डॉ. नामवर सिंह
अपना सिर पकड़ कर बैठ गए और बोले कि आप लोग किसी शरीफ आदमी के यहां जाने लायक नहीं हैं। आप लोग क्षमायाचना कीजिए। और क्षमायाचना भी मौखिक नहीं, लिखित, तब आगे का कार्यक्रम शुरू होगा ~ डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
डॉ. नामवर सिंह के प्रशंसक भी बहुत हैं और आलोचक भी बहुत। ज्यादा तादाद उन लोगों की है, जो प्रशंसक और आलोचक एक साथ हैं। यह बात नामवर सिंह के हिंदी साहित्य में महत्व को जताती है कि उनके बिना समकालीन हिंदी परिदृश्य की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राचीन के साथ-साथ आधुनिक साहित्य में भी उनकी गहरी पैठ है और इसी तरह वे साहित्यिक मर्यादाओं, परम्पराओं को नए सृजन की ऊर्जा के साथ सहज जोड़ सकते हैं। आज 28 जुलाई को नामवर सिंह 88 वर्ष के हो रहे हैं। इस अवसर पर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का आत्मीय आलेख -
जिनके घर पर नामवर जी कभी कुछ दिनों के लिए रुके हों, वे बता सकते हैं कि वे कितने संकोची और सहनशील अतिथि हैं। मेरे यहां कुछ दिनों के लिए वे थे। तब स्नानागार मकान-मालिक के साथ ही था। मैं किराएदार था। हमें कभी पता ही नहीं चला कि कब नामवर जी स्नानादि से निवृत्त होते थे और काम के लिए घर से निकलने के लिए तैयार हो जाते थे। याद ही नहीं पड़ता कि कभी हमने भोजन या जलपान के लिए उनकी तरफ अलग से कोई ध्यान दिया हो। मैं जानता था कि वे रात को सोने के पहले दूध पीते हैं। जब मैंने उनसे इसकी व्यवस्था करने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने जो उत्तर दिया, वह मेरे मन पर अंकित है। कहा- बाबू विश्वनाथ प्रसाद अब नींद ही मेरी टॉनिक है। उस समय वे बेकार थे और मैं दिल्ली में सपरिवार तीन सौ रुपये महीने की नौकरी पर था। मुझे याद है कि उन्होंने कई बार पान खाना छोड़ दिया था। खैनी खाते थे। जहां तक मेरी जानकारी है, खैनी उन्होंने अभी भी नहीं छोड़ी है। पता नहीं कितने लोगों को ध्यान होगा कि खैनी का हिंदी संस्कृति में विशेष महत्त्व है। कहते हैं कि निराला को खैनी में वेदांत की गंध आती थी।
हिंदी साहित्य में नामवर सिंह का योगदान क्या है- यह सर्वविदित है और यहां इस अवसर पर इसकी चर्चा करना आवश्यक नहीं है। वे अध्यापक, आलोचक, वक्ता तीनों रूपों में दशकों से हिंदी के शीर्ष स्थान पर विराजमान हैं। उनके शिष्यों, पाठकों और श्रोताओं की संख्या बहुत बड़ी है और यह संख्या केवल हिंदी भाषी क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। देश का शायद ही कोई नगर, महानगर, यहां तक कस्बा भी हो, जहां उनकी वाणी न गूंजी हो। डॉ. नामवर सिंह को सभा में हूट होते हुए किसी ने नहीं देखा होगा। वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे हैं। लगभग एक दशक तक वे इस संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। मेरी समझ से वे हिंदी साहित्य के बहुत बड़े लिटरेरी एक्टिविस्ट भी हैं। उनके आलोचक और वक्ता पक्ष ने उनके एक्टिविस्ट पक्ष को लक्षित होने से रोके रखा है। उन्होंने अपने लेखन और भाषणों से अनेकानेक लेखक और हिंदी प्रेमी पैदा किए हैं। उनका साहित्यिक योगदान इतना व्यापक और बहुमूल्य है कि आगे चल कर इसका मूल्यांकन करने वाला विचारक चकित रह जाएगा।
यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे उनका शिष्यत्व और साहचर्य प्राप्त हुआ। सबसे बड़ी बात कि मुझे उनकी आत्मीयता प्राप्त हुई और उसी के आधार पर मैं जानता हूं कि नामवर जी मूलत: सहज किसानपुत्र हैं। वे अपनी पोशाक, रहन-सहन, खानपान में कोई बदलाव कर ही नहीं सकते। उनकी वाणी में और लेखन में भी पुरबियापन साफ झलकता है और सच पूछिए तो यह पुरबियापन उनकी आधारभूमि और सबसे बड़ी शक्ति है। वे मित्रवत्सल और शिष्यवत्सल भी हैं। यद्यपि इसका डंका नहीं बजाते। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने मेरी बहुत सहायता की। एमए प्रीवियस की परीक्षा देते समय करीब पच्चीस अंकों का एक प्रश्न अनुत्तरित रह गया। मैंने घबराकर परीक्षा छोड़ दी और चारों तरफ प्रचारित कर दिया कि मेरी मां चली गई हैं, इसलिए मैं परीक्षा छोड़ कर घर जा रहा हूं। नामवर जी ने मुझसे कहा कि आप प्रतिभा के बल पर परीक्षा देते हैं, लेकिन परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। उन्होंने मुझे पढ़ने का तरीका बताया। क्लास में जो पढ़ाया जाए, उसे घर आकर उसी दिन या यथासंभव शीघ्र ही दोहराकर पक्का कर लीजिए, फिर वह जनमभर के लिए याद हो जाएगा।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल से भाषा सीखिए। जो प्रयोग सीखिए, उसे खुद अपने लिखने में प्रयोग करेंगे तो वह आपका हो जाएगा। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि मैंने पढ़ा कि हिंदी अनर्घ आराधक, तो मैं भी लिखने में उसका प्रयोग करने लगा। जब वे आलोचना के संपादक हुए तो उन्होंने समझाया कि पेज के दोनों ओर नहीं लिखना चाहिए और हर पृष्ठ पर पृष्ठ संख्या डालना चाहिए। उन्होंने ऐसी कई बातें सिखाईं, जो गैर साहित्यिक हैं, लेकिन बड़े काम की हैं। जैसे पान में तंबाकू ज्यादा लग जाए तो तीन-चार इलायची मुंह में डाल लीजिए। इंटरव्यू देने जाना हो तो नाक के बाल काट लीजिए। नाक के बाल बाहर नहीं दिखने चाहिए। खाना जल्दी-जल्दी खाने से गैस बनती है। विरोधी से कभी बातचीत बंद नहीं करनी चाहिए यानी यार से छेड़ चली जाए असद। बातचीत करने में मारपीट की नौबत नहीं आने देनी चाहिए।
नामवर जी की एक खूबी है कि वे सुरक्षित रहने का गुर जानते हैं। यह गुर मैंने उनसे सीखा है। मैंने उनको विवाद में उत्तेजित होते या संतुलन खोते नहीं देखा। एक बार होली के अवसर पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पर उन्होंने रंग फेंक दिया, जिससे सर्वेश्वर जी बहुत नाराज हो गए। सर्वेश्वर लंबे-तगड़े थे। नामवर जी उन्हें थामे रहे और प्रार्थना भरे स्वर में कहते रहे कि सर्वेश्वर जी, नाराज क्यों होते हैं, मैंने आप पर रंग ही तो डाला है। थोड़ी देर में जब सब शांत हो गया तो दर्शक, जिनमें रमेश गौड़, आग्नेय, अजित कुमार, निर्मला जैन और मैं भी था, सब नामवर जी की वाणी के संयम व शारीरिक क्षमता से प्रभावित थे।
एक प्रसंग और याद आ रहा है। मॉडल टाउन के दिनों की बात है। उन दिनों वहां साहित्यकारों का बहुत बड़ा जमावड़ा हुआ करता था। कोई उल्लेखनीय हो चुका था तो कोई उल्लेखनीय होने के लिए प्रयासरत था। एक दिन दो नए साहित्यकार एक सुपरिचित साहित्यकार के यहां मिल गए। मैंने दो दिन पहले एक नया जोड़ा जूता खरीदा था। दोनों ने एक-एक जूता उठा लिया और एक-दूसरे की बहू-बेटियों के साथ नाना प्रकार के संबंध बनाते हुए एक-दूसरे को जूतों से पीटने लगे। इस जूता गोष्ठी में डॉ. नामवर सिंह, अजित कुमार, देवीशंकर अवस्थी, मैं और वे दोनों भिड़ंतू साहित्यकार थे। देवीशंकर अवस्थी उनका फैसला करने उठे, अजित कुमार ने उन्हें बचाने की कोशिश की, मैं भी कुछ-कुछ बोलता रहा। लेकिन डॉ. नामवर सिंह पद्मासन मारे योगमुद्रा में अचल बैठे रहे। देखा कि दोनों के सिर से खून बहने लगा है और मेरे दोनों जूते भी टूट गए हैं। फिर उन दोनों के सिर पर डिटॉल लगाया गया। जब सब शांत हो गया तो नामवर जी पान थूकने के लिए उठे। पान थूक कर जब लौटे तो पहले उन दोनों साहित्यकारों का नाम लिया और बोले, आप लोगों ने ये जूते एक-दूसरे को नहीं मारे हैं। ये जूते आपने विश्वनाथ त्रिपाठी को मारे हैं, अजित कुमार को मारे हैं, देवीशंकर अवस्थी को मारे हैं और ये जूते आपने नामवर सिंह को मारे हैं। यह कहते हुए नामवर जी अपना सिर पकड़ कर बैठ गए और बोले कि आप लोग किसी शरीफ आदमी के यहां जाने लायक नहीं हैं। आप लोग क्षमायाचना कीजिए। और क्षमायाचना भी मौखिक नहीं, लिखित, तब आगे का कार्यक्रम शुरू होगा। इच्छा तो हुई कि तालियां बजाऊं, क्योंकि उनका ऐसा अध्यक्षीय भाषण कभी नहीं हुआ। वह चिर स्मरणीय है।
डॉ. नामवर सिंह को जीवन में बहुविध भौतिक और मानसिक आघात झेलने पड़े हैं। इनसे वे लड़खड़ाए भी होंगे, कमजोरियों ने उन्हें तोड़ा भी होगा, लेकिन मैंने उन्हें लड़खड़ाते और टूटते बहुत कम, शायद नहीं देखा है। अभी भी वे सीधे तन कर चलते हैं। मेरी तरह छड़ी के सहारे नहीं। अभी भी उनसे जब मिलिए, उनको सुनिए, उनका पढि़ए, कुछ नया सीखने को मिलता है। प्रेरणा मिलती है। डॉ. नामवर सिंह 88 वर्ष के हो गए हैं। हिंदी भाषा और साहित्य के सौभाग्य से उनका स्वास्थ्य संतोषप्रद है। इस अवसर पर उनके स्वास्थ्य और लेखन के प्रति शुभकामना व्यक्त करते हुए यह आशा करनी चाहिए कि हिंदी समाज कुछ दिनों बाद उनका शतवार्षिकी समारोह भी मनाएगा।
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हिंदुस्तान से साभार
1 टिप्पणियाँ
डॉ नामवर सिंह जी को जन्म दिन की अनेक शुभकामनाएं। वह स्वस्थ और ऊर्जावान रहें, यही कामना है !
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