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निर्मोही - ममता कालिया की कहानी | Mamta Kalia ki Kahani

रवींद्र कालिया का हिन्दी कहानी को जीवित और प्रफुल्लित रखने में अनमोल योगदान रहा है। हाल ही में उनके द्वारा संपादित ‘नया ज्ञानोदय’ का एक प्रेम महाविशेषांक पढ़ते हुए लगा कि अंक में बहुत कुछ ऐसा है जिसको हम (दुबारा) पढ़ना चाहेंगे। इस पुनर्प्रकाशन में सबसे पहले – 
... जब कहानी पढ़ने में उतना ही मज़ा आए जितना तब आता रहा हो जब दादी-नानी कहानी सुनाती थीं, तो चित्त प्रसन्न हो जाता है। ऐसा बहुत कम होता है लेकिन, ममता कालिया की ‘निर्मोही’ पढ़िए, बहुत प्यारी कहानी है। भाषा ने लूट लिया।  ~ सं० 

Hindi Story: योगिता यादव की लम्बी प्रेम कहानी — 'नदियों बिछड़े नीर'






योगिता यादव की लम्बी कहानी 'नदियों बिछड़े नीर' उनकी महारत — दिल्ली की बस्तियों में होने वाली घटनाओं, वहाँ के जीवन की बारीकियों पर मजबूत पकड़ — से उपजी प्रेम कहानी ... भरत तिवारी/शब्दांकन संपादक


"घर में लड़की और पड़ोस में लड़का जब जवान हो रहा हो तो 
   घर वाले ऐसी ही वाहियात हरकतें करते हैं! 
    वे प्रेम-प्यार से जु़ड़ी हर चीज को अश्लील बताने लगते हैं। 
अब फि‍ल्म के नाम में प्रेम था तो फि‍ल्म अश्लील हो गई। न खुद देखी, न मुझे देखने दी। 
  इसके बावजूद फि‍ल्‍म का गीत 
   “प्यार कभी कम नहीं करना कोई सितम कर लेना...” 
    हम दोनों की मुहब्बत का कॉमन राग बन गया।"

नदियों बिछड़े नीर

योगिता यादव


इस बार अमलतास पर फि‍र उसके गुस्‍से जैसे चटख बुलबुलेदार फूल चढ़े थे। 
मैं फि‍र उसे मनाने को बोझिल हुई जाती थी। 
मैं जानती हूं कि इन्‍हें बस छूने भर की देर है, 
गुस्‍से के ये बुलबुले हाथ लगते ही झड़ जाएंगे। 
रूठना उसकी आदत है और मना लेना मेरी फि‍तरत।

हम एक-दूसरे के परिवारों के प्रति हिकारत लेकर बड़े हुए थे। हमें बताया गया था कि हमें एक-दूसरे से फासला बना कर रखना है। पापा इसे शहरी बदलाव कहा करते थे, वरना अगर गांव में होते तो घर क्‍या हमारे घूरों में भी अच्‍छा खासा फासला होता। मां की कोशिश शहरी मजबूरी के बावजूद यह फासला बनाए रखने की थी। मां कभी-कभी बहुत दुखी होकर कहती, हमने कितनी मुश्किल से रूपया पैसा जोड़ कर यह घर बनाया था पर पड़ोस यही मिलना था।

हम दोनों के घर की दीवारें एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं। पर परिवारों में बहुत फासला था। मेरे पापा एक सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। और उसके पापा की मीट की एक छोटी-सी  दुकान थी। जिस पर अकसर बकरे कटते। दुकान घर से काफी दूरी पर थी।

वे अपने घर को खूब साफ सुथरा रखने की कोशिश करते। पर दरवाजे पर बंधी बकरी उनकी कोशिशों पर दिन भर मींगनी करती रहती। बकरी बेचारी का क्‍या दोष, वो तो इतनी भोली थी कि जब उन्‍हें चाय बनानी होती वे गिलास लेकर उसे दोह लेते। असल दिक्‍कत तो मीट की उस दुकान से थी। उसकी मां और दादी अपनी स्वच्छता पर लाख कसीदे पढ़ें पर उस दुकान के कारण हमारे परिवार की घृणा उनके परिवार के प्रति कम नहीं होती थी।

इसके बावजूद मां का मानना था कि बच्‍चे सबके साझे होते हैं, अगर वे साफ सुथरे हों तो, और वो तो हमेशा से ही बहुत साफ सुथरा रहा करता था। पापा की राय उसके बारे में गुदड़ी का लाल जैसी थी। यही वजह है कि परिवारों का आपसी फासला कभी हमारे मन और व्‍यवहार में नहीं उतर पाया।

हम दोनों एक ही स्‍कूल में पढ़ते थे। वह मुझसे दो क्लास आगे था। जिस स्‍कूल में पढ़ना मेरे लिए बहुत साधारण बात थी, वहां उसके पढ़ने पर पूरे परिवार के सपने जुड़े थे। मेरे घरवालों को यकीन था कि मुझे तो पढ़ना ही है। क्‍योंकि परिवार में अनपढ़ तो क्‍या कम पढ़ा लिखा भी कोई नहीं था। दिन भर कमर में पल्‍लू खोंस कर घर गृहस्‍थी में रमी रहने वाली मेरी मां भी बीए पास थी। रमी रमाई घर गृहस्‍थी के बीच अगर कभी उन्‍हें दुखी होना होता तो बस एक ही बात वह कहती, मैं भी बीएड कर लेती अगर शादी न हो गई होती।

वहीं दूसरी ओर उसके घर में गणित के दो कठिन सवाल हल करवाने वाला भी कोई नहीं था। उसकी मां चाहती थी कि वह पढ़-लिख कर बड़ा अफसर बने। और इसके लिए वह कोई कोर कसर बाकी नहीं रहने देना चा‍हती थी। भले ही इसके लिए उन्‍हें पड़ोसियों की चिरौरी करनी पड़े। बात व्‍यवहार में कुशल उसकी मां ने बिना किसी फीस के उसके पढ़ने का इंतजाम मेरे पापा के पास कर दिया था। होमवर्क करने के लिए वह दोपहर बाद मेरे पापा के पास आ जाता। पढ़ाई के प्रति‍ उसकी लगन पर अकसर मुझे ताने मिलते और मजबूरन मुझे भी उस समय बस्ता लेकर बैठना पड़ता। शायद यही वजह थी कि मुझे कभी पढ़ाई, पढ़ाई लगी ही नहीं। पहले मजबूरी, फि‍र उसका साथ बने रहने का बहाना लगने लगी।

हम दोनों साथ-साथ पढ़ते और पढ़ने के बाद मां हम दोनों को दूध, बिस्‍कुट, मिठाई वगैरह देती। तब उसे मेरी मां बहुत अच्छी लगती। पर मुझे उसकी मां हमेशा बहुत प्यारी लगती थी। एकदम दुल्‍हन जैसी। वह ज्यादा समय मुंह पर काना घूंघट ओढ़े रहती। उनकी एडि़यां हमेशा मेहंदी में लाल हुई रहती और हाथों में तोतयी रंग की चूड़ियों के गजरे भरे रहते। कलाई में चूड़ियां इस कदर कसी रहती कि उनकी कलाई का उस जगह का रंग ही बिल्कुल अलग हो गया था।

उन्हें सिर्फ चूड़ियां पहनने ही नहीं, पहनाने का भी बहुत शौक था। वे अकसर मेरी मम्मी को कहती, 
“ऐ मधु की मम्मी, चार चूड़ियों का पहनना भी क्या पहनना। 
कम से कम दो-ढाई दर्जन तो होनी ही चाहिए।“ 
मेरी मां को इस बात में जितना गंवारपना लगता मुझे यह बात उतनी ही प्यारी लगती थी। और जब भी मौका मिलता मैं उनके संग जाकर हाथ भर-भर कर चूड़ियां पहन आतीं। मां बहुत कम बाजार जाती थीं, मैं बाजार घूमने का शौक उन्‍हीं के साथ पूरा करती थी। इस घुमक्‍कड़ी पर अकसर घर में मेरी झाड़ पोंछ हो जाती।

पर मेरे पैर में तो चक्‍कर लगे थे। मुझसे टिक कर बैठा ही नहीं जाता था। एक पैर इस घर तो दूसरा पैर उस घर। पैरों के चक्‍कर हों या हाथों में चूड़ियां, मेरे शौक उसकी मां के साथ ही पूरे होते थे। इसके लिए मुझे ज्यादा कुछ नहीं करना था बस आंटी के हाथों में मेहंदी लगानी थीं। 

दादी तो उसकी और भी नखरीली थी। वे अपने लिए अलग सिंदूर वाली मेहंदी बनातीं। उस टपकती हुई गीली मेहंदी को उनकी ढेर सारी लकीरों वाली हथेली पर मांडना बहुत मेहनत का काम था। पर लगानी पड़ती थी, बाजार जो जाना होता था, आंटी के साथ। इतनी जोड़तोड़ और मेहनत बस मैं उन तोतयी रंग की चूड़ियों के लिए करती थी। मेरी इस मेहनत की कमाई को मां देखते ही बुरी तरह खीझकर उतरवा देती। और कहती 
“ये खटीकनी हमारे घर कहां से आ गई...” 

कम तो दुल्हन-सी दिखने वाली उसकी मां भी नहीं थी। वह जब भी उनकी मीट की दुकान पर बैठने को मना करता, तो उसे खूब मोटी-मोटी गालियां पड़तीं और उनके शुरू में या अंत में पंडित, पुरोहित ही जुड़ा होता। और इस तरह हम एक-दूसरे के हो जाते। 

वो पंडित हो जाता, मैं खटीकनी हो जाती।

पर गालियों में होना सिक्‍का उछाल देने जितना आसान है। जबकि मुहब्बत में होना ऊन का एक-एक फंदा बुनना जैसा सघन और मुश्किल।

...और समाज में एक-दूसरे का होना...इस बाधा दौड़ का कोई क्‍या हिसाब दे !

[]

हमारी उम्र बढ़ रही थी और इसी के साथ हमारे साथ रहने के कारण और हमें दूर रखने की पहरेदारियां भी बढ़ रहीं थीं। उसके घर कुनबे में तो क्‍या, दूर की रिश्‍तेदारियों में भी ऐसा कोई नहीं था जो मुझे न जानता हो। जो भी घर आता वह पूछता वीनू की सहेली नहीं नजर आ रही। और बस मैं नजर आ जाती।

पर अब ये सवाल हमें ताना जैसा लगने लगा था और हम दोनों ही इस पर झिझक जाते। अब हम दूध मिठाई में बहलने वाले बच्‍चे नहीं रह गए थे। हम चोरी छुपे उसके घर में रखे डैक यानी म्‍यूजिक सिस्‍टम पर डांस किया करते थे। पर किसी के सामने बात करने से भी कतराते। बचपन का हंसने, खेलने वाला साथ कहीं भीतर ही भीतर गहरा हो रहा था। और हम इसमें डूबे रहते। उनके आंगन में बंधी वह बकरी जो वीनू को बहुत प्‍यारी थी, मैं उसे खूब खूब लाड करती। उसकी आधी टांगों को मेहंदी में रंग देती। उसके गले में घुंघरूओं की माला पहना देती। ये उनके घर आई अब तक की तीसरी बकरी थी, पिछली दो कहां गईं, मुझे कुछ ध्‍यान नहीं, पर ये वाली जिसे हम प्‍यार से मुनिया कहते थे हमारी लाडली थी। उसकी पीठ के एक तरफ मेहंदी से मेरे हाथ का छापा था और दूसरी तरफ वीनू के हाथ का छापा।

पर पता है एक दिन क्‍या हुआ...
उस भोली-सी बकरी ने 
बिजली का तार चबा लिया। 

वीनू उस वक्‍त अपने पापा के साथ मीट की उसी दुकान पर बैठा हुआ था, जहां जाना उसे बिल्‍कुल पसंद नहीं था। गर्मी बहुत थी। उसकी मम्‍मी, दादी, मैं, मेरी मम्‍मी हम सब अपने-अपने जुड़ते हुए आंगनों में बैठे हुए थे। उन्‍होंने टेबल फैन लगाया हुआ था। जिसका लंबा तार बाहर से अंदर की ओर जा रहा था। सब अपने-अपने हंसी मजाक में व्‍यस्‍त थे।

मुझे याद है हम दोनों की मम्मियां एक-दूसरे से कुछ ऐसे मजाक कर रहीं थीं, जिन्‍हें मेरी मौजूदगी के कारण वे छुपा रहीं थीं। बात मम्‍मी की बगल से उधड़े ब्‍लाउज पर शुरू हुई और पहुंचते-पहुंचते उनके बढ़ते पेट पर पहुंच गई। जो अब परमानेंट हो चला था।

इस बीच किसी का ध्‍यान ही नहीं गया कि वो मूर्ख बकरी पत्तियां चबाते चबाते टेबल फैन का तार ही चबा गई। तार चबाती बकरी कांप कर गिर गई। पर हमारा ध्‍यान उस ओर तब गया जब पंखा बंद हो गया।

वीनू की मम्‍मी दौड़ी बकरी की तरफ और उसे दोनों हाथों से अपनी गोद में उठा लेना चाहा पर बकरी के शरीर में करंट दौड़ रहा था। वह इतना तेज था कि आंटी कांप गई और दूर छिटक गईं। बकरी को वे अपनी बाजुओं में समेट ही नहीं पाईं और कांपती हुई बकरी जमीन पर निढाल हो गई। मैंने दौड़ कर पंखे का स्विच बंद किया। पर तब तक बकरी निढाल होकर जमीन पर गिर पड़ी थी।

वीनू की प्‍यारी बकरी करंट लगने से मर गई। वह दौड़ता हुआ आया जब उसे इस बात का पता चला। पीछे-पीछे उसके पापा भी अपने अंगोछे से पसीना पोंछते आ रहे थे। यह उनके घर में शोक का बड़ा भारी दिन था। वीनू फूट-फूट कर रोया जैसे कोई मां रोती होगी अपने बच्‍चे के मरने पर। मैं भी रोयी, आंटी भी रोयी, मेरी मम्‍मी ने भी एक भोली बेजुबान की मौत का यह हृदय विदारक दृश्‍य देखा था। उनकी आंखें भी सीज गईं। वीनू उस बकरी को छोड़ता ही नहीं था पर उसके पापा सचमुच के कसाई निकले। उन्‍होंने थोड़ी देर अफसोस किया। कब, क्‍या, कैसे हुआ का हाल समाचार पूछा और सलाह करने लगे कि बकरी का क्‍या करना है। आंटी का मानना था कि बकरी को जमीन में गाड़ दिया जाए। जैसा अकसर पालतू जानवरों के साथ करते हैं।

पर वीनू के पापा के लिए तो वह अब बस मांस भर ही थी। ये सिर्फ बकरी नहीं, हमारी प्‍यारी मुनिया थी। पर वे नहीं माने। वे उसे अपने उसी अंगोछे में लपेट कर दुकान पर ले गए। पैरों में मेंहदी, गले में घुंघरू पहनकर दिन भर ठुमकने वाली हमारी प्‍यारी मुनिया का वे कुछ किलो टुकड़ा-टुकड़ा मांस बना लाए। वीनू का मन वितृष्‍णा से भर गया। उसने अपने पापा को कई तरह की गालियां दीं। पापा ने उसकी गालियों के जवाब में उसके गाल पर कई झापड़ जड़ दिए। मां दोनों के बीच सुलह करवाने, समझाने में चक्‍कर घिन्‍नी हुई जाती थी। सारी गली ने उनके घर का यह तमाशा देखा। बेटे के दुख में शामिल मां की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे और एक गुस्‍सैल पति से डरने वाली पत्‍नी, उस मांस को पकाने के लिए तेल-मसाले तैयार कर रही थी।

कोई भी शोक अकेले नहीं आता। वह अपने साथ और कई शोक लेकर आता है। यह दृश्‍य भी जैसे बकरी की मौत के दृश्‍य का ही विस्‍तार था। उनके घर में शोक, घृणा, वितृष्‍णा के स्‍थायी रूप से पसर जाने का संकेत भी। मम्‍मी ने जब यह बात पापा को बतायी तो उनकी बातों में वह सब दुख, दर्द, शोक और वितृष्‍णा महसूस हो रही थी। मेरी तरह मम्‍मी भी इस पूरे प्रकरण पर बहुत दुखी थीं। वीनू ने उस दिन खाना नहीं खाया। आंटी ने बताया कि उनसे भी खाया नहीं गया, मीट कड़वा-सा हो गया था। बस इसके पापा और दादी ने खाया। दादी से भी खाया नहीं जा रहा था। पर भूख लगी थी और बेटे का डर था, तो खाना पड़ा। वीनू ने अगली सु‍बह भी कुछ नहीं खाया। स्‍कूल भी भूखा ही गया और लौटकर भी कुछ नहीं खाया। जब वह पढ़ने भी नहीं आया तो पापा को चिंता हुई और उन्‍होंने मम्‍मी को उसे लिवा लाने को कहा। 

पर मम्‍मी ने उनके घर जाने से साफ मना कर दिया, 
“मैं नहीं जाती उन कसाइयों के घर। 
जतन से पाली बकरी को भी जो खा जाएं, उनसे कैसा मेल प्रेम। 
हम दूर ही अच्‍छे। मैं तो पहले ही कहती थी, कहीं ओर मकान देखो।”

पापा ने जब जोर देकर कहा तो मम्‍मी ने मुझे भेज दिया उसे बुलाने। ऐसे तो मम्‍मी बार-बार पूछने पर भी मुझे वहां जाने देने को मना कर देती थी, पर इस समय बात कुछ और थी।

मैं उनके घर पहुंची तो वह पलंग पर औंधा पड़ा अब भी सुबक रहा था। गुस्‍से में भरा हुआ। उमंगों से भरा वो प्‍यारा वीनू जो बात-बात पर खिलखिला पड़ता था उसकी आंखों में गुस्‍से ने डेरे डाल लिए थे। मैंने जब उसे मनाने और उठाने की कोशिश की तो वह मुझ पर ही भड़क गया।

“ये सब तो अनपढ़ हैं, तू क्‍या कर रही थी तब। तुझे नहीं पता चला कि मुनिया क्‍या खा रही है। तू लकड़ी से बिजली का तार हटा भी तो सकती थी।”

“मैंने बंद तो किया था पंखे का बटन”

“तब, जब मेरी मुनिया मर गई।”

“सॉरी वीनू, मुझसे गलती हो गई। पर उस वक्‍त हम में से किसी को कुछ सूझा ही नहीं।”

“मेरे बाप को कसाई कहती हैं”, 
उसके इतना कहते ही मैं चौंक गई।

ये तो हम खेल-खेल में एक-दूसरे से ही कहा करते थे। उसे इस तरह सबके सामने नहीं कहना चाहिए था। कहने को तो मैं भी कह दूं कि वह कभी-कभी मेरे पापा को टीचर नहीं फटीचर कहता है। पर अभी उन सब बातों का समय नहीं था। वह दुख और गुस्‍से में था।

वह और गुस्‍से में भरकर बोला, 
“तुम सब भी कसाई हो। ये मेरी मां भी। जा खा ले, बहुत स्‍वादिष्‍ट मीट बनाती है मेरी मां...।”

कहते-कहते वह फि‍र से सुबकने लगा और उसके साथ मैं भी...मुझे कांपकर गिरती हुई मुनिया की याद हो आई। काश कि मैं उसे बचा पाती। 

मैंने बिना किसी की भी परवाह किए वीनू को गले से लगा लिया। कि जैसे मैं अपनी अकर्मण्‍यता पर माफी मांग रही हूं। वह और भी रोने लगा। उसकी हिचकियां मुझे महसूस रहीं थीं। मैं उसकी पीठ सहलाती रही तब तक, जब तक वह सामान्‍य नहीं हो गया।

“अब चल, पापा ने बुलाया है।”

वह बिना कुछ बोले आंखें पोंछते हुए मेरे साथ हो लिया। मैंने उसका बस्‍ता उठा लिया था।

पर उस दिन हम पढ़ें नहीं। उसकी लाल आंखें और बुझा हुआ चेहरा देखकर मम्‍मी का दिल भर आया। मम्‍मी ने मनुहार करके उसे खाना खिलाया। पापा ने हम दोनों से समाज, दुनिया, सपनों पर और न जाने कितनी ही बातें की। उन्‍होंने हम दोनों को हरिवंश राय बच्‍चन की कविता सुनायी – 
जो बीत गई सो बात गयी

अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई...

उस दिन हमने जाना कि भावनाओं की गुत्‍थी सुलझाना गणित के सवाल सुलझाने से ज्‍यादा जरूरी है। और कविता ही है जो मुश्किल-जटिल समय में भी जीवन की नर्मी बचाए रखने की ताकत रखती है।

हमारा मन बदल रहा था। और हममें एक नई नजर अभी-अभी कौंधी थी।

[]

उस घटना के बाद से वीनू पहले से ज्‍यादा गुस्‍सैल और एकांतवासी होने लगा था। वह अब बर्दाश्‍त और आक्रोश को अपनी ताकत बनाना सीख रहा था। मीट की वह दुकान उसकी आंखों में चढ़ गई थी, जहां जाती हुई मुनिया टुकड़े-टुकड़े की गई थी। उसे वह बंद करवाकर ही माना। इसके लिए उनके घर में बहुत कोहराम मचा। उसकी उम्र अब वह नहीं रह गयी थी कि जिसमें बाप अपने बेटे पर हाथ उठाए, पर ऐसा कई बार हुआ और वह बर्दाश्‍त करता रहा। पर अपनी जिद से डिगा नहीं। सुंदर दुल्‍हन-सी दिखने वाली उसकी मां एक दम रूखी सूखी-सी हो गई थी बाप-बेटे की हर रोज की क्‍लेश में।

अपने पापा से तो उसकी बोलचाल बिल्‍कुल बंद ही हो गई जैसे। वे जब भी कोई बात करते तो वह बस हां, ना में ही जवाब देता। मेरे पापा ने उसे कभी-कभार समझाने की कोशिश की पर उन्‍हें लगा कि ये अनावश्‍यक हस्‍तक्षेप है किसी के पारिवारिक मामले में। अंदर-अंदर मां जरूर खुश होती जब उन्‍हें पता चलता कि लड़ाई उस मीट की दुकान को बंद करवाने की है, जिससे वे हमेशा से घृणा करती रहीं हैं। अंतत: वह दुकान बंद करवाकर ही माना।

नहीं, असल में दुकान बंद नहीं हुई, बदल गई। दुकान पर रंग रोगन करके उसे नया--नकोर बना दिया गया और ‘कच्‍चा झटका मीट शॉप’ का बैनर उतर कर उसकी जगह ‘महामना स्‍टेशनरी स्‍टोर’ खुल गया। अब ये दुकान ही वीनू का काबा हो गई। वो दिन रात वहीं पड़ा रहता। सुबह कॉलेज जाता और कॉलेज से लौटते ही दुकान पर बैठ जाता। दिन भर वहीं बैठे-बैठे पढ़ता-लिखता रहता। अब घर में कुछ शांति आ गई थी।

ऐसे ही सुबह एक दिन वह कॉलेज जाने को तैयार हुआ कि अचानक फि‍र उसके गुस्‍से का भूचाल आ गया। मैं अब तक नहीं समझ पाई कि वह इतना गुस्‍सा लाता कहां से था। उसे हर आदमी चालाक लगता। उससे बात करो तो उसके पास हमेशा एक अलग ही दर्शन, अलग ही कारण होता। जो लोग उसकी तारीफ करते हैं, उनके बारे में भी उसकी यही राय थी कि वे बहुत चालाक हैं और उससे ईर्ष्‍या करते हैं।

और उस दिन तो वह अपनी मां पर ही चीख पड़ा। मैं तो एकदम कांप ही गई थी, कोई अपनी मां से ऐसे कैसे बात कर सकता है। पर बाद में समझ आया कि असल में उसका गुस्‍सा अपनी मां पर नहीं उस कूड़े के ढेर पर था। जिसे हम बचपन से देखते आ रहे थे। पर आज तो खंभा नहीं कि गुस्‍सा नहीं।

असल में उनके घर के बाहर एक बिजली का खंभा था। आसपास के पांच-सात घरों के लोग उसी खंभे के नीचे अपने घर का बचा हुआ खाना और फल-सब्जियों के छिलके फेंका करते थे। जिससे दिन भर बदबू उठती रहती। सुबह होते ही आंटी इन छिलकों और कूड़े पर पड़ोसियों को गाली देना शुरू कर देती। पर कोई घर से बाहर ही नहीं निकलता। सबको जैसे सांप सूंघ जाता। कोई नहीं मानता कि ये कूड़ा उन्‍होंने फेंका है। कि जैसे कूड़ा आसमान से गिरा हो या धरती से प्रकटा हो। गालियां दे चुकने के बाद वे एकदम से थक जाती। फि‍र भीतर जाती, घड़े से पानी निकाल कर लाती और बाहर उसी खंभे के पास ओक लगा कर पानी पीती। हाथों को झटकती हुई वापस अंदर लौट जाती। कूड़ा और बदबू सब उसी तरह कायम रहते।

आज सुबह जब आंटी ने गालियां देनी शुरू की ही थी कि वह चीख पड़ा। वह अपनी मां की निरर्थक गालियों को झिड़कते हुए उस खंभे पर चीखा था जिसे लोगों ने कूड़े का खत्‍ता बना दिया था। उसे लगने लगा था कि जान बूझकर उसी के घर के बाहर कूड़े का यह ढेर लगाया गया है।

वह चीखते हुए बोला था, 
“बनियों के घर के बाहर कोई नहीं फेंकेगा, पंडितों के घर के बाहर कोई नहीं फेंकेगा, चौधरियों के घर भी साफ-सुथरे, बस एक हम ही गंदे बच गए इस पूरी गली में, जिनके लिए बरसों से कूड़े के ढेर लग रहे हैं। वहां क्‍यों, आओ हमारी छातियों पर लगा दो ये ढेर...बरसों से लगाते ही आए हो।”

हर घड़ी अपने परिवार से लड़ने को तैयार वीनू क्‍या अब गली वालों से लड़ने को तैयार है। मुझे किसी अन्‍होनी की आशंका-सी हुई। पर यह आशंका एकदम ठंडी पड़ गई जब मैंने देखा कि उसने जगदीश को बुलवाकर खंभे के पास का सारा कूड़ा साफ करवा दिया है। बात इतने पर ही खत्‍म नहीं हुई। कूड़ा साफ हो जाने के बाद वीनू ने उसी बिजली के खंभे पर लाल रंग के मोटे अक्षरों में अपना नाम लिख दिया - ‘विनीत कुमार महामना’। कि जैसे यह घोषणा थी कि ये खंभा अब उसका हुआ। अब इस पर किसी के घर का कूड़ा नजर नहीं आना चाहिए।

मुझे उसकी इस हिम्‍मत पर बड़ा प्‍यार आया। एक पल को ऐसा लगा कि जैसे नाम खंभे पर नहीं मेरे दिल पर लिख दिया गया है।

एक सिवाए मेरे, बाकी सबको खंभे पर इस तरह उसका नाम लिखा जाना बहुत गलत लगा।

कि यह तो सरकारी खंभा है, इस पर कोई अपना नाम कैसे लिख सकता है।

खूब सुगबुगाहटें हुईं। बात बिजली के दफ्तर में जाकर शिकायत करने की भी हुई। पर सब बातें बस बात पर ही खत्म हो गई। इससे ज्‍यादा फुर्सत किसी के पास नहीं थी।

नाम लिखा जाना भले ही ठीक न लगा हो पर कूड़े के ढेर को साफ करवा देने पर पापा भी खुश हुए। जबकि मां ने इसे वीनू की हेकड़ी माना।

“कल तक जो लड़का चार लाइनें लिखने के लिए तेरे पापा के सामने घुटनों पर बैठा रहता था आज कहता है पंडितों के घर के सामने फेंकों कूड़ा ...”

“मम्‍मी उसने ऐसा तो नहीं कहा था”

“तू चुप कर, तुझे ज्‍यादा समझ आती है उसकी बातें। 
आजकल खूब देख रही हूं मैं। 
खबरदार जो उन खटीकों के घर की तरफ मुंह भी किया...
आज उसकी इतनी हिम्मत कि बिजली के सरकारी खंभे पर अपना नाम लिख दिया। 
जरा भी हाथ नहीं कांपे उसके”, 
कहते हुए मां ने अजीब-सा मुंह बनाया पर शांत नहीं हुई।

“आजकल जगदीश से खूब याराना गांठ लिया है उसने। बनेगा उसी के जैसा।“

काग पढ़ाए पींजरा, 
पढ़ गए चारों बेद, 
जब सुध आई कुटुंब की, 
रहे ढेढ़ के ढेढ़” 
मां ने एक पुरानी और प्रचलित कहावत में उसकी पढ़ाई-लिखाई का बोरिया बिस्‍तर समेट दिया।

मम्‍मी की बातें न सिर्फ कड़वी थी, बल्कि अभद्र भी थी। जो मुझे और पापा दोनों को बहुत खराब लगी। पर सच्‍चाई यही थी कि जगदीश आजकल वीनू के आसपास ही मंडराता रहता था।

काली रंगी हुई दाढ़ी, पक्का रंग और ऊंचे कद का जगदीश हमारे मोहल्ले का वह हरफनमौला आदमी था जो किसी के भी काम आ सकता था। बिजली का प्‍लग ठीक करने से लेकर रुकी हुई नाली साफ करने तक। ज्‍यादा बार उससे रूकी हुई नालियां ही साफ करवाई जाती या बरसात में गटर के ढक्‍कन खुलवाए जाते।

यानी जो काम कोई नहीं करता था, उसे सिर्फ जगदीश ही कर सकता था। मोहल्‍ले में उसकी उपयोगिता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब घर के किसी बच्‍चे को चिढ़ाना होता, तो मां-बाप कह देते, “तू हमारा है ही नहीं, तुझे तो हम जगदीश से लाए थे।“

और बच्‍चा पैर पटक-पटक कर खूब रोता।

काम होने के बाद किसी को जगदीश का अपने घर के बाहर खड़ा होना भी पसंद नहीं था। शाम ढले ही वह शराब के नशे में कहीं न कही पड़ा होता। कोई भी काम करने के लिए उसे बस ‘ईनाम पार्टी’ की जरूरत होती थी। ईनाम पार्टी यानी उसकी सस्‍ती शराब और सौ पचास रुपये। जिससे वह उसके साथ कुछ खाने को खरीद सके ।

यही जगदीश जब तब विनीत के पास आकर बैठने लगा था। इस बात से मुझे अच्‍छी खासी चिढ़ होने लगी थी। इसी जगदीश ने इस बार वीनू के कहने पर उसके घर के बाहर लगे कूड़े का ढेर पूरी तरह साफ कर दिया था।

मैंने यानी ‘मधुकेशी वशिष्ठ’ उर्फ मधु, नहीं वीनू की मधु ने...जब इस बात का समर्थन किया तो इसे सफाई का समर्थन कम और वीनू का समर्थन ज्यादा माना गया। और बतौर सजा मुझे उस घर से कोई भी संपर्क रखने की सख्त मनाही कर दी गई। ‘कौन मानेगा कि मैंने ये मनाही मान ली होगी।’

आंटी जरूर पड़ोसियों के अबोले पर कुछ घबरायी। घर के माहौल से तो वह पहले ही दुखी थी। अगर पड़ोसियों ने भी उनसे बोलना-बतलाना बंद कर दिया, तो वह कैसे अपना मन हल्‍का करेंगी।

“इसमें इतना घबराने की क्‍या बात है आंटी, वीनू ने कुछ गलत नहीं किया। सफाई ही तो करवाई है और सफाई करवाना कौन-सी गलत बात है। आप देखती नहीं थीं कितना बुरा लगता था कूड़े का वह ढेर।“

मैंने समझाया तो उनमें कुछ हिम्‍मत आई। मुझसे बात करके उनका मन कुछ हल्‍का हुआ था। उन्‍होंने खुश होकर मेरे सिर की मालिश की। उनके प्‍यार जताने का यही तरीका था। जब खुश होती तो मेरे लिए नई चूड़िया ले आतीं। कांसे की चम्‍मच में ताजा काजल पार देती या सिर की मालिश कर देतीं। वे अकसर ललचाती हुई कहतीं, “मधु की मम्‍मी लड़की किस्‍मत वाली मां को मिलती है। 
कम से कम दो घड़ी बैठकर मन तो हल्‍का हो जाए है। 
लड़का तो बड़ा हुआ नहीं कि मुंह फेरके भी नहीं पूछता।” 

अब तो वीनू सच में किसी को नहीं पूछता था। बस अपनी दुनिया में गुम रहता। आंटी हौले से कहतीं, ज्‍यादा पढ़-पढ़ के इसका दिमाग खराब हो गया है और हम दोनों खिलखिला पड़ते।

पर वीनू भी कहां मानने वाला था। गली में उसके गुस्‍से के भूचाल और सफाई अभियान को अभी कुछ ही दिन बीते होंगे कि उसने खंभे पर कद भर की उंचाई पर टिन का बना लैटर बॉक्स भी तार से बांध दिया, 
“कि मेरी चिट्ठियां अब इसमें डाली जाएं।”

मैं तो बस हैरान ही हो रही थी कि समय कितनी तेजी से भाग रहा है। जिसके साथ कभी मैं स्‍कूल की आधी छुट्टी में झूला झूलने भाग गई थी, वह अब अपने तरीके से अपने समय, अपने आसपास की हर चीज को बदल रहा है। वह जिस बड़प्‍पन के साथ मुझसे पेश आने लगा था, अब मुझे उसका नाम लेते भी संकोच होता।

कितनी ही जन्‍माष्‍टमियों पर हम पड़ोस के मंदिर में संग-संग राधा-कृष्‍ण बने थे। पर इस बार मैंने उसे सरस्‍वती पूजा पर मोर पंख दिया तो उसने पूजा को ही ढकोसला बता दिया। वीनू अब बहुत सुंदर-सुंदर और अनोखी बातें करने लगा था। उसने बताया कि सरस्‍वती माता कोई नहीं है। कोई हुई हैं तो सावित्री बाई फुले, जिन्‍होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए तब संघर्ष किया जब भारत में कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता था।

हम जब भी बैठते वह किसी न किसी महान व्‍यक्ति के विचार मुझे बता रहा होता। जैसे पापा हमें बचपन में बताया करते थे। वह मुझे आसपास की, समाज की, राजनीति की कुटिलताओं की बातें बताता और मैं मन ही मन उस पर मुग्‍ध होती रहती।

मैंने पापा को हर रोज सुबह अखबार पढ़ते देखा था। पर वीनू तो जैसे अखबार से चिपका ही रहता। अखबारों से कटिंग काटकर वह उसकी चिंदियां कर देता पर फि‍र भी फेंकता नहीं। कि बाद में काम आएंगे, अभी कुछ पढ़ना बाकी रह गया है। प्रतियोगिता दर्पण से लेकर जाने कहां-कहां की मैगजीन उसके पास आने लगीं थीं।

वह तमाम अखबारों के संपादकों के नाम पत्र लिखता। और जब अखबार में उसके पत्र छपते तो वह सबसे पहले मुझे दिखाता। यह उसकी ऐसी कमाई थी जिसकी खुशी वह सिर्फ मेरे साथ बांटा करता था। एक बार जब अखबार में उसका लिखा उसकी फोटो के साथ छपा तब तो हम दोनों खुशी से निहाल ही हो गए थे।

कितना इंटेलीजेंट है ‘मेरा वीनू’, कि उसकी फोटो अखबार में छपी है! फोटो के नीचे लिखा था विनीत कुमार महामना। पूरे पृष्‍ठ पर के सबसे सुंदर तीन शब्‍द। 

खुशी को सेलिब्रेट करते हुए वह मेरे लिए वही तोतयी रंग की चूड़ियां ले आया था।

आंटी से मिलने वाली चूड़ियों से अलग थी इन चूड़ियों की खुशी, तब और भी जब मेरी कलाई में ये चूड़ियां चढ़ाई भी उसी ने। कि जैसे कान्‍हा जी मनिहारे का भेस बना आए हों। ...एकदम वही वाली फीलिंग आ रही थी।

डर, संकोच और खुशी का मिलाजुला भाव मेरी कलाई में खनक रहा था, और मेरे झुके हुए सिर पर हल्की-सी चपत लगाते हुए उसने कहा था-
“कभी-कभी पढ़ भी लिया कर, जब देखो तब बनाव-सिंगार में ही ध्यान लगा रहता है तेरा।”

मैं चौंकी पर खुशी से, “पढ़ती तो हूं, जरूरी है क्या, कि तुम्हारी तरह सारा दिन किताबें लेकर बैठी रहूं।”

“पेपर कब से हैं तेरे”

“अभी तो खत्म हुए, वो भी बोर्ड के एग्‍जाम। तुम्‍हें तो कुछ होश ही नहीं रहता।”

“अच्‍छा बारहवीं पास कर जाएगी अब तू...अरे बाप रे। इतना पढ़ गई और एक बार भी फेल नहीं हुई”, उसने मुझ पर ताना कसा।

फि‍र मुस्‍कुरा दिया, “तो अब क्या करेगी?”

“कुछ नहीं आराम करूंगी, फि‍र तुम्हारे कॉलेज मे एडमिशन लूंगी।”

“उससे क्या होगा?”

“उससे क्या होना है, खूब मस्ती करेंगे, साथ में कॉलेज में। यहां डर-डर कर मिलना पड़ता है।” 

“मैं कॉलेज में ज्यादा मस्ती-वस्ती नहीं करता, बस अपने काम से काम रखता हूं।”

“वो तो सभी कहते हैं, पर कॉलेज तो नाम ही मस्‍ती का है और साथ में रहेंगे तो खूब मजे करेंगे। हम साथ में घूमेंगे।

“कैसे? डीटीसी में? न मेरे पास बाइक, न स्‍कूटर।” 

“बाबा रे, कितने तर्क देते हो। रहेंगे तो साथ ही न।”

“यहां एक मोहल्ले में, एक गली में होकर क्या हो गया, जो एक कॉलेज में होकर होगा।”

“मतलब?”

“मतलब ये कि जिस कॉलेज में अच्छा कोर्स मिले, उसमें एडमिशन लेना। कॉलेज में एडमिशन की बहुत मारामारी होती है। अगर नंबर कम आए तो बहुत मुश्किल होगी!”

“क्‍यों आएंगे मेरे नंबर कम?”

कह तो दिया, पर हल्‍का-सा एक डर भी बैठ गया मन में।

उसकी ये छोटी-छोटी सलाहें मुझमें एक आत्‍मविश्‍वास भरे रहती थीं, कि जो वीनू कहेगा, ठीक ही होगा। मैं जैसे आंख मूंदकर उस पर विश्‍वास करती आई थी।

[]

ये एक गुस्‍सैल लड़के और हरदम मुस्‍कुराती रहने वाली लड़की की मुहब्‍बत के फड़फड़ाते दिन थे। विनीत कुमार महामना और मधुकेशी वशिष्‍ठ के परिवारों के फासले के नहीं वीनू और मधु के प्‍यार में पगे हुए दिन।

जो चिट्ठियां डाकिये द्वारा लापरवाही से फेंके जाने पर इधर-उधर उड़ती फि‍रती थीं वे अब टिन के उस लैटर बॉक्‍स में आने लगीं। जो उसने बिजली के खंभे पर बांध दिया था।

एक चिट्ठी चुपके से उसमें मैंने भी डाली। वह चिट्ठी पढ़ी तो गई पर लिखित में उसका कोई जवाब नहीं आया। आने की कोई संभावना भी नहीं थी।

मेरे घर के बाहर कोई लैटर बॉक्स तो था नहीं। और यूं भी मेरी तो हर छोटी-बड़ी चीज का हिसाब मां के पास रहता था। मां का बस चलता तो वह मेरे हंसने—रोने—बोलने--बतलाने पर भी राशन कार्ड लगा देतीं, कि अकसर वह टोक ही दिया करती थी, 
“क्‍या हर बात पर हंसती रहती है। इतना हंसते हैं क्‍या। 
दांत कम दिखाया कर। 
चुन्‍नी ठीक से ले, 
ये कैसे चलती है घोड़ी की तरह, 
हरदम कूदती हुई सी।”

पर दुनिया के राशन कार्ड मान लें, तो हम ही क्‍या। उसने एकदम बिंदास अंदाज में अपने प्‍यार का इजहार किया।

चिट्ठी के जवाब में उसने उसी खंभे के नीचे किराए पर वीसीआर लाकर एक फि‍ल्म लगाई - प्रेम प्रतिज्ञा। जाने कहां कहां की भीड़ आकर उस फि‍ल्म को देखने में जुटी रही। पर जिसके लिए फि‍ल्म लाई गई थी वह तो देख ही नहीं पाई। मां ने उसे अश्लील फि‍ल्म माना।

घर में लड़की और पड़ोस में लड़का जब जवान हो रहा हो तो घर वाले ऐसी ही वाहियात हरकतें करते हैं! वे प्रेम-प्यार से जु़ड़ी हर चीज को अश्लील बताने लगते हैं। अब फि‍ल्म के नाम में प्रेम था तो फि‍ल्म अश्लील हो गई। न खुद देखी, न मुझे देखने दी। इसके बावजूद फि‍ल्‍म का गीत “प्यार कभी कम नहीं करना कोई सितम कर लेना...” हम दोनों की मुहब्बत का कॉमन राग बन गया।

कि जैसे यही मेरी चिट्ठी का जवाब था, जो उसने छुपकर नहीं खुले में एक पूरी भीड़ के सामने दिया। मेरा वीनू प्‍यारा ही नहीं थोड़ा बिंदास और हिम्‍मत वाला भी है। मुझे खुशी हुई।

मां ने मुंह बिचका कर कहा, 
“ऐसे ही होते हैं जात-कुजात। 
पेट में रोटी न हो, चिलत्‍तर सारे दिखाएंगे। 
कितना कमा लेता होगा उस दुकान से, जो हर हफ्ते नए शौक पूरे हो रहे हैं।”

किसने क्‍या कहा, 
मेरी बला से।

मैं तो अपने वीनू पर ऐसी मुग्‍ध हुई जा रही थी कि बात-बेबात पर बस मुस्‍कुराती ही रहती। आलम ये था कि कोई गाली भी दे तो वह मेरी मुहब्‍बत में सनकर चाशनीदार हो जाए। 

हमारी मुहब्‍बत का वह राग प्रेम प्रतिज्ञा के बाद लगातार बढ़ता ही गया। वह लगभग हर सप्‍ताह एक नई फि‍ल्‍म लाकर वीसीआर पर लगाता और उसे देखने खूब भीड़ जुटती। सिवाए मेरे।

पड़ोस के तमाम घरों में अब यह मान लिया गया था कि वीनू अब पहले जैसा नहीं रहा, वह बिगड़ रहा है। हमेशा सुंदर-सा दिखने वाला वीनू अब शेव भी कभी कभार ही बनाता। बस एक रफ-सा स्‍टाइल रखता। और ढीठ इतना कि मेरी मेरून रंग की बंधेज की सूती चुन्‍नी उठा ले गया। और उसी को गले में लपेटे रखता।

इस बात पर मां फट पड़ी और उसकी मां को खूब खरी-खोटी सुनाई। 
“अब कोई बच्‍चा रह गया है क्‍या, ये क्‍या हरकत हुई। 
तुम्‍हें तो अपनी सिंगार-पट्टी से ही फुर्सत नहीं, मुहल्‍ले भर में और भी लड़के जवान हुए हैं, 
ये अन्‍होता जवान हो रहा है क्‍या।”

मैं तो भीतर से मुग्‍ध थी पर बाहर से रो पड़ी, जब मां ने एक थप्‍पड़ जड़ दिया। 
“कुल पर कलंक लगाएगी। 
अपने कपड़ों का होश नहीं रहता।“

मां दोहरे अर्थ की बातें कर रही थी। सुनने में ऐसा लगा कि जैसे वह मेरे तन पर से चुन्‍नी उड़ा ले गया हो पर असल में वह प्रेस के कपड़ों की गठरी थी, जिसमें और भी कपड़े बंधे थे। उसे पसंद आई तो वह खोलकर ले गया। पापा को भी मां ने ऐसे ही अलग अर्थ में सुनाया, 
“वो लड़का इसकी चुन्‍नी अपने गले में लपेटे फि‍र रहा है और आपकी लाडली को होश ही नहीं है।”

तो गुस्‍सा आना स्‍वभाविक था। पापा ने भी काफी कुछ कहा पर मैं जानती थी कि मेरा वीनू लाखों में एक है।

उस दिन के बाद से हमारा मिलना-जुलना बिल्‍कुल बंद हो गया। कभी-कभार नजर मिलती तो एक-दूसरे को देखकर मुस्‍कुरा देते। पर जुड़ाव अब भी बरकरार था। हम आवाजें सुनकर भी एक-दूसरे से जुड़ जाते। कभी छत पर कपड़े सुखाते हुए, तो कभी गली से गुजरते हुए हम एक-दूसरे की झलकियां लेते।

इन झलकियों से अब मन नहीं बहलता था। सो वीनू की सब सलाहें दरकिनार कर मैंने उसी के कॉलेज में एडमिशन लिया। उसी के कोर्स में। मैं उससे जुड़े रहने का कोई भी सिरा छोड़ना नहीं चाहती थी। 

[]

पर जानते हो कॉलेज आकर मेरा दिल एकदम से टूट गया। मैं जितने अरमान लेकर कॉलेज आई थी वह सब खाक में मिल गए। कभी भी किसी के बाहरी बदलाव पर भरोसा नहीं करना चाहिए। वह भीतरी बदलाव का बस अंश मात्र ही होते हैं। हर व्‍यक्ति के भीतर असंख्‍य कोशिकाएं होती हैं। कोई एक कोशिका भी अपनी निय‍मित अवस्‍था से बदल जाए तो बदलाव हो रहा होता है। पर हमें बाहर ये बदलाव तब दिखाई देता है जब कई हजार कोशिकाएं एक साथ बदलने की ठान लेती हैं। हम इसे छिटपुट बदलाव मानते हैं। पर यह बहुत विकराल विराट बदलावों का संकेत भर ही होते हैं। उसका गुस्‍सैल, चुप्‍पा स्‍वभाव अपनी एक अलग दु‍निया गढ़ चुका था। जिसमें मधुकेशी वशिष्‍ठ फि‍ट नहीं बैठती थी।

मेरी कलाई में तोतयी रंग की चूड़िया चढ़ाने वाले, अपने गले में मेरा दुपट्टा लपेट कर घूमने वाले, मेरे साथ झूला झूलने वाले और मुनिया की पीठ पर मेहंदी का छापा लगाने वाले वीनू ने कॉलेज में मुझसे ऐसे बर्ताव किया जैसे वह मुझे जानता ही नहीं है। और तो और जब कॉलेज के सीनियर लड़के लड़कियां हमारी रैगिंग कर रहे थे, तब भी वह चुपचाप वहां से खिसक गया। अब उसके लिए मधुकेशी से ज्‍यादा उसका ग्रुप महत्‍वपूर्ण हो गया था।

मैं बस स्‍टॉप पर खडी उसका इंतजार करती रहती, पर वह आता ही नहीं। अगर कभी हम एक बस में चढ़ भी जाते, तो वह अगले ही स्‍टॉप पर उतर जाता।

मैंने जब उससे इसकी वजह पूछी तो पहले तो वह बचता ही रहा। फि‍र बड़ा संयमित-सा जवाब दिया, कि 

“अच्‍छा नहीं लगता। हम दोनों हर दम साथ-साथ दिखें।

मुझे तो कुछ नहीं, तुम्‍हारे लिए ही मुश्किल होगी। आखिर तुम एक अच्‍छे परिवार की लड़की हो।”


यह बहुत डिप्‍लोमेट-सा जवाब था। पर मेरे मन के सवाल इससे हल नहीं हुए। 

अब तक मैं उसके गुस्‍से के कई सेशन और कई कांड देख चुकी थी। जिसके बाद वह अलग-अलग तरह से कई दिन रूठा रहता। इस बार भी वह रूठा हुआ था। हर बार मुझसे बचता कि जैसे मेरी परछाई भी उसे खा जाएगी। हर पल की व्‍यस्‍तता बस व्‍यस्‍तता नहीं थी। मुझसे बचने का बहाना भर थी। पर इस बार मुझे उसकी वजह समझ नहीं आ रही थी। अब भी एक अंधा-सा विश्‍वास था कि मैं उसे इस बार भी मना लूंगी। उसका गुस्‍सा अमलतास के फूलों की तरह चटख पर नाजुक है। मेरे हाथ लगाते ही वह झड़ जाएगा।

मैं अब भी उसी पुरानी दोस्‍ती का सिरा थामे बैठी थी। पर वह शायद बहुत आगे निकल आया था। उसमें ज्ञान का बहुत विस्‍तार हो रहा था और शायद उसका दिल सिकुड़ता जा रहा था। यह सब मुझ पर इस तरह जाहिर न हो, इसलिए वह नहीं चाहता था कि मैं उसके कॉलेज में आऊँ। पर वह नकार इतना शालीन, इतना आत्‍मीय था कि मैं उसे ठीक से समझ नहीं पाई।

[]

अब वह मेरे सवालों का भी बहुत संयमित और संक्षिप्‍त-सा जवाब देता था। मैंने उसी के कोर्स लिए थे। पर किताब के बारे में भी पूछती तो वह ऐसे जवाब देता कि उसे माना जाए या न माना जाए, ये सामने वाले की मर्जी। जबकि मैं अब भी उससे उसी अधिकार की अपेक्षा किए बैठी थी जिस अधिकार से वह तोतयी रंग की चूड़ियां मेरी कलाई में चढ़ा रहा था कभी। मैं अब भी बीते दिनों की मुहब्‍बत की रूई धुन रही थी और वह इतना विवेकशील हो गया था कि अपने विवेक को कहां, कितना खर्चना है, उस पर भी बहुत विवेक लगाता।

इस रुखाई में और कितना समय बिताती। ठहरे रहने से हर संबंध सड़ने लगता है। इससे बेहतर है आगे बढ़ जाना। पर आगे किस दिशा में बढ़ना है मैं अभी तक यह तय नहीं कर पायी थी। कि सोचते-सोचते वह मुझे अचानक मिल ही गया। कैंटीन के पीछे वाली दीवार के पास। जहां अकसर उसकी मंडली जमी रहती थी। वहीं उस जैसे दाढ़ी वाले लड़के और कुछ लड़कियां भी। सिगरेट के कश उडा़ते। मुझे देखते ही उसने सिगरेट फेंक दी और झेंप गया, यानी कुछ पहचान बची है अभी हमारे बीच। 

इसी पहचान का हाथ पकड़कर मैं उसे जबरन खींच लाई थी कॉलेज के ‘लव बर्डस प्‍वाइंट’ पर जहां हम कभी नहीं गए थे। घने पेड़ों की ओट में यहां अकसर जोड़े बैठे रहते। और बस लगातार बोलती गई, कि मन के भीतर मवाद बहुत जमा हो गया है ...

“क्‍या हो गया है विनीत तुम्‍हें?”

“क्‍यों मुझे क्‍या होना है। मैं तो ऐसा ही हूं। क्‍या तुम नहीं जानती हो।“

“मैं देख रही हूं आजकल कुछ ज्‍यादा ही बिजी हो गए हो।“

“हां एग्‍जाम आने वाले हैं। वो भी फाइनल ईयर के, तो होना ही चाहिए।“

“तो कैंटीन के पीछे उस मंडली में तुम एग्‍जाम की तैयारी कर रहे थे।“

“तो तुम मुझ पर नजर रखती हो!”

“अरे, इसमें नजर रखने जैसा तो कुछ नहीं, पर नजर तो सब आ रहा है।“

“देखो ये मेरा पर्सनल मामला है। मैं पढ़ूं या किसी के साथ बैठूं। तुम्‍हें इससे क्‍या। मैं तुमसे नहीं पूछता कि तुम क्‍या कर रही हो।“

“पूछने की जरूरत ही कब पड़ी। बिना पूछे ही मेरी हर बात का हिसाब रहता है तुम्‍हारे पास।”

“ऐसा कुछ नहीं है।” अब वह कुछ नर्म पड़ा।

“देखो मधु समय बदल गया है। अब हमें भी बदल जाना चाहिए। हर वक्‍त की एक नजाकत और जरूरत होती है। जो उसमें खुद को ढाल नहीं पाता, वह पिछड़ जाता है।“

“ये क्‍या बदलना और ये क्‍या ढलना हुआ कि मिलने का वक्‍त ही नहीं है! क्‍या इसलिए मैंने तुम्‍हारे कॉलेज में एडमिशन लिया था।”

“मैंने तो नहीं कहा था। इसका अहसान मुझ पर मत लादो।”

“मैं अहसान नहीं लाद रही, पर तुम अब पहले जैसे नहीं रहे।”

“तुम भी तो पहले जैसी नहीं रहीं। अब चलोगी भागकर मेरे साथ बुआ के घर? जैसे बचपन में चल पड़ीं थीं।”

“ये क्‍या बात हुई!” 

“क्‍यों बस हो गई न चुप। तुम चाहती हो कि सब कुछ तुम्‍हारे ही तरीके से हो। तुम जब चाहो हम मिले और जब चाहो हम न मिलें। तुम्‍हारा दोष नहीं है। ये तुम्‍हारे भीतर की पंडितानी बोल रही है। ये बरसों के संस्‍कार हैं। तुम लोग हमेशा से हमें अपने तरीके से हांकते आए हो। पर अब समय बदल रहा है मैडम मधुकेशी वशिष्‍ठ। अब हम लोग अपनी मर्जी से रहेंगे। और तुम लोगों को बदलना होगा।“

“ऐ... ऐ... वीनू, ये हम लोग, तुम लोग...ये सब क्‍या है? तुम्‍हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है? ये सब क्‍या जहर भर लिया है तुमने अपने दिेमाग में? ‘मधुकेशी वशिष्‍ठ’ हो गई अब मैं और मधु नजर ही नहीं आ रही?” 

“हां तुम्‍हें तो जहर ही लगेगा। तुम ठहरी आखिर मधुकेशी वशिष्‍ठ। खालिस पंडितानी। हम ठहरे क्षुद्र। तुम्‍हारा हमारा क्‍या साथ। तुम पढ़ो न पढ़ो, कोई योग्‍य वर तुम्‍हें मिल ही जाएगा। जाओ सुंदरी जाओ, किसी योग्‍य पंडित जी से ब्‍याह रचाकर किसी बड़े अफसर की पत्‍नी बनने का महात्‍म्‍य भोगो।“

“और कुछ बाकी है कहने को, या हो गया...? 
जाना होगा तो चली जाउंगी, 
ब्‍याहना होगा तो ब्‍याह लूंगी! 
इसमें तुम्‍हारी क्‍या सिफारिश है।“ 

मैंने उसके जहर को अपनी नर्मी से काटने की कोशिश की। पर वह अभी कम नहीं हुआ था। उसका बोलना, या सच कहूं तो मुझे कोसना अब भी जारी था। 

“वैसे भी हमारा तुम्‍हारा खाना पीना, रहना सहना अलग। अब जैसे तुम्‍हें चिढ होती है मेरे और जगदीश के साथ बैठने पर।”

“एक मिनट... 
मुझे क्‍यों चिढ़ होगी। पर हां होती है, तुम्‍हारा और उसका क्‍या साथ। 
...न उम्र, न स्‍टेटस।”

“स्‍टेटस तुम जैसे बड़े लोग देखते हैं। 
हम तो भाई दोनों जा‍त के शूद्र हैं, 
एक ही तरह के लोग।”

“ये क्‍या सड़ी-सड़ी बातें कर रहो हो! जो गलत है वह गलत है।”

गलत सब दलीलें, गलत सब हवाले
अंधेरे अंधेरे, उजाले उजाले!” 

एक शेर के साथ उसने फि‍र अपनी बात शुरू की। 

“सब दलीलें, सब तर्क, सबके अपने-अपने होते हैं। जैसे तुम बदल रही हो मैं भी बदल रहा हूं और बदलाव ही प्रकृति का नियम है।“

“तो क्‍या प्रकृति में हम और तुम अलग-अलग हैं?”

“शायद हां!”

“शायद क्‍यों पक्‍का कहो, जैसे अब तक हर बात कॉन्‍फीडेंटली कहते आए हो। देखो वीनू, मेरी तुम्‍हारी पहचान कोई आज कल की नहीं है। मुझे नहीं पता कि तुम इतना अजीब बर्ताव क्‍यों करने लगे हो। मैं बस तुम्‍हें चाहती हूं।”

“तो चाहो, मना किसने किया है?”

“मतलब तुम्‍हारे बिना तुम्‍हें कैसे चाहूं?”

“ठीक है, पढ़ना-लिखना छोड़ देता हूं और पहले जैसे बैठकर 
तुम्‍हारे स्‍वेटर से रूएं नोचता हूं और तुम बैठकर उनकी गुडि़यां बनाना। 
इसी में खुशी है तुम्‍हारी!”

“ओह़ ...
अबकी बार मेरा दिल एकदम से, 
छन्‍न से 
टूट गया। 
अब तो किसी बात का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था। 
उसने इस एक ताने से हमारी अब तक की मासूमियत को कोसा था।

देखो मैं अपने लोगों, अपने समाज के लोगों के लिए काम करना चाहता हूं। और मुझे नहीं लगता कि तुम्‍हारा मेरा कोई साथ है।

अपना समाज ? तुम कोई नया समाज लाए हो क्‍या अपने साथ ?

तुम ब्राह्मणी हो, 
पक्‍की पंडितानी। 
बस ठाकुर जी पूजो। 
वही तुम्‍हारा उद्धार करेंगे।”

“और तुम क्‍या हो ?” 

“छोड़ो, कहां इस सब गोबर में सिर डाल रही हो? पूजा पाठ करो, और किसी पंडित जी के संग ब्‍याह करके अपनी घर गृहस्‍थी संभालो।“ 

अपने ब्‍याह के लिए काढ़ो बुनो कुछ।

मेमसाहब बनने का अभ्‍यास करो। 
कोई अफसर, 
कोई प्रोफेसर, 
कोई खूब पैसे वाला पंडित तुम्‍हारी राह देख रहा होगा।“

“हद ही हो गई!”

“नहीं बनना मेमसाहब, 
खटीकनी बनना है। 
बनाओगे...?”

“रहने दो, कहां किस दिशा में बढ़ रही हो, ये तुम्‍हारे बस का नहीं।“

“ये तुम अब कह रहे हो? अब बढने को बचा क्‍या है।”

“देखो मधु ये कोरी भावुकता छोड़ो। 
‘मैं’, 
नहीं 
‘हम’, 
दो तरह के लोग हैं। 
हमारे संघर्ष और जरूरतें अलग हैं। तुम ये सब नहीं समझ पाओगी।“

“कैसे हैं दो 
‘अलग तरह’ के लोग। तुम कुछ अलग खाते हो क्‍या, या किसी अलग तरह से सांस लेते हो। ऐसी कौन-सी बात है मेरी, जो मैं तुमसे नहीं बांट सकती।“

“तो छोड दो ये सब पूजा पाठ, ये पाखंड।”

“पर मैंने पाखंड कब किया। 
मैं तो बस वही करती हूं जो मेरे मन को अच्‍छा लगता है। 
और तुम्‍हारी मां, दादी वो तो मुझसे भी ज्‍यादा पूजा पाठी हैं। उनका क्‍या?”

“यही तो ये लोग समझते नहीं है। 
वो धर्म ही क्‍या जो बराबरी न दे...

जूते खाएंगे पर जाएंगे उसी ठाकुरद्वारे। भगवान ने इनका जीवन नहीं बदला, 
आरक्षण ने बदला है। मैं उसी की लड़ाई लड़ रहा हूं। इसमें तुम मुझे सपोर्ट नहीं कर पाओगी।

“पर तुम तो शुरू से इतने ब्रिलिएंट हो। तुम्‍हें आरक्षण की क्‍या जरूरत?“

ऐसा तुम सोचती हो। मेरी सोच अलग है। मुझे न हो पर और बहुत लोगों को है। हम एक स्‍कूल में पढ़े हैं, आज एक कॉलेज में पढ़ रहे हैं। बाहर से देखने में एक से लगें। पर क्‍या तुम्‍हारा और मेरा सफर एक-सा रहा है?

“हां ये सच है। तुम्‍हें मुझसे बहुत ज्‍यादा मेहनत करनी पड़ी है।”

“यहां तो नौकरियां ही नहीं, 
देवता और भगवान भी जाति देखकर गढ़े गए हैं। 
बताओ हम कहां एक राह पर मिल सकते हैं।”

“वीनू दुनिया उतनी रूखी, रास्‍ते उतने उबड़-खाबड़ नहीं हुए हैं, जितने तुम सोच रहे हो।”

“अच्‍छा तो बताओ, अब तो तुम्‍हें भी कई महीने हो गए कॉलेज आए हुए। बताओ अपने कॉलेज में ही कितने एससी प्रोफेसर हैं?”

“एक हैं तो सुमन कुमार जी, पर उन्‍हें तो पढ़ाना...।“ 

“रुक क्‍यों गईं? वाक्‍य पूरा करो, कह दो पढ़ाना ही नहीं आता। कोटे से आए हैं।“

“नहीं, हो सकता है, तुम्‍हें बुरा लगे पर उन्‍हें सच में पढ़ाना नहीं आता।”

“आएगा कैसे! तुम्‍हें सिर्फ पढ़ना है, उन्‍हें अपनी पढ़ाई का इंतजाम भी करना है। 
आधा कॉन्‍फीडेंस तो बेचारों का इस इंतजाम में ही गिरवी रख दिया जाता है। फि‍र जो उनसे नफरत करते हैं, उनसे मुहब्‍बत भी तो बनाए रखनी है। 
एक नकली जिंदगी जीने वाला व्‍यक्‍त‍ि अपने काम में कितना दक्ष हो पाएगा।

जब तक ‘सुमन कुमारों’ को ठीक से पढ़ाना नहीं आ जाता, तब तक आरक्षण की जरूरत है।” उसने जैसे घोषणा की।

“तुम्‍हारी सब बातें सही। वर्ण, जाति, भेद सब गलत। पर इसमें हमारा दोष कहां है। हम दोनों का? हमारे प्रेम का?”

वह एक पल को ठिठका, आंखों में कुछ नमी-सी उतर आई। 

“मैं केवल वही बता रहा हूं जो सालों से मेरी जाति के लोगों ने तुम्‍हारी जाति के लोगों के कारण झेला।

तुम्‍हारी जाति तुम्‍हारे लिए सुविधा है, बिना मांगी।

और मेरी जाति मेरा दंश है अनचाहा।”, कहते हुए उसकी आंखें और भीग गईं। 

“मैं भी तुम्‍हें बहुत प्‍यार करता हूं मधु, 
पर ये राह बहुत कठिन है। 

क्‍या तुम छोड़ पाओगी 
अपनी उस जाति को जो तुम्‍हें पैदा होते ही 
इतनी सुविधा, इतना सम्‍मान देती आई है।” 

“मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं तुमसे अलग हूं।”

मैं अभी उसकी सजल आंखों में अपनी खोयी हुई मुहब्‍बत ढूंढ रही थी कि उसने एकदम से नारा उछाल दिया। 

“अगर ऐसा है तो 
बोलो 
बाबा साहेब अंबेडकर अमर रहें!” 

और मैं सकपका गई। शायद मैं अभी इस नारे के लिए तैयार नहीं थी।

“अमर हैं ही, 
इसमें बोलना क्‍या है?”

“ये छल प्रपंच छोड़ों। अब भी सोच लो, समय है। साथ दे पाओगी मेरा?”

इस बार मैं कुछ संभली, 
“हां दूंगी।”

“लड़ सकोगी हमारे लोगों की लड़ाई? अपने कुल, अपनी जाति, 
अपने परिवार के खिलाफ?”

“किसी के खिलाफ नहीं वीनू, 
बस तुम्‍हारे साथ।” 
उसके आंदोलन में अपना पता भूल गई मुहब्‍बत को मैंने जैसे 
आखिरी आवाज दी। 

“बोलो, जय भीम!”

मैंने भरपूर सांस खींच कर कहा, 
“जय 
भीम।“ 

उसकी आंखें चमक उठीं, 
“अब आईं तुम सही राह पर।” उसके चेहरे पर एक अलग किस्‍म का आह्रलाद छा गया।

मेरे दोनों गाल अब उसकी हथेलियों में थे।

“अब हुईं न तुम 
सहधर्मणा!"

और उसने एक झटके से मेरे होंठों को अपने होंठों में कस लिया।

पर इस बार इन होंठों में मुहब्‍बत का जायका नहीं, आंदोलन का नमक था।

मन कुछ खारा-सा हो गया, कि जैसे उसकी अंजुरि का नीर हमारी मुहब्‍बत की उफनती नदी से अलग हो गया हो।

मैं पीछे हट गई।

“तुम ठीक कहते हो विनीत, 
हमें अपनी पढ़ाई पर ध्‍यान देना चाहिए। 
एग्‍जाम आने वाले हैं।”

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लप्रेक – है क्या यह? पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन लघु प्रेम कहानियाँ



लप्रेक – है क्या यह? 

पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन घु प्रेहानियाँ

उम्मीद शायद सतरंगी या लाल फ्रॉक के साथ, वैसे रंग के ही फीते से गुंथी लड़की की मुस्कुराहटों को देख कर मर मिटना या इंद्रधनुषी खुशियों की थी, जो स्मृतियों में एकदम से कुलबुलाई।

लप्रेक – है क्या यह? पढ़िए मुकेश कुमार सिन्हा की तीन लघु प्रेम कहानियाँ

मॉनसून


मेघों को भी अब मुझ से दोस्ती सी हो गई है, शायद इसी वजह से उनके आसमान को ढक लेने की ख़्वाहिश कम हो चली थी। खुला-खुला सुबह का आसमान, जो कभी मेरे हसरतों की पहली चाहत थी, मेरे सामने ही पसरा पड़ा था। मगर क्या ये आसमान सच में मेरा था? लड़का निहार रहा था गौर से दूर तलक.........!

उम्मीद शायद सतरंगी या लाल फ्रॉक के साथ, वैसे रंग के ही फीते से गुंथी लड़की की मुस्कुराहटों को देख कर मर मिटना या इंद्रधनुषी खुशियों की थी, जो स्मृतियों में एकदम से कुलबुलाई।

कोल्ड ड्रिंक की एक लम्बी सिप लो, और फिर एक सांस, जो होती है बेहद ठंडी! ऐसा ही क्यों कुछ मीठी सी ठंडक है आज इन हवाओं में, शायद कुछ खास दोस्तो की यादों का कमरा खुला रह गया था या उस बोतल का ढक्कन 'ओपन अप' के साथ फटाक से खुला! या उस नटखट बाला ने जो स्मृतियों में वीमेन क्रिकेट खेलती है, ने अपने अंदर की तपिश को ठंडा करने के लिए पैडस्टल फैन को पांच पर चला रखा था।

कुछ तो हुआ जो लड़के के पलकों के कोर से छलकी बूंद, और फिर वाष्पित होने के बाद पत्ते पर नजर आया नमक।

एक आह सी निकाल आई और फिर दिल के खाली जगह मे धुएँ सी भर गई, धुंआ जो सफ़ेद था, धुंआ जिसमें फिर से वो छमक रही थी, जैसे रेड एंड वाइट की पूरी डब्बी, सीने में दफन हो गयी हो!

बेसबब आँखों से आंसू नहीं आया करते दोस्त, यक़ीनन रिश्ते की डोर पुकार रही थी।

प्रेम दर्द है, जो यादों में मुस्कुराती है।

सुनो, आज भी फ्रॉक में चमको न तुम !

सपनों के हसीन होने का कारण अगर तुम हो तो ऐसा होना भी अच्छा लगता है न !




गिव एन टेक 

ठसाठस भरे ग्रीन लाइन बस में पीछे से लड़की आयी, महिला सीट पर एक लड़का बैठा था, थोडा ठसक से बोली - भैया जी, उठिए, महिला सीट है !!

बेचारा बिना कुछ कहे, चुपचाप खड़ा हो गया !!

लड़की ने फिर दस का नोट निकाला और उसी को देते हुए कहा, जरा बढ़ा देना भैया, आनंदविहार एक !!

......... झल्लाते हुए लड़के ने नोट तो पकड़ लिया पर बोला - पहले तो भैया बोलना बंद करिए और तमीज सीखिए! महिला बेशक नहीं हूँ, पर इंसान ही हूँ, कुत्ता नहीं जो आपने आते ही हड़का दिया !!

तब तक टिकट पीछे से आ गयी, लड़की ने गलती समझते हुए धीरे से चुप्पी साधे टिकट पकड़ ली!

अगले स्टैंड पर लड़की के साथ वाली सीट खाली हो गयी, लड़की ने सीट लड़के के लिए रोक कर प्रयाश्चित किया .........दोनों का सफ़र आगे बढ चला ! साथ-साथ !!

आनंदविहार मेट्रो पर अब लड़की क्यू में लगी थी टिकट लेने को, लड़के ने शरमाते हुए 20 का नोट पकडाते हुए कहा - एक राजीव चौक प्लीज !!

दोनों एक साथ एकदम से खिलखिला उठे, कहीं तो रूमानी शाम का लाल सूरज अस्त होता हुआ दिखा.



अमरुद का पेड़

ए लड़की !

भूल गई वो धूल धूसरित गाँव की पगडंडियों सा घुमावदार रास्ता जो खेतों के मेड़ से गुजरता था, गाँव का वो खपरैल वाला मिडिल स्कूल, जिसकी पिछली खिड़की टूटी थी, स्कूल के पास वाला शिवाला, शिवाले में बजता घंटा, पंडित जी और फिर शिवाले के पीछे का बगीचा...यही गर्मी की छुट्टी से पहले के दिन थे, खूब गरम हवाएं बहती थी, और उन हवाओं में सुकून व ठंडक के क्षण के लिए बस्ते को स्कूल में बैंच पर छोड़ कर बगीचा और तुम जैसी बेवकूफ का साथ जरुरी होता था.आखिर पढ़ाई उन दिनों कहाँ अहमियत रखा करती थी.

तभी तो उस खास दिन भी, बगीचे से आम नहीं अमरूद तोड़ने चढ़ा था डरते कांपते हुए। तुम्हारी बकलोली, बेवकूफी या मुझे परेशान करने की आदत, या फिर बात बात में मेरी दिलेरी की परीक्षा जो लेनी होती थी तुम्हे. जबकि बातें आम थी कि मैं एक परले दर्जे का कमजोर दिल वाला व सिंगल कलेजे वाला शख्स हुआ करता था.

तुम्हे वो दूर जो सबसे ऊपर फुनगी पर हरा वाला कच्चा अमरूद है, वही चाहिए थे, तुमने कहा था पके अमरुद में बेकार स्वाद होता है, थोडा कच्चा वाला लाकर दो चुपचाप ... उफ़्फ़ वो बचपन भी अजीब था, पेंट ढीले होते थे या कभी कभी उसके बकल टूटे हुए, जैसे तैसे बंधे हुए, उस ढीले हाफपेंट से पेड़ पर ऊपर चढ़ना, हिमालय पर जाने जैसा था. पेड़ को पकड़ूँ या पेंट, इसी उधेड़बुन में कब ऊपर तक पहुंचा ये तक पता नहीं.

आखिर "उम्मीद" - वर्षों से दहलीज पर खड़ी वो मुस्कान है जो मेरे कानों में वक्त-बेवक्त धीरे से फुसफुसाती है - 'सब अच्छा ही होगा'. पर जरुरी थोड़ी है, सब अच्छा ही हो, हर मेरी बेवकूफियों पर भी.

इसलिए तो, जैसे तैसे अमरूद तोड़ा तो ऐसे लगा जैसे एवेरेस्ट के ऊपर से तेनजिंग नोर्के बता रहा हो, मैंने फतह कर ली है, तभी टूटे अमरुद के साथ ही मैं भी टूटे फल की तरह गिरा धड़ाम !!! उफ़ उफ़ उफ़ !!

आखिर अमरुद की बेचारी मरियल टहनी मेरा भार कब तक सहती ...

पर तुम तो हेरोइन व्यस्त थी, अमरूद कुतरने में और मैं घुटने के छिलने के दर्द को सहमते हुए सहने की कोशिश ही कर रहा था, कि तभी नजर पड़ी, ओये मेरी तो हाफ पेंट भी फट गई थी, हाथो से बना कर एक ओट और फिर दहाड़ें मारने लगा और तुम, तुम्हे क्या बस खिलखिला कर हँस दी !! .

बचपन का प्यार ...हवा हो चुका था...

तीन दिन तक हमने बातें नहीं की फिर एक मोर्टन टॉफ़ी पर मान भी गए, बस इतना ही याद आ रहा ...

स्मृतियों के झरोखे से कुछ प्यारी कतरनें


मुकेश कुमार सिन्हा
मोबाइल: +91-9971379996
mukeshsaheb@gmail.com


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गिरिराज किशोर की प्रेम कहानी 'नायक'



नायक 

— गिरिराज किशोर

सेक्स के कई सच हैं। और सेक्स के सचों पर खूब लिखा भी गया है और लगातार लिखा भी जा रहा है। ये लिखना तब आज-का साहित्य है जब सेक्स-दृश्यों के वर्णन रीतिकालीन नहीं हों और वह मुद्दे से कतई न डिगे। देश में आयातित ‘एक्सचेंज’ संस्कृति, सेक्स का विकृत मुक्तभोग, को वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर ने कहानी ‘नायक’ में बखूबी दिखाया है। काम के इस रूप का एक प्रामाणिक चित्रण बगैर चटाखेदार भाषा के लिखना गिरिराजजी के दायित्वबोध को प्रदर्शित करता है...

भरत तिवारी




गिरिराज किशोर की कहानी 'नायक'

नायक (Girraj Kishore ki Kahani Nayak)

आँगन में वह बास की कुर्सी पर पाँव उठाए बैठा था। अगर कुर्ता-पाजामा न पहले होता तो सामने से आदिम नजर आता। चूँकि शाम हो गयी थी और धुँधलका उतर आया था, उसकी नजर बार-बार आसमान पर जा रही थी। शायद उसे असुविधा हो रही थी। उसने पाव कुर्सी से नीचे उतार लिये और एक पाव दूसरे घुटने पर चढ़ा लिया। इतने ही से उसके आदिमपन मे कमी आ गई और चेहरा संभ्रांत निकल आया। उसने दोनों हाथों को पीछे झुकाकर अंगड़ाई ली और मुँह से आवाज निकाली। वह उठ जाना चाहता था। पर वह उठा नही बल्कि और जम गया ।

शाम पूरी तरह से हो आयी ! उसने पत्नी को पुकारा। पुकारने के दौरान उसे फिर जम्हाई आ गई और आवाज छितरा गई। उसे फिर पुकारना पड़ा! लेकिन पत्नी के आने मे बहुत उत्सुकता या दौड़ना शामिल नहीं था। ठंडापन था। वह आकर कुर्सी के पास खड़ी हो गई। उसने पत्नी की तरफ देखा और बोला, 'अँधेरा तो काफी अँधेरा हो गया।'

‘हाँ तुम भी काफी देर से बैठे हो !

'देर से ? हाँ, बैठा तो हूँ।'

'तुम बोली नहीं?’

'आ रही थी ।'

'शायद दोनों काम साथ न हो पाते?’

'हो तो सकते थे—आने का काम ज्यादा जरूरी था।'

‘तो तुम आ रही थीं? कुछ देर खामोश रहकर कहा, इसीलिये तुम नही बोली ? यह भी ठीक है। यह भी एक एप्रोच हो सकती है। वह चुप रही।

उसने अपने आप ही कहा, 'शायद तुम बैठना चाहो, बैठो। कुर्सी पर इत्तफाक से मैं बैठा हूँ।'

वह सीढ़ियों के नीचे पड़ी खटिया पर बैठे गई। उसने फिर आसमान की तरफ देखा औ कहा. इसका मजा तो दिन में है। रात विमट-सी जाती है। वह भी ऊपर देखने लगी। चेहरे पर कोई खास बात नजर नही आयी; गर्दन नीचे करके बोली, 'हूँ !'

'आजकल शाम वैसी नही गुजरती।' वह खामोश रही।

‘काम नही होता।" उसी ने फिर कहा।

'किया करो।'

'अब पहली वाली बात नहीं।'

‘अब कौन-सी बात है?, उसने पत्नी के सवाल का जवाब नहीं दिया।

‘जब मैं आयी- आयी थी तब तो तुम करते थे।

'अब ऊबता रहता हूँ।' उसकी पत्नी के बैठने में उठना शामिल होने लगा था

उसने ही पूछा, 'तुम भी तो ऊबती होगी ?’ पत्नी एकाएक कुछ नही बोल सकी। उसी ने सुझाव दिया, तुम्हें इससे बचना चाहिए।

और तुम्हें ?'

'मेरे लिए मुश्किल है। मुझे लोग समझ नही पाते?

'शायद मुझे भी लोग न समझते हो।'

'औरतों को समझने में कोई मुश्किल नही होती, सिर्फ असुविधा हो सकती है। ‘

अच्छा, मैं चलती हूँ। काम—‘

उसने बीच मे ही कहा 'हों काम— -काम तो अच्छी चीज है।’ फिर रुककर बोला मैंने रज्जु से कहा था, आ जाए। तुम्हारी थोड़ी बदल हो जाएगी। बदल करते रहना चाहिए।' वह खुलकर जाने लगीं!

मुझे लड़का पसन्द है। उसकी इस बात पर वह चुप लगा गई ! वह खुद ही बोला, लड़कियों की पसन्द के लिए ऐसे लड़के मुनासिब होते है।

"हाँ, वह उस तरह का है।'

'यह अच्छी बात है, तुम मेरी राय से सहमत हो! वह एक चुलबुला लड़का है ! आँखें चमकती हैं। दरअसल उनमें एक ढंग भी हैं। फैलने वाली आँखें अच्छी होती है। लेकिन आवाज़---?'

वह बोली ‘ख़राब है।”

 नही, ऐसी कोई खराब नहीं, कुछ हो सकती है। इस बात को कोई जवाब न देकर उसने पूछा, 'तुम कही जाओगे ?

'चाहता था । वह हूँ करके चुप हो गई। वह बोला, जाना तुम्हें भी चाहिए।' ‘कहाँ? ‘‘

'यह सोचने की बात है। वह कुछ देर बाद बोला, लड़कियाँ दोस्ती के बारे में शंकालु होती है। दोस्ती कोई मूल्य नही, वक्त गुजारने का तरीका है। दूसरे मुल्कों मे इससे शारीरिक जरूरतें भी पूरी हो जाती है। चेंज के लिए दोस्ती नायाब चीज हैं।

'चेंज | पत्नी ने दोहरा दिया! ‘मैं समझता हूँ औरतों को इसकी ज़्यादा जरूरत होती है। 'तुम ऊब की बात कर रहे थे। ऊब पैरो से चढनी शुरू होती है और दिमाग तक पहुँचती है।'

'हूँ !' करके वह रह गया। पत्नी उठकर जाने लगी। उसके जाने को वह देखता रहा। उसकी यह आदत बन गई थी। जाती हुई पत्नी की एक चीज पर निगाह गड़ाकर परखा करता था। उसके कूल्हो के बारे में वह ज्यादा सोचना चाहता था। उनके बारे में उसका ख्याल कभी अच्छा नहीं रहा। उनका हल्कापन उसकी देह के प्रभाव को हल्का कर देता है। दरअसल जो अहसास होना चाहिए वह नहीं हो पाता।

उसने पुकारा, 'सुनो !'

'क्या ?’ वह वही खड़ी हो गई ! उसने नज़दीक आने का इशारा किया। नजदीक आने पर उसने पूछा, 'तुम कभी अपनी देह के बारे मे सोचती हो ?’ वह जवाब नही दे पायी !

उसने फिर पूछा, 'में यह जानना चाहता हूँ कभी तुमने सोचा है एक अच्छी किस्म की औरत के जिस्म में क्या-क्या होना चाहिए ?

'मुझे सोचने के लिए आदमी ज्यादा मजेदार लगता है।

'रज्जु के बारे में तुम क्या कहोगी ?

'अभी तक बड़े सिर का एक सुडौल लड़का है।

'मैं तुम्हारे कूल्हो के बारे में जानना चाहता हूँ तुम्हारी क्या राय है ?

 'तुम मुझे अपनी राय बता चुके हो। तब भी मेरे हिब्स की वजह से तुम्हें परेशानी हुई थी। गोश्त ज्यादा न होने की वजह से किसी बीमारी का एहसास हुआ था। तुम्हारी राय से मैं सहमत हूँ। गोश्त एक महत्वपूर्ण चीज होती है! लेकिन अब आता जा रहा है !'

'आदमियों के बारे मे तुम्हारा क्या ख्याल हैं? पूछने के बाद वह मुस्कराया।

"कोई खास नहीं, वजन कम होना चहिए!" पत्नी ने जम्हाई ली। वह कुछ हतप्रभ होकर बोला, तुम मेरे बारे मे अपनी राय साफ तौर से बता सकती हो। 'मैं कई बार बता चुकी हूँ। तुम्हारे शरीर से कभी-कभी गन्ध आती है। वैसे तुम मजबूत आदमी हो।'

'मजबूती के बारे में ज्यादा जानना चाहूँगा।'

‘मजबूती---यांनी स्ट्राँग !'

'अच्छा, अब तुम जाओ, तुम्हें काम करना है !’

लेकिन वह बैठ गयी उसके इस तरह बैठ जाने ने उसे थोड़ा डिस्टर्ब कर दिया। उसने फिर दोनो पांव उठाकर कुर्सी पर रख लिए। वह बोली, ” तुम इस तरह क्यो बैठते हो ? मेरा ख्याल है मर्दों में बुनियादी तौर पर बेपर्दगी होती है।

उसने सिर्फ कहा, 'मैं मानता हूँ!' और उसी तरह पाँव किए बैठा रहा! दोनों के बीच कुछ देर खामोशी रही।

पत्नी ने अपना पाव घुटने पर रख लिया। घुटने और टांग के बीच एक साफ-सुथरा कोण स्थित था। अगर उसकी साड़ी बहुत ज्यादा बीच में आ गई होती तो शायद ऐसा न होतीं।

वह अचानक बोला, 'मैं रज्जु के बारे में सोच रहा हूँ। तुम्हारा क्या ख्याल है ? तुम्हारे ख्याल पर मेरा सोचना काफी निर्भर करता है !" वह चुप रही। वह फिर बोला, ‘मेरा ख्याल है उसके पास औरतों के बारे में एक सहनशील और मुलायम दृष्टिकोण है।

'औरतो के अलावा भी उसके पास दृष्टिकोण मुलायम है। "दरअसल औरतों के प्रति आदमी का दृष्टिकोण ही उसके और दृष्टिकोणो को बनाता है।'

उसने धीरे से कहा, 'उसका दृष्टिकोण मुलायम है।

पत्नी की बात से वह चौका नही । थोड़े धीमे स्तर में कहा, 'मेरा ख्याल है तुम उसे जान गई। फ्री होना अच्छा होता है।

'तुम इसे जरूरी समझते हो ?

 'दोनों के लिए ! जिन्दगी मे सिर्फ एक आदमी को जान लेना काफी नही होता ! एक बहुत कम होता है। मैं इसीलिए एक से अधिक औरतो को जानना चाहता हूँ। हर एक एक अनुभव और प्रतिक्रिया अलग होते हैं। मैंने तुम्हें कभी उतना "एक्साइटेड नहीं देखा। तुममें बहुत ठड़ापन है। वैसे लड़कियाँ काफी पगला जाती है। तुम्हें देखकर लगता है पानी के टब में लेटी हो !

उसने सिर्फ गर्दन हिला दी।

वह फिर बोला आदमी भी शायद अलग अलग तरह 'बीहेव करते हैं। मसलन मैं और रज्जु जरूर अलग तरह 'बीहेव करेंगे। हो सकता है रज्जु पहले शरमाए, तब आवेश मे आए। तुम्हारा क्या ख्याल है ?

'मेरे ख्याल से वह काफी फुर्तीला है।'

'तुम्हें उसे स्टड़ी करना चाहिए, ही इज ए कैरेक्टर।'

'उसे स्टड़ी करने का मेरा कोई इरादा नही।’

'यह मैं समझ सकता हूँ।'

वह कुछ देर खामोश रहा। फिर बोला, मैंने रज्जु से आने के लिए कहा था। क्योंकि मुझे जाना होगा। उसे यही रहना चाहिए। तुम्हें अकेलापन शायद अच्छा न लगे।'

‘नही, मैं अधिक खुलेपन से सो सकती हूँ। हर बार किसी को छोड़कर जाना संभव नही हो सकता। जरूरत समझने पर मैं किसी को भी आलंगित कर सकती हूँ।'

'मैं आज पीकर सड़क पर चलते रहना चाहता हूँ। ऐसा करना थ्रिल पैदा करता है। सड़क झूला मालूम पड़ती है। बत्तियो मे दूरी बढ़ जाती है। सन्नाटा कानो तक खिच जाता है, किसी तरह नही टूटता। तुम भी पी सकती हो।

'मुझे तुमने पिलायी थी, कई दिन तक मुँह मे कड़वापन घुला रहा था।'

‘सिवाय थोड़ी-सी उत्तेजना के तुम मे कोई परिवर्तन नही हुआ था।'

‘वह काफी थी।'

मैं अब चलना चाहूँगा। हो सकता है मेरे तैयार होने तक रज्जु आ जाए। इससे तुम्हारी मोनोटनी भी टूटेगी।'

'मुझे लगता है तुम्हारे जाते ही मैं सो जाऊँगी। सोना भी मोनोटनी को तोड़ता है। रज्जु के आ जाने पर मुझे कुछ और जागना पड़ सकता है।

‘मैं चाहूँगा सोने की तरफ तुम कम ध्यान दो।'

'कपड़े और रूपये अलमारी में है। इस बीच तुम थोड़ा बहुत खा-पी सकते हो। वैसे पीने के साथ भी तुम्हें कुछ खाना होगा। शायद तुम सेन्डविचेज ज्यादा पसन्द करते हो।'

वह अन्दर चला गया। उसकी पत्नी खाट से उठकर कुर्सी पर बैठ गई।

अन्दर से लौटने पर उसने चेहरे पर बाहर जाने की ताजगी थी। बैठे ही बैठे पत्नी ने पूछा, 'तुम कुछ खाओगे ?

‘नही, वही ठीक रहेगा। हो सकता है वह भूखा आए।

उसके लिए मेरे पास काफी बचेगा।'

वह कुछ दूर तक जाकर लौट आया और बोला, अगर तुम चाहो तो मैं उसके घर की तरफ से निकल सकता हूँ।'

'तुम्हें सीधे जाना चाहिए! मैंने पहले ही कहा है उसके आने पर मुझे जगते रहना पड़ सकता हैं !'

'तुम शायद नही जानती ऊब कितनी अजीब चीज़ होती है। मैं भी इसलिए जा रहा हूँ! तुम्हें भी कोई रास्ता निकालना चाहिए।'

'रात में शायद तुम नहीं आ सकोगे।'

"पीने के बाद ऐसा करना मुश्किल होगा। पीने से ही समरसता खत्म नही होती। उसके बाद की और स्थितियों से भी गुजरना जरूरी हो जाता है।

'शायद दरवाजा बोल रहा है। दरवाजा खुलता है तो एक लकीर-सी खिचती जाती है। सिर्फ 'हूँ। करके उसने अपनी पत्नी की बात का जवाब दिया।

रज्जु भी हो सकता है!’ कहकर उसने पति की तरफ देखा। वह चुप रहा।

वह कुछ देर बाद फिर बोली, शायद नहीं है !" उसने भी गर्दन हिला दी।

पत्नी ने बिना इधर-उधर देखे कहा, 'अब तुम्हें जाना चाहिए। मैं दरवाजा बन्द करके लेट जाना चाहती हूँ!"

वह दो-चार कदम जाकर लौट आया, 'मैंने कुछ रूपये तुम्हारे लिए छोड़ दिए है।' उसकी आवाज दरवाजे तक खिचती चली गई। दरवाजा खुलने और बन्द होने के कारण पत्नी को दो लकीरे खिंचती मालूम हुई। वह अपने दोनो पॉव जमीन से रगड़ने लगी।

बाहर ठंड थी। इस तरह का ठंडापन मजेदार होता है और गरमाई भी बनाए रखता है। लेकिन वह उसे महसूस कर रहा था। मफलर उसके दिमाग मे बराबर बना था। चौराहे के करीब उसे रुकना पड़ा। वहाँ भीड़ तो बहुत कम थी। लेकिन दिशा निर्देशित नहीं कर पाया। उसने वहां खड़े हो कर उबासी ली। चौराहा और भी ठंडा महसूस हुआ पान वाले की दूकान दूर थी। उसका ख्याल था शायद कुछ लोग वहाँ पान खाते हुए भी मिल सकते हैं। पानवाला टाईम आफिस का काम अच्छा करता है। यह सुविधा विलायतों को प्राप्त नही है।

चौराहे से आगे बढते हुए उसे रज्जु का ख्याल आया । बांये घूमकर रज्जु के कमरे पर पहुँचा जा सकता था। वह मोड़ पर रूका और कमरे के हर दरबे का अंदाज़ा लगनी लगा। लगभग पचास क़दम पर उसका घर बिजली के खम्बे की परछाई से ढका था। उस कमरे से उसे कोई बाहर आता हुआ महसूस हुआ। वह तेजी से आगे बढ़ गया।

रज्जू उसे पसन्द है। वह भी अच्छी है। बस उसमे एक ही कमी है। अगर वह न होती तो शायद पत्नी का जवाब नहीं होता। वह हमेशा जवाब न होने की टर्म्स मे ही सोचने का आदि है। जवाब हो भी तो क्या उखड़ता है | वह पानवाले की दूकान पर पहुँचा। पान वाला व्यस्त था। इस मखलूख को कभी कोई खाली नही देखता-ग्राहक हो या न हो। वैसे उसे पान लगाने की कला पसन्द है। जिन्दगी की ऊब हमेशा उसे पान की दूकान की तरफ खीचती है। पान लगाना एक मजेदार अनुभव होता है।

दो आदमियों के साथ एक औरत स्कार्फ बाधे थी। वे लोग जोर-जोर से हस रहे थे। उस औरत का शरीर काफी सुडौल लगा। चेहरा उतना अच्छा नही था। लेकिन शरीर एक महत्वपूर्ण चीज होती है।

उनमे से एक आदमी ने कहा, 'एक्सचेज इज नो रॉबरी।'

वह महिला तुरन्त बोली, 'यह तो व्यवसाय का प्राचीनतम सिद्धान्त है।

दूसरे ने हसकर कहा, "ठीक है, मैं जल्दी से जल्दी इसका प्रबन्ध करूंगा। उसके बिना एक्सचेज मुमकिन नही। महिला ने दूसरे की तरफ देखकर ऑख का कोना दबा दिया।

उन लोगो के पान तैयार थे | पान वाले ने उन लोगों के हाथ में थमाकर पैसे वसूल लिये। पैसो के गुल्लक से टकराने की आवाज उसे बहुत नजदीक सुनाई पड़ी!

वह धीरे से बुदबुदाया इनमें से दूसरे आदमी को क्वारा और चालू होना चाहिए।'

उन लोगो के चले जाने पर वह पानवाले के बिल्कुल सामने जा खड़ा हुआ। बिना दुआ-सलाम के पानवाला बोला, 'रज्जु भैया कई बार पूछ चुके हैं।

वह एक मिनट रूका। फिर बोला, 'उसे तो मैंने घर बुलाया था।

'हो सकता है वही गए हों।" पान वाले की बात से वह चौंका तो नही लेकिन उसकी शक्ल की तरफ जरूर देखा। फिर कहा, ‘सुना है कत्था-चूना ठीक मिकदार से मिल जाने पर खाने वाला पसीने से तरबतर नज़र आने लगता है। तुम्हारा लगाया तो देखकर ही पसीने आने लगा।

पानवाला हंस दिया। हँसी का प्रभाव उसके चेहरे पर काफी देर तक बना रहा। उसने पान को तीन-चार जगह से झटका देकर मोड़ा और करारेपन को परखा, फिर बोला, ‘जरा खाकर देखो, ऐसा ही पान रज्जु बाबू को खिलाया है। नासो मे पानी उतर आया था। बाबू पान मुँह रंगने के लिए नही खाया जाता। लोग आजकल अपनी औरतो को भी खिलाने लगे हैं। यह औरत खड़ी थी एक फुल पावर का पान लगाकर दे देता इन दोनों से भी कम न चलता! वह हस दिया

 उसे अपनी पत्नी का ख्याल आया। पान का इसे शौक है। उसका इरादा पूछने का हुआ, कही रज्जु पान न ले गया हो। लेकिन यह सोचकर टाल गया, क्या फर्क पड़ता है। वह अपने ही वाक्य से चौक गया। हमेशा से उसका ख्याल है ऐसा कहने वाले को ही ज्यादा फर्क पड़ता है ; लेकिन उसके साथ ऐसी बात नहीं।

उसने दूसरा सवाल किया, कोई और तो नही पूछ रहा था ?

पानवाले ने क्षण-भर सोचकर पूछा, 'पहले जो लड़की तुम्हारे साथ आया करती थी, उसकी शादी हो गई ?'

'क्यो ? उसने आवाज काफी मोटी करके पूछा।

वह आज आई थी, पान खाकर गयी है। साथ में शायद उसका आदमी ही था।

हूँ ! फिर बोला रायजादा के बार से तो आज कोई नही होगा ? '

नहीं, मंगल है न !'

'त्तो ?'

'रायजादा कृष्णा मेडिकल स्टोर में बैठा होगा, निकालकर दे देगा। मंगल वाले दिन दस बजे तक वही बैठकर ग्राहकों का इन्तजार करता है।

उसने उसकी बात का जवाब न देकर कहा, ‘अच्छा, चार और बाँध दो।वैसे ही गरमा-गरम।‘

पान वाले ने जल्दी-जल्दी चार पान घसीट दिये। उसने पानों को उलट-पुलट कर देखा और बोला, वैसे नही लगे !

किसी लड़की को खिलाकर मजा देखो | पीछा छुड़ाते नही बनेगा। एक-एक पाँच- पाँच रूपये का हैं !'

उसके मुड़ते ही पानवाले ने रोज़नामचा उठाया, खोलकर देखा, फिर रख दिया।

कृष्णा मेडिकल स्टोर के पास उसने पैसे निकालकर गिने। रायजादा वहां नहीं था। उसे वहां चक्कर काटना अच्छा लगा। आगे बढ़ गया। वह कहीं बैठकर रायजादा का इंतज़ार करना चाहता था। लेकिन बैठकर इंतज़ार करने के लिए जगह नहीं थीं, इसीलिए उसे चलते रहना पड़ा।

अगर रज्जु नही पहुँचा होगा तो वह सो गई होगी। वह स्वय भी इस बात से सहमत था, सो जाना भी मोनौटनी को खत्म करता हैं, बशर्ते आदमी अकेला हो उसकी पत्नी के संदर्भ में यह शर्त पूरी हो सकती थी यह बात दूसरी है रज्जू आ गया हो और वे लोग बाते करते लगे हो। अगर वह सो गई होगी तो उसे उठाना मुश्किल होगा। सोने पर उसका कई बार फ्री शो हो जाता हैं। लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी !

रज्जू आयेगा भी तो बात ही करेगा। जिस लड़की का पानवाला जिक्र कर रहा था, उसके साथ भी शुरू मे वह बाते ही किया करता था। शुरू की बाते कोई मायने नहीं रखतीं। रज्जु उसकी पत्नी से बात भी क्या कर सकता है। विवाहित लड़कियों से बात करने में कोई स्कोप नही रहता। वह लड़की अविवाहित थी तो भी उसका बाप थोड़ा-बहुत बीच में बना रहता था। औरतो के साथ बात करने मे यही परेशानी रहती हैं- कभी बाप, कभी मिया, कोई न कोई बना ही रहता है। इस तरह की मौजूदगी थोड़ी परेशानी पैदा कर देती है। सब काम जल्दी-जल्दी करने पड़ते हैं।

उनके साथ ऐसी कोई बात नही होगी। ज्यादा इत्मीनान से बात कर सकेंगे। रज्जु उतना डैशिंग नहीं । वह बात पर बात करता चला जायेगा। वह ज्यादा लम्बी बातों और ख़ामोशी दोनों से ही ऊबती है। ज़रूर ऊबने लगेगी। कहीं उबास दिया तो भाई का नशा काफूर हो जायेगा। मर्द के साथ ऐसा ही होता है। औरत को उबासना आदमी को कही का नही छोड़ता ।

वह काफी दूर निकल आया था। पान उसकी मुट्ठी मे दबे थे। जेब में रखने से शर्ट खराब हो सकती थी। उस पानवाले की बात पर हँसी आ गई। अगर वैसा ही फुल-पॉवर का पान रज्जु ने उसे खिला दिया होगा तो ? दरअसल उसे पान का बहुत शौक है वह जरूर खा जायेगी। इससे पहले भी रज्जु पान कई बार ले गया है और खिलाया है। वह चबाकर खाती है और थूक देती है। कभी कोई असर नही हुआ। वह इस बात पर फिर हस दिया। अगर उत्तेजित होना होता है तो उसके लिए पान-धान की जरूरत नही होती।

वह खुद कम बात करता है। इसी वजह से वह ठंड़ी पड़ जाती है। उसके साथ वह दो-चार बार ही उत्तेजित हुई है। उसमें बातों का बहुत हिस्सा होता है! रज्जु हो सकता है उससे दूसरी तरह की बाते करे। बात मे भी एक तरह का 'स्लायवा होता है। रज्जु ज्यादा से ज्यादा उसका हाथ अपने हाथ में ले सकता है। दरअसल लड़का होते हुए भी उसके मन में भय बना रहेगा कही नाराज न हो जाये। इस तरह का भय कुछ करने नही देता। जब तक आदमी खतरा उठाने को मूल्य नहीं मानता उसे कुछ मिलता-मिलाता नही। नये लड़को की यही हालत है। इन्तजार मे बैठे रहते हैं, टपके तो गुप ले।

लौटाने पर रायजादा कृष्णा मेडिकल स्टोर के बाहर ही मिला वह अपनी दूकान की तरफ जा रहा था। उसके चेहरे पर चौकन्नेपन के साथ-साथ तेजी भी थी । उसे देखकर वह ठिठक गया और बोला, 'आपको भी चाहिए ?

'वन क्वार्टर दे सकेंगे ?

‘दे देंगे।'

"कितना होगा ?'

'दो ज्यादा मंगल है न ! पूरी खोलनी पड़ेगी।'

‘ठीक है।

उसने मुट्ठी की मुट्ठी उसकी हथेली पर खोल दी ! उसने नजर से उन्हे गिना और हसकर बोला, इसके अलावा दो अंडे भी हैं। वे तुम्हें दोस्ती मे दे दूँगा।'

"हाँ, मैं यही सोच रहा था, सब तो आपको दे दिये। साथ में खाऊंगा क्यों ?’

मै समझ गया था, समझ गया था... । वह हसता हुआ पीछे की तरफ से दूकान में घुस गया।

वह दूकान के बाहर बरामदे में रह गया था। दोनो बगलो में दबा लिये थे। बायी मुट्ठी मे पान होने के कारण दाहिनी बगल फूल आयी थी।

उसे उस लड़की की याद आयी। हालाँकि उसकी शादी हो गई है लेकिन उसकी मूल प्रवृत्ति में ज्यादा अन्तर नही हुआ होगा। जल्दी उत्तेजित होती होगी। प्रेम-काल मे उसे दो-चार घूट पिला दी थी। वह काफी मजे मे गई थी। उसने कोई एतराज नही किया था, बल्कि बड़ी मजेदार बात कही थी-अपने शरीर के बारे मे मैं खुद मुख्तार हूँ किसी भी हिस्से का कुछ भी इस्तेमाल कर सकती हूँ I उस दिन जैसा मजा देखने में नहीं आया।

लेकिन पत्नी को केवल उफान-सा आकर रह गया था। आँखे जरूर चमकने लगी थी लेकिन वह टुकुर-टुकुर उसकी तरफ देखती रही थी और फिर उसी के ऊपर लेट गई थी | वह उसे बड़ा गिलगिलापन लगा था। उसके पास लिपटकर सो जाने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचा था।

रायजादा ने कागज में लिपटी हुई बोतल उसे पकड़ा दी। उसने कागज हटाकर देखा, चौथाई से थोड़ी कम थी। रायजादा खुश हो हसकर बोला, "एक कबाब रखा है। यह भी ले जाओ, मजा देगा । उसे कबाब खाना अच्छा लगा। उसके दोनो हाथ भर गये थे। इसलिए शीशी उसे जेब में सरका लेनी पड़ी। अण्डे और कबाब दूसरे हाथ में पकड़ लिए।

रायजादा ने पूछा, कहाँ पीयोगे ? चाहो तो कहीं इन्तजाम कर हूँ ? 'आज अकेले ही मूड है। ‘ठीक है, बहुत जोर की किक देगी। नायाब चीज है। एकदम सोलह साल की लड़की की तरह। आधी थी, चौथाई तुम्हें दे दी, बाकी मैं पी गया। किक दे गई साली। अब जा रहा हूँ। तब काम बनेगा ! इन्तजाम तुम्हारा भी कर सकता हूँ।' वह कुछ नही बोला। सिर्फ हँस दिया।

वह जेब में बोतल महसूस कर रहा था। हल्का-सा पसीना था । उसका ख्याल था वह ऐसी जगह बैठे जहाँ वह अकेला बना रहे। पार्क के बाहर पेड़ की दायी तरफ बेंच पर बैठ गया। बेच काफी ठंड़ी थी। पतलून की तली पर भीगापन-सा लगा। उसने जेब से बोतल निकलकर रौशनी में देखी। बोतल की रगीनी के कारण वह आर-पार कुछ नही देख सका। चुपचाप बराबर मे रखकर अंडा तोड़ने लगा। वह खाते हुए बराबर सोचता रहा कही किक न दे जाये और वह नही लौट जाये। वैसे रायजादा उतना ईमानदार नही है !

रज्जु शायद अभी भी बैठा हो। हो सकता है पत्नी उसकी बातो से ऊबकर लेट गई हो। पलंग पर लेटी हुई बिल्कुल खपटा-सी लगती है। उसकी एक बड़ी अजीब आदत है वह हाथ पकड़कर अपने कुल्हो पर रख लेती है। कई बार पूछ चुकी है...कुछ इम्प्रूव्ड लगे ? रज्जु से शायद ऐसा न कहे। वह कहा करती है विदेशों में मोटे हिल्स को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती ! यह उसने रज्जू से ही सुना है। वह विदेशी पत्रिकाएँ पढ़ता रहता है। अगर वह पूछेगी भी तो भी रज्जु तारीफ ही करेगा। तारीफ काफी दिक्कत पैदा करती है।

उसे दूसरा अंडा अच्छा नहीं लगा। बिना नमक के बकबकापन महसूस हुआ। उसने बोतल मुँह से लगा ली। काफी सर्द थी। उसे फिर मफलर का ध्यान आ गया, हालाँकि ध्यान आना एकदम बेतुका था। बोतल के मुँह पर मफलर लगा-कर नही पिया जा सकता था । शायद कान ढके जा सकते थे। उसकी पत्नी के कान ठंडे नही रहते। रज्जु भी इस बात पर काफी हँसता है। रज्जु ने कहा था औरतो को कान पर सर्दी नही लगती । इस पर उसकी पत्नी बहुत हँसी थी। उसे उस बार काफी आश्चर्य हुआ था। आश्चर्य की बात भी थी । लेकिन वह काफी समय तक नही समझ पाया उसका संकेत किधर था। उसे कैसे पता औरतों को कहाँ ठंड लगती है !

दो-चार घूंट पी लेने पर भी उसे तल्खी महसूस नही हुई। मुँह का स्वाद वैसा ही सीठा-सीला बना रहा | ऐसा स्वाद ऊब का होता है। वह यह बरदाश्त नही करना चाहता था ! एक सास में वह कुल पी गया। कोई अन्तर न पड़ने के कारण वह उत्तेजित हो गया और बोतल फेक दी अड़े के छिलको को उसने बुरी तरह कुचल दिया।

यह बात एकदम गलत थी, उसकी पत्नी पान खाकर उत्तेजित हो जायेगी। हो भी जायेगी तो रज्जु ज्यादा देर नही रूक सकेगा। उसके शरीर में दम जरूर है लेकिन आदमी को पहली बार दहशत लगती है। उसी दहशत की वजह से वह कुछ नही कर पाता।

उसने हाथ का पान मुँह में रखकर उसे चबाया, दो-चार बार में ही थूक दिया। पान जैसी चीज से उत्तेजित होना नामर्दी है। अगर ऐसा होता तो वह बीस पैसे के पान से ही गुजारा चला सकता था। पान खाकर उत्तेजित रज्जु हो सकता हैं। अगर वह पान खाकर उत्तेजित हुआ होगा तो उस पर कुछ नही होगा। बिना रसीद के मनीआर्डर हो जाएगा।

उत्तेजित होने का उसका तरीका बिल्कुल दूसरा है। स्टेजेज मे उत्तेजित होती है। आँखों से बढ़नी शुरू होती है। कई जगह टटोलना पड़ता है। यह उसके वश की बात नहीं । ऐसी बात औरत अपने आप नही बताती। जों जानता रहता है वही जानता है। बता भी देगी तो वह क्या टेड़ा कर लेगा।

वैसे वह दोस्त आदमी है।

सड़क पर आकर उसे उतनी सर्दी नहीं लगी। कानों पर गर्माहट महसूस होने लगी। सड़क खाली थी। यह खालीपन उसे अपने साथ बने रहने मे काफी सहायता कर रहा था। सड़क के दूसरी तरफ गुजरते हुए लोगो की हँसी ने उसे उखाड़ दिया। उस हंसने को सिविक सेंस के खिलाफ होने की वजह से वह ज़्यादा पसन्द नही कर पाया । लोगो को घर से हँसकर चलना चाहिए या घर जाकर हसना चाहिए। नाराजगी के कारण उसके कदम कुछ तेज हो गये। इस सबके बावजूद काफी देर तक उन लोगों की हसने की आवाज सुनाई पड़ती रही। अन्ततः वह खामोश हो गया और चाल ढीली कर दी।

पेशाब के कारण उसे चुनचुनाहट महसूस हो रही थी। रुककर एक चहार-दीवारी के पास खड़े हो जाना पड़ा । उसका ख्याल था वह अपने घर के पास पहुँच गया है। रज्जु और पत्नी उसे एक साथ मिल सकेंगे। पत्नी जरूर सो गई होगी या सोने की तैयारी में होगी। हो सकता है रज्जु ने उसकी गैरहाजिरी मे उसी के कपड़े पहन लिए हो और वह भी सोने की तैयारी मे हो। वह कौन से कपड़े पहन सकता हैं ? हो सकता हैं न भी पहने। ऐसे में पहनने की कोई बन्दिश नही होती। वह बिना पेशाब किये लौट पड़ा । चुनचुनाहट के बारे में वह ज़्यादा सचेत नहीं रहा था।

उसे ख्याल हुआ रज्जु और पत्नी सड़क पर टहल रहे हैं। महिला का पिछला हिस्सा उसे लगभग सपाट लगा | चाल में भी वैसी ही लहक नजर आयी। आदमी की लम्बाई रज्जु जैसी ही थी। थोड़ी दूर पीछे चलकर वह रूक गया। पीछे जाना निहायत बेवकूफी है। वह लौट पड़ा और पीछे वाले चौराहे पर जाकर खड़ा हो गया।

उसका शरीर काफी गोरा है। रज्जु के दिखलाई पड़ने वाले सब हिस्से स्याही लिए हुए है। अगर रज्जु उसके शरीर के किसी हिस्से पर भी हाथ रखेगा तो कितना अन्तर मालूम पड़ेगा। ऐसे वक्त जरा-जरा-सी बातों की ओर कोई ध्यान नहीं देता । यह सब बेतुकापन और बकवास है।

उसे अपनी प्रेमिन लड़की का ख्याल आया । उसका घर यहाँ से काफी नजदीक है। वह पुष्ट देहवाली मजेदार लड़की है। उसका पति निहायत बेवकूफ है। उस लड़कों को मारे डाल रहा है। उसे यहाँ नहीं होना चाहिए था । यह उसका पीहर है। चौकीदारी करता उसके पीछे-पीछे घूम रहा है। पीहर में लड़की पुराने से मिलती-जुलती है। इस तरह का व्यवहार जबरदस्ती और निकम्मेपन की हद में आता है।

उस लड़की का घर दूर से दिख रहा था। खिड़कियाँ बन्द थी और आँगन में बत्ती जल रही थी। उसे अपने घर का ख्याल आया। वैसे ही घर में खिड़कियाँ और रोशनदान कम हैं। इस समय वे सभी बन्द होगे |