मुईन अहसान 'जज़्बी'
~ असग़र वजाहत की यादें
मुईन अहसान 'जज़्बी' उर्दू के मशहूर आधुनिक शायरों में थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुझे उनके साथ वक़्त गुजरने का काफी मौक़ा मिला था. एक दिन बता रहे थे कि नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकते मुंबई पहुंचे. बहुत दिन हो गए थे नौकरी या काम कहीं नहीं मिल रहा था . यहाँ तक कि पैसे ख़त्म हो गए. नौबत भूखे रहने तक की आ गयी. एक रोज़ दो दिन के भूखे चौपाटी पर समंदर के किनारे किसी बेंच पर लेटे थे कि अचानक ख्याल आया की अगर मैं भूख से मर गया तो... उसी वक़्त एक शेर हुआ.
इलाही मौत न आये तबाह हाली में
ये नाम होगा ग़मे रोज़गार सह न सका
उसी दौरान ‘जज़्बी’ साहब की एक ग़ज़ल फिल्म ‘ज़िद्दी’ (१९४८) में ले ली गयी थी. इस फिल्म के निर्देशक, विख्यात लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहिद लतीफ़ थे. यह ग़ज़ल, फिल्म में गाया गया किशोर कुमार का पहला गाना थी. परदे पर ग़ज़ल को देवानंद ने गाया था. हीरो के तौर पर यह देवानंद का पहला ‘ब्रेक’ था. फिल्म इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित थी. ग़ज़ल है-
मरने की दुआएं क्या मांगूं जीने की तमन्ना कौन करे
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल का तमन्ना किसको थी
अब ऐसी शिकस्ता किश्ती से साहिल की तमन्ना कौन करे
जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई थी उस आग को ठंडा कौन करे
दुनिया ने हमें छोड़ा ‘जज़्बी’ हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को
दुनिया को समझ कर बैठे हैं अब दुनिया दुनिया कौन करे
आप लोगों ने एक शेर बहुत सुना होगा इसे शायद पार्लियामेंट में भी कई बार ‘कोट’ किया गया है -
ऐ मौजे बाला उनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हलके से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफां का नज़ारा करते हैं
ये ‘जज़्बी’ साहब का ही शेर है. जिस तरह ‘मजाज़’ को लोग उनकी नज़्म ‘आवारा’ के नाम से पहचानते थे उसी तरह ‘जज़्बी’ साहब का ‘ट्रेड मार्क’ उनकी नज़्म ‘मौत’ थी .
मौत
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूँ तो चलूँ
अपने ग़मखाने में एक धूम मचा लूँ तो चलूँ
और इक जाम-ए-मय-ए- तल्ख़ चढ़ा लूँ तो चलूँ
अभी चलता हूँ ज़रा खुद को संभालूं तो चलूँ
जाने कब पी थी अभी तक है मय-ए- ग़म का खुमार
धुंधला - धुंधला नज़र आता है जहाँन - ए - बेदार
आंधियां चलती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार
आँख तो मल लूँ ज़रा होश में आ लूँ तो चलूँ
वो मेरा सहर वो एजाज़ कहाँ है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहाँ है लाना
मेरा टूटा हुआ वो साज़ कहाँ है लाना
इक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूँ तो चलूँ
मै थका हारा था इतने में जो आये बादल
एक दीवाने ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ ! वो रंगीन, पुरइसरार ख्यालों के महल
ऐसे दो – चार महल और बना लूँ तो चलूँ
मुझसे कुछ कहने को आई है मेरे दिल की जलन
क्या किया मैंने ज़माने में नहीं जिसका चलन
आंसुओं तुमने तो बेकार भिगोया दामन
अपने भीगे हुए दामन को सुखा लूँ तो चलूँ
मेरे आँखों में अभी तक है मुहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंठों में अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफत का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से अभी खुद को निकलूं तो चलूँ.
कभी ये नज़्म बहुत सुनी जाती थी. ज़माना गुज़र गया. एक बार शायद १९६४-६५ के आस-पास ‘जज़्बी’ साहब ने ये नज़्म, बहुत इसरार होने पर, बीस-पच्चीस साल के बाद अलीगढ की एक महफ़िल में सुनाई थी. सुनने वालों को पुराना ज़माना, पुराने लोग, पुराने रिश्ते, पुरानी बातें इस क़दर याद आयी थीं कि औरतें साड़ी के पल्लू से आँखों के किनारे पोछने लगी थीं .
असग़र वजाहत
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