योगिता यादव की लम्बी कहानी 'नदियों बिछड़े नीर' उनकी महारत — दिल्ली की बस्तियों में होने वाली घटनाओं, वहाँ के जीवन की बारीकियों पर मजबूत पकड़ — से उपजी प्रेम कहानी। ... भरत तिवारी/शब्दांकन संपादक
"घर में लड़की और पड़ोस में लड़का जब जवान हो रहा हो तो
घर वाले ऐसी ही वाहियात हरकतें करते हैं!
वे प्रेम-प्यार से जु़ड़ी हर चीज को अश्लील बताने लगते हैं।
अब फिल्म के नाम में प्रेम था तो फिल्म अश्लील हो गई। न खुद देखी, न मुझे देखने दी।
इसके बावजूद फिल्म का गीत
“प्यार कभी कम नहीं करना कोई सितम कर लेना...”
हम दोनों की मुहब्बत का कॉमन राग बन गया।"
नदियों बिछड़े नीर
योगिता यादव
इस बार अमलतास पर फिर उसके गुस्से जैसे चटख बुलबुलेदार फूल चढ़े थे।
मैं फिर उसे मनाने को बोझिल हुई जाती थी।
मैं जानती हूं कि इन्हें बस छूने भर की देर है,
गुस्से के ये बुलबुले हाथ लगते ही झड़ जाएंगे।
रूठना उसकी आदत है और मना लेना मेरी फितरत।
हम एक-दूसरे के परिवारों के प्रति हिकारत लेकर बड़े हुए थे। हमें बताया गया था कि हमें एक-दूसरे से फासला बना कर रखना है। पापा इसे शहरी बदलाव कहा करते थे, वरना अगर गांव में होते तो घर क्या हमारे घूरों में भी अच्छा खासा फासला होता। मां की कोशिश शहरी मजबूरी के बावजूद यह फासला बनाए रखने की थी। मां कभी-कभी बहुत दुखी होकर कहती, हमने कितनी मुश्किल से रूपया पैसा जोड़ कर यह घर बनाया था पर पड़ोस यही मिलना था।
हम दोनों के घर की दीवारें एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं। पर परिवारों में बहुत फासला था। मेरे पापा एक सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। और उसके पापा की मीट की एक छोटी-सी दुकान थी। जिस पर अकसर बकरे कटते। दुकान घर से काफी दूरी पर थी।
वे अपने घर को खूब साफ सुथरा रखने की कोशिश करते। पर दरवाजे पर बंधी बकरी उनकी कोशिशों पर दिन भर मींगनी करती रहती। बकरी बेचारी का क्या दोष, वो तो इतनी भोली थी कि जब उन्हें चाय बनानी होती वे गिलास लेकर उसे दोह लेते। असल दिक्कत तो मीट की उस दुकान से थी। उसकी मां और दादी अपनी स्वच्छता पर लाख कसीदे पढ़ें पर उस दुकान के कारण हमारे परिवार की घृणा उनके परिवार के प्रति कम नहीं होती थी।
इसके बावजूद मां का मानना था कि बच्चे सबके साझे होते हैं, अगर वे साफ सुथरे हों तो, और वो तो हमेशा से ही बहुत साफ सुथरा रहा करता था। पापा की राय उसके बारे में गुदड़ी का लाल जैसी थी। यही वजह है कि परिवारों का आपसी फासला कभी हमारे मन और व्यवहार में नहीं उतर पाया।
हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। वह मुझसे दो क्लास आगे था। जिस स्कूल में पढ़ना मेरे लिए बहुत साधारण बात थी, वहां उसके पढ़ने पर पूरे परिवार के सपने जुड़े थे। मेरे घरवालों को यकीन था कि मुझे तो पढ़ना ही है। क्योंकि परिवार में अनपढ़ तो क्या कम पढ़ा लिखा भी कोई नहीं था। दिन भर कमर में पल्लू खोंस कर घर गृहस्थी में रमी रहने वाली मेरी मां भी बीए पास थी। रमी रमाई घर गृहस्थी के बीच अगर कभी उन्हें दुखी होना होता तो बस एक ही बात वह कहती, मैं भी बीएड कर लेती अगर शादी न हो गई होती।
वहीं दूसरी ओर उसके घर में गणित के दो कठिन सवाल हल करवाने वाला भी कोई नहीं था। उसकी मां चाहती थी कि वह पढ़-लिख कर बड़ा अफसर बने। और इसके लिए वह कोई कोर कसर बाकी नहीं रहने देना चाहती थी। भले ही इसके लिए उन्हें पड़ोसियों की चिरौरी करनी पड़े। बात व्यवहार में कुशल उसकी मां ने बिना किसी फीस के उसके पढ़ने का इंतजाम मेरे पापा के पास कर दिया था। होमवर्क करने के लिए वह दोपहर बाद मेरे पापा के पास आ जाता। पढ़ाई के प्रति उसकी लगन पर अकसर मुझे ताने मिलते और मजबूरन मुझे भी उस समय बस्ता लेकर बैठना पड़ता। शायद यही वजह थी कि मुझे कभी पढ़ाई, पढ़ाई लगी ही नहीं। पहले मजबूरी, फिर उसका साथ बने रहने का बहाना लगने लगी।
हम दोनों साथ-साथ पढ़ते और पढ़ने के बाद मां हम दोनों को दूध, बिस्कुट, मिठाई वगैरह देती। तब उसे मेरी मां बहुत अच्छी लगती। पर मुझे उसकी मां हमेशा बहुत प्यारी लगती थी। एकदम दुल्हन जैसी। वह ज्यादा समय मुंह पर काना घूंघट ओढ़े रहती। उनकी एडि़यां हमेशा मेहंदी में लाल हुई रहती और हाथों में तोतयी रंग की चूड़ियों के गजरे भरे रहते। कलाई में चूड़ियां इस कदर कसी रहती कि उनकी कलाई का उस जगह का रंग ही बिल्कुल अलग हो गया था।
उन्हें सिर्फ चूड़ियां पहनने ही नहीं, पहनाने का भी बहुत शौक था। वे अकसर मेरी मम्मी को कहती,
“ऐ मधु की मम्मी, चार चूड़ियों का पहनना भी क्या पहनना।
कम से कम दो-ढाई दर्जन तो होनी ही चाहिए।“
मेरी मां को इस बात में जितना गंवारपना लगता मुझे यह बात उतनी ही प्यारी लगती थी। और जब भी मौका मिलता मैं उनके संग जाकर हाथ भर-भर कर चूड़ियां पहन आतीं। मां बहुत कम बाजार जाती थीं, मैं बाजार घूमने का शौक उन्हीं के साथ पूरा करती थी। इस घुमक्कड़ी पर अकसर घर में मेरी झाड़ पोंछ हो जाती।
पर मेरे पैर में तो चक्कर लगे थे। मुझसे टिक कर बैठा ही नहीं जाता था। एक पैर इस घर तो दूसरा पैर उस घर। पैरों के चक्कर हों या हाथों में चूड़ियां, मेरे शौक उसकी मां के साथ ही पूरे होते थे। इसके लिए मुझे ज्यादा कुछ नहीं करना था बस आंटी के हाथों में मेहंदी लगानी थीं।
दादी तो उसकी और भी नखरीली थी। वे अपने लिए अलग सिंदूर वाली मेहंदी बनातीं। उस टपकती हुई गीली मेहंदी को उनकी ढेर सारी लकीरों वाली हथेली पर मांडना बहुत मेहनत का काम था। पर लगानी पड़ती थी, बाजार जो जाना होता था, आंटी के साथ। इतनी जोड़तोड़ और मेहनत बस मैं उन तोतयी रंग की चूड़ियों के लिए करती थी। मेरी इस मेहनत की कमाई को मां देखते ही बुरी तरह खीझकर उतरवा देती। और कहती
“ये खटीकनी हमारे घर कहां से आ गई...”
कम तो दुल्हन-सी दिखने वाली उसकी मां भी नहीं थी। वह जब भी उनकी मीट की दुकान पर बैठने को मना करता, तो उसे खूब मोटी-मोटी गालियां पड़तीं और उनके शुरू में या अंत में पंडित, पुरोहित ही जुड़ा होता। और इस तरह हम एक-दूसरे के हो जाते।
वो पंडित हो जाता, मैं खटीकनी हो जाती।
पर गालियों में होना सिक्का उछाल देने जितना आसान है। जबकि मुहब्बत में होना ऊन का एक-एक फंदा बुनना जैसा सघन और मुश्किल।
...और समाज में एक-दूसरे का होना...इस बाधा दौड़ का कोई क्या हिसाब दे !
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हमारी उम्र बढ़ रही थी और इसी के साथ हमारे साथ रहने के कारण और हमें दूर रखने की पहरेदारियां भी बढ़ रहीं थीं। उसके घर कुनबे में तो क्या, दूर की रिश्तेदारियों में भी ऐसा कोई नहीं था जो मुझे न जानता हो। जो भी घर आता वह पूछता वीनू की सहेली नहीं नजर आ रही। और बस मैं नजर आ जाती।
पर अब ये सवाल हमें ताना जैसा लगने लगा था और हम दोनों ही इस पर झिझक जाते। अब हम दूध मिठाई में बहलने वाले बच्चे नहीं रह गए थे। हम चोरी छुपे उसके घर में रखे डैक यानी म्यूजिक सिस्टम पर डांस किया करते थे। पर किसी के सामने बात करने से भी कतराते। बचपन का हंसने, खेलने वाला साथ कहीं भीतर ही भीतर गहरा हो रहा था। और हम इसमें डूबे रहते। उनके आंगन में बंधी वह बकरी जो वीनू को बहुत प्यारी थी, मैं उसे खूब खूब लाड करती। उसकी आधी टांगों को मेहंदी में रंग देती। उसके गले में घुंघरूओं की माला पहना देती। ये उनके घर आई अब तक की तीसरी बकरी थी, पिछली दो कहां गईं, मुझे कुछ ध्यान नहीं, पर ये वाली जिसे हम प्यार से मुनिया कहते थे हमारी लाडली थी। उसकी पीठ के एक तरफ मेहंदी से मेरे हाथ का छापा था और दूसरी तरफ वीनू के हाथ का छापा।
पर पता है एक दिन क्या हुआ...
उस भोली-सी बकरी ने
बिजली का तार चबा लिया।
वीनू उस वक्त अपने पापा के साथ मीट की उसी दुकान पर बैठा हुआ था, जहां जाना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था। गर्मी बहुत थी। उसकी मम्मी, दादी, मैं, मेरी मम्मी हम सब अपने-अपने जुड़ते हुए आंगनों में बैठे हुए थे। उन्होंने टेबल फैन लगाया हुआ था। जिसका लंबा तार बाहर से अंदर की ओर जा रहा था। सब अपने-अपने हंसी मजाक में व्यस्त थे।
मुझे याद है हम दोनों की मम्मियां एक-दूसरे से कुछ ऐसे मजाक कर रहीं थीं, जिन्हें मेरी मौजूदगी के कारण वे छुपा रहीं थीं। बात मम्मी की बगल से उधड़े ब्लाउज पर शुरू हुई और पहुंचते-पहुंचते उनके बढ़ते पेट पर पहुंच गई। जो अब परमानेंट हो चला था।
इस बीच किसी का ध्यान ही नहीं गया कि वो मूर्ख बकरी पत्तियां चबाते चबाते टेबल फैन का तार ही चबा गई। तार चबाती बकरी कांप कर गिर गई। पर हमारा ध्यान उस ओर तब गया जब पंखा बंद हो गया।
वीनू की मम्मी दौड़ी बकरी की तरफ और उसे दोनों हाथों से अपनी गोद में उठा लेना चाहा पर बकरी के शरीर में करंट दौड़ रहा था। वह इतना तेज था कि आंटी कांप गई और दूर छिटक गईं। बकरी को वे अपनी बाजुओं में समेट ही नहीं पाईं और कांपती हुई बकरी जमीन पर निढाल हो गई। मैंने दौड़ कर पंखे का स्विच बंद किया। पर तब तक बकरी निढाल होकर जमीन पर गिर पड़ी थी।
वीनू की प्यारी बकरी करंट लगने से मर गई। वह दौड़ता हुआ आया जब उसे इस बात का पता चला। पीछे-पीछे उसके पापा भी अपने अंगोछे से पसीना पोंछते आ रहे थे। यह उनके घर में शोक का बड़ा भारी दिन था। वीनू फूट-फूट कर रोया जैसे कोई मां रोती होगी अपने बच्चे के मरने पर। मैं भी रोयी, आंटी भी रोयी, मेरी मम्मी ने भी एक भोली बेजुबान की मौत का यह हृदय विदारक दृश्य देखा था। उनकी आंखें भी सीज गईं। वीनू उस बकरी को छोड़ता ही नहीं था पर उसके पापा सचमुच के कसाई निकले। उन्होंने थोड़ी देर अफसोस किया। कब, क्या, कैसे हुआ का हाल समाचार पूछा और सलाह करने लगे कि बकरी का क्या करना है। आंटी का मानना था कि बकरी को जमीन में गाड़ दिया जाए। जैसा अकसर पालतू जानवरों के साथ करते हैं।
पर वीनू के पापा के लिए तो वह अब बस मांस भर ही थी। ये सिर्फ बकरी नहीं, हमारी प्यारी मुनिया थी। पर वे नहीं माने। वे उसे अपने उसी अंगोछे में लपेट कर दुकान पर ले गए। पैरों में मेंहदी, गले में घुंघरू पहनकर दिन भर ठुमकने वाली हमारी प्यारी मुनिया का वे कुछ किलो टुकड़ा-टुकड़ा मांस बना लाए। वीनू का मन वितृष्णा से भर गया। उसने अपने पापा को कई तरह की गालियां दीं। पापा ने उसकी गालियों के जवाब में उसके गाल पर कई झापड़ जड़ दिए। मां दोनों के बीच सुलह करवाने, समझाने में चक्कर घिन्नी हुई जाती थी। सारी गली ने उनके घर का यह तमाशा देखा। बेटे के दुख में शामिल मां की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे और एक गुस्सैल पति से डरने वाली पत्नी, उस मांस को पकाने के लिए तेल-मसाले तैयार कर रही थी।
कोई भी शोक अकेले नहीं आता। वह अपने साथ और कई शोक लेकर आता है। यह दृश्य भी जैसे बकरी की मौत के दृश्य का ही विस्तार था। उनके घर में शोक, घृणा, वितृष्णा के स्थायी रूप से पसर जाने का संकेत भी। मम्मी ने जब यह बात पापा को बतायी तो उनकी बातों में वह सब दुख, दर्द, शोक और वितृष्णा महसूस हो रही थी। मेरी तरह मम्मी भी इस पूरे प्रकरण पर बहुत दुखी थीं। वीनू ने उस दिन खाना नहीं खाया। आंटी ने बताया कि उनसे भी खाया नहीं गया, मीट कड़वा-सा हो गया था। बस इसके पापा और दादी ने खाया। दादी से भी खाया नहीं जा रहा था। पर भूख लगी थी और बेटे का डर था, तो खाना पड़ा। वीनू ने अगली सुबह भी कुछ नहीं खाया। स्कूल भी भूखा ही गया और लौटकर भी कुछ नहीं खाया। जब वह पढ़ने भी नहीं आया तो पापा को चिंता हुई और उन्होंने मम्मी को उसे लिवा लाने को कहा।
पर मम्मी ने उनके घर जाने से साफ मना कर दिया,
“मैं नहीं जाती उन कसाइयों के घर।
जतन से पाली बकरी को भी जो खा जाएं, उनसे कैसा मेल प्रेम।
हम दूर ही अच्छे। मैं तो पहले ही कहती थी, कहीं ओर मकान देखो।”
पापा ने जब जोर देकर कहा तो मम्मी ने मुझे भेज दिया उसे बुलाने। ऐसे तो मम्मी बार-बार पूछने पर भी मुझे वहां जाने देने को मना कर देती थी, पर इस समय बात कुछ और थी।
मैं उनके घर पहुंची तो वह पलंग पर औंधा पड़ा अब भी सुबक रहा था। गुस्से में भरा हुआ। उमंगों से भरा वो प्यारा वीनू जो बात-बात पर खिलखिला पड़ता था उसकी आंखों में गुस्से ने डेरे डाल लिए थे। मैंने जब उसे मनाने और उठाने की कोशिश की तो वह मुझ पर ही भड़क गया।
“ये सब तो अनपढ़ हैं, तू क्या कर रही थी तब। तुझे नहीं पता चला कि मुनिया क्या खा रही है। तू लकड़ी से बिजली का तार हटा भी तो सकती थी।”
“मैंने बंद तो किया था पंखे का बटन”
“तब, जब मेरी मुनिया मर गई।”
“सॉरी वीनू, मुझसे गलती हो गई। पर उस वक्त हम में से किसी को कुछ सूझा ही नहीं।”
“मेरे बाप को कसाई कहती हैं”,
उसके इतना कहते ही मैं चौंक गई।
ये तो हम खेल-खेल में एक-दूसरे से ही कहा करते थे। उसे इस तरह सबके सामने नहीं कहना चाहिए था। कहने को तो मैं भी कह दूं कि वह कभी-कभी मेरे पापा को टीचर नहीं फटीचर कहता है। पर अभी उन सब बातों का समय नहीं था। वह दुख और गुस्से में था।
वह और गुस्से में भरकर बोला,
“तुम सब भी कसाई हो। ये मेरी मां भी। जा खा ले, बहुत स्वादिष्ट मीट बनाती है मेरी मां...।”
कहते-कहते वह फिर से सुबकने लगा और उसके साथ मैं भी...मुझे कांपकर गिरती हुई मुनिया की याद हो आई। काश कि मैं उसे बचा पाती।
मैंने बिना किसी की भी परवाह किए वीनू को गले से लगा लिया। कि जैसे मैं अपनी अकर्मण्यता पर माफी मांग रही हूं। वह और भी रोने लगा। उसकी हिचकियां मुझे महसूस रहीं थीं। मैं उसकी पीठ सहलाती रही तब तक, जब तक वह सामान्य नहीं हो गया।
“अब चल, पापा ने बुलाया है।”
वह बिना कुछ बोले आंखें पोंछते हुए मेरे साथ हो लिया। मैंने उसका बस्ता उठा लिया था।
पर उस दिन हम पढ़ें नहीं। उसकी लाल आंखें और बुझा हुआ चेहरा देखकर मम्मी का दिल भर आया। मम्मी ने मनुहार करके उसे खाना खिलाया। पापा ने हम दोनों से समाज, दुनिया, सपनों पर और न जाने कितनी ही बातें की। उन्होंने हम दोनों को हरिवंश राय बच्चन की कविता सुनायी –
‘जो बीत गई सो बात गयी’
“अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई...”
उस दिन हमने जाना कि भावनाओं की गुत्थी सुलझाना गणित के सवाल सुलझाने से ज्यादा जरूरी है। और कविता ही है जो मुश्किल-जटिल समय में भी जीवन की नर्मी बचाए रखने की ताकत रखती है।
हमारा मन बदल रहा था। और हममें एक नई नजर अभी-अभी कौंधी थी।
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उस घटना के बाद से वीनू पहले से ज्यादा गुस्सैल और एकांतवासी होने लगा था। वह अब बर्दाश्त और आक्रोश को अपनी ताकत बनाना सीख रहा था। मीट की वह दुकान उसकी आंखों में चढ़ गई थी, जहां जाती हुई मुनिया टुकड़े-टुकड़े की गई थी। उसे वह बंद करवाकर ही माना। इसके लिए उनके घर में बहुत कोहराम मचा। उसकी उम्र अब वह नहीं रह गयी थी कि जिसमें बाप अपने बेटे पर हाथ उठाए, पर ऐसा कई बार हुआ और वह बर्दाश्त करता रहा। पर अपनी जिद से डिगा नहीं। सुंदर दुल्हन-सी दिखने वाली उसकी मां एक दम रूखी सूखी-सी हो गई थी बाप-बेटे की हर रोज की क्लेश में।
अपने पापा से तो उसकी बोलचाल बिल्कुल बंद ही हो गई जैसे। वे जब भी कोई बात करते तो वह बस हां, ना में ही जवाब देता। मेरे पापा ने उसे कभी-कभार समझाने की कोशिश की पर उन्हें लगा कि ये अनावश्यक हस्तक्षेप है किसी के पारिवारिक मामले में। अंदर-अंदर मां जरूर खुश होती जब उन्हें पता चलता कि लड़ाई उस मीट की दुकान को बंद करवाने की है, जिससे वे हमेशा से घृणा करती रहीं हैं। अंतत: वह दुकान बंद करवाकर ही माना।
नहीं, असल में दुकान बंद नहीं हुई, बदल गई। दुकान पर रंग रोगन करके उसे नया--नकोर बना दिया गया और ‘कच्चा झटका मीट शॉप’ का बैनर उतर कर उसकी जगह ‘महामना स्टेशनरी स्टोर’ खुल गया। अब ये दुकान ही वीनू का काबा हो गई। वो दिन रात वहीं पड़ा रहता। सुबह कॉलेज जाता और कॉलेज से लौटते ही दुकान पर बैठ जाता। दिन भर वहीं बैठे-बैठे पढ़ता-लिखता रहता। अब घर में कुछ शांति आ गई थी।
ऐसे ही सुबह एक दिन वह कॉलेज जाने को तैयार हुआ कि अचानक फिर उसके गुस्से का भूचाल आ गया। मैं अब तक नहीं समझ पाई कि वह इतना गुस्सा लाता कहां से था। उसे हर आदमी चालाक लगता। उससे बात करो तो उसके पास हमेशा एक अलग ही दर्शन, अलग ही कारण होता। जो लोग उसकी तारीफ करते हैं, उनके बारे में भी उसकी यही राय थी कि वे बहुत चालाक हैं और उससे ईर्ष्या करते हैं।
और उस दिन तो वह अपनी मां पर ही चीख पड़ा। मैं तो एकदम कांप ही गई थी, कोई अपनी मां से ऐसे कैसे बात कर सकता है। पर बाद में समझ आया कि असल में उसका गुस्सा अपनी मां पर नहीं उस कूड़े के ढेर पर था। जिसे हम बचपन से देखते आ रहे थे। पर आज तो खंभा नहीं कि गुस्सा नहीं।
असल में उनके घर के बाहर एक बिजली का खंभा था। आसपास के पांच-सात घरों के लोग उसी खंभे के नीचे अपने घर का बचा हुआ खाना और फल-सब्जियों के छिलके फेंका करते थे। जिससे दिन भर बदबू उठती रहती। सुबह होते ही आंटी इन छिलकों और कूड़े पर पड़ोसियों को गाली देना शुरू कर देती। पर कोई घर से बाहर ही नहीं निकलता। सबको जैसे सांप सूंघ जाता। कोई नहीं मानता कि ये कूड़ा उन्होंने फेंका है। कि जैसे कूड़ा आसमान से गिरा हो या धरती से प्रकटा हो। गालियां दे चुकने के बाद वे एकदम से थक जाती। फिर भीतर जाती, घड़े से पानी निकाल कर लाती और बाहर उसी खंभे के पास ओक लगा कर पानी पीती। हाथों को झटकती हुई वापस अंदर लौट जाती। कूड़ा और बदबू सब उसी तरह कायम रहते।
आज सुबह जब आंटी ने गालियां देनी शुरू की ही थी कि वह चीख पड़ा। वह अपनी मां की निरर्थक गालियों को झिड़कते हुए उस खंभे पर चीखा था जिसे लोगों ने कूड़े का खत्ता बना दिया था। उसे लगने लगा था कि जान बूझकर उसी के घर के बाहर कूड़े का यह ढेर लगाया गया है।
वह चीखते हुए बोला था,
“बनियों के घर के बाहर कोई नहीं फेंकेगा, पंडितों के घर के बाहर कोई नहीं फेंकेगा, चौधरियों के घर भी साफ-सुथरे, बस एक हम ही गंदे बच गए इस पूरी गली में, जिनके लिए बरसों से कूड़े के ढेर लग रहे हैं। वहां क्यों, आओ हमारी छातियों पर लगा दो ये ढेर...बरसों से लगाते ही आए हो।”
हर घड़ी अपने परिवार से लड़ने को तैयार वीनू क्या अब गली वालों से लड़ने को तैयार है। मुझे किसी अन्होनी की आशंका-सी हुई। पर यह आशंका एकदम ठंडी पड़ गई जब मैंने देखा कि उसने जगदीश को बुलवाकर खंभे के पास का सारा कूड़ा साफ करवा दिया है। बात इतने पर ही खत्म नहीं हुई। कूड़ा साफ हो जाने के बाद वीनू ने उसी बिजली के खंभे पर लाल रंग के मोटे अक्षरों में अपना नाम लिख दिया - ‘विनीत कुमार महामना’। कि जैसे यह घोषणा थी कि ये खंभा अब उसका हुआ। अब इस पर किसी के घर का कूड़ा नजर नहीं आना चाहिए।
मुझे उसकी इस हिम्मत पर बड़ा प्यार आया। एक पल को ऐसा लगा कि जैसे नाम खंभे पर नहीं मेरे दिल पर लिख दिया गया है।
एक सिवाए मेरे, बाकी सबको खंभे पर इस तरह उसका नाम लिखा जाना बहुत गलत लगा।
कि यह तो सरकारी खंभा है, इस पर कोई अपना नाम कैसे लिख सकता है।
खूब सुगबुगाहटें हुईं। बात बिजली के दफ्तर में जाकर शिकायत करने की भी हुई। पर सब बातें बस बात पर ही खत्म हो गई। इससे ज्यादा फुर्सत किसी के पास नहीं थी।
नाम लिखा जाना भले ही ठीक न लगा हो पर कूड़े के ढेर को साफ करवा देने पर पापा भी खुश हुए। जबकि मां ने इसे वीनू की हेकड़ी माना।
“कल तक जो लड़का चार लाइनें लिखने के लिए तेरे पापा के सामने घुटनों पर बैठा रहता था आज कहता है पंडितों के घर के सामने फेंकों कूड़ा ...”
“मम्मी उसने ऐसा तो नहीं कहा था”
“तू चुप कर, तुझे ज्यादा समझ आती है उसकी बातें।
आजकल खूब देख रही हूं मैं।
खबरदार जो उन खटीकों के घर की तरफ मुंह भी किया...
आज उसकी इतनी हिम्मत कि बिजली के सरकारी खंभे पर अपना नाम लिख दिया।
जरा भी हाथ नहीं कांपे उसके”,
कहते हुए मां ने अजीब-सा मुंह बनाया पर शांत नहीं हुई।
“आजकल जगदीश से खूब याराना गांठ लिया है उसने। बनेगा उसी के जैसा।“
“काग पढ़ाए पींजरा,
पढ़ गए चारों बेद,
जब सुध आई कुटुंब की,
रहे ढेढ़ के ढेढ़”
मां ने एक पुरानी और प्रचलित कहावत में उसकी पढ़ाई-लिखाई का बोरिया बिस्तर समेट दिया।
मम्मी की बातें न सिर्फ कड़वी थी, बल्कि अभद्र भी थी। जो मुझे और पापा दोनों को बहुत खराब लगी। पर सच्चाई यही थी कि जगदीश आजकल वीनू के आसपास ही मंडराता रहता था।
काली रंगी हुई दाढ़ी, पक्का रंग और ऊंचे कद का जगदीश हमारे मोहल्ले का वह हरफनमौला आदमी था जो किसी के भी काम आ सकता था। बिजली का प्लग ठीक करने से लेकर रुकी हुई नाली साफ करने तक। ज्यादा बार उससे रूकी हुई नालियां ही साफ करवाई जाती या बरसात में गटर के ढक्कन खुलवाए जाते।
यानी जो काम कोई नहीं करता था, उसे सिर्फ जगदीश ही कर सकता था। मोहल्ले में उसकी उपयोगिता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब घर के किसी बच्चे को चिढ़ाना होता, तो मां-बाप कह देते, “तू हमारा है ही नहीं, तुझे तो हम जगदीश से लाए थे।“
और बच्चा पैर पटक-पटक कर खूब रोता।
काम होने के बाद किसी को जगदीश का अपने घर के बाहर खड़ा होना भी पसंद नहीं था। शाम ढले ही वह शराब के नशे में कहीं न कही पड़ा होता। कोई भी काम करने के लिए उसे बस ‘ईनाम पार्टी’ की जरूरत होती थी। ईनाम पार्टी यानी उसकी सस्ती शराब और सौ पचास रुपये। जिससे वह उसके साथ कुछ खाने को खरीद सके ।
यही जगदीश जब तब विनीत के पास आकर बैठने लगा था। इस बात से मुझे अच्छी खासी चिढ़ होने लगी थी। इसी जगदीश ने इस बार वीनू के कहने पर उसके घर के बाहर लगे कूड़े का ढेर पूरी तरह साफ कर दिया था।
मैंने यानी ‘मधुकेशी वशिष्ठ’ उर्फ मधु, नहीं वीनू की मधु ने...जब इस बात का समर्थन किया तो इसे सफाई का समर्थन कम और वीनू का समर्थन ज्यादा माना गया। और बतौर सजा मुझे उस घर से कोई भी संपर्क रखने की सख्त मनाही कर दी गई। ‘कौन मानेगा कि मैंने ये मनाही मान ली होगी।’
आंटी जरूर पड़ोसियों के अबोले पर कुछ घबरायी। घर के माहौल से तो वह पहले ही दुखी थी। अगर पड़ोसियों ने भी उनसे बोलना-बतलाना बंद कर दिया, तो वह कैसे अपना मन हल्का करेंगी।
“इसमें इतना घबराने की क्या बात है आंटी, वीनू ने कुछ गलत नहीं किया। सफाई ही तो करवाई है और सफाई करवाना कौन-सी गलत बात है। आप देखती नहीं थीं कितना बुरा लगता था कूड़े का वह ढेर।“
मैंने समझाया तो उनमें कुछ हिम्मत आई। मुझसे बात करके उनका मन कुछ हल्का हुआ था। उन्होंने खुश होकर मेरे सिर की मालिश की। उनके प्यार जताने का यही तरीका था। जब खुश होती तो मेरे लिए नई चूड़िया ले आतीं। कांसे की चम्मच में ताजा काजल पार देती या सिर की मालिश कर देतीं। वे अकसर ललचाती हुई कहतीं, “मधु की मम्मी लड़की किस्मत वाली मां को मिलती है।
कम से कम दो घड़ी बैठकर मन तो हल्का हो जाए है।
लड़का तो बड़ा हुआ नहीं कि मुंह फेरके भी नहीं पूछता।”
अब तो वीनू सच में किसी को नहीं पूछता था। बस अपनी दुनिया में गुम रहता। आंटी हौले से कहतीं, ज्यादा पढ़-पढ़ के इसका दिमाग खराब हो गया है और हम दोनों खिलखिला पड़ते।
पर वीनू भी कहां मानने वाला था। गली में उसके गुस्से के भूचाल और सफाई अभियान को अभी कुछ ही दिन बीते होंगे कि उसने खंभे पर कद भर की उंचाई पर टिन का बना लैटर बॉक्स भी तार से बांध दिया,
“कि मेरी चिट्ठियां अब इसमें डाली जाएं।”
मैं तो बस हैरान ही हो रही थी कि समय कितनी तेजी से भाग रहा है। जिसके साथ कभी मैं स्कूल की आधी छुट्टी में झूला झूलने भाग गई थी, वह अब अपने तरीके से अपने समय, अपने आसपास की हर चीज को बदल रहा है। वह जिस बड़प्पन के साथ मुझसे पेश आने लगा था, अब मुझे उसका नाम लेते भी संकोच होता।
कितनी ही जन्माष्टमियों पर हम पड़ोस के मंदिर में संग-संग राधा-कृष्ण बने थे। पर इस बार मैंने उसे सरस्वती पूजा पर मोर पंख दिया तो उसने पूजा को ही ढकोसला बता दिया। वीनू अब बहुत सुंदर-सुंदर और अनोखी बातें करने लगा था। उसने बताया कि सरस्वती माता कोई नहीं है। कोई हुई हैं तो सावित्री बाई फुले, जिन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए तब संघर्ष किया जब भारत में कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता था।
हम जब भी बैठते वह किसी न किसी महान व्यक्ति के विचार मुझे बता रहा होता। जैसे पापा हमें बचपन में बताया करते थे। वह मुझे आसपास की, समाज की, राजनीति की कुटिलताओं की बातें बताता और मैं मन ही मन उस पर मुग्ध होती रहती।
मैंने पापा को हर रोज सुबह अखबार पढ़ते देखा था। पर वीनू तो जैसे अखबार से चिपका ही रहता। अखबारों से कटिंग काटकर वह उसकी चिंदियां कर देता पर फिर भी फेंकता नहीं। कि बाद में काम आएंगे, अभी कुछ पढ़ना बाकी रह गया है। प्रतियोगिता दर्पण से लेकर जाने कहां-कहां की मैगजीन उसके पास आने लगीं थीं।
वह तमाम अखबारों के संपादकों के नाम पत्र लिखता। और जब अखबार में उसके पत्र छपते तो वह सबसे पहले मुझे दिखाता। यह उसकी ऐसी कमाई थी जिसकी खुशी वह सिर्फ मेरे साथ बांटा करता था। एक बार जब अखबार में उसका लिखा उसकी फोटो के साथ छपा तब तो हम दोनों खुशी से निहाल ही हो गए थे।
कितना इंटेलीजेंट है ‘मेरा वीनू’, कि उसकी फोटो अखबार में छपी है! फोटो के नीचे लिखा था विनीत कुमार महामना। पूरे पृष्ठ पर के सबसे सुंदर तीन शब्द।
खुशी को सेलिब्रेट करते हुए वह मेरे लिए वही तोतयी रंग की चूड़ियां ले आया था।
आंटी से मिलने वाली चूड़ियों से अलग थी इन चूड़ियों की खुशी, तब और भी जब मेरी कलाई में ये चूड़ियां चढ़ाई भी उसी ने। कि जैसे कान्हा जी मनिहारे का भेस बना आए हों। ...एकदम वही वाली फीलिंग आ रही थी।
डर, संकोच और खुशी का मिलाजुला भाव मेरी कलाई में खनक रहा था, और मेरे झुके हुए सिर पर हल्की-सी चपत लगाते हुए उसने कहा था-
“कभी-कभी पढ़ भी लिया कर, जब देखो तब बनाव-सिंगार में ही ध्यान लगा रहता है तेरा।”
मैं चौंकी पर खुशी से, “पढ़ती तो हूं, जरूरी है क्या, कि तुम्हारी तरह सारा दिन किताबें लेकर बैठी रहूं।”
“पेपर कब से हैं तेरे”
“अभी तो खत्म हुए, वो भी बोर्ड के एग्जाम। तुम्हें तो कुछ होश ही नहीं रहता।”
“अच्छा बारहवीं पास कर जाएगी अब तू...अरे बाप रे। इतना पढ़ गई और एक बार भी फेल नहीं हुई”, उसने मुझ पर ताना कसा।
फिर मुस्कुरा दिया, “तो अब क्या करेगी?”
“कुछ नहीं आराम करूंगी, फिर तुम्हारे कॉलेज मे एडमिशन लूंगी।”
“उससे क्या होगा?”
“उससे क्या होना है, खूब मस्ती करेंगे, साथ में कॉलेज में। यहां डर-डर कर मिलना पड़ता है।”
“मैं कॉलेज में ज्यादा मस्ती-वस्ती नहीं करता, बस अपने काम से काम रखता हूं।”
“वो तो सभी कहते हैं, पर कॉलेज तो नाम ही मस्ती का है और साथ में रहेंगे तो खूब मजे करेंगे। हम साथ में घूमेंगे।
“कैसे? डीटीसी में? न मेरे पास बाइक, न स्कूटर।”
“बाबा रे, कितने तर्क देते हो। रहेंगे तो साथ ही न।”
“यहां एक मोहल्ले में, एक गली में होकर क्या हो गया, जो एक कॉलेज में होकर होगा।”
“मतलब?”
“मतलब ये कि जिस कॉलेज में अच्छा कोर्स मिले, उसमें एडमिशन लेना। कॉलेज में एडमिशन की बहुत मारामारी होती है। अगर नंबर कम आए तो बहुत मुश्किल होगी!”
“क्यों आएंगे मेरे नंबर कम?”
कह तो दिया, पर हल्का-सा एक डर भी बैठ गया मन में।
उसकी ये छोटी-छोटी सलाहें मुझमें एक आत्मविश्वास भरे रहती थीं, कि जो वीनू कहेगा, ठीक ही होगा। मैं जैसे आंख मूंदकर उस पर विश्वास करती आई थी।
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ये एक गुस्सैल लड़के और हरदम मुस्कुराती रहने वाली लड़की की मुहब्बत के फड़फड़ाते दिन थे। विनीत कुमार महामना और मधुकेशी वशिष्ठ के परिवारों के फासले के नहीं वीनू और मधु के प्यार में पगे हुए दिन।
जो चिट्ठियां डाकिये द्वारा लापरवाही से फेंके जाने पर इधर-उधर उड़ती फिरती थीं वे अब टिन के उस लैटर बॉक्स में आने लगीं। जो उसने बिजली के खंभे पर बांध दिया था।
एक चिट्ठी चुपके से उसमें मैंने भी डाली। वह चिट्ठी पढ़ी तो गई पर लिखित में उसका कोई जवाब नहीं आया। आने की कोई संभावना भी नहीं थी।
मेरे घर के बाहर कोई लैटर बॉक्स तो था नहीं। और यूं भी मेरी तो हर छोटी-बड़ी चीज का हिसाब मां के पास रहता था। मां का बस चलता तो वह मेरे हंसने—रोने—बोलने--बतलाने पर भी राशन कार्ड लगा देतीं, कि अकसर वह टोक ही दिया करती थी,
“क्या हर बात पर हंसती रहती है। इतना हंसते हैं क्या।
दांत कम दिखाया कर।
चुन्नी ठीक से ले,
ये कैसे चलती है घोड़ी की तरह,
हरदम कूदती हुई सी।”
पर दुनिया के राशन कार्ड मान लें, तो हम ही क्या। उसने एकदम बिंदास अंदाज में अपने प्यार का इजहार किया।
चिट्ठी के जवाब में उसने उसी खंभे के नीचे किराए पर वीसीआर लाकर एक फिल्म लगाई - प्रेम प्रतिज्ञा। जाने कहां कहां की भीड़ आकर उस फिल्म को देखने में जुटी रही। पर जिसके लिए फिल्म लाई गई थी वह तो देख ही नहीं पाई। मां ने उसे अश्लील फिल्म माना।
घर में लड़की और पड़ोस में लड़का जब जवान हो रहा हो तो घर वाले ऐसी ही वाहियात हरकतें करते हैं! वे प्रेम-प्यार से जु़ड़ी हर चीज को अश्लील बताने लगते हैं। अब फिल्म के नाम में प्रेम था तो फिल्म अश्लील हो गई। न खुद देखी, न मुझे देखने दी। इसके बावजूद फिल्म का गीत “प्यार कभी कम नहीं करना कोई सितम कर लेना...” हम दोनों की मुहब्बत का कॉमन राग बन गया।
कि जैसे यही मेरी चिट्ठी का जवाब था, जो उसने छुपकर नहीं खुले में एक पूरी भीड़ के सामने दिया। मेरा वीनू प्यारा ही नहीं थोड़ा बिंदास और हिम्मत वाला भी है। मुझे खुशी हुई।
मां ने मुंह बिचका कर कहा,
“ऐसे ही होते हैं जात-कुजात।
पेट में रोटी न हो, चिलत्तर सारे दिखाएंगे।
कितना कमा लेता होगा उस दुकान से, जो हर हफ्ते नए शौक पूरे हो रहे हैं।”
किसने क्या कहा,
मेरी बला से।
मैं तो अपने वीनू पर ऐसी मुग्ध हुई जा रही थी कि बात-बेबात पर बस मुस्कुराती ही रहती। आलम ये था कि कोई गाली भी दे तो वह मेरी मुहब्बत में सनकर चाशनीदार हो जाए।
हमारी मुहब्बत का वह राग प्रेम प्रतिज्ञा के बाद लगातार बढ़ता ही गया। वह लगभग हर सप्ताह एक नई फिल्म लाकर वीसीआर पर लगाता और उसे देखने खूब भीड़ जुटती। सिवाए मेरे।
पड़ोस के तमाम घरों में अब यह मान लिया गया था कि वीनू अब पहले जैसा नहीं रहा, वह बिगड़ रहा है। हमेशा सुंदर-सा दिखने वाला वीनू अब शेव भी कभी कभार ही बनाता। बस एक रफ-सा स्टाइल रखता। और ढीठ इतना कि मेरी मेरून रंग की बंधेज की सूती चुन्नी उठा ले गया। और उसी को गले में लपेटे रखता।
इस बात पर मां फट पड़ी और उसकी मां को खूब खरी-खोटी सुनाई।
“अब कोई बच्चा रह गया है क्या, ये क्या हरकत हुई।
तुम्हें तो अपनी सिंगार-पट्टी से ही फुर्सत नहीं, मुहल्ले भर में और भी लड़के जवान हुए हैं,
ये अन्होता जवान हो रहा है क्या।”
मैं तो भीतर से मुग्ध थी पर बाहर से रो पड़ी, जब मां ने एक थप्पड़ जड़ दिया।
“कुल पर कलंक लगाएगी।
अपने कपड़ों का होश नहीं रहता।“
मां दोहरे अर्थ की बातें कर रही थी। सुनने में ऐसा लगा कि जैसे वह मेरे तन पर से चुन्नी उड़ा ले गया हो पर असल में वह प्रेस के कपड़ों की गठरी थी, जिसमें और भी कपड़े बंधे थे। उसे पसंद आई तो वह खोलकर ले गया। पापा को भी मां ने ऐसे ही अलग अर्थ में सुनाया,
“वो लड़का इसकी चुन्नी अपने गले में लपेटे फिर रहा है और आपकी लाडली को होश ही नहीं है।”
तो गुस्सा आना स्वभाविक था। पापा ने भी काफी कुछ कहा पर मैं जानती थी कि मेरा वीनू लाखों में एक है।
उस दिन के बाद से हमारा मिलना-जुलना बिल्कुल बंद हो गया। कभी-कभार नजर मिलती तो एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते। पर जुड़ाव अब भी बरकरार था। हम आवाजें सुनकर भी एक-दूसरे से जुड़ जाते। कभी छत पर कपड़े सुखाते हुए, तो कभी गली से गुजरते हुए हम एक-दूसरे की झलकियां लेते।
इन झलकियों से अब मन नहीं बहलता था। सो वीनू की सब सलाहें दरकिनार कर मैंने उसी के कॉलेज में एडमिशन लिया। उसी के कोर्स में। मैं उससे जुड़े रहने का कोई भी सिरा छोड़ना नहीं चाहती थी।
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पर जानते हो कॉलेज आकर मेरा दिल एकदम से टूट गया। मैं जितने अरमान लेकर कॉलेज आई थी वह सब खाक में मिल गए। कभी भी किसी के बाहरी बदलाव पर भरोसा नहीं करना चाहिए। वह भीतरी बदलाव का बस अंश मात्र ही होते हैं। हर व्यक्ति के भीतर असंख्य कोशिकाएं होती हैं। कोई एक कोशिका भी अपनी नियमित अवस्था से बदल जाए तो बदलाव हो रहा होता है। पर हमें बाहर ये बदलाव तब दिखाई देता है जब कई हजार कोशिकाएं एक साथ बदलने की ठान लेती हैं। हम इसे छिटपुट बदलाव मानते हैं। पर यह बहुत विकराल विराट बदलावों का संकेत भर ही होते हैं। उसका गुस्सैल, चुप्पा स्वभाव अपनी एक अलग दुनिया गढ़ चुका था। जिसमें मधुकेशी वशिष्ठ फिट नहीं बैठती थी।
मेरी कलाई में तोतयी रंग की चूड़िया चढ़ाने वाले, अपने गले में मेरा दुपट्टा लपेट कर घूमने वाले, मेरे साथ झूला झूलने वाले और मुनिया की पीठ पर मेहंदी का छापा लगाने वाले वीनू ने कॉलेज में मुझसे ऐसे बर्ताव किया जैसे वह मुझे जानता ही नहीं है। और तो और जब कॉलेज के सीनियर लड़के लड़कियां हमारी रैगिंग कर रहे थे, तब भी वह चुपचाप वहां से खिसक गया। अब उसके लिए मधुकेशी से ज्यादा उसका ग्रुप महत्वपूर्ण हो गया था।
मैं बस स्टॉप पर खडी उसका इंतजार करती रहती, पर वह आता ही नहीं। अगर कभी हम एक बस में चढ़ भी जाते, तो वह अगले ही स्टॉप पर उतर जाता।
मैंने जब उससे इसकी वजह पूछी तो पहले तो वह बचता ही रहा। फिर बड़ा संयमित-सा जवाब दिया, कि
“अच्छा नहीं लगता। हम दोनों हर दम साथ-साथ दिखें।
मुझे तो कुछ नहीं, तुम्हारे लिए ही मुश्किल होगी। आखिर तुम एक अच्छे परिवार की लड़की हो।”
यह बहुत डिप्लोमेट-सा जवाब था। पर मेरे मन के सवाल इससे हल नहीं हुए।
अब तक मैं उसके गुस्से के कई सेशन और कई कांड देख चुकी थी। जिसके बाद वह अलग-अलग तरह से कई दिन रूठा रहता। इस बार भी वह रूठा हुआ था। हर बार मुझसे बचता कि जैसे मेरी परछाई भी उसे खा जाएगी। हर पल की व्यस्तता बस व्यस्तता नहीं थी। मुझसे बचने का बहाना भर थी। पर इस बार मुझे उसकी वजह समझ नहीं आ रही थी। अब भी एक अंधा-सा विश्वास था कि मैं उसे इस बार भी मना लूंगी। उसका गुस्सा अमलतास के फूलों की तरह चटख पर नाजुक है। मेरे हाथ लगाते ही वह झड़ जाएगा।
मैं अब भी उसी पुरानी दोस्ती का सिरा थामे बैठी थी। पर वह शायद बहुत आगे निकल आया था। उसमें ज्ञान का बहुत विस्तार हो रहा था और शायद उसका दिल सिकुड़ता जा रहा था। यह सब मुझ पर इस तरह जाहिर न हो, इसलिए वह नहीं चाहता था कि मैं उसके कॉलेज में आऊँ। पर वह नकार इतना शालीन, इतना आत्मीय था कि मैं उसे ठीक से समझ नहीं पाई।
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अब वह मेरे सवालों का भी बहुत संयमित और संक्षिप्त-सा जवाब देता था। मैंने उसी के कोर्स लिए थे। पर किताब के बारे में भी पूछती तो वह ऐसे जवाब देता कि उसे माना जाए या न माना जाए, ये सामने वाले की मर्जी। जबकि मैं अब भी उससे उसी अधिकार की अपेक्षा किए बैठी थी जिस अधिकार से वह तोतयी रंग की चूड़ियां मेरी कलाई में चढ़ा रहा था कभी। मैं अब भी बीते दिनों की मुहब्बत की रूई धुन रही थी और वह इतना विवेकशील हो गया था कि अपने विवेक को कहां, कितना खर्चना है, उस पर भी बहुत विवेक लगाता।
इस रुखाई में और कितना समय बिताती। ठहरे रहने से हर संबंध सड़ने लगता है। इससे बेहतर है आगे बढ़ जाना। पर आगे किस दिशा में बढ़ना है मैं अभी तक यह तय नहीं कर पायी थी। कि सोचते-सोचते वह मुझे अचानक मिल ही गया। कैंटीन के पीछे वाली दीवार के पास। जहां अकसर उसकी मंडली जमी रहती थी। वहीं उस जैसे दाढ़ी वाले लड़के और कुछ लड़कियां भी। सिगरेट के कश उडा़ते। मुझे देखते ही उसने सिगरेट फेंक दी और झेंप गया, यानी कुछ पहचान बची है अभी हमारे बीच।
इसी पहचान का हाथ पकड़कर मैं उसे जबरन खींच लाई थी कॉलेज के ‘लव बर्डस प्वाइंट’ पर जहां हम कभी नहीं गए थे। घने पेड़ों की ओट में यहां अकसर जोड़े बैठे रहते। और बस लगातार बोलती गई, कि मन के भीतर मवाद बहुत जमा हो गया है ...
“क्या हो गया है विनीत तुम्हें?”
“क्यों मुझे क्या होना है। मैं तो ऐसा ही हूं। क्या तुम नहीं जानती हो।“
“मैं देख रही हूं आजकल कुछ ज्यादा ही बिजी हो गए हो।“
“हां एग्जाम आने वाले हैं। वो भी फाइनल ईयर के, तो होना ही चाहिए।“
“तो कैंटीन के पीछे उस मंडली में तुम एग्जाम की तैयारी कर रहे थे।“
“तो तुम मुझ पर नजर रखती हो!”
“अरे, इसमें नजर रखने जैसा तो कुछ नहीं, पर नजर तो सब आ रहा है।“
“देखो ये मेरा पर्सनल मामला है। मैं पढ़ूं या किसी के साथ बैठूं। तुम्हें इससे क्या। मैं तुमसे नहीं पूछता कि तुम क्या कर रही हो।“
“पूछने की जरूरत ही कब पड़ी। बिना पूछे ही मेरी हर बात का हिसाब रहता है तुम्हारे पास।”
“ऐसा कुछ नहीं है।” अब वह कुछ नर्म पड़ा।
“देखो मधु समय बदल गया है। अब हमें भी बदल जाना चाहिए। हर वक्त की एक नजाकत और जरूरत होती है। जो उसमें खुद को ढाल नहीं पाता, वह पिछड़ जाता है।“
“ये क्या बदलना और ये क्या ढलना हुआ कि मिलने का वक्त ही नहीं है! क्या इसलिए मैंने तुम्हारे कॉलेज में एडमिशन लिया था।”
“मैंने तो नहीं कहा था। इसका अहसान मुझ पर मत लादो।”
“मैं अहसान नहीं लाद रही, पर तुम अब पहले जैसे नहीं रहे।”
“तुम भी तो पहले जैसी नहीं रहीं। अब चलोगी भागकर मेरे साथ बुआ के घर? जैसे बचपन में चल पड़ीं थीं।”
“ये क्या बात हुई!”
“क्यों बस हो गई न चुप। तुम चाहती हो कि सब कुछ तुम्हारे ही तरीके से हो। तुम जब चाहो हम मिले और जब चाहो हम न मिलें। तुम्हारा दोष नहीं है। ये तुम्हारे भीतर की पंडितानी बोल रही है। ये बरसों के संस्कार हैं। तुम लोग हमेशा से हमें अपने तरीके से हांकते आए हो। पर अब समय बदल रहा है मैडम मधुकेशी वशिष्ठ। अब हम लोग अपनी मर्जी से रहेंगे। और तुम लोगों को बदलना होगा।“
“ऐ... ऐ... वीनू, ये हम लोग, तुम लोग...ये सब क्या है? तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है? ये सब क्या जहर भर लिया है तुमने अपने दिेमाग में? ‘मधुकेशी वशिष्ठ’ हो गई अब मैं और मधु नजर ही नहीं आ रही?”
“हां तुम्हें तो जहर ही लगेगा। तुम ठहरी आखिर मधुकेशी वशिष्ठ। खालिस पंडितानी। हम ठहरे क्षुद्र। तुम्हारा हमारा क्या साथ। तुम पढ़ो न पढ़ो, कोई योग्य वर तुम्हें मिल ही जाएगा। जाओ सुंदरी जाओ, किसी योग्य पंडित जी से ब्याह रचाकर किसी बड़े अफसर की पत्नी बनने का महात्म्य भोगो।“
“और कुछ बाकी है कहने को, या हो गया...?
जाना होगा तो चली जाउंगी,
ब्याहना होगा तो ब्याह लूंगी!
इसमें तुम्हारी क्या सिफारिश है।“
मैंने उसके जहर को अपनी नर्मी से काटने की कोशिश की। पर वह अभी कम नहीं हुआ था। उसका बोलना, या सच कहूं तो मुझे कोसना अब भी जारी था।
“वैसे भी हमारा तुम्हारा खाना पीना, रहना सहना अलग। अब जैसे तुम्हें चिढ होती है मेरे और जगदीश के साथ बैठने पर।”
“एक मिनट...
मुझे क्यों चिढ़ होगी। पर हां होती है, तुम्हारा और उसका क्या साथ।
...न उम्र, न स्टेटस।”
“स्टेटस तुम जैसे बड़े लोग देखते हैं।
हम तो भाई दोनों जात के शूद्र हैं,
एक ही तरह के लोग।”
“ये क्या सड़ी-सड़ी बातें कर रहो हो! जो गलत है वह गलत है।”
“गलत सब दलीलें, गलत सब हवाले
अंधेरे अंधेरे, उजाले उजाले!”
एक शेर के साथ उसने फिर अपनी बात शुरू की।
“सब दलीलें, सब तर्क, सबके अपने-अपने होते हैं। जैसे तुम बदल रही हो मैं भी बदल रहा हूं और बदलाव ही प्रकृति का नियम है।“
“तो क्या प्रकृति में हम और तुम अलग-अलग हैं?”
“शायद हां!”
“शायद क्यों पक्का कहो, जैसे अब तक हर बात कॉन्फीडेंटली कहते आए हो। देखो वीनू, मेरी तुम्हारी पहचान कोई आज कल की नहीं है। मुझे नहीं पता कि तुम इतना अजीब बर्ताव क्यों करने लगे हो। मैं बस तुम्हें चाहती हूं।”
“तो चाहो, मना किसने किया है?”
“मतलब तुम्हारे बिना तुम्हें कैसे चाहूं?”
“ठीक है, पढ़ना-लिखना छोड़ देता हूं और पहले जैसे बैठकर
तुम्हारे स्वेटर से रूएं नोचता हूं और तुम बैठकर उनकी गुडि़यां बनाना।
इसी में खुशी है तुम्हारी!”
“ओह़ ...
अबकी बार मेरा दिल एकदम से,
छन्न से
टूट गया।
अब तो किसी बात का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था।
उसने इस एक ताने से हमारी अब तक की मासूमियत को कोसा था।
देखो मैं अपने लोगों, अपने समाज के लोगों के लिए काम करना चाहता हूं। और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारा मेरा कोई साथ है।
अपना समाज ? तुम कोई नया समाज लाए हो क्या अपने साथ ?
तुम ब्राह्मणी हो,
पक्की पंडितानी।
बस ठाकुर जी पूजो।
वही तुम्हारा उद्धार करेंगे।”
“और तुम क्या हो ?”
“छोड़ो, कहां इस सब गोबर में सिर डाल रही हो? पूजा पाठ करो, और किसी पंडित जी के संग ब्याह करके अपनी घर गृहस्थी संभालो।“
अपने ब्याह के लिए काढ़ो बुनो कुछ।
मेमसाहब बनने का अभ्यास करो।
कोई अफसर,
कोई प्रोफेसर,
कोई खूब पैसे वाला पंडित तुम्हारी राह देख रहा होगा।“
“हद ही हो गई!”
“नहीं बनना मेमसाहब,
खटीकनी बनना है।
बनाओगे...?”
“रहने दो, कहां किस दिशा में बढ़ रही हो, ये तुम्हारे बस का नहीं।“
“ये तुम अब कह रहे हो? अब बढने को बचा क्या है।”
“देखो मधु ये कोरी भावुकता छोड़ो।
‘मैं’,
नहीं
‘हम’,
दो तरह के लोग हैं।
हमारे संघर्ष और जरूरतें अलग हैं। तुम ये सब नहीं समझ पाओगी।“
“कैसे हैं दो
‘अलग तरह’ के लोग। तुम कुछ अलग खाते हो क्या, या किसी अलग तरह से सांस लेते हो। ऐसी कौन-सी बात है मेरी, जो मैं तुमसे नहीं बांट सकती।“
“तो छोड दो ये सब पूजा पाठ, ये पाखंड।”
“पर मैंने पाखंड कब किया।
मैं तो बस वही करती हूं जो मेरे मन को अच्छा लगता है।
और तुम्हारी मां, दादी वो तो मुझसे भी ज्यादा पूजा पाठी हैं। उनका क्या?”
“यही तो ये लोग समझते नहीं है।
वो धर्म ही क्या जो बराबरी न दे...
जूते खाएंगे पर जाएंगे उसी ठाकुरद्वारे। भगवान ने इनका जीवन नहीं बदला,
आरक्षण ने बदला है। मैं उसी की लड़ाई लड़ रहा हूं। इसमें तुम मुझे सपोर्ट नहीं कर पाओगी।
“पर तुम तो शुरू से इतने ब्रिलिएंट हो। तुम्हें आरक्षण की क्या जरूरत?“
ऐसा तुम सोचती हो। मेरी सोच अलग है। मुझे न हो पर और बहुत लोगों को है। हम एक स्कूल में पढ़े हैं, आज एक कॉलेज में पढ़ रहे हैं। बाहर से देखने में एक से लगें। पर क्या तुम्हारा और मेरा सफर एक-सा रहा है?
“हां ये सच है। तुम्हें मुझसे बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ी है।”
“यहां तो नौकरियां ही नहीं,
देवता और भगवान भी जाति देखकर गढ़े गए हैं।
बताओ हम कहां एक राह पर मिल सकते हैं।”
“वीनू दुनिया उतनी रूखी, रास्ते उतने उबड़-खाबड़ नहीं हुए हैं, जितने तुम सोच रहे हो।”
“अच्छा तो बताओ, अब तो तुम्हें भी कई महीने हो गए कॉलेज आए हुए। बताओ अपने कॉलेज में ही कितने एससी प्रोफेसर हैं?”
“एक हैं तो सुमन कुमार जी, पर उन्हें तो पढ़ाना...।“
“रुक क्यों गईं? वाक्य पूरा करो, कह दो पढ़ाना ही नहीं आता। कोटे से आए हैं।“
“नहीं, हो सकता है, तुम्हें बुरा लगे पर उन्हें सच में पढ़ाना नहीं आता।”
“आएगा कैसे! तुम्हें सिर्फ पढ़ना है, उन्हें अपनी पढ़ाई का इंतजाम भी करना है।
आधा कॉन्फीडेंस तो बेचारों का इस इंतजाम में ही गिरवी रख दिया जाता है। फिर जो उनसे नफरत करते हैं, उनसे मुहब्बत भी तो बनाए रखनी है।
एक नकली जिंदगी जीने वाला व्यक्ति अपने काम में कितना दक्ष हो पाएगा।
जब तक ‘सुमन कुमारों’ को ठीक से पढ़ाना नहीं आ जाता, तब तक आरक्षण की जरूरत है।” उसने जैसे घोषणा की।
“तुम्हारी सब बातें सही। वर्ण, जाति, भेद सब गलत। पर इसमें हमारा दोष कहां है। हम दोनों का? हमारे प्रेम का?”
वह एक पल को ठिठका, आंखों में कुछ नमी-सी उतर आई।
“मैं केवल वही बता रहा हूं जो सालों से मेरी जाति के लोगों ने तुम्हारी जाति के लोगों के कारण झेला।
तुम्हारी जाति तुम्हारे लिए सुविधा है, बिना मांगी।
और मेरी जाति मेरा दंश है अनचाहा।”, कहते हुए उसकी आंखें और भीग गईं।
“मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूं मधु,
पर ये राह बहुत कठिन है।
क्या तुम छोड़ पाओगी
अपनी उस जाति को जो तुम्हें पैदा होते ही
इतनी सुविधा, इतना सम्मान देती आई है।”
“मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं तुमसे अलग हूं।”
मैं अभी उसकी सजल आंखों में अपनी खोयी हुई मुहब्बत ढूंढ रही थी कि उसने एकदम से नारा उछाल दिया।
“अगर ऐसा है तो
बोलो
बाबा साहेब अंबेडकर अमर रहें!”
और मैं सकपका गई। शायद मैं अभी इस नारे के लिए तैयार नहीं थी।
“अमर हैं ही,
इसमें बोलना क्या है?”
“ये छल प्रपंच छोड़ों। अब भी सोच लो, समय है। साथ दे पाओगी मेरा?”
इस बार मैं कुछ संभली,
“हां दूंगी।”
“लड़ सकोगी हमारे लोगों की लड़ाई? अपने कुल, अपनी जाति,
अपने परिवार के खिलाफ?”
“किसी के खिलाफ नहीं वीनू,
बस तुम्हारे साथ।”
उसके आंदोलन में अपना पता भूल गई मुहब्बत को मैंने जैसे
आखिरी आवाज दी।
“बोलो, जय भीम!”
मैंने भरपूर सांस खींच कर कहा,
“जय
भीम।“
उसकी आंखें चमक उठीं,
“अब आईं तुम सही राह पर।” उसके चेहरे पर एक अलग किस्म का आह्रलाद छा गया।
मेरे दोनों गाल अब उसकी हथेलियों में थे।
“अब हुईं न तुम
सहधर्मणा!"
और उसने एक झटके से मेरे होंठों को अपने होंठों में कस लिया।
पर इस बार इन होंठों में मुहब्बत का जायका नहीं, आंदोलन का नमक था।
मन कुछ खारा-सा हो गया, कि जैसे उसकी अंजुरि का नीर हमारी मुहब्बत की उफनती नदी से अलग हो गया हो।
मैं पीछे हट गई।
“तुम ठीक कहते हो विनीत,
हमें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।
एग्जाम आने वाले हैं।”
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