘बाइस्कोप में वसंत... वसंत में पतझड़।’ बाइस्कोप वाले बूढे़ की उम्र ऐसी नहीं कि वह सुरीली आवाज में गा सके। लिहाजा कुछ बड़बड़ा रहा है, जिसे हम गीत ही मानेंगे...? वह बोल रहा है यह बाइस्कोप है, लेकिन नहीं है। इसके भीतर जो आप देखेंगे, वह इस जमाने का सच है, मगर नहीं भी है। सब आंखों का भरम है। दुनिया उतनी ही नहीं है जितनी हमें दिखाई देती है। वैसी नहीं है, जैसी हम समझते हैं? हमारा ‘होना’ हमारे नहीं होने के खिलाफ एक आंदोलन है। प्रेम में होना मृत्यु है। नहीं होना जिदंगी। आप जिसे जिंदगी कहते हैं, वहां प्रेम नहीं। जैसे जहां रोशनी होती है, वहां अंधेरा देखा है कभी आपने? इस बाइस्कोप को देखने का कोई टिकट नहीं है, पैसा नहीं। बिलकुल फोकट का शो है। बस एक मामूली-सी शर्त है, अब तक प्रेम के बारे में जो भी पढ़ा है, सुना है, उन तमाम सुनहरे किस्सों को समंदर में फेंक दीजिए... मीर, गालिब, फैज, फिराक की तमाम शाइरी को भूल जाइए... उन फिल्मी गीतों को भी मत याद कीजिए, ‘हम इंतजार करेंगे’, ‘आप यूं फासलों से गुजरते रहे’ आदि-इत्यादि। आपको मुझ पर बहुत गुस्सा आ रहा होगा... मुझे कोई दीवाना, सिरफिरा समझ रहे हैं न? अगर सजा-पाप का प्रावधान न हो तो अभी और इसी वक्त मेरी हत्या कर देंगे न? ऐसा क्यों कह रहा हूं, क्यों मैं इस नतीजे तक पहुंचा हूं, उसे अगर आप सचमुच जानना चाहते हैं तो प्लीज आइए और देखिए बाइस्कोप में वसंत।

दृश्य एक उर्फ परी का प्रेम : यह एक पुरानी लोककथा का लेटेस्ट एडिशन है। पीपल के पेड़ की जगह गमलों में खिले पौधें वाला फ्लैट। गांव से बाहर निर्जनता की जगह महानगर की भीड़ और शोर। लेकिन परी अब भी आती है। उसने अपने प्रेमी युवक को बुत बना दिया है। रात को वह ध्वनि-तरंगों पर सवार होकर आती है। बुत के कान में एक फूंक मारती है। बुत युवक बन जाता है। दोनों प्रेम में होते हैं। सुबह सूरज निकलने से पहले परी को लौटना होता है, अपने इंद्रलोक में। वह लौटने से पहले युवक के कान में कुछ फूंकती हैं, वह युवक से फिर बुत बन जाता है। यह सिलसिला सालों से चल रहा है परी है, युवक है, प्रेम है, प्रेम का बुत हो जाना है। क्या यही प्रेम है? 

दृश्य दो यानी मोहब्बत जिंदाबाद : यह एक दूसरा दरख्त है। इसमें दो लोगों की लाशें लटकी हुई हैं... इनको इनके जन्मदाताओं ने ही हत्या कर पेड़ पर लटका दिया है। ये प्रेमी युगल । इनका अपराध प्रेम था। अगले दिन बेशक इन लाशों को पेड़ से उतारकर जला दिया गया, लेकिन प्रेमी युगल पेड़ों से लटके रात भर बातें करते रहे। वे प्रेम को जीते हैं। प्रेम में मर जाना ही उसे जीना होता है। डर जाना चलती-फिरती लाश में तब्दील हो जाना। इन दोनों की बातें सुनकर पेड़ की आंखें नम हो जाती हैं। हस्तिनापुर के आस-पास ऐसे पेड़ों पर लटकी प्रेमी युगल की लाशें। रातों के सुनसान में उनकी सरगोशियां बढ़ती जा रही हैं। आलम यह है कि अब कोई भी पेड़, पेड़ होने से खौफ खाता है कि जिसके साये में कल तक प्रेमी युगल हंसी-मजाक करते हुए आलिंगनबद्ध थे, उस पर उनकी लाशें न लटका दी जाएं।

दृश्य तीन मतलब उसने कहा था : उनकी मुलाकात दो मौतों के बीच हुई। श्मशान की उठती चिताओं में प्रेम जन्मा। दर्द और आंसुओं का खारा पानी पाकर पल्लवित-पुष्पित हुआ। युवती ने एक दिन कहा, ‘जाओ, मैं अब तुमसे कभी नहीं मिलूंगी...’ युवक इतना मायूस हुआ कि पागल हो गया। उसी रात घर से निकल गया। दरगाह गया। मंदिर-मस्जिद। श्मशान में फैली राख में... राख हुए सपनों पर उसका नाम लिखा चांद... चांद धरती पर उतरने लगा... राख हवा में फैलने लगी।

दृश्य चार उर्फ महादेव और अल्लाह के बीच : वे हिंदू हैं। वे मुसलमान हैं। वे भारत हैं। पाकिस्तान हैं। नफरत, हिंसा, शमशीर, जिगर हैं। सब कुछ खून-खून और खून है। दंगे हैं। चारों तरफ बिछी लाशें हैं। इनको बेरहमी से रौंदकर सिंहासन की ओर बढ़ता सियासी सफेद कपड़ों में लिपटा मंद-मंद मुस्कराता ‘राजा’ है। इस मुल्क में दंगों और मजहबी हिंसा के उठते धुएं में बशीर बद्र हैं, विवादित ढांचा है। कभी भागलपुर, कभी हाशिमपुरा, कभी मुजफ्फरनगर है। और अब ‘लव जेहाद’ है, ‘घर वापसी है। विभाजन के वक्त लगी यह आग आज तक नहीं बुझी किसी ने इसे बुझाने की कोशिश नहीं की? एक आग है, जिस पर खास लोग लगातार रोटियां सेंक रहे हैं...

दृश्य पांच यानी धुएं का आना - एक कोलाज : विदर्भ। बुंदेलखंड। बस्तर। कालाहांडी। पूर्वोत्तर। कश्मीर। दलित बस्तियां। बेरोजगारी की भीड़। दौड़। गति। पलायन। भूख और रोटी बीच ‘भरम’ का चांद। इन सबके बीच प्रेम है, मगर जिसे प्रेम कहा जाता है, वह भाव से ज्यादा एय्याशी है।

दृश्य छह मतलब खाल के खरीदार : कोठे पर काया। नाम माया, रानी, सन्नो, कुछ भी...। मामला दाम और चाम का है। चाम को देखकर मिलता है दाम। चाम के ढीला होते, जिंदगी ढल जाती है। जिंदगी की छांव। इनकी सूखी पसलियों के भीतर दिल भी धड़कता है। जिसकी आवाज उसी दिन गुम हो गई जिस दिन उन्होंने इस गली की ओर रुख किया। यहां भूख है। पेट की और पेट के नीचे की। पेट की भूख पेट के नीचे से होकर गुजरती है। दोनों की अपनी भूख है। इन दोनों भूखों से दूर यानी पेट से बित्ता भर ऊपर पसलियों के बीच धड़कता दिल छलनी है। लेकिन यहां किसी आंखों में आंसू का कोई कतरा नहीं। जिंदगी के इस कब्रिस्तान में इच्छाएं दफन हैं। सपने जमींदोज। अतीत तीर। वर्तमान सलीब पर। भविष्य शमशीर। अलग-अलग कब्रों में लेटने को अभिशप्त। खाल और उनके खरीदारों के बीच सारंगी का संगीत भी नहीं। अब सिर्फ जिस्म है, जान है, जहालत है। तीर और जिगर का रिश्ता। इन सबके बीच ढूंढ़िए प्रेम को और मिल जाए तो दिल्ली के इंडिया गेट पर पिकनिक मना लें या लखनऊ में जाकर खोजिए उमराव जान की मजार। सुनिए ‘पाकीजा’ फिल्म का गीत और गुनगुनाइए, ‘प्यार करना दिले-बेताब बुरा होता है/ सुनते आए हैं कि ये ख्वाब बुरा होता है/ फिर भी ये जिद कि जख्मे-जिगर देखेंगे/ तीरे-नजर देखेंगे।’

आप इंसान से पत्थर कब हो गए क्या यह पता ही नहीं चल पाया आपको।

...बाइस्कोप का खेल खत्म हो चुका है। बूढ़ा उदास। उसकी आंखें नम। उस नमी में इस दौर की सबसे उदास कविता। दर्द, उम्मीद, इंतजार और प्यार तैरने लगा। जब आंखों में प्यार तैरता है तो आदमी डूबता है, ‘एक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।’ जरा बाइस्कोप के बाहर वसंत माने प्रेम को खोजा जाए। यह जानते हुए भी कि इसे खोजते ही हम इसे खो देते हैं। मांगते ही भिखारी बन जाते हैं। हम सबसे ज्यादा खुद के साथ होते हैं, और सबसे दूर भी। इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच तनी रस्सी पर ही जिंदगी थिरकती है।  हम सबसे ज्यादा खुद से प्यार करते हैं और फिर किसी को भी प्यार करने से महरूम हो जाते हैं। लेकिन नो बहस प्लीज... प्यार में पहले अविश्वास के साथ ही उसका गर्भपात हो जाता है। गर्भपात की पीड़ा स्त्री जानती है, उसके साथ जीने, सोने और रहने वाला पुरुष नहीं। प्यार सबसे ज्यादा नाजुक और ताकतवर भी है। वह एक साथ आग और पानी है। जन्म और मृत्यु। विध्वंस और सृजन। सुबह और शाम। सूरज-चांद साथ-साथ। अंत ही प्रारंभ।

हम सब कुछ खरीद सकते है मगर ‘प्रेम’ अफोर्ड नहीं कर सकते। प्रेम करते हुए अगर कोई खौफ में रहता है तो इसका मतलब है हम सब एक ऐसे हिंसक समय में जी रहे हैं जहां प्रेम की मनाही मगर हिंसा, छल, झूठ, फरेब की खुली छूट है। जिस समाज में प्रेम करती स्त्राी को ‘वेश्या’ कहकर गाली दी जाती है और ‘वेश्याओं’ के बारे में कहा जाता है कि उनका प्रेम धेखा है। ऐसे समाज को अगर आप अब तक बचाए हुए हैं तो आप सबसे बड़े अपराधी हैं और प्रेम के दुश्मन। आप जो सिर्फ जीने के लिए जीते हैं, मजे के लिए प्रेम की आड़ लेते हैं, मरने के डर से दूर भागते हैं। आप जो शालीन, जहीन, रसूखदार हैं और पवित्रता का करते हैं ढोंग। आप जो हैं, वह नहीं हैं। और जब आप नहीं हैं तो आप किसी भी ओहदे का लबादा क्यों न पहन लें आप अपनी नजरों में गिर जाते हैं। पहाड़ से गिरने से ज्यादा चोट खुद की नजरों में गिरने पर लगती है। लेकिन आप इंसान से पत्थर कब हो गए क्या यह पता ही नहीं चल पाया आपको।

प्रेम की उम्र कम हो गई है। दवाओं की तरह इसकी भी एक्सपायरी डेट तय हो गई है। वह साल दो साल में दम तोड़ देता है। स्वार्थ के दौर में टिकाऊपन की गारंटी खोजना मूर्खता है। टिकाऊ कुछ भी नहीं है। लंबा सिर्फ शब्द है और शब्दकोश में है। जीवन के बढ़ी हुई औसत उम्र से हम खुश हो सकते हैं मगर उम्र में खुशियों के पल बहुत छोटे हैं। प्रेम छोटा होते-होते बिला गया। करोड़ों लोग बगैर प्रेम के जी रहे हैं। जैसे बिना पानी की नदी। नदियों से पानी सूखा है। समाज से संबंध। जंगल से दरख्त। मुंडेर से गौरैया। जो प्राणतत्व था वह पलायन पथ पर है। रिश्तों की अकाल मृत्यु के इस दौर में अगर मैं ‘प्रेम’ की उम्मीद करता हूं, वह भी शुद्ध देशी घी की तर्ज पर सच्चे ‘प्रेम’ की तो आप मुझ पर तरस खाकर किसी भी विशेषण के खूंटे पर बांध सकते हैं। लेकिन फिर भी मैं प्रेम को सांस की तरह जरूरी मानता हूं। यह जानते हुए भी कि यह एक असंभव-सी ‘कलिगुलाई इच्छा’ है। मगर है तो है। और हां, सवाल का जवाब अपने मन में रखिए... सच तो यह है कि प्रेम में प्रश्न उसकी सुंदरता को कम कर देते हैं। आप सही समझ रहे हैं, मैंने अपनी बात अचानक खत्म कर दी। कई बार चीजें अचानक खत्म हो जाती हैं, जिंदगी की तरह... किन दो सांसों के बीच का अंतराल अनंत हो जाएगा। यह न आप जानते हैं, न हम। यही अचानक है। और अचानक से खतरनाक और खूबसूरत इस सृष्टि में और कुछ भी नहीं।
***

'पाखी' फरवरी-मार्च-2015 ( (संयुक्तांक) में प्रकाशित 

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