एक घरेलू प्रेमाख्यान — रवीन्द्र त्रिपाठी | 2024 ज्ञानपीठ विजेता विनोद कुमार शुक्ल

2024 ज्ञानपीठ विजेता विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी का चित्रण - रवीन्द्र त्रिपाठी समीक्षा

हंस मार्च, 1999 | Shabdankan | नोट: विनोद कुमार शुक्ल को 2024 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।



साहित्य के इतिहास में कम ही ऐसा हुआ है कि एक सहज-सी रचना आए मगर पूरे साहित्यिक परिदृश्य को असहज कर दे और इस असहजता से यह भी लगे कि अगर ऐसा न हुआ होता तो कुछ महत्वपूर्ण अघटित हुए बिना रह जाता। विनोद कुमार शुक्ल का तीसरा उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ आत्मीय असहजता पैदा करने वाली इसी तरह की रचना है। लगभग सवा साल पहले आया यह उपन्यास हिंदी के उपन्यास लेखन में सर्वस्वीकृत रूप से एक नया मोड़ माना जा रहा है। हालांकि यह उपन्यास एक धमाके की तरह नहीं आया। चुपचाप आया। न सुनी जा सकने वाली पगध्वनि की तरह। लेकिन अब इसके होने और अलग तरह से होने का एहसास बढ़ रहा है।

विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी

बरसों पहले लिखे गए उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ के बाद जब दो साल पहले विनोद कुमार शुक्ल दूसरा उपन्यास ‘खिलेगा तो देखेंगे’ लेकर आए थे तो हिंदी की दुनिया में हालांकि मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ हुई थीं, पर कुल मिलाकर वह अच्छा उपन्यास नहीं माना गया था। लेकिन यह भी अब निस्संकोच कहा जा सकता है कि यदि ‘खिलेगा तो देखेंगे’ नहीं लिखा जाता तो ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ नहीं लिखा जाता। दूसरा उपन्यास तीसरे का पूर्वाभ्यास था। अपने तीसरे उपन्यास से लेखक ने न केवल अपने उपन्यासकार की प्रतिभा की धाक जमा दी, बल्कि उपन्यास की परिभाषा का विस्तार भी कर दिया। एक कवि के रूप में समकालीन काव्य लेखन में उन्होंने अपनी अद्वितीयता तो पहले ही स्थापित कर दी थी। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ एक कथाकार के रूप में उनकी रचनात्मकता को एक ऐसी ऊँचाई पर स्थापित करता है जो ईर्ष्यणीय है।


प्रेमाख्यान का स्वरूप

‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ एक घरेलू प्रेमाख्यान है। एक ऐसा प्रेमाख्यान, जो अपने मिजाज में खांटी देसी यानी भारतीय है। यह एक विवाहित दंपति—सोनसी और रघुबर प्रसाद के प्रेम की कथा है। इस प्रेमकथा में कोई बड़ी घटना या घटनाओं की बहुलता नहीं है, बल्कि रोजमर्रा का जीवन है जिसमें घर-परिवार के लोग भी हैं और अड़ोसी-पड़ोसी भी, नौकरी भी है और अभाव भी। पर रोजमर्रा के इस जीवन में पल रहे पति-पत्नी के प्रेम में इतना रस, इतनी सांद्रता और गर्माहट है कि कई प्रेम कहानियाँ फीकी लगने लगती हैं। दुनिया की ज्यादातर प्रेम कहानियाँ अविवाहितों के प्रेम पर हैं और उनमें वर्णित प्रेम लोकाचार के विरुद्ध रहा है। विवाहितों का प्रेम ‘प्रेम’ की कोटि में माना ही नहीं गया क्योंकि यह लोकाचार की लक्ष्मण-रेखा के भीतर रहा। पर विनोद कुमार शुक्ल ने कम-से-कम हिंदी में इस उपन्यास के माध्यम से यह पहली बार दिखाया है कि वैवाहिक जीवन का घरेलू प्रेम भी इतना उत्कट और जादू से भरा हो सकता है। परंपरागत भारतीय जीवन के इस अत्यंत जाने-पहचाने और अतिपरिचित संबंध में प्रेम की इतनी विराट दुनिया मौजूद है, इसे दिखाकर विनोद कुमार शुक्ल ने न सिर्फ कथा साहित्य को, बल्कि वैवाहिक जीवन के प्रेम को भी नया बना दिया है।


कथानक और पात्र

उपन्यास रघुबर प्रसाद और सोनसी के दैनंदिन जीवन के इर्द-गिर्द लिखा गया है। रघुबर प्रसाद कस्बे से लगे कॉलेज में गणित पढ़ाते हैं। एक कमरे की कोठरी में पत्नी सोनसी के साथ रहते हैं। पर इस एक कमरे में जो जीवन वह जीते हैं, उसकी परिधि बहुत बड़ी है। इस कमरे में एक खिड़की है जिसे फाँदकर वे अपनी पत्नी के साथ अक्सर बाहर जाते हैं। बाहर के इस संसार में नदी और तालाब हैं, कई तरह के पक्षी हैं और एक बूढ़ी औरत है जो रघुबर प्रसाद को चाय पिलाती है और सोनसी को गहने देती है। रघुबर प्रसाद और सोनसी रात में इस तालाब में नहाते भी हैं और प्रेम भी करते हैं। मजे की बात यह है कि इस नदी, तालाब और बूढ़ी माई के पास सिर्फ खिड़की के रास्ते से अंदर जाया जा सकता है। बाहर से यह दुनिया अदृश्य है। खिड़की के रास्ते प्रवेश की जाने वाली यह दुनिया एक फंतासी की तरह है, पर यह फंतासी इतनी ‘स्वाभाविक’ लगती है कि अवास्तविक होने का एहसास नहीं कराती।

सोनसी और रघुबर प्रसाद के अलावा एक साधु और हाथी भी इस उपन्यास के प्रमुख चरित्र हैं। रघुबर प्रसाद जिस सड़क से कॉलेज जाते हैं, उससे हाथी पर सवार एक साधु भी रोजाना जाता है। साधु रघुबर प्रसाद को हाथी पर बिठाकर कॉलेज पहुँचाता है। शुरू में रघुबर प्रसाद संकोच करते हैं, पर बाद में हाथी पर बैठना वे स्वीकार कर लेते हैं। पर एक दिन साधु हाथी को छोड़कर कहीं और चला जाता है। हाथी अकेला रह जाता है। रघुबर प्रसाद साधु के घर पहुँचते हैं और वहाँ बँधे हाथी को भी मुक्त कर देते हैं।

इस विलक्षण भाषिक प्रयोग को यहाँ सिर्फ उदाहरण के सहारे कुछ-कुछ समझा जा सकता है—

“कितने दिन हो गए को कितने दिन हो गए में ही रहने देना चाहिए। दिन को गिनती में नहीं समझना चाहिए। किसी को भी नहीं। गिनती चारदीवारी की तरह है जिसमें सब मिट जाता है। अंतहीन जैसे का भी गिनती में अंत हो जाता था। जो गिना नहीं गया, उसका विस्तार अनंत में रहता था, कि वह कभी भी कहीं भी है। चाहे जितना छोटा या कम क्यों न हो। अभी सुबह से घर के सामने का हाथी—कब से है हो गया था। सुबह बीती थी। यह ऐसी बीती थी कि रोज की सुबह लग रही थी। रघुबर प्रसाद हाथी को हमेशा की तरह देख रहे थे। हाथी ने रघुबर प्रसाद को हमेशा की तरह देखा होगा, सोनसी हमेशा की तरह घर का काम करते हुए हाथी को देख जाती थी।”

 

काव्यात्मकता और गद्य

यों तो पहले भी कई उपन्यासों को कवित्वपूर्ण या काव्यात्मक कहा गया है, लेकिन ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की काव्यात्मकता भिन्न किस्म की है। दूसरे उपन्यासों को जब काव्यात्मक कहा गया तो उसका मतलब मोटे तौर पर भाषा का काव्यात्मक होना रहा है। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास की काव्यात्मकता केवल भाषा के स्तर पर नहीं है, बल्कि पूरे ‘विजन’ के स्तर पर है।

पर काव्यात्मक होने के बावजूद यह पूरी तरह गद्यात्मक है। इसका गद्य इतना ठोस, चुस्त और सुबोध है कि प्रेम जैसा अमूर्त विषय भी नितांत मांसल और आत्मीय लगता है।

स्त्री-पुरुष के बीच रति-संबंध का ऐसा वर्णन हिंदी गद्य में तो अभी तक दुर्लभ रहा है। लेखकीय संयम (जिस पर कई आलोचकों का ध्यान ज्यादा ही रहता है) की माँग करने वाले ही नहीं, ‘इरोटिक’ गद्य की वकालत करने वाले भी इस गद्य के आगे नतमस्तक होंगे।

विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास पर आरोप भी लग सकता है कि यह सामाजिक यथार्थवाद की धारणा को नज़रअंदाज़ करते हुए भारतीय निम्न-मध्यवर्गीय जीवन में विद्यमान संघर्ष की अनदेखी करता है। लेकिन आरोप तो हर अच्छी रचना पर लगते रहे हैं।

कई अच्छी बातें भी इस उपन्यास के बारे में कही जा चुकी हैं। उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन एक बार फिर से या कई बार कहना पड़ेगा कि हिंदी उपन्यास में ‘एक और नई शुरुआत’ हो चुकी है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)


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