
बिहारियों के विस्थापन और संघर्ष की कथा
मृत्युंजय पाण्डेय
ज्योतिष जोशी: आलोचक से कथाकार तक
ज्योतिष जोशी साहित्य, कला, संस्कृति और रंगमंच के प्रतिष्ठित आलोचक हैं। साहित्य और कला के क्षेत्र में उनकी एक प्रखर और गरिमामय उपस्थिति है। इधर कुछ वर्षों में उन्होंने तुलसीदास, जैनेन्द्र, नौटंकी और आधुनिक कला-आंदोलन पर कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें लिखी हैं। वे समकालीन आलोचना के सबसे मजबूत और ईमानदार स्तंभों में से एक हैं। वे आलोचना के क्षेत्र में ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि उनकी आलोचना अकादमिक विवशता या अन्य किसी बाहरी दबाव से मुक्त है। ज्योतिष जोशी अपनी परंपरा, संस्कृति और मूल्यों से जुड़े हुए व्यक्ति हैं। दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए भी वे गाँव को भूल नहीं पाए हैं। उन्हें आज भी गाँव का इतिहास-भूगोल पता है और इसका प्रमाण है उनका नया उपन्यास— ‘समय की रेत पर’।
आलोचना में ईमानदारी और संवेदनशीलता
‘समय की रेत पर’ ज्योतिष जोशी का दूसरा उपन्यास है। ‘सोनबरसा’ इनका पहला उपन्यास है। हिन्दी जगत ज्योतिष जोशी को एक आलोचक के रूप में ही देखता आया है। इनके उपन्यासकार रूप को वह किस रूप में देखता है, यह जानना बड़ा दिलचस्प होगा। लेकिन इतना तय है कि आलोचक में छिपा कथाकार अपने पाठकों को निराश नहीं करता। एक अच्छे आलोचक की पहली और बुनियादी शर्त है— संवेदनशीलता और ईमानदारी। कहना न होगा कि ज्योतिष जोशी में यह चीज़ भरी पड़ी है। आप उनकी कोई भी किताब उठाकर देख लीजिए, संवेदना, ईमानदारी और मेहनत साफ झलकती है।
‘समय की रेत पर’: एक यथार्थवादी रचना
ज्योतिष जोशी आलोचना के बीच उपन्यास और कविता भी लिखते रहे हैं। पर वे उपन्यासकार या कवि नहीं, एक सहृदय आलोचक हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी गंभीर आलोचना कर्म के बीच उपन्यास और कविताएँ लिखी हैं। आलोचक रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की आलोचना के बीच कविता की गुंजाइश हमेशा बची रही। जिस तरह हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा या नामवर की कविताएँ एक कवि हृदय आलोचक की कविताएँ हैं, उसी तरह ज्योतिष जोशी के भी उपन्यास और कविताएँ एक सहृदय आलोचक की रचनाएँ हैं। उनके उपन्यास और कविताओं में एक सचेत आलोचक हमेशा उपस्थित है। आलोचक की उपस्थिति वाली बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि ‘समय की रेत पर’ उपन्यास एक यथार्थवादी रचना है। इस यथार्थ से हम बखूबी परिचित हैं। यदि इस उपन्यास को कोई कथाकार लिखता तो बहुत-सी चीज़ें छुप जातीं या छुपा ली जातीं, लेकिन ज्योतिष जोशी कुछ नहीं छुपाते। यहाँ तक कि राजनीतिज्ञों और शिक्षाविदों के नाम ज्यों-के-त्यों ले लिए हैं। मेरे कहने का यह अर्थ न निकाला जाए कि इसमें कल्पना नहीं है। कल्पना है लेकिन दाल में नमक बराबर।
आलोचक की नजर से कथाकार का हुनर
‘समय की रेत पर’ उपन्यास में एक वास्तविक जीवन, जीवंत समाज तथा अँधेरे और कुहासे से घिरा हुआ इंसान मौजूद है। यह बिहारियों के जीवन और संघर्ष की अद्भुत कथा है। इसमें गाँव है, गाँव का जीवन है, उसके अपने झगड़े हैं, भूमि समस्या है, ज़मीन की ज़रपेशगी है, ठगने वाले रिश्तेदार/पटीदार हैं और इन सबके बीच किसी फूल की तरह खिला हुआ उम्मीद भरा जीवन है, जो कभी भी मुरझा सकता है। इसमें राजनीति है, देश की सच्चाई है, शिक्षा का असली चेहरा है, सरकारी महकमों की चालाकियाँ हैं। इसमें महानगर है, उसका यथार्थ है और उसके बीच पिसता और उससे लड़ता गाँव का युवक है, जो हर मौसम और परिस्थिति के अनुसार अपने को ढाल लेता है। ज़रूरत पड़ने पर वह गालियाँ भी खाता है और लात-घूँसे भी सहता है। इसमें दिल्ली विश्वविद्यालय है, जे.एन.यू. है और वहाँ की हवा-हवाई बातें हैं। अपने छात्र-वत्सल प्रवृत्ति के लिए विख्यात, प्रिय आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी (वी.एन. त्रिपाठी) हैं। मुझे याद नहीं आ रहा कि इधर कुछ वर्षों में बिहारियों के जीवन पर कोई उपन्यास आया हो। आज ‘बिहारी’ शब्द एक गाली बन गया है। इसमें कथाकार ने दिखाया है कि कैसे एक बिहारी की लड़ाई दोहरे स्तर पर है। दिल्ली, पंजाब या कोलकाता के लिए वह एक ‘आउटसाइडर’ है और गाँव की नजर में शहरी। गाँव जाने पर कोई उससे अंग नहीं लगता। इस कथा के बहाने ज्योतिष जोशी ने बिहारियों के विस्थापित जीवन को बहुत बारीकी से उठाया है। आज के समय में बिहारी विस्थापित जीवन ही जी रहे हैं।
साहित्यिक और सामाजिक संदेश
उपन्यास के पूर्व ‘आरंभिक’ में ज्योतिष जोशी ने जो बात कही है वह ध्यान देने योग्य है— “पिछले दिनों लखनऊ प्रवास के दौरान चौक की एक गली से गुजरते हुए फटी हुई और चिन्दी-चिन्दी होकर बिखरी एक पुरानी डायरी पड़ी मिली। उसमें तरतीब से कुछ भी न था। अलग-अलग पृष्ठों पर कुछ वाक्य थे और जगह-जगह काट-छाँट के निशान। उनको जोड़कर, कुछ बुद्धि और कुछ कल्पना से जो कथा उभरी, उसे यहाँ एक क्रम में रखने का प्रयास है। कथा कितनी वास्तविक है, कितनी काल्पनिक, इसका अपना कोई दावा नहीं है। अपना काम तो बस इतना ही रहा है कि बिखरे हुए पन्नों को मिलाकर उसमें रंग भर दिया गया है।” आपको याद होगा ऐसा ही एक पोथा हजारीप्रसाद द्विवेदी को भी मिला था। न उस कथा से द्विवेदी जी का कोई संबंध था, न इस बिहारी आख्यान से ज्योतिष जोशी का कोई रिश्ता है।
गांधी के सपनों का बिखरता भारत
इसमें गांधी जी के सपनों के भारत का बुरा हश्र दिखता है। गांधी जी चाहते थे कि आजादी के बाद देश के विकास की शुरुआत गाँवों से हो, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कहीं न कहीं गांधी जी के सपने को दरकिनार करने का ही यह नतीजा है कि आज गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। रोजगार और भुखमरी से बचने के लिए लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। आज भी इनके लिए रोटी का एक टुकड़ा सूरज से कम नहीं है। एक समय था जब लोग कोलकाता के जूट मिलों में नौकरी करने जाते थे। लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं रही, अब लोग कोलकाता नहीं, दिल्ली की ओर रुख कर रहे हैं। जिस तरह से पहले कोलकाता पूरबियों के जीने का आसरा था, वैसे ही आज दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, गुजरात आदि उनके जीने का सहारा है। 1940-45 में बिहारियों की जो स्थिति थी, आज भी वैसी ही है। आजादी के बाद से वे लगातार विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं। विस्थापन की इस पीड़ा और उनके संघर्ष को उपन्यास में विस्तार से दिखाया गया है। कोई भी योजना बिहारियों के पलायन को रोक नहीं पाई है। इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे बिहारियों की मौत बिहार में नहीं होती। उनके तन को बिहार की मिट्टी नसीब नहीं होती। वे कोलकाता, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या गुजरात में मरते हैं।
प्रभाकर तिवारी: एक बिहारी की कहानी
इस उपन्यास का नायक प्रभाकर तिवारी नाम का एक लड़का है, जिसकी शादी मात्र ग्यारह साल की उम्र में कर दी जाती है। जिस उम्र में वह शादी का अर्थ भी नहीं समझता, उस उम्र में दादा के सपनों की बलि चढ़ता है और सामाजिक दिखावे के नाम पर बलि चढ़ता है पूरा परिवार। चूँकि ज्योतिष जोशी उसी समाज से आते हैं, इसलिए उन्होंने इस उपन्यास में गाँव को एकदम जीवंत कर दिया है। ज़मीनें बेचकर बेटियों की शादियाँ की जाती हैं। एक किसान पिता की सबसे बड़ी ख्वाहिश है कि उसके बेटे को सरकारी नौकरी मिल जाए। उपन्यास के इस प्रसंग को पढ़ते हुए ‘डिप्टी कलक्टरी’ के पिता याद आ जाते हैं। किसान पिता को लगता है बेटे की सफलता गरीबी दूर करने की चाबी है, पर उन्हें क्या पता इस चाबी को पाने में न जाने कितने ताले खोलने होंगे। प्रभाकर के दसवीं पास कर लेने के बाद पिता अपना एक ‘प्रतिसंसार’ रचते हैं। वर्तमान के त्रासद जीवन से उठकर वे भविष्य के सुनहरे संसार में दाखिल हो जाते हैं। उनके दुख का बोझ थोड़ा हल्का हो जाता है। उनके सूने मन में रंग खिलने लगते हैं। एक गरीब पिता की सिर्फ इतनी ही इच्छा है कि उसके लड़के की नौकरी लग जाए। यह एक ऐसी उम्मीद है, जो टूटकर भी नहीं टूटती। और यही उम्मीद गरीब को जिलाए रखती है। प्रश्न उठता है कि कितने लोगों की यह उम्मीद फलित होती है? पाहुन के सामने प्रभाकर के पिता का गिड़गिड़ाना और उनकी आँखों से गिरते आँसू को देख कलेजा फट जाता है। एक पिता की यह लाचारी विकास की अदूरदर्शिता और आवारा राजनीति का नतीजा है।
बादल रूपी पिता का बलिदान
उपन्यासकार ज्योतिष जोशी ने पिता की तुलना बादल से की है। पिता बच्चों के लिए किसी बादल से कम नहीं। इस बादल रूपी पिता को देखते हैं— “देखो, यही जीवन है, आसमान पर टंगे बादलों को देखो। कितने रंग हैं इनके। सफेद, काले धूसर, मटमैले, न जाने कितने। हवा के साथ ये खेलते हुए चलते हैं और न जाने कहाँ लय हो जाते हैं। लेकिन जब तक वे होते हैं, धरती की प्यासी छाती को सींचते हैं। धरती की कोख से जन्मी प्रकृति बादलों के बलिदान से लहलहाती है। आसमान टंगा रहता है, उसको धरती से ईर्ष्या होती है और कारण होते हैं बादल, जो धरती को जीवन देते हैं और मिट जाते हैं। लेकिन हम उन्हें भूलते नहीं। हमारे पिता बादल ही हैं। हम भी बादल होंगे, हमारे बच्चे भी और एक दिन हम सबको हवा के साथ खेलते मिट जाना है—बादल फिर होंगे, बारिश फिर होगी, धरती रहेगी और उसकी कोख से जन्मी प्रकृति भी जो सबको जीवन देती है।” बादल की तरह पिता के भी कई रूप-रंग हैं, वह दुख और संघर्ष रूपी हवा से जूझते और खेलते हुए अपने बच्चों की प्यास बुझाता है। यदि सर पर आसमान/बादल न हो तो जीवन मरुस्थल बन जाता है। न तो जलरहित भूमि अच्छी लगती है और न ही जल रहित जीवन। जीवन की हरियाली बादल रूपी पिता से ही है।
दिल्ली के मंगोलपुरी का कठोर यथार्थ
उपन्यास में दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके का विस्तार से वर्णन है। यहाँ रहने वाले हर बिहारी की एक कहानी है। सिलन भरी कोठरी और बदबूदार जीवन उनके सपनों और उम्मीदों की हकीकत हैं। पेट भरने के लिए छोटे-छोटे बच्चे तक काम करते हैं। लोग शिफ्टों में सोते हैं। शिफ्टों में नौकरी की बात तो सुनी होगी, लेकिन सोने वाली बात यहाँ दिखती है। तीन दिन काम करने के बाद दस-बारह रुपया मज़दूरी मिलती है। यदि गाँवों का विकास ठीक से हुआ होता तो क्या उन्हें यह ज़िंदगी जीनी पड़ती? उपन्यासकार ने मंगोलपुरी का जो दृश्य खींचा है वह देखने योग्य है— “छब्बीस खंडों में बंटी यह मंगोलपुरी दिल्ली की पुनर्वास कॉलोनियों में अव्वल है जहाँ लाखों लोग रहते हैं। जगह-जगह ऊबड़-खाबड़ बने घर, गली-गली घूमते सूअर तथा सार्वजनिक शौचालयों की बदबू से संभ्रांत मानसिकता के लोग पनाह माँग सकते हैं। अपढ़, गँवार और जाहिल समझे जाने वाले मज़दूरों की इस बस्ती में वह सब कुछ होता है जिसे पढ़े-लिखों के समाज में हेय माना जाता है। ...जुआड़ियों, शराबियों, जेबकतरों और पहलवानों की तादाद यहाँ समान है। बात-बात में चाकूबाजी यहाँ आम है और लड़कियों से छेड़छाड़ सरेराह। पुलिस की जेबें यहाँ हर पल गरम होती हैं और उसे यहाँ भाषा की जगह गाली बोलने की आदत है।” सरकार की नजर में यह है बिहारियों की इज़्ज़त। यदि आप मानते हैं कि इस इलाके को ऐसा बनाने में इन लोगों का हाथ है तो यह आपकी भूल है। दूसरे राज्यों की सरकारें और वहाँ के स्थानीय लोग उनकी औकात दिखाते हैं। दिल्ली के हरियाणवी लोग बिहारियों से सीधे मुँह बात नहीं करते। वे बात-बात में बिहारियों को गाली देते हैं।
ओखला और हैदरपुर की त्रासदी
मंगोलपुरी के अलावा और एक जगह का जिक्र है— ओखला। यहाँ प्रभाकर राघव के घर आता है। राघव जहाँ रहता है वहाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लगभग 500 लोग पच्चास झुग्गियों में रहते हैं। फैक्ट्रियों में काम करने वाले भोजपुरी भाषी ये मज़दूर इतने मज़बूर हैं कि इनके घरों में कोई भी घुस जाता है और वे कुछ नहीं बोल पाते। हरियाणवी सेठ के लड़के उनकी औरतों के साथ छेड़छाड़ करते और वे सब चीज सहने के लिए अभिशप्त हैं। इन्हें बोलने की इजाजत नहीं है। बोले कि हुक्का-पानी बंद। जरा यह दृश्य देखिये— “इस कॉलोनी में ऊपर से सब ठीक दिखता। यहाँ कोई जात-जमात नहीं, कोई छोटा-बड़ा नहीं। सब एक जैसे मज़दूर, एक जैसी विपत्ति के मारे, एक ही जैसी ज़िंदगी को जीने को अभिशप्त थे। सबको सब कुछ पता होता, पर आँखें बंद रहतीं, कान काम नहीं करते तो जबान सिर्फ आपस में धत् करम के लिए ही खुलती। उन पर चाहे जो अन्याय हो, उसके लिए वे गूँगे थे। फैक्ट्री का मालिक बारह घंटे खटवाकर औने-पौने पैसे दे या पुलिस वाले जबर्दस्ती डांडा भाँजकर जेब से रुपये निकाल लें या धानीराम और उसके लड़के अपनी मनमानी चलाएँ, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। डर था तो यही कि जिस दिन उन्हें फर्क पड़ा, उस दिन वे उजड़ जाएँगे।” मंगोलपुरी और ओखला की तरह हैदरपुर भी है। यहाँ भी बिहारियों का जीवन भयानक त्रासदी भरा है। इस उपन्यास में ऐसे तमाम प्रसंग भरे पड़े हैं। इस उपन्यास को पढ़ना बिहारियों के जीवन को जानना है। रोटी के लिए उनका संघर्ष और उस संघर्ष से उपजी पीड़ा अकथनीय है। लेखक ने दिल्ली में बसे बिहारियों के जीवन को बहुत करीब से देखा—जाना है। शायद भोगा भी हो।
नागूराम: अपने ही लोगों का शोषक
उपन्यास में ठेकेदार नागूराम नाम का एक पात्र आता है। नागूराम मूलतः बिहारी है लेकिन वह बिहारियों के साथ घोर बदसलूकी करता है। वह उन पर अपनी धौंस जामाता है। उसके बैठने और बोलने के ढंग का जो चित्रण उपन्यास में हुआ है, वह ध्यान देने योग्य है। वह अपनी लंबी मूँछों पर हाथ फेरते और टेवल पर डंडा पटकते हुए कहता है— “पता चल रहा है कि साला तुम ठीक से काम नहीं करता। कल तुम्हारा कम्पलेन मेरे तक आ पहुँचा है। हम जल्दी एक्सन लेगा तुम पर।” वह मज़दूरों को नौकरी से निकालने का डर दिखाकर उनसे दलाली लेता है। सबसे बड़ी विडम्बना यह कि उस दलाल के पास प्रभाकर जैसे पढ़े-लिखे आदमी को नौकरी माँगने के लिए जाना पड़ता है।
बिहारियों का दुख: एक अनवरत ग्रंथ
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग इन शहरों में गाँव को ही जीते हैं। वे शहर में रहकर भी शहरी नहीं बन पाते। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि ये अपने लिए नहीं, जो गाँव में है उसके लिए जीते हैं, उसके लिए खटते-मरते हैं। यह उपन्यास बिहारियों के ‘दुखों का ग्रंथ’ है। दुख ही उनका ‘ओढ़ना-बिछौना’ है। वह दुख ही है जो उन्हें टूटने नहीं देता। इस ग्रंथ में किसिम-किसिम के दुख हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर दिल दहल जाता है। कथाकार ने उनके दुखों का वर्णन कुछ इस तरह से किया है कि आँखों के सामने पूरा दृश्य उभर आता है। पाठक भी उनके स्टोप और अल्युमीनियम के बर्तनों के पास बैठकर उनकी आँसू भरी आँखों में उतर जाता है। उनके सामने ‘एक अँधेरी गुफा है जिसमें रोशनी की खोज ही उनका लक्ष्य है। रोशनी है भी, यह नहीं मालूम।’
प्रभाकर का स्वाभिमान
प्रभाकर के जीवन का संघर्ष अकल्पनीय है और उससे भी ज्यादा अकल्पनीय उसका तनकर खड़ा रहना है। वह कहीं भी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करता। भटकन और दुख के थपेड़ों को सहते-सहते वह ऊब जरूर जाता है, लेकिन टूटता नहीं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए दो चीजों पर ध्यान देना जरूरी है— प्रभाकर का संघर्ष और उसका स्वाभिमान। क्या यह सिर्फ प्रभाकर का संघर्ष और स्वाभिमान है? नहीं! यह हर उस स्वाभिमानी व्यक्ति का संघर्ष है, जो चापलूसी या जी-हुजूरी करना नहीं जानता। अपनी राह बनाने वाले हर व्यक्ति की कथा है यह। प्रभाकर की कथा, उसके पुरुषार्थ की कथा है। लेकिन इस पुरुषार्थ की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है। ‘समय की रेत पर’ मामूली किसान परिवार में जन्में उस लड़के की व्यथा-कथा है, जो बड़ा सपना देखता है। उस लड़के के अंदर अपार धैर्य और हिम्मत है। जिस समय से उसकी मुठभेड़ है उस समय के असली चेहरे को उजाकर करते हुए लेखक लिखता है— “इस बौने समय में पिटे हुए मोहरों का ही राज है। जो शान और हेठी से रहने का आदि है, उसे पूछता कौन है। देखते ही हैं कि बाँस-बल्ली पर चढ़कर, दूसरे के कंधों का सहारा लेकर लोग कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं। ...यह चोगे का युग है, असल की शक्ल में नकल का राज। इसमें केवल भ्रम है, भ्रामकता है, हवा है, असल में है कुछ नहीं।” ज्योतिष जोशी ने बहुत बड़ी बात कही है। यह आज के समय का सच है। समाज हो, राजनीति हो या शिक्षा हर जगह ऐसे लोगों की भरमार है। दूसरे के सहारे आगे बढ़ने वाले ये लोग बड़ी-से-बड़ी प्रतिभा को भी मात दे रहे हैं।
ब्राह्मण समाज का असली चेहरा
प्रभाकर ब्राह्मण वर्ग से आता है। ब्राह्मण वर्ग ही उसके परिवार की ज़मीन हड़प कर उन्हें बर्बाद करता है। एक ब्राह्मण ही एक ब्राह्मण के आगे गिड़गिड़ाता है। एक ब्राह्मण ही उसे न पढ़ने की सलाह देता है। एक ब्राह्मण के घर में ही वह शरण लेता है और वही ब्राह्मण उसे घर से निकाल देता है। एक ब्राह्मण ही उसे फँसाता है। एक ब्राह्मण के चलते ही वह पुलिस थाने जाता है। एक ब्राहमणी अपने नौकर से नाजायज संबंध रखती है और एक ब्राह्मण चंदा नाम की एक पासी जाति की औरत से संबंध रखता है। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण की बेटी को गाली देता है। एक ब्राह्मण (मंदिर का पुजारी) दूसरे ब्राह्मण (प्रभाकर) की कमाई को हड़प लेता है तो एक ब्राह्मण के लिए धर्म आस्था नहीं धंधा है। उपन्यासकार ज्योतिष जोशी ने बिना कुछ अतिरिक्त कहे, ब्राह्मण समाज के असली चेहरे को उजागर कर दिया है। यह अपने आप में बड़ी बात इसलिए है कि ज्योतिष जोशी खुद ब्राह्मण वर्ग से आते हैं। उन्होंने इस उपन्यास में किसी को नहीं बख्शा है। प्रभाकर की सबसे अधिक मदद छोटी जाति के लोग करते हैं। हरिहर विश्वकर्मा, रमेश विश्वकर्मा और नगेसर महतो आदि लोग उसकी बहुत मदद करते हैं। ऐसा नहीं है कि ये लोग बहुत अच्छा जीवन जीते हैं या अच्छी नौकरी करते हैं। अभाव में रहते हुए भी इनका मन भाव से भरा हुआ है।
मूक नायिका: प्रभाकर की पत्नी
इस उपन्यास में एक ऐसी पात्र है, जो न बोलकर भी बहुत कुछ बोल रही है— वह है प्रभाकर की पत्नी। सबसे दयनीय स्थिति इसी पात्र की है। कहने को तो वह ब्राह्मणों का परिवार है, लेकिन उस घर में उस लड़की की स्थिति एक नौकरानी से भी गई बीती है। उसने जाना ही नहीं कि वह इस घर की बहू है या दासी! वह कटूक्तियाँ सहते हुए, दुख झेलते हुए, अनाचार सहते हुए एक शब्द नहीं बोलती। दरअसल कथाकार ने इस लड़की के माध्यम से उस समाज की सच्चाई कही है, जो एक लड़की को बोलने तक का हक नहीं देता। उसे घर का सदस्य नहीं, बंधुआ मज़दूर समझता है। यह जानने का प्रयास नहीं करता कि उसके भी कुछ सपने हो सकते हैं। उसकी इच्छाओं का कभी ख्याल नहीं रखा गया। उसे सिर्फ खाना बनाने, काम करने, लोगों की सेवा-टहल करने और वंश-वृद्धि का माध्यम भर माना गया। मध्यवर्गीय परिवारों का जो विघटन हुआ उसके मूल में यही कारण है। यदि बहू को एक जिंदा इंसान समझा गया रहता तो आज स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। आज भी कम-ओ-बेस यह स्थिति बरकरार है। सास-ससुर के सामने न तो बहू को बोलने का अधिकार है और न ही सपने देखने का। उपन्यास में ही हम देखते हैं, नौकरी लगने के बाद प्रभाकर अपने परिवार को बाहर ले जाना चाहता है, ताकि बच्चे अच्छे से पढ़ सकें, लेकिन उसकी माँ तैयार नहीं होती। वह कहती है— “माँ-बाप पढ़ा-लिखाकर बेटे को लायक बनाते हैं। नाना तरह के दुख उठाते हैं; क्या इसलिए कि वह जब अपने पैरों पर खड़ा हो जाए तो अपनी मेहरी को पहचान ले, अपने बच्चों को जान-समझ ले और जहाँ जनम-करम हुआ, उस धरती को पराया कर दे?” बेटा कामाये लेकिन अपनी पत्नी और बच्चे को जी सकने लायक सुख न दे। बड़ा सवाल यह है कि यदि बहू शहर चली गई तो दाई का काम कौन करेगा? यही वह स्थिति थी जिसने संयुक्त परिवारों को तोड़ा। यह कैसी परंपरा या संस्कार है जिसमें एक पिता अपने बच्चों को खेला नहीं सकता? उसे अपने कंधों पर बैठाकर गाँव में घूम नहीं सकता? वह सबके लिए सामान लाता है, लेकिन अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं ला पाता। वह पत्नी के गिरते आँसुओं को पोंछ नहीं सकता। उसे पूछने का भी हक नहीं है कि तुम क्यों रो रही हो। उसकी चुप्पी में उसकी दीनता झलकती है। यह बात चकित करती है कि प्रभाकर का रवैया उसके प्रति बहुत उदार या प्रेम वाला नहीं है, लेकिन वह दूसरी किसी औरत को अपने जीवन में आने भी नहीं देता है। इस बेरुखेपन को सामंती संस्कार माना जाए या कुछ और?
धर्म का विघटन
ज्योतिष जोशी ने इस उपन्यास में धर्म के खेल को बखूबी दिखाया है। मंदिर का पुजारी हो या प्रभाकर या प्रेस का मारवाड़ी सेठ सबके लिए धर्म व्यवसाय है। यह अलग बात है कि प्रभाकर अपने जीवन में यह काम सिर्फ एक बार करता है और वह भी पेट की भूख शांत करने के लिए, लेकिन चढ़ावे और दक्षिणा में मिला सारा पैसा मंदिर का पुजारी हड़प लेता है। ‘राम-प्रेस’ सेठ के लिए यह कोई मायने नहीं रखता कि धार्मिक ग्रन्थों के व्याख्याता शराबी हैं या जुआड़ी। ‘वे जितने सहृदय और संत दिखते, अंदर से उतने ही कृपाण और ठग थे।’ बात-बात के ‘राम-राम’ कहने वाले लोग या लंबा टीका लगाने वाले धर्म के लिए कितने बड़े नासूर है, यह उपन्यास पढ़कर जाना जा सकता है। इसके अलावा उपन्यास में एक धार्मिक संस्था का जिक्र है, जहाँ से पाक्षिक अखबार और मासिक पत्रिका का प्रकाशन होता है। उस अखबार और पत्रिका का मुख्य उद्देश्य उस संस्था के मुखिया को अवतारी पुरुष बताना और बनाना है। परमिंदर नाम का एक युवक उस संस्था के संपादक महोदय से कहता है— “माफ कीजिए संपादक जी, जब आप इतने ही धर्मात्मा हैं, तो यह नौकरी क्यों करते हैं? मोटी रकम के बदले जो आप दूसरों को उपदेश देकर भरमाने की कोशिश करते हैं, उसका रत्तीभर भी असर है आप पर? हिन्दू कूल में पैदा होकर वेद-वेदान्त की परंपरा से आया व्यक्ति एक संप्रदाय के संस्थापक को ईश्वर बनाता हो, उसकी समझ तो स्वयं एक अवसरवादी भ्रष्ट व्यक्ति की है।” प्रभाकर कहता है— “अब आगे संभव नहीं कि काम हो।... यहाँ काम करने के लिए मैं इतना नहीं गिर सकता कि सबको ईश्वर का अवतार मानकर धन्य हो सकूँ।” आज धर्म का असली अर्थ यही रह गया है। टीवी पर जो बाबा लोग छाए हुए हैं, वे अपने आप को किसी ईश्वर से कम नहीं समझते। उनके अनुयायी उन्हें ईश्वर बता भी रहे हैं। इस कलियुग में चारों ओर ‘धर्म को काट खाने की अफरा-तफरी मची हुई है’। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क के नाम पर ब्राह्मणों और राजनेताओं का व्यापार खूब फल-फूल रहा है। सत्ता और धर्म का यह गठजोड़ हमें ऐसी अँधेरी गुफा में ले जा रहा है, जहाँ प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखती।
प्रेम के दो रूप
इसमें प्रेम के दो रूप देखने को मिलते हैं। एक दिल्ली विश्वविद्यालय में कुमुद और प्रभाकर का प्रेम और दूसरा सर्वेश और भाग्यवती का प्रेम। पहले में समर्पण और ज़िम्मेदारी का अहसास है तो दूसरे में सिर्फ हवस। इस चक्र में दो और लोग आते हैं एक कुमुद का पति और दूसरा भाग्यवती का दूसरा प्रेमी। कुमुद प्रभाकर के भोले स्वभाव पर रीझकर उससे शादी करना चाहती है, लेकिन प्रभाकर को अपनी जमीनी हकीकत का पता है। वह यह भली-भाँति जानता है कि वह एक शादी-शुदा पुरुष है। गाँव में उसकी पत्नी और तीन बच्चे हैं, जिनकी कोई गलती नहीं है। वह एक अच्छी नौकरी कर अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करना चाहता है। इस सच्चाई को जानने के बाद भी कुमुद उससे शादी करना चाहती है, लेकिन प्रभाकर ऐसा नहीं करता। जिस रिश्ते को वह सामाजिक स्वीकृति नहीं दे सकता उसे आगे भी नहीं बढ़ाता। वे दोनों दिल्ली जैसे शहर में, प्रेम की एक नयी परिभाषा गढ़ते हैं। दोनों एक-दूसरे के साथ थे, लेकिन कोई बंधन नहीं था। अमूमन प्रेम की शुरुआत मित्रता से होती है, लेकिन यहाँ प्रेम से मित्रता की शुरुआत होती है। प्रेम की राह से निकली हुई मित्रता! अद्भुत! कौन कहता है आलोचक नीरस होते हैं? इससे अधिक संवेदना कहाँ मिलेगी? कितना निस्पृह प्रेम है यह। इन्हें एक-दूसरे से किसी चीज की आकांक्षा नहीं है। उनके लिए यह रिश्ता एक विश्वास और एक सुंदर अहसास है। इनके प्रेम का कोई रूप नहीं है, लेकिन ये दोनों एक-दूसरे के जीवन के खालीपन को दूर कर देते हैं। उनका रिश्ता स्थायी रिश्ता है, जो कभी खत्म नहीं होता। अस्पताल में होने के बावजूद प्रभाकर कुमुद के बारे में सोचता है। अपनी माँ, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचता है। उसे उम्मीद है वह सब ठीक कर देगा।
इस प्रेम के विपरीत सर्वेश और भाग्यवती के बीच का संबंध कितना छिछला और हल्का है। वह प्रेम नहीं है, दोनों एक-दूसरे को ठगते हैं। यह प्रेम उपभोक्तावाद की देन है। जहाँ व्यक्ति चीज में बदल गया है, जिसे इस्तेमाल करने के बाद बदल या फेंक दिया जाता है। कुमुद का पति भी किसी और औरत के साथ रहता है। वह कुमुद से कहता भी है कि वह चाहे तो किसी और के साथ रह सकती है, उसे कोई एतराज नहीं है। भाग्यवती सर्वेश से शादी के बाद भी किसी अन्य से संबंध रखती है। यह कैसा प्रेम है? प्रेम के इन दोनों रूपों को उपन्यास में देखा जा सकता है। इनका प्रेम न तो गहरा है, न भावनात्मक, न स्थायी, यह सिर्फ शारीरिक सुख तक सिमटा हुआ है। और ये शारीरिक सुख किसी भी दुकान से प्राप्त कर सकते हैं।
राजनीति का गहन विश्लेषण
कोई रचना बिहार की हो और उसमें राजनीति न हो यह कैसे संभव है। इस उपन्यास में ज्योतिष जोशी ने एक सचेत चिंतक की तरह राजनीति का गहन विश्लेषण किया है। उपन्यास की शुरुआत के साथ ही राजनीति की शुरुआत होती है। इन्दिरा गांधी की अधिनायकवादी राजनीति से वापसी के साथ। इसमें उपन्यासकार ने कद्दावर समाजवादी किसान नेता चरण सिंह, जयप्रकाश नारायण आदि के साथ यह दिखाया है कि कैसे इन्दिरा जी की वापसी के बाद कांग्रेस की लूट बढ़ी। चीनी और किरासन तेल की ज़माखोरी शुरू हुई। जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। नौकरशाही का आतंक और पुलिस का अत्याचार अलग था। सड़क, बिजली, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार इसके बारे में न ही पूछें तो अच्छा है। किसान की स्थिति दिन-प्रति-दिन खराब होती जा रही थी। सिर्फ फसल के सहारे जीवन जीना दूभर हो चला था।
इसके बाद राजीव गांधी आते हैं। उनका कंप्यूटर आता है, जिसे लेकर आम जनता के बीच यह बहस का मुद्दा है कि यदि सभी दफ्तरों में कंप्यूटर आ गया तो काम करने वाले हाथ कम हो जाएँगे। बेकारी बढ़ेगी। एक युवक कहत है कि ‘इस देश में जो कुछ भी है, वह कांग्रेस का ही दिया हुआ है’। निश्चित रूप से यह युवक लेखक है। राजीव गांधी के साथ-साथ इसमें वामपंथी संगठन सी पी एम भी है, जो श्रमिकों के हक की लड़ाई लड़ता है। साथ ही इसमें ज्योति बसु, हरिकिशन सिंह सुरजीत, नम्बुदरिपाद आदि की विचारधाराओं का उल्लेख है और उन विचारधाराओं का आम जनता पर क्या प्रभाव है, यह भी दिखाया गया है। बालश्रम के शोषण के चक्र को देखते हुए प्रभाकर सोचता है— “यह व्यवस्था ही तो कहीं न कहीं जिम्मेदार है जो सबको खून के आँसू रोने पर विवश करती है। हमारे नेताओं को पाँच साल पर सिर्फ एक बार देश की जनता की याद आती है क्योंकि उन्हें तब वोट की दरकार होती है और यह जनता ऐन मौके पर अपना हिसाब करने के बदले धर्म, बिरादरी और जाति की आँधी में बहकर अपनी मुश्किलें भूल जाती है।” धर्म, बिरादरी और जाति ने लाखों युवकों को भरमाकर रखा है। गांधी के सुराज का असली सच यही है। यही भीमराव अंबेडकर के समरस समाज का सच है। दलित तूफानीलाल जो अंबेडकर स्कूल चलाते हैं, उनके बारे में लेखक का कहना है— “वे दलित थे पर दलित होना उनके लिए केवल ढाल था, आचरण में वे किसी बिगड़े सामंत से कम न थे।” सवर्णों के लिए गांधी और दलितों के लिए अंबेडकर खाने-कमाने की चीज होते जा रहे हैं। गांधी और अंबेडकर की तस्वीरों के नीचे बैठकर ये लोग उन्हें ही बेच रहे हैं। उनके नाम की ओट में दलाली कर रहे हैं।
उपन्यास में लालू यादव के ‘जंगल राज’ का भी जिक्र है। वे सिर्फ कहने भर को ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के नेता थे। उन्होंने बिहार की व्यवस्था को और चौपट ही किया। लोगों की उम्मीद को मटियामेट किया। अभी प्रभाकर जीवन की लड़ाई लड़ ही रहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह मण्डल कमीशन लागू कर देते हैं। उस मंडल कमीशन का राष्ट्रव्यापी असर हुआ। कई लोगों ने आत्महत्याएँ कर लीं। उसी समय लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा निकाल देते हैं। ‘यह रथयात्रा विश्वहिन्दू परिषद के समर्थन में घोषित हुई थी जो आयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर आंदोलन कर रही थी’। आरक्षण और मंदिर समर्थन से देश में भूचाल आ गया। चारों ओर उत्पात, नारेबाजी और हिंसा होने लगी। देश सवर्ण-दलित और हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया। चारों ओर विघटन की मनहूस हवा बह रही थी। प्रभाकर जैसे गरीब ब्राह्मण लड़कों के लिए जीवन की राह अब और मुश्किल हो चली थी, क्योंकि अब गरीबी की जाति तय कर दी गई थी। राजनीति की नजर में सवर्ण अब गरीब नहीं थे (हैं)। यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था (है)। शायद उपन्यासकार का लक्ष्य इस सत्य से साक्षात्कार करवाना है कि गरीब सिर्फ दलित में ही नहीं, ब्राह्मणों में भी भरे पड़े हैं, जिनके जीने का कोई आसरा नहीं बचा है। सरकार उन्हें किस खाने में गिनेगी? जाति के आधार पर तो वे गरीब रहे नहीं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वे गरीब से भी बदतर जीवन जी रहे हैं। मंगोलपुरी, ओखला या हैदरपुर इसके साक्षात प्रमाण हैं। मंगोलपुरी या ओखला या हैदरपुर आपको हर शहर में मिल जाएगा।
राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव की सरकार बनी। यह आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत का समय है। आर्थिक सुधार के नाम पर सरकारी कंपनियों का स्वामित्व नष्टकर निजी भागीदारी को बढ़ावा दिया जा रहा था। ज्योतिष जोशी लिखते हैं—“देश में आर्थिक उदारीकरण को निजीकरण के साथ-साथ छल-छद्म और अनैतिक गठजोड़ के साथ सरकार बनाने और बेचने का सिलसिला इसी दौर में शुरू हुआ। देश अब एक नए युग में था। अब पुराने मूल्यों का कोई काम न था। नीति, ईमानदारी, निष्ठा और कर्त्तव्य की अब नयी परिभाषाएँ गढ़ी जा रही थीं।” भारतीय संसद में पहली बार खरीद-बिक्री की सरकार बनी थी। आज हर चुनाव के बाद नेताओं की खरीद-बिक्री हो रही है। सत्ता के इस खेल में आम जनता कहीं पीछे छूट गई है।
कथाकार ने बीच-बीच में अपनी तीखी टिप्पणियों से राजनीति की बखिया उधेड़ दी है। उस दौरान घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना पर भी उसकी नजर टिकी हुई है। परिवर्तन सिर्फ राजनीति में हो रहा है,, लोगों का जीवन जस-का-तस है। गाँव के हालात ज्यों-का-त्यों हैं। खेती उजड़ने के कगार पर पहुँच चुकी है। स्थिति यह हो चली है कि खेती को जिंदा रखने के लिए पैसों की ज़रूरत है और पैसा नौकरी करके ही आ सकता है, पर दुर्भाग्य कि नौकरी है नहीं, है भी तो पहुँच वाले लोगों के लिए। प्रभाकर जैसे लोगों के लिए नहीं।
दिल्ली विश्वविद्यालय और जे.एन.यू. का यथार्थ
उपन्यास में दिल्ली विश्वविद्यालय और जे एन यू की शिक्षा पद्धति और उसके राजनीतिक विचारों पर अच्छी-ख़ासी बहस है। प्रभाकर दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए करता है। कथाकार ने प्रभाकर के बहाने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों की शिक्षण पद्धति पर टिप्पणी की है। जो विद्यार्थी अध्यापकों के लिखाये नोट्स को याद करके उसे हूबहू उतार देता था, उसके ही अच्छे नंबर आते थे। खुद से नोट्स बनाने वाले विद्याथियों के नंबर अच्छे नहीं आते थे। मौलिकता इन अध्यापकों को पसंद न थी। वे नहीं चाहते थे कि छात्र में प्रतिभा और दृष्टि का विकास हो। यह सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय का सच नहीं है, देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में नोट्स की परिपाटी युगों-युगों से चलती आ रही है। गुरु जी के नोट्स से उनके विद्यार्थी पढ़ते हैं और शिक्षक बनने के बाद उसी नोट्स से वे पढ़ाते हैं। नोट्स या गाइड नामक यह दीमक पीढ़ी-की-पीढ़ी नष्ट कर रही है। “उसमें भी विडम्बना यह थी कि नोट्स लिखवाने वाले अध्यापक जब परीक्षा पुस्तिकाएँ जाँचते तो अपनी फटी-पुरानी डायरियाँ साथ रखते और यह गौर से देखते कि छात्र ने उनकी डायरी ज्ञान का कितना उपयोग किया है। अंक का प्रसाद इस ज्ञान के उपयोग के प्रतिशत से ही तय होता था।” अंत में थक हारकर प्रभाकर ‘रट्टा मारो पास करो’ वाली पद्धति अपनाकर दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए पास करता है। एम फिल के लिए वह जे एन यू जाता है। जहाँ उसे एक मुक्त वातावरण मिलता है। आजादी के नाम पर देर रात तक जगना, अड्डा मारना और सुबह देर तक सोना, वहाँ कि आम दिनचर्या थी। इसके अलावा वहाँ कई राजनीतिक पार्टियों के यूनिट्स हैं, जो अपने-अपने तरीके से छात्रों को बहलाने-फुसलाने का काम करते हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी बहसें हैं और उन बहसों के साथ उड़ता सिगरेट का धुआँ है। रंगीन सपने और अंतर्राष्ट्रीय समस्याएँ इन छात्रों की मुख्य समस्याएँ हैं। वाममार्गी संगठनों के लोग अपने आप को मार्क्स, एंगल्स या सुकरात से कम नहीं समझते हैं। संसार की हर समस्या का समाधान इनकी मुट्ठी में है, नहीं है तो सिर्फ यह कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कैसे होगा। जरा यह टिप्पणी देखिये— “केंद्र में सरकार चाहे जिसकी हो, यहाँ का तंत्र उनकी (वाममार्गी) ही मुट्ठी में था। उन्होंने विश्वविद्यालय को एक ऐसे द्वीप में बदल दिया था जो सबसे अलग पर सबसे नायाब था। देश और दुनिया की राजनीति यहाँ तय होती और सबके सुनहले भविष्य के ऐसे रंगीन सपने बंटते कि किसी को कोई दुख व्यापना ही न था। क्या लड़के, क्या लड़कियाँ इन रंगीन सपनों में ऐसे खोये रहते कि उन्हें यथार्थ का बोध ही न होता। किसी को समाजवाद मिलता, किसी को हिन्दूराज, तो किसी को सुराज। इसमें कोई उनका राज न था।” प्रभाकर अपना राज चाहता है, इसलिए वह किसी संगठन से जुड़ नहीं पाता। ऐसा उन्मुक्त और हवा-हवाई जीवन न तो उसका सपना था और न ही उद्देश्य। उसकी सफलता पर कई आँखें टिकी हुई थीं। वह जमीन पर खड़े होकर सच का सामना करता है। सच क्या है, उसे पता है।
प्रभाकर की चार दुनियाएँ
प्रभाकर कुछ ही वर्षों में चार-चार दुनियाएँ देखता है। उसकी पहली दुनिया गाँव की है, दूसरी दिल्ली में रह रहे बिहारियों की, तीसरी दुनिया दिल्ली विश्वविद्यालय है और चौथी जे एन यू का उन्मुक्त वातावरण। इन दुनियाओं से गुजरने के बाद उसे लगता है कि असली दुनिया उसकी अपनी दुनिया है। दिल्ली में रह रहे बिहारी कामगारों की दुनिया है, जिनके अंदर कोई फरेब नहीं। जो है सामने है। दोस्ती भी सामने और दुश्मनी भी सामने। प्रेम भी सामने और घृणा भी सामने। यहाँ तो चेहरे पर चेहरे हैं। बेशक वे लोग पढ़े-लिखे या आधुनिक नहीं हैं, लेकिन उनमें आत्मीयता, दया, प्रेम और स्नेह भरा पड़ा है। “उनके पास जबान नहीं आत्मा है। चेहरे पर कान्ति चाहे न हो, मुस्कुरा भले न पाते हों, पर आँखें हैं जिनमें भरे-पूरे आँसुओं का संसार है। वह उनकी दया और करुणा का सोता सुखने नहीं देती। छल वहाँ है नहीं, छद्म वे जानते नहीं।” इन्हीं लोगों ने बुरे दिनों में उसे आसरा दिया था और निराशा में जीने का उत्साह भरा था। जे एन यू में तो आकर जीने का उत्साह ही खत्म हो जाता है। सारे विश्वास टूटते नजर आते हैं।
संस्कृति प्रतिष्ठान की भ्रष्टाचार कथा
खैर, अंत में प्रभाकर को संस्कृति प्रतिष्ठान में नौकरी मिल जाती है। अपने आदर्शों के साथ प्रोफेसर तो वह बन नहीं सकता था। यहाँ आकर वह देखता है कि कैसे सरकारी धन का दुरुपयोग हो रहा है। पैसों से पुरस्कारों की खरीद-बिक्री हो रही है। प्रतिष्ठान के कर्मचारियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। ज्योतिष जोशी ने बहुत बारीकी के साथ यह दिखाया है कि कैसे संस्कृति प्रतिष्ठान दिन-पर-दिन भष्ट होता जा रहा है। प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठा मज़ाक बनकर रह गई थी। लूट, मक्कारी और झूठ की प्रतिष्ठा बढ़ चली थी। प्रभाकर इस नादिरशाही विचारों का विरोध करता है और उसका तबादला लखनऊ कर दिया जाता है, जहाँ लेखक को उसकी डायरी मिलती है, जिसका प्रतिफल है यह उपन्यास।
महानगर में गाँव की कथा
उपन्यास का बिहारी नायक एक साथ कई मोर्चों की लड़ाई लड़ता है। वह हिम्मत नहीं हारता। जिस तरह प्रभाकर महानगर में गाँव का होकर रहता है, उसी तरह ‘समय की रेत पर’ महानगर के बीच से निकली गाँव की कथा है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का अधिकांश समय महानगर में बिताने के बाद भी ज्योतिष जोशी के भीतर से गाँव अभी भी गया नहीं है। उन्होंने अपने भीतर के गाँव को शहर नहीं होने दिया है। उनके भीतर आज भी प्रभाकर जैसा एक गँवाई इंसान मौजूद है, जो अपने मूल्यों के साथ जी रहा है।
पुस्तक और लेखक विवरण
उपन्यास: समय की रेत पर, लेखक: ज्योतिष जोशी, प्रकाशन: सेतु प्रकाशन (पेपरबैक), पृष्ठ: 288, मूल्य: 499
लेखक परिचय: मृत्युंजय पाण्डेय
मृत्युंजय पाण्डेय
संपर्क: pmrityunjayasha@gmail.com
9681510596
जन्म: 20 जुलाई, 1982
मूल निवासी: दिघवा दुबौली, गोपालगंज (बिहार)
शिक्षा: एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
प्रकाशन: रेणु का भारत, समय साहित्य और आलोचना, कहानी से संवाद, कहानी का अलक्षित प्रदेश, कहानी बीच आवाजाही, रेणु: कहानी का हिरामन, कविता के सम्मुख, केदारनाथ सिंह का दूसरा घर, कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव (आलोचना)
नई सदी नई कहानियाँ (तीन खण्डों में), प्रेमचंद: निर्वाचित कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद: निर्वाचित कहानियाँ, किस्सागो पंकज मित्र (संपादन)
सम्मान: देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2018)
मोबाइल: 9681510596
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1 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर
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