अनंत विजय
- आज याकूब की फांसी की सजा पर छाती कूटनेवालों को उन परिवारों के दर्द का एहसास नहीं है जो 1993 के बम धमाकों में मारे गए थे...
क्या आतंकवाद और आतंकवादियों का कोई मजहब होता है । क्या कातिलों का कोई धर्म होता है । हमारा संविधान तो यह नहीं कहता है, लेकिन संविधान की शपथ लेकर लोकतंत्र के मंदिर में बैठनेवाले चंद लोग आतंक और कातिल को भी धर्म और मजहब के खांचे में फिट कर अपनी राजनीति की गोटियां सेट करते हैं । ताजा मामला है मुंबई के सीरियल धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का । अबतक मुंबई धमाकों का ये गुनहगार अपराधी था, जैसे ही इसकी फांसी की खबर आई वो मुसलमान हो गया । हैदराबाद से लोकसभा के लिए चुने गए और एमआईएम के असदुद्दीन ओबैशी ने कहा कि याकूब को इस वजह से फांसी दी जा रही है कि वो मुसलमान है । उन्होंने राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदले जाने का हवाला दिया । उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर फांसी दी जानी है तो उन सभी को सजाए मौत दी जानी चाहिए जिनको अदालत ने ये सजा दी है । उनका ये बयान बेहद आपत्तिजनक और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ और गैरसंवैधानिक है । दो समुदाय को बांटनेवाला तो है ही । ये वही ओवैशी हैं जिनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन पर हमला किया था । ये ओवैशी वही हैं जिन्होंने लगातार हिंसा की बात की है । दरअसल इनकी राजनीति का आधार ही दो समुदायों के बीच नफरत है । हैरानी तो तब हुई जब शरद पवार की पार्टी एनसीपी के राज्यसभा सांसद माजिद मेमन ने भी महाराष्ट्र सरकार पर राजनीतिक और सांप्रदायिक वजहों से याकूब को जल्द फांसी देने का आरोप लगया । माजिद मेमन काफी सुलझे हुए वकील हैं, जब वो इस तरह की बातें करते हैं तो एक गलत तरह का संदेश जाता है । माजिद मेमन को यह मालूम है कि याकूब की फांसी पर सुप्रीम कोर्ट मुहर लगा चुका है । याकूब ने फांसी से बचने के लगभग सभी न्यायिक विकल्प आजमा लिए हैं । बावजूद इसके इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि याकूब आतंकवादी ना हो । इस तरह आवाजों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तथाकथित प्रगतिशील ताकतों का भी समर्थन मिलने लगा है ।
मुसलमानों को लुभाने के लिए राजीव गांधी ने अगर तलाक और गुजारा भत्ते के मसले पर सिविल लॉ के उपर शरीया लॉ को तवज्जो देनावाला संविधान संशोधन ना किया होता तो नब्बे के दशक में सांप्रदायिकता का फैलाव नहीं होता ।
याकूब के बहाने से फांसी की सजा पर ही सवाल उठाए जाने लगे हैं । देश के सभ्य होने की दुहाई दी जाने लगी ।फांसी की सजा को बर्बर और मध्यकालीन कहा जाने लगा । फांसी की सजा को कानून प्रक्रिया अपनाते हुए किसी की हत्या की संस्कृति को बढ़ावा देने वाला करार दिया जाने लगा है । अचानक से एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट और मानवाधिकार याद आने लगे हैं । इस तरह की मुहिम प्रकरांतर से ओवैशी जैसे लोगों का समर्थन है । आज याकूब की फांसी की सजा पर छाती कूटनेवालों को उन परिवारों के दर्द का एहसास नहीं है जो 1993 के बम धमाकों में मारे गए थे । उनके मानव अधिकारों की चिंता के लिए न्याय के ये कथित ध्वजवाहक कभी भी सामने नहीं आए । क्या आपको याद पड़ता है कि कि जब बिहार के महावीर महतो और परशुराम धानुक को 1983 में फांसी दी गई थी तो इस तरह के सवाल उठाए गए थे । यह दोहरा रवैया हमारे लोकतंत्र के लिए घातक है । इस तरह की बातें करके हम समाज में दो समुदायों के बीच वैमनस्यता फैलाते हैं और प्रकरांतर से एक दूसरे को आमने सामने खड़ा कर देते हैं । राष्ट्र की अवधारणा की सोच पर इस तरह की बयानबाजी एक हमला है । इस खतरनाक प्रवृत्ति को समय रहते रोका जाना या फिर उसका जवाब दिया जाना आवश्यक है । जब समाज को बांटने पर बयानबाजी हो रही हो और उसको एरोगैंट सेक्यूलरिज्म का साथ मिलता है तो सांप्रदायिकता का जन्म होता है । हमारे देश ने शाह बानो केस के दौरान ये देखा है । मुसलमानों को लुभाने के लिए राजीव गांधी ने अगर तलाक और गुजारा भत्ते के मसले पर सिविल लॉ के उपर शरीया लॉ को तवज्जो देनावाला संविधान संशोधन ना किया होता तो नब्बे के दशक में सांप्रदायिकता का फैलाव नहीं होता ।
याकूब की फांसी को मजहब से जोड़नेवाले ये भूल जाते हैं कि आजाद भारत में अबतक जितनी फांसियां दी गई हैं उसका धार्मिक आधार पर वर्गीकरण एक अलग ही तस्वीर पेश करता है । हाल में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक अबतक जितने लोगों को फांसी दी गई है उसमें सिर्फ पांच फीसदी मुसलमान हैं । इस तरह के आंकड़ें पेश करना बेहद पीड़ादायक है, क्योंकि हमारा संविधान, हमारा कानून , हमारे लोकतंत्र की मूल अवधारणा किसी भी अपराधी को मजहब के आधार पर नहीं देखता । जब मजहब की आड़ में झूठ फैलाया जा रहा हो तब तथ्यों को सामने रखना जरूरी हो जाता है । दरअसल हमारे देश में एरोगैंट सेक्युलरिज्म को सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म का साथ मिलता है । मुसलमानों के मसले पर शोर मचानेवाले अन्य धर्म के मसले पर खामोश हो जाते हैं । इससे सांप्रदायिक ताकतों को फलने-फूलने का अवसर मिलता है । बहुसंख्यक लोगों के मानस में ये बात डाली जाती है कि मुसलमानों के मसले पर आसमान सर पर उठाने वाले अन्य धर्मों के मसले पर खामोश रहते हैं । आज हमारे बौद्धिक वर्ग से ये अपेक्षा की जाती है कि वो इस तरह का संदेह का वातावरण बनाकर सांप्रदायिकता की जड़े मजबूत करने के बजाए वस्तुनिष्ट होकर अपनी राय रखें और कानून के फैसले का सम्मान करना सीखें ।
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