परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025

प्रेम कहानियाँ पाठकों के दिल में अपने-अपने कारणों की वजह से उतरती रही हैं। उर्मिला शिरीष की ‘परिन्दों का लौटना’ भी एक वह कहानी है जिससे बहुत पाठक जुड़ा महसूस करेंगे। शब्दांकन पर पढ़ें (शायद आपके) दिल को छू लेने वाली यह कथा।

नहीं, नहीं वह उसके सामने नहीं आना चाहती है। तुम भाग रही हो? तुम डर रही हो! वह स्वयं को झिड़कती। अगर तुम्हें उससे कोई सरोकार न होता तो तुम क्यों अमेरिका के शहरों के आसपास जंगलों में लगी आग से परेशान होती। क्यों अमेरिका में फैलने वाली बीमारियों को लेकर चिन्तित होती थी? उस देश में कौन है तुम्हारा जिसकी फिक्र में तुम जागती हो। आहें भरती हो। इससे पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ।
परिन्दों का लौटना उर्मिला शिरीष प्रेम कहानी 2025



परिन्दों का लौटना: कहानी

उर्मिला शिरीष

503, ऑर्चिड, रूचिलाईफ स्केप, जाटखेड़ी,होशंगाबाद रोड़ भोपाल, म.प्र. (भारत)। पिन कोड-462047, मो. 9303132188, 8989585480, urmilashirish@hotmail.com 


“मैं तुमसे मिलने आ रहा हूँ।” दूर बहुत दूर से आती आवाज ने जैसे ठहरकर कहा!

“क्यों। क्यों मिलना चाहते हो।” एक ठुमकता-सा निर्दय उत्तर।

“मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ।” उत्सुकता की लहर से आहट उठी।

“देखते तो हो।” जानबूझकर लहर से स्वयं को दूर करना चाहा!

“कहाँ?” कहाँ देखता हूँ।” हल्का-सा दर्द लहर में धुल गया।

“फेसबुक पर।” जवाब में धुली लापरवाही पर जवाब की प्रतीक्षा करता।

“यह कोई देखना हुआ।” सुने को अनसुना करता बहाना!

“तो और क्या होता है देखना।” आवाज में जैसे कोई अधूरा राग आ मिला हो।

“सामने आकर। मिलकर। छूकर।” शब्द साकार होना चाहते हैं।

“छूकर! छूने की अभिलाषा अभी भी पाले हुए हो?” ऐसी अनजान अठखेली जो अपना रहस्यमन छुपा सकी।

“हाँ। नहीं। पता नहीं।“ बावरा मन बैचेन है।

“यह ठीक नहीं है हमारे लिए! खासकर मेरे लिए! मैंने तुम्हारी फोटो देखी है पत्नी के साथ, बच्चों के साथ। एक खुशहाल परिवार। इन सबको पता चल गया तो।” मन में बैठी बच्ची भयभीत हो उठी हो जैसे।

“इसमें बुराई क्या है? हम यूँ ही नहीं मिल सकते? दो दोस्तों की तरह। दो सहेलियों की तरह। कितने साल हो गए। सैंतालीस साल।” वह गिना रहा है वर्ष, माह, दिन, फल।

“इतना आसान होता तो इस पृथ्वी पर इतनी वियोग की ज्वालाएँ न जली होती, इतने दिल न टूटे होते, इतने युद्ध और संधियाँ न हुई होती। संबंधों का ताना-बाना विश्वास के धागों से बंधा होता है।” अरे यह कौन हिसाब-किताब लगा रहा है? एक डरी हुई स्त्री!

“तुम बात को कहाँ से कहाँ ले जा रही हो।” आवाज में झुंझलाहट भर गई जैसे!

“जहाँ ले जाना चाहिए।” वह थोड़ा बेलिहाज हो चली।

“देखो कांता, बस एक बार सिर्फ एक बार मिलना चाहता हूँ। मान लो मैं बिना बताए आ जाता तो क्या तुम दरवाजा न खोलती। मुझे अपने घर से बाहर निकाल देती?” सवाल सिर्फ सवाल।

कांता के पास कोई जवाब न था।

यह तीसरा दिन है। तीसरा दिन, चौथी रात जब वह कपिल के सवाल का कोई जवाब नहीं ढूँढ़ पाई। कई बार जवाब आसपास होते हुए भी पकड़ में नहीं आ पाता। वह जाग रही है। बेचैनी में डूबी लगातार, उसके आने को बनने वाली दुनिया को खोल-बंद रही है।

सिर भारी है। आँखें जल रही हैं। हाथ-पाँवों में जलन है। टूटन है। नसें तड़क रही हैं। अनिर्णय के ऐसे छटपटाते समय में न उसे बाहर खिले गुलाब के फूल दिखाई दे रहे हैं। न चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही है। न तेज हवाओं का स्वर सुनाई दे रहा है। न बारिश की बेरहम आवाज़ें और रौद्र रूप दिखाई दे रहा है। बाई कब आई, कब चली गई। सब्जी वाले ने आवाज़ लगाई, उसने नहीं सुनी। अखबार बाहर पड़े हैं, उसने नहीं पढ़े। फोन की घंटियाँ बज-बजकर बंद हो गईं, उसने नहीं सुनी...

कपिल ने दस-एक मैसेज किए, मगर उसने काँपती उंगलियों से मैसेज खोले, पढ़े और बिना उत्तर दिए छोड़ दिए।

“तबियत तो ठीक है न।” वो पूछ रहा है। उसका रात के दो बजे फोन करके पूछना उसे अच्छा ही लग रहा है।

“तबियत ठीक नहीं है?”

“क्या हो गया है? दवा ली? डॉक्टर को दिखाया?”

“नहीं। ज़रूरत नहीं है।”

“अभी तुम कहाँ पर हो?”

“अपने घर पर।”

“बच्चे?”

“बाहर हैं।”

“पति?”

“तुम्हें बताया तो था?”

“मैं हर पाँच साल में आता हूँ। हमारे बैच वाले गेट-टूगेदर रखते हैं। दो दिन का शानदार प्रोग्राम होता है। डांस, संगीत, लंच, डिनर, पिकनिक। सब कुछ भव्य और अविस्मरणीय। उसके बाद मैं अपनी बहन के पास जाता हूँ। वहीं सारे रिश्तेदार आ जाते हैं।”

“इतने सालों में कभी तुम्हें मेरा ख्याल नहीं आया?”

“क्योंकि मुझे नहीं पता था कि तुम इसी शहर में हो। अकेली हो।”

“तुम्हारे दोस्त। तुम्हारे दोस्तों ने नहीं बताया।”

“सब मिलते-जुलते हैं। भावनाओं के स्तर पर हम सब एक जैसा फील करते हैं। कमल का दुबई में नर्सिंग होम है, लेकिन वह यहीं लौटकर आ रहा है। नए सिरे से सब कुछ शुरू करेगा। हर बार नीता (पत्नी) साथ में होती थी।”

“और राकेश।”

“राकेश का मत पूछो, उसके साथ जो हुआ वह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।”

“ओह।”

“तुम्हारी बात होती है।”

“नहीं।”

“मैं दुबारा उस दुनिया में नहीं जाना चाहता हूँ जिस दुनिया ने मुझे...”

“क्यों!”

“तकलीफ होती है... बहुत ज्यादा तकलीफ...”

“तकलीफ में जीना भी एक अलग सुख देता है। अचानक तुमसे बात होना मेरे लिए आश्चर्यजनक है। कहाँ रही तुम? 1975 में हम अलग हुए थे और आज 2022 में बात हो रही है। तब से मैं तुम्हें खोज रहा था।”

“...”

“यह चुप्पी क्यों कांता।”

“क्योंकि चुप की कोई ज़ुबान नहीं होती।”

“चुप की ही ज़ुबान होती है।”

“तुम्हारी बातों में विरोधाभास है।”

“पर चुप असर तो डालती है।”

“तुमने मेरे किसी भी मैसेज का जवाब नहीं दिया।”

“मैं डरती थी।”

“किससे?”

“अपने आपसे। पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों में मैं कभी भी नहीं डरी। अकेली रही तब भी नहीं, सैकड़ों देशों की यात्राएँ करती रही तब भी नहीं। कैंसर से लड़ रही थी तब भी नहीं। कोविड हो गया था तब भी नहीं, मौत से भी नहीं, पर पिछले चार दिनों से डर के मारे सो नहीं पाई हूँ। तुम्हारी बेटी, बेटे, पत्नी, अपने बच्चों और पति—सबसे डरती हूँ। एक बनी-बनाई इमेज, सुख-शांति से भरा परिवार, उस परिवार में सब कुछ स्वीकार्य होगा, मेरा प्रेम-प्रसंग नहीं। कतई नहीं। सो प्लीज़... जैसे सैंतालीस साल निकल गए अपरिचय में, अबोले में, अनदेखे, बाकी भी निकल जाने दो।”

“कल मेरी फ्लाइट है।” कपिल की आवाज़ में खुशी की खनक है।

“क्यों आ रहे हो?”

“मुंबई, मुंबई से इंदौर।” वह अपनी ही धुन में बताए जा रहा है।

“अब भी सोच लो।”

“कांता। प्लीज़ आने दो।”

“बाय... शुभ-यात्रा।”

कहकर उसने फोन रख दिया। उसने देखा उसकी हथेलियाँ पसीने से चिपचिपा रही थीं। पूरी देह एक अजीब-सी सिहरन से काँप रही थी। ठीक वैसी ही सिहरन जब वो कपिल से मिला करती थी, तब हुआ करती थी। ताज्जुब कि इतने वर्षों बाद आज वही सिहरन उसकी देह को सिहरा रही थी। कपिल से मिलने और बिछुड़ने की बेचैनी ने चारों तरफ कुहासा फैला दिया था। रेडियो से आ रही छाया गांगुली की आवाज़ उसकी रूह में उतरती जा रही थी।

आपकी याद आती रही रात भर।
चश्मे-नम मुस्कराती रही रातभर
रातभर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रातभर
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रातभर
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रातभर
आपकी याद आती रही रातभर...

हुआ यह था कि उसके बड़े भाई इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए भोपाल आ गए थे। सालभर बाद वह भी आ गई थी क्योंकि उसे पढ़ने का जुनून था। वह कुछ विशेष बनना चाहती थी अपने जीवन में। दोनों भाई-बहन होस्टल में नहीं रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक किराए का मकान ले लिया था। किराए का मकान भी ऐसा था जिसमें दो कमरे ऊपर के इनके हिस्से में थे और तीसरा कमरा कपिल के पास। बाथरूम अलग थे। किचन बना दिया गया था इन दोनों के लिए अस्थायी रूप से।

कपिल का कमरा बाहर से खुलता था, पर बीच का दरवाज़ा भी था जो अकसर बंद रहता था। पढ़ने वाले कमरे में बहुत ही सुंदर टेबल-कुर्सियाँ रखी थीं। किताबों की रैक, टेबल-लैंप, और छोटा-सा दीवान। उसका मन खुश हो गया था इतनी सुंदर स्टडी देखकर। कपिल ने बताया था कि उसके पिता आर्मी में हैं। माँ बचपन में गुज़र गई थी। पिता साल में एक बार आते थे और बाकी दिनों में कपिल चला जाता था। तब पिता और भाई के मन में ये ख्याल दूर-दूर तक न था कि वह पढ़ाई के अलावा भी कुछ और सोच सकती है या कर सकती है। पिता अपने बिजनेस में व्यस्त थे और भाई कॉलेज और कॉलेज की राजनीति में। भाई का स्वभाव किसी भी बात को लेकर संकीर्ण नहीं था। वे पढ़ने, भाषण देने, मीटिंग करने में व्यस्त रहते, और इधर कपिल कांता को कभी पढ़ाता, तो कभी बाज़ार ले जाता, तो कभी किचन में हेल्प करता।

कांता का वह अंतिम वर्ष था। कपिल को उसी वर्ष अच्छी-खासी नौकरी मिल गई थी। तब समस्या पैदा हुई कि मकान का क्या किया जाए। कपिल के पिता नहीं चाहते थे कि किराएदारों के भरोसे मकान छोड़ दिया जाए। तब कपिल ने ही पिता को मना लिया था कि छह माह बाद दोनों यूँ ही चले जाएँगे। परीक्षाएँ सिर पर हैं। उन्हें रहने दो।

“आपका पूरा घर मैं नहीं संभाल पाऊँगी।”

“मैं आया करूँगा न हर पंद्रह दिन में।”

“तब ठीक है।”

“मुझे याद करोगी?”

“याद करने वाली क्या बात है?”

“तुम्हें यहाँ अच्छा नहीं लगेगा।”

“अच्छा लगेगा।”

“फिर क्यों जाना चाहती हो?”

“मैं आगे भी पढ़ना चाहती हूँ। एडमिनिस्ट्रेटिव जॉब में जाना चाहती हूँ।”

“क्यों।”

“क्योंकि मुझे अच्छा लगता है। मैं उस फील्ड में काम कर सकती हूँ। मेरा स्वभाव अलग है। सबसे अलग।”

“तो यहीं रहो।” कपिल ने उसका हाथ पकड़कर कहा। उसका हाथ पकड़ना, छूना कांता को बुरा नहीं लगा था, बल्कि उसका गोरा, सुंदर हाथ उसे अपनी छोटी-छोटी हथेलियों में बहुत अच्छा लगा था। उसका वो स्पर्श, स्पर्श से पैदा होने वाली वो सिहरन आज भी देह में बिखरी है, रोम-रोम में...

“पक्का आते रहोगे ना।”

“ज़रूर! खत भी लिखूँगा। नाम पिता जी का रहेगा, लेकिन वे खत तुम्हारे लिए होंगे।”

वह चकित थी। खुश भी कि ऐसा क्या हो गया है उन दोनों के बीच कि बात खतों तक आ पहुँची है और वह किसी भी बात का विरोध क्यों नहीं कर रही है।

“ध्यान रखना कि कोई भी खत तुम्हारे भाई के हाथ में न पड़े।”

“आपके पिता के नाम आए खत भाई क्यों पढ़ेंगे?”

“बस संभालकर रखना या पढ़कर फाड़कर फेंक देना।”

कपिल को शाम की ट्रेन से जाना था। पूरे दिन वह तैयारी में लगा रहा। उस दिन उसका पेपर था। कॉलेज पास में ही था। अक्सर वह पैदल ही कॉलेज जाती थी। उस दिन भी वह पैदल गई थी, पर आधा घंटा लेट।

“अब परमिशन नहीं मिलेगी।”

“मैडम प्लीज़।” वह फूट-फूटकर रोने लगी थी।

“देखिए न, मैं पैदल आ रही थी। मुझे रिक्शे वाले ने टक्कर मार दी।” पहली बार वह झूठ बोली थी। चोट बाहर की नहीं, भीतर लगी थी।

उस दिन मैडम ने वचन पत्र लिखवाकर उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दी थी।

लेकिन यह क्या, परीक्षा हॉल में अपनी सीट पर बैठने के बाद भी वह रोए जा रही थी।

“क्या हुआ? क्यों रो रही हो? पेपर पढ़ो और जल्दी-जल्दी लिखो। तुमने पौन घंटा यूँ भी बर्बाद कर दिया है।” मैडम ने सख्त आवाज़ में कहा था।

वह बार-बार पेपर पढ़ती, पर पेपर के सारे अक्षर उसे धुंधले नज़र आ रहे थे। उसने जितना पढ़ा था, वह सब भूल चुकी थी। वह अपना दाहिना हाथ पकड़कर बैठी थी, जिसे कपिल ने पकड़ा था, उसका स्पर्श महसूस करती हुई... स्पर्श का ताप उसकी देह में चढ़ गया था।

“मैडम।”

“क्या हुआ?”

“मुझसे लिखते नहीं बन रहा है।”

“जानती हो ये फाइनल ईयर है।”

“जी।”

“अभी एक घंटा नहीं हुआ है।”

उसने पेपर और कॉपी एक तरफ रख दी और घड़ी देखने लगी। एक घंटे में मात्र दस मिनट शेष थे। एक घंटा पूरा होते ही वह उठ खड़ी हुई।

मैडम ने उसे शकभरी निगाहों से ऊपर से नीचे तक घूरा। समय से पहले पेपर-कॉपी छोड़कर जाने वाली लड़कियाँ क्या करती हैं? कहाँ जाती हैं? वे जानती हैं... क्या ये भी वहीं जा रही है? किसी के साथ भाग तो नहीं रही है?

कांता को न तो इस बात की चिंता थी कि उसका अंतिम वर्ष है और इसमें अच्छे नंबर आना ज़रूरी है। अगर इसमें अच्छे नंबर नहीं आए, तो वह पी.जी. में किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं ले पाएगी। न उसे इस बात की परवाह थी कि पिता और भाई पूछेंगे तो क्या जवाब देगी? सच्चाई पता चलने पर पढ़ाई बंद करवा दी तो? तो फिर शादी ही एकमात्र विकल्प बचता है। यहाँ रहने का बहाना भी खत्म हो जाएगा। इन सभी परिणामों को जानने के बावजूद कांता पेपर छोड़कर लगभग भागते हुए घर की तरफ लौटी। उसका चेहरा लाल हो गया था। वह हाँफ रही थी। रो रही थी। उसने ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा कपिल ने ही खोला था। भाई का उस दिन प्रैक्टिकल एग्जाम था, इसलिए वे देर से आने वाले थे।

“क्या हुआ? तुम्हारा पेपर था ना...”

कांता कपिल के सीने से लिपट गई।

“आज रुक नहीं सकते।”

“पगली...” कपिल ने उसे अपनी बाँहों में ज़ोर से भींच लिया।

“मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।”

“रहना होगा! पढ़ना होगा, अगर चाहती हो कि मैं आऊँ तो। और तुम्हें कुछ बनना है तो।”

उसे याद नहीं कि उसके आँसू थमे थे या नहीं। उसे याद नहीं कि कपिल कब अपना बैग लेकर चला गया था। जब उसकी नींद खुली, तो रात के दस बज रहे थे। उसने भाई को बताया कि वह अपना पेपर भूल गई थी और जब कॉलेज पहुँची, तब तक समय निकल चुका था। उसे परीक्षा देने की अनुमति नहीं मिली।

भाई ने सिर पकड़ लिया। उसका भविष्य डूबता नज़र आ रहा था उन्हें। हालाँकि वह भाई से नज़रें नहीं मिला पा रही थी, इस डर से कि कहीं उसकी आँखों में बैठा चोर उसकी झूठी कहानी बयान न कर दे।

और उस साल, यानी 1975, उस साल ने उसके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया था। भाई ने शहर छोड़ दिया था। वे आगे अपना काम करना चाहते थे। उसे वहाँ अकेले रहने की अनुमति नहीं मिली थी। वह रोते-बिलखते भाई के साथ ही लौट आई थी। बस उन दोनों के बीच संवाद का एकमात्र माध्यम खत ही रह गए थे। खतों का आदान-प्रदान। खत उन दोनों के जीवन में राग-विराग, विरह, मिलन और एहसासों के रंग भर रहे थे, लेकिन जीवन में जब कुछ बिगड़ना होता है, तो बिगड़ता ही चला जाता है। रास्ते अंधेरे में खो जाते हैं और बेहद प्यारी... आत्मा की डोर किसी और के हाथ में।

एक दिन कपिल का खत पिता के हाथ में पड़ गया था। पिता ने न कुछ कहा, न पूछा, केवल एक ज़ोर का थप्पड़ उसके गाल पर मारा था और शेष आने वाले खतों को उन्होंने बेरहमी से फाड़ना शुरू कर दिया था।

वह उसी दुख और गुस्से में अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी में बाहर निकल गई थी। पर शादी करके। और तब से लेकर आज तक परिवार, बच्चे और पति ही उसके जीवन की धुरी थे। इसके आगे का जगत उसके लिए अछूता हो गया था। उसकी विस्मृति में कहीं कपिल के साथ बिताया गया जीवन गहरी नींद में सो गया था! न वो फेसबुक जानती थी, न व्हाट्सएप, न मैसेंजर, न इंस्टाग्राम। वो तो बच्चों ने उसे फेसबुक से जोड़ लिया था, फिर धीरे-धीरे वह फेसबुक के विराट संसार से जुड़ती गई थी और एक बार देखती क्या है कि कपिल अपनी पत्नी के साथ मुस्कुराते हुए घूम रहे हैं। वह एक क्षण में ही पहचान गई थी। कितना बदल गया है! चेहरा कुछ दब गया था। लंबा और चपटा-सा दिख रहा था। बाल सफेद हो गए थे। उसके मुकाबले उसकी पत्नी ज़्यादा खूबसूरत और जवान लग रही थी। बगल में उसकी बेटी और बेटा खड़े थे। कपिल! कपिल! काश न तुम दिखते, न मिलते। यूँ तुम्हें देखकर मैं उदास क्यों हो रही हूँ? क्यों मेरे भीतर बर्फ बह रही है!

तब उसने उसकी फोटो को पसंद करना शुरू कर दिया था। वह उसकी फोटो देखती रहती घंटों तक। उसके चेहरे को बार-बार देखती। अब उसका मन चारों तरफ से उचट गया था। केवल और केवल उसके बारे में सोचती रहती जबकि बाहर की दुनिया में रूस और युक्रेन का युद्ध चल रहा था। खूबसूरत खण्डित हो चुके भवनों का मलबा पड़ा था। सैनिकों और नागरिकों की लाशें बिछी पड़ी थी। लोग देश छोड़कर भाग रहे थे। चारों तरफ हाहाकार मचा था। एक दूसरे देश में तख्ता पलट हो गया था महिलाएँ और बच्चे गोलियों से, भूख से और हिंसा में मारे जा रहे थे। बाढ़ में शहर के शहर डूब रहे थे। कहीं जंगलों में आग लगी थी तो कहीं बच्चियों के साथ बलत्कार हो रहे थे, उनकी हत्या की जा रही थी। राजनीतिक बहसों ने घर में अजीब-सा शोर भर दिया था फिर भी वह उसी के बारे में सोच रही थी। उसे डॉक्टर के पास जाकर आँखों की जाँच करवानी थी पर वह नहीं जा रही थी। उसे माँ के साथ रुकना था पर वह एकांत में दरवाजा बंद करके केवल और केवल उसकी दो-चार फोटो देखती रहती। यह उसका उन्माद था या बीते वर्षों में जीने की अभीप्सा। यह दुनिया से पलायन था या अपना खालीपन भरने का नशा! वह स्वार्थी हो गयी थी या आत्मलीन।

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ये तो बेईमानी हुई? किसके साथ बेईमानी? पति के साथ? कैसे? इस उम्र में तुम अपने प्रेम को लेकर परेशान हो। परेशान हो उसके साथ बिताये अपने वक्त को लेकर। उसकी यादों को लेकर! नहीं वह, पति के बीच नहीं आ रहा है। उसने तो एक शब्द तक नहीं कहा है, न पति से अलग होने को, न संबंधों को लेकर, फिर बेईमानी कैसी? वह मेरे बीते समय का सबसे खूबसूरत हिस्सा है। मेरी रूह में बसा स्वप्नलोक!

अब वह पीछा कर रहा है हर रोज, हर घंटे, हर पल। वह दो कदम आगे बढ़ाती घर के बाहर निकलती तो वह अपने परिवार के साथ यात्राओं की खींची गई तस्वीरें, फेसबुक पर पोस्ट करता जो उसकी पंसद की होती।

क्या फेसबुक से हट जाऊँ? न फेसबुक में रहूँगी न फेसबुक पर वह दिखेगा, न कमेंट्स लिखेगा न उसे कुछ सोचना पड़ेगा। लेकिन वह तो उड़ चुका है। उड़ चुका है भारत के लिए। उसके शहर में उतरेगा। वह आयेगा। मिलेगा। मैं उसे देखूँगी वह मुझे देखेगा? तब? तब क्या होगा? तुमने मना भी तो नहीं किया है। क्यों!

नहीं, नहीं वह उसके सामने नहीं आना चाहती है। तुम भाग रही हो? तुम डर रही हो! वह स्वयं को झिड़कती। अगर तुम्हें उससे कोई सरोकार न होता तो तुम क्यों अमेरिका के शहरों के आसपास जंगलों में लगी आग से परेशान होती। क्यों अमेरिका में फैलने वाली बीमारियों को लेकर चिन्तित होती थी? उस देश में कौन है तुम्हारा जिसकी फिक्र में तुम जागती हो। आहें भरती हो। इससे पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ।

मगर...... वह बीता वक्त....., वे साथ गुजारे पल क्या तुम्हारे मन को नहीं झकझोर रहे हैं। कांता ने उठकर लाइट जलाई। दरवाजा खोल दिया। बेचैनी के कारण उसका मन घबरा रहा था। टी.वी. ऑन किया फिर बंद कर दिया। बेडरूम से अपना रेडियो उठा लाई। गज़ल का चैनल ऑन कर दिया। राधिका चोपड़ा की खनकती आवाज उसके मन को हौले-हौले छूने लगी.....।

मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग,
मैने समझा था..............।
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तेरे आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है.....।
तू जो मिल जाये तो.....।
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नहीं..। उसने अपने चेहरे को हथेलियों में भर लिया। बड़ी मुश्किल से जीवन को पटरी पर लाई थी। पर कपिल ने आकर सारा धैर्य, सारा संयम तोड़ दिया था। उसका मन उसी से पूछ रहा था।

वही है न, वही जिसे तुमने दिल की कई परतों के बीच छुपा रखा था जिसके नाम को तुमने अपनी जुबान के भीतर कुंजी की तरह दबा लिया था अन्यथा उसका नाम जुबान पर आते-आते क्यों तुम्हें अपनी जीभ दांतों तले दबानी पड़ती थी। मंदिरों में जाकर तुम उसके खुशहाल जीवन की दुआ मांगती थी मांगती थी या नहीं। क्यों। बोलो, जवाब दो।

और आज जब वो तुमसे मिलना चाहता है तो तुम बहाने बना रही हो। क्यों! अपने मन से पूछो! क्या मैं भाग रही हूँ -- हाँ। क्यों। मैं अपने जीवन में कोई नयी आँधी नहीं लाना चाहती हूँ। आँधी तो तुम्हारे भीतर जीवन भर से चल रही थी। केवल तुमने उसको सुना और देखा नहीं था। उसका मन उससे पूछ रहा है.....।

दिले नादान तुझे हुआ क्या है-
आखिर इस दर्द की दवा क्या है....?
(मिर्जा गालिब)

“उसे गुजर जाने दो।”

“कलंक लगेगा।”

“कौन लगायेगा।”

“मेरी आत्मा। मेरा मन! मेरा हृदय! मेरी बुद्धि!”

“आजमा कर देखो।”

“नहीं सहा जायेगा।”

“सहने का दर्द ही तो होगा।”

“अब वो बर्दाश्त नहीं होता।”

“प्यार ताकत देता है।”

“पर प्यार अमन-चैन भी छीन लेता है।”

रात दिन द्वन्द्व। सवाल जबाव। आत्मालाप-सा चलता रहता है।

पुरानी एलबम उठाकर फोटो देख रही है।

कहीं किसी चित्र में नजर आ जाये! लेकिन वो तो तभी फाड़ दिये थे जब पिता को उसके खतों के बारे में पता चला था। तब खत और फोटो सब अग्नि के हवाले कर दिए थे। आग वहाँ जली थी तपिश उसने झेली थी। लपटें वहाँ उठी थी फफोलों से उसकी देह भर गयी थी।

आँसू टपक रहे हैं लगातार, आँसुओं को टपकने दे रही है।

तो! पकड़ो-पकड़ो जीवन की उस डोर को जिसे उसके पिता ने पकड़ लिया था।

पिता हैं? पूछ ही नहीं पाई। उसकी मुलाकात के पहले ही तो एक बार पिता से मुलाकात हुई थी।

होंगे। ये भी हो सकता है कि वे शहीद हो गये हों।

कभी फोटो में तो नहीं दिखे। सबसे पहले उन्हीं के बारे में पूछूँगी।

अब उसकी फ्लाईट कहाँ होगी? वह बार-बार घड़ी देख रही है।

हे भगवान! उसकी यात्रा को सुरक्षित रखना। वह सही-सलामत आ जाये।

डर रही हो? क्यों! क्योंकि विमान यात्राओं का डर तुम्हारे भीतर बैठा है? तुम्हें लगता है विमान दुर्घटनाओं में कोई नहीं बचता है। यदि कोई अनहोनी हो गयी तो वह भी नहीं बचेगा। नहीं! नहीं। इतने बुरे ख्याल ही क्यों आते हैं तुम्हारे कमजोर और पापी दिल, दिमाग में। बीच के वर्षों में तो तुमने कभी कुछ नहीं सोचा। जाना-समझा। अब इतनी चिंता क्यों!

घड़ी की तरफ निगाहें टिकी है। अब वो मुम्बई में उतरने वाला होगा। लंबा गोरा अंग्रेजों की तरह दिखने वाला वह जब चल रहा होगा तो कितना आकर्षक लग रहा होगा। उसकी भूरी आँखों में यहाँ आने का उल्लास उतर आया होगा। उसके कदम भाग रहे होंगे। वह चारों तरफ खोजती आँखों से कुछ-कुछ तलाश रहा होगा।

अब वह एयरपोर्ट पर इंतजार कर रहा होगा। हो सकता है शॉपिंग कर रहा हो। नयी सिम ली होगी और सिम डलवाते ही वह मुझे फोन लगायेगा। क्या चार घंटे इंतजार करेगा। अब तक तो उसका फोन आ जाना चाहिए। वह घर में ही चहल कदमी कर रही है। रेडियो पर राशिद खाँ की जादुई आवाज में मन को झंकृत करने वाली गज़ल चल रही है

याद पिया की आये
ये दुःख सहा न जाये हाय राम...
बाली उमरिया, सुन री सजनिया
जौवन बीता जाये हाय राम...
याद पिया की आये...।
बैरी कोयलिया कूक सुनावे
मुझ विरहिन का जिया जलावे
पिय बिन रहा न जाये हाय राम...
याद पिया की जाये......

फोन क्यों नहीं किया! क्या आया नहीं है? फ्लाईट कैंसिल तो नहीं हो गयी या हो सकता है उसका प्रोग्राम ही बदल गया हो। उसका दिल बैठा जा रहा था। उसकी निगाहें जम गयी थी। उसका मन दुःख से भर गया था। वह सैंतालीस साल पहले की बेचैनी अपने भीतर महसूस कर रही थी। वह सोफे पर निढाल पड़ी थी।

तीन घंटे बाद फोन की घंटी बजी--

“मैं मुम्बई आ गया हूँ।”

“फोन क्यों नहीं किया तब से।”

“इमीग्रेशन में टाइम लग गया। फिर लगेज लेना था। सिम लेनी थी। करेंसी चेंज करवानी थी। जैसे ही फ्री हुआ तुम्हें कॉल कर रहा हूँ।”

“कैसे हो?”

यह क्या। वह भरभराकर रो रही है।

“क्या हुआ?”

“घबराहट हो रही थी।”

“क्यों।”

“बस यूँ ही।”

“कहो न कि इंतजार सहन नहीं हो रहा था।” उसने हँसते हुए कहा।

“हाँ।” इस समय वह भूल गयी थी कि वह किसी की पत्नी है, दो बच्चों की माँ है। वह चुलबुली-सी जिद्दी लड़की बन गयी थी। उसकी देह में वहीं तरंग उठ रही थी वही खुशी बह रही थी जो उसके भीतर सैतालीस सालों से बह रही थी खामोशी से। वह आँखें बंद करके उसकी छवि देख रही थी।

“कब तक पहुँच रहे हो।”

“सात-आठ बजे तक।”

“कहाँ रुकोगे?”

“आज तो होटल में ही।”

“सुबह- सुबह क्या करोगे?”

“तुमसे मिलने आऊँगा और रात, रात में क्या सोऊँगा बस तुमसे बातें करूँगा। पूरी रात।”

“आओगे कब?”

“एकदम सुबह।”

एकदम सुबह वह दरवाजे के बाहर खड़ी थी। पूरी रात न नींद आई थी न मुँह बंद हुआ था अनवरत बातें करते हुए। स्कूल बसें आ-जा रही थी। लोग सुबह की सैर पर आ-जा रहे थे। वह कोने तक जाती फिर लौट आती। तभी दूर कार आती दिखी। इसी कार में है वह। वह यानी कपिल यानी मेरा.....। उसने अपना हाथ बाये वक्ष पर रख लिया...। धड़कने बढ़ गयी थी। उन्हें सुना जा सकता था। कार ठीक उसके सामने रुकी। उसने बैग बाहर निकाला। पेमेन्ट किया।

बाहें फैलाते-फैलाते रह गया वह। वही रंग था टमाटर-सा लाल। वही बाल थे पर सफेद। वही आँखें थी पर आसपास की त्वचा ढीली पड़ गयी थी। वही कद था पर कंधे हल्के से झुक गये थे। वही चौड़ा ललाट था जिस पर गहरी लकीरें साफ दिख रही थी।

“क्या हुआ? क्या बूढ़ा दिख रहा हूँ।”

“नहीं! नहीं! अंदर चलो।” वह कांपती आवाज में बोली।

“अंदर आते ही उसने अपनी लंबी बांहे फैला दी और जोर से उसे भींच लिया। हाँ होठों तक आते आते वह ठहरा। गहरी निगाहों से देखा इन होंठों पर उसने तब हजारों चुंबन लिए थे पर आज, आज वह वहीं माथे के ऊपर ठहर गया। पलभर के लिए पत्नी का चेहरा सामने आ गया। मुस्कराती खूबसूरत पत्नी। लेकिन इस समय कांता उसके सामने थी। कांता उसकी स्वप्नपरी! उसकी हृदयेश्वरी। उसकी आत्मेश्वरी।

“पानी लाती हूँ। चाय लोगे या नाश्ता।”

“सालों साल हो गये है उसके होंठों को यूँ ही अनछुए। पति को तो कभी लगा ही नहीं कि प्यार अभिव्यक्त करने का चुंबन भी खूबसूरत तरीका होता है। वह उचटती निगाहों से उसका घर, दीवारें, तस्वीरें और मूर्तियाँ देख रहा था।

“चाय!”

उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया गरम, नरम, सुंदर हाथ।

“वैसी ही हो।”

“तुम भी।”

“कांता।” जीवन कब दो रास्तों पर चला गया पता ही नहीं चला और आज अपने जीवन की परिणति देखकर हैरान हूँ!”

“भाग्य में यही होगा।” वह उदास होने लगी।

“कल का क्या प्रोग्राम है।”

“बैच वालों के साथ रहना है।”

“फिर।”

“मिलना-जुलना”

“फिर।”

“वापसी।”

“इतनी जल्दी।”

“वहाँ भी तो देखना होता है।”

“जब इतनी जल्दी जाना था तो मुझे बताया ही क्यों। आये ही क्यों! मिले ही क्यों!”

वह पुराने दिनों में लौट गयी। वही अधिकार! वहीं शिकायतें। वही नाज-नखरे।

“कांता। सालों साल का इंतजार। देखने और मिलने की तड़प। न खत लिख सकता था। न मैसेज कर सकता था। सब कुछ था मन में ही जो किसी की पकड़ में नहीं आता था बस अपने मन से ही बातें कर लेता था।”

वह सुनकर भी अनसुना करने का अभिनय करने लगी।

उसने बैग खोला।

छोटी-मोटी गिफ्ट थी उसके लिए। एक दुपट्टा नीले रंग का जो गुजराती परिधानों की खूबसूरत निशानी था। जो सैतालीस वर्ष पूर्व उसके पास छूट गया था। उसी में बंधे थे वो खत जो कांता ने उसे लिखे थे।

“अभी तक। कैसे रखे रहे? कैसे छुपाये रहे! किसी ने देखे और पढ़े तो नहीं!”

“नहीं।”

“अब मैं क्या करूँगी इनका?”

“पढ़ना हर रोज। जीवन की सारी ऊब, सारी निराशा दूर हो जायेगी।”

“जीवन की ऊब। निराशा।” वह बुदबुदायी।

“किसी के हाथ लग गये तो? बच्चों को लगेगा कि मैं वर्षों से उनके पापा को धोखा दे रही थी। ये भी समस्या बन गये हैं?”

“तो फाड़ देना!” वह हैरान होकर बोला।

“तुम नहीं समझोगे।”

“मैंने सैंतालीस साल संभालकर रखे और तुम....।”

“तुम नहीं समझ रहे हो कि इन खतों को पढ़कर मैं पागल हो जाऊँगी। अतीत में लौटना और उसमें जीना। जो जीवन बड़ी मुश्किल से छूटा था.... वहीं आज सामने आकर खड़ा हो गया है!” उसकी आँखें डबडबाने लगी। होंठ कांपने लगे।

“नाश्ता! भूख लग रही है।” उसने बात बदलते हुए कहा।

नाश्ता करने के दौरान वे खामोश ही रहे। लग रहा था जैसे कहने को कुछ बचा ही न हो।

“तुम्हारे पति?”

“तीन-चार महीने में एक बार आते हैं। बीस पच्चीस दिनों के लिए।”

“बच्चे।”

“वो भी छुट्टियों में।”

“तुम अकेली रह लेती हो! बच्चों के साथ क्यों नहीं रहती। मुझे ऐसा लग रहा है तुम कोई बात छुपा रही हो!”

“मुझे अकेले में रहना अच्छा लगता है।” उसने कांपती आवाज में कहा....।

“कांता, जीवन का खालीपन कभी भी भरता नहीं है। सच बताओ। तुम्हारी बातों में रहस्य है। दुःख है।” उसने नाश्ते की प्लेट परे सरकाते हुए कहा।

“जानकार भी क्या करोगे? तुम मेरा भाग्य बदल सकते हो? नहीं ना।”

“अब तुम्हारे जीवन के बारे में जानना मेरे लिए जरूरी है।”

“सुनो, वह शादी मैंने गुस्से में की थी। उनके दो बच्चे पहली पत्नी से थे। सबने मेरा साथ छोड़ दिया था। बाद के दिन बहुत तनाव भरे रहे। न बच्चों ने मुझे अपनाया, न बाद में मेरे पति से मेरी बनी...। उसका परिणाम तुम देख रहे हो इस घर के सूनेपन में। ऊपर से ये बीमारियाँ। पहले एक एन.जी.ओ. के साथ मिलकर बच्चों को पढ़ाती थी पर फिलहाल वो भी बंद है। मैं आज स्वीकार करती हूँ कि मैं सबके सामने एक झूठी जिंदगी जीती रही। छायालोक में अपना जीवन जी रही थी। यह प्रेम करने की सजा थी या तुमसे बदला लेने का निर्णय। जब हम प्रेम में होते हैं तब चीजों को उनकी गहराई को देख नहीं पाते हैं जबकि प्रेम तो बड़ी और गहरी दृष्टि देता है।”

कब सुबह बीती कब तपती दोपहर सिर पर आकर खड़ी हो गयी और कब शाम होने को आई।

उसका रोम-रोम व्यथा में डूब गया है। वह अपने आँसुओं को पी रहा है। वह अपनी रलाई को दबा रहा है। वह अपनी जिंदगी के पन्ने फाड़ रहा है।

अब तक उसके पास तीस-चालीस फोन आ चुके।

“डिनर पर पूरा बैच इकट्ठा हो रहा है।”

वह चुप रही।

“चलना चहिए।”

वह चुप रही।

“फोन करूँगा। समय मिला तो आऊँगा।”

वह चुप रही।

“कांता। कुछ बोलो”

“तुमने मेरे खतो का क्या किया? कभी किसी ने पढ़े तो नहीं थे।”

“कभी नहीं।”

“मेरे मरने के बाद! कितना बुरा लगेगा सबको। ये जानकर कि मैंने कभी किसी को प्यार किया था और खत लिखे थे।”

“ये मेरी चिंता है।”

“ये धोखा होगा।”

“नहीं!”

“हाँ!”

“प्रॉमिस करों कि जाते ही सारे खत फाड़ दोगे या जला दोगे।”

“क्या तुम फाड़ सकोगी? जला सकोगी? वो मेरे जीवन की धरोहर है। खूबसूरती है। हिम्मत है, और है सबसे निःस्वार्थ और पवित्र संबंधों के साक्षी...।”

“कपिल। अब तकलीफ सहन नहीं होती है।”

“चलता हूँ। संभालो। जब ये खत पढ़ोगी तो सारी तकलीफें भूल जाओगी।”

कपिल ने एक बार फिर उसको अपनी बांहों में भरा इस बार उसके मन में कोई झिझक, कोई शंका न थी क्योंकि इस समय वो केवल एक प्रेमी था! और कांता केवल एक प्रेमिका! एक स्त्री! एक ऐसी स्त्री जो अपने जिए हुए जीवन को पुनः जी रही थी।

इस बार उसने एक गहरा चुंबन भी लिया। अपनी आँखों में उसके रूप सौन्दर्य को भरा और बैग उठाकर बाहर निकल गया। वह दहलीज पर खड़ी उसको जाते हुए, कार में बैठते हुए, हाथ हिलाते हुए देखती रही। कांता ने बाहर से खाली गमला उठाया। उसमें कुछ सूखी लकडियाँ डाली। आग सुलगा दी। खतों की पोटली खोली! कागज पुराने पीले पड़ गये थे। शब्द गहरी लकीरों में बंट गये थे। चिपके कागजों को एक-एक करके अलग किया। फाड़ने को हुई कि उसके हाथ कांप उठे। एक बार पढ़ तो लूँ। पतली-पतली लकड़ियाँ सुलगने लगी थी। धुआँ की पतली रेखा कमरे में फैलने लगी। इधर वह पत्र पढ़ती जा रही थी उधर लकड़ियाँ जल रही थी। उसने धधकती लकड़ियों को देखा फिर खतों को..। वह उठी पानी भर गिलास लाई। वह धीमे-धीमे गुनगुना रही थी। अपनी आवाज सुनकर पहले तो वह चौकी फिर गले को खंखारा, क्या हुआ मैं तो कभी गाती क्या गुनगुनाती तक नहीं थी। मेरे भीतर तो केवल रुलाई और रुलाई का समन्दर भरा था पर आज उसके गले से गीत के बोल स्वर निकल रहे थे।

उसने पानी की धार बनायी और जलती लकड़ियों पर उड़ेलने लगी। एक बार फिर बुझती लकड़ियों से धुआँ उठने लगा था पर कांता को कोई परवाह नहीं थी। उसने सारे खत उठाये और संभालकर दुपट्टे में लपेटकर रख दिए। वह इसी शहर में है। इस शहर की फिज़ा में उसकी महक होगी..। वह फिर आयेगा उससे मिलने के लिए..। उसने रेडियो का वाल्यूम बढ़ाया, राशिद खाँ की मदहोश करने वाली आवाज पूरे कमरे में गूँज रही थी।

आओगे जब तुम साजना
अँगना फूल खिलेंगे
बरसेगा सावन झूम झूमके
दो दिल ऐसे मिलेंगे।
आओगे जब तुम साजना।

वह समझ गयी कि कपिल उसके खतों को क्यों नहीं फाड़ या जला पाया!


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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