बंद गली का आखिरी मकान, देवेंद्र राज अंकुर और कहानी के रंगमंच की स्वर्ण जयंती

देवेन्द्र राज अंकुर और कहानी के रंगमंच की 50वीं वर्षगांठ पर आधारित लेख - बंद गली का आख़िरी मकान, लेखक: अजित राय



देवेंद्र राज अंकुर: रंगमंच के विश्वकोश

अजित राय


बंद गली का आखिरी मकान, देवेंद्र राज अंकुर और कहानी के रंगमंच की स्वर्ण जयंती।

77वें वर्ष में देवेंद्र राज अंकुर की सक्रियता

आगामी 4 जून 2024 को देवेंद्र राज अंकुर जी अपनी उम्र के 77वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उन्हें अग्रिम बधाई। बधाई इसलिए भी कि इस उम्र में भी वे रंगमंच में सतत सक्रिय हैं। वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं और गुरु भी, जिनसे हमने बहुत कुछ सीखा है। वे रंगमंच के चलते-फिरते विश्वकोश हैं।

भारतीय रंगमंच में उन्होंने 1 मई 1975 को जिस कहानी के रंगमंच को ईजाद किया था, उसे अब 50 वर्ष होने जा रहे हैं।

देवेंद्र राज अंकुर की प्रस्तुति की तकनीकी उत्कृष्टता

देवेंद्र राज अंकुर जी के निर्देशन में 26 अप्रैल 2024 की शाम 6:30 बजे अभिमंच सभागार में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की नई प्रस्तुति, धर्मवीर भारती लिखित बंद गली का आखिरी मकान, अपने संपूर्ण रंग अनुभव और नई रंग भाषा के कारण चमत्कृत करती है। अभिनय, संवाद, दृश्यबंध, देहभाषा, संगीत, प्रकाश और मंच परिकल्पना—यानी सब कुछ इतना उम्दा और विलक्षण है कि मन में उतरता चला जाता है। यह हमारे बचपन की स्मृतियों की वापसी जैसा कुछ है। कई दृश्य बहुत सुंदर बन पड़े हैं। फेड इन और फेड आउट का टाइम सेंस गजब का है, जिससे नाटक की गति धीमी नहीं हो पाती। जिस कुशलता से अंकुर शैली में अभिनेता अभिनय करते-करते सूत्रधार (कथाकार) में बदलता है और कहानी सुनाते-सुनाते चरित्र में बदल जाता है, वह काबिल-ए-तारीफ है। अभिनेताओं ने पटकथा से करुणा और हास्य के दृश्यात्मक क्षणों का सुंदर सामंजस्य किया है। 

मंच सज्जा की प्रतीकात्मकता

जर्जर खपरैल, एक मंजिला कच्चे मकान का प्रतीकात्मक सेट है। बीच की जगह कभी आंगन, कभी बरामदा, कभी रसोई और कभी कमरा बन जाती है, जहां बांस की एक खाट है। बगल की दीवार में एक आला (दीवार को काटकर बनाई गई चौकोर खाली जगह, जहां डिबरी रखी जाती है) है, जिसका ऊपरी हिस्सा मिट्टी के तेल से जलने वाली डिबरी के धुएं से काला पड़ गया है। यहीं वह बंद गली का आखिरी मकान है। उसी दिन दोपहर साढ़े तीन बजे अंकुर जी के निर्देशन में इसी आलेख को रानावि रंगमंडल के दूसरे कलाकारों ने कहानी के रंगमंच की आधुनिक शैली में प्रस्तुत किया।

धर्मवीर भारती की कालजयी रचना

बंद गली का आखिरी मकान की कहानी ब्रिटिश कालीन इलाहाबाद की है, यानी 1933 और उसके आसपास की, जब धर्मवीर भारती मात्र छह-सात साल के थे और अक्सर इस मकान में खाना खाने पहुंच जाते थे। इस मकान के ठीक सामने उनका पक्का दोमंजिला मकान था। हालांकि, उन्होंने सच्ची घटनाओं पर आधारित यह लंबी कहानी अपने बचपन की स्मृतियों के आधार पर 1969 में लिखी थी। 

मुंशीजी और बिरजा का लिव-इन रिलेशनशिप

इस मकान में कहानी के मुख्य चरित्र मुंशीजी रहते हैं, जो कचहरी में काम करते हैं (शायद वकील हैं)। जाहिर है कि वे कायस्थ हैं और उन्होंने बिरजा नामक एक ब्राह्मण औरत और उसके दो बच्चों—राघव (राम मिश्र) और हरिया (हरे राम मिश्र)—तथा बिरजा की मां हरदेई को अपने घर में आश्रय दे रखा है। वरिष्ठ कवि-पत्रकार विमल कुमार ने अपने फेसबुक पेज स्त्री दर्पण पर लिखा है कि यह लिव-इन रिलेशनशिप की कहानी है, जिसके स्त्री पाठ पर विचार किया जाना चाहिए। इस प्रस्तुति में मुंशीजी का चरित्र आलोक रंजन ने निभाया है, जबकि शिल्पा भारती बिरजा बनी हैं। और भी छोटे-मोटे कई चरित्र हैं, पर फिलहाल मंच पर मुंशीजी और बिरजा के बीच रिश्तों के विविध रूपों की बात करते हैं।

इब्राहिम अल्काज़ी – रंगमंच के अश्वत्थ वृक्ष

चरित्रों के बीच प्रेम और तनाव

बिरजा, उसकी मां हरदेई और बड़े बेटे राघव के लिए मुंशीजी भगवान हैं। बिरजा का छोटा बेटा हरिया थोड़ा बिगड़ैल है, जो पढ़ाई छोड़कर महफिलों में सारंगी बजाने लगता है। आज से करीब सौ साल पहले भारतीय समाज में मुंशीजी और बिरजा के लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर बाहर लोग कितनी बातें करते होंगे, ताने मारते होंगे, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यह भी कहा जाता है कि हरदेई ने मुंशीजी को अपनी बेटी बेच दी है, इसलिए लड़कियों को स्कूल से घर पहुंचाने का काम उससे छिन जाता है। मुंशीजी अपनी चार साल की छोटी बहन बिटौनी की परवरिश के लिए आजीवन अविवाहित रह गए, वह भी उनके घर का पानी पीने से इनकार कर देती है। एक दृश्य में जब बिरजा उसके लिए पानी लाती है, तो वह उसे अपमानित करने के लिए पड़ोस की छोटकी बहू से पानी मांगकर पीती है। छोटकी बहू का उसके ससुर से नैन-मटक्का चल रहा है, और इस बात को वह गर्व और रस के साथ साझा करती रहती है। एक दृश्य में मुंशीजी, बिरजा की चादर उतारते हुए उसे अपने कंधे पर वैसे ही रखकर चलते हैं, जैसे विवाह मंडप में सात फेरे लेते हुए दूल्हा चलता है। एक दूसरे दृश्य में बांस की खाट पर लेटे हुए मुंशीजी का पैर दबाते हुए बिरजा कहती है कि उसकी यह इच्छा हमेशा से रही कि मुंशीजी उसकी मांग में सिंदूर भर देते। वहीं, जब तनातनी हो जाती है, तो वह गुस्से में पुराने बक्से को पटकते हुए यह कहने से भी नहीं चूकती कि उसके आने से ही यह घर घर बना, इस घर में दिया-बाती होने लगी, वरना तो यह खंडहर ही था। प्रेम के सघन क्षणों में मुंशीजी कहते हैं कि 17 साल से एक ही घर में, एक ही कमरे में, एक ही बिस्तर पर रहते-सोते हुए उन्होंने आज तक ठीक से बिरजा को देखा तक नहीं। भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के दैहिक और मानसिक रिश्तों पर यह कितनी बड़ी टिप्पणी है। चरित्रों के बीच चाहे प्रेम और रागात्मकता हो, या तनातनी, या तानेबाजी, या बाहर की अफवाहें—मंच पर अपनी देह गतियों और भंगिमाओं से अभिनेताओं ने जिस कुशलता से इन दृश्यों को सजीव किया है, वह अद्भुत है। एक दृश्य में जब मुंशीजी, बिरजा की ओर प्रेम की मांसल नजर से देखते हैं, तो बिरजा कहती हैं कि आंगन का दरवाजा खुला है, उसे बंद कर दें। दर्शक के लिए इतना काफी है कि आगे क्या होने वाला है।

मुंशीजी की कोशिश से राघव की कचहरी में नौकरी लग जाती है। उसकी शादी के लिए एक रिश्ता आता है। समस्या यह है कि मुंशीजी तो राघव के असली पिता नहीं हैं। उन्हें सब सलाह देते हैं कि कुछ दिनों के लिए वे कहीं चले जाएं और शादी के बाद लौट आएं। हरिया पूछता है कि क्या सोनपुर मेले में मोम की नकली औरत मिलती है, जिसे खरीदकर राघव भैया की शादी करा दी जाएगी। पहले तो मुंशीजी इस प्रस्ताव से आहत हो जाते हैं, बोलचाल बंद कर लेते हैं, फिर मान जाते हैं। लेकिन बिरजा कहती हैं कि मुंशीजी कहीं नहीं जाएंगे, अब वही राघव के पिता हैं। छोटा बेटा हरिया, मुंशीजी से शिकायत करता है कि वे उसके बड़े भाई राघव को तो दो-दो पायजामा सिलवा दिए, और उसकी सारंगी का कवर नहीं सिलवा रहे। वह पूछता है कि क्या पढ़ना, नौकरी करना ही सब कुछ है, कलाकार होना कुछ नहीं? यह भी हमारे परिवारों पर बड़ी टिप्पणी है। अंकुर जी के अभिनेता मंच पर जैसे पूरे पारिवारिक जीवन को, अड़ोस-पड़ोस को, तनातनी और तानेबाजी को अपने अभिनय से जीवंत करते हैं। मुंशीजी जब बीमार होकर बिस्तर पर पड़ जाते हैं, तो उनका एक मुसलमान दोस्त उन्हें देखने आता है। वह कहता है कि बीच में चूल्हा न होता, तो वह मुंशीजी तक पहुंच जाता। यानी एक मुसलमान न तो हिंदुओं के आंगन में चूल्हा लांघ सकता है, न पर्दे के बिना किसी गैर औरत से बात कर सकता है। बिरजा के भाई बिशन मामा से मुंशीजी को धमकी मिलने की खबर से बेचैन होकर वह उन्हें बेखौफ करने आया है। मुंशीजी की बिगड़ती तबीयत से घबराकर, उनके प्रति हमेशा कठोर रहने वाला, खुद को कायस्थ का बेटा कहलाने से नफरत करने वाला छोटा बेटा हरिया, घबराहट में कहता है कि मुंशीजी, आप सारंगी सुनना चाहते थे न? लीजिए, सुनिए। वह सारंगी बजाने लगता है, तभी बड़े बेटे राघव को पुकारते हुए मुंशीजी इस दुनिया को अलविदा कह देते हैं। हरिया उनके मृत शरीर को झकझोर कर कहता है कि मुंशीजी, मुझसे बात करो, मैं भी तो आपका छोटा बेटा हूं। इसी हृदयविदारक दृश्य पर नाटक खत्म होता है, और जिस गाने से नाटक शुरू हुआ था, वही गाना बजता है—आकाश गंगा तक उड़ान भरना/ कुछ बन जाना, महान कभी मत बनना

विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा – धर्मवीर भारती पर

अभिनेताओं का जीवंत प्रदर्शन

मुंशीजी की भूमिका में आलोक रंजन ने बहुत उम्दा काम किया है। उन्होंने कई दृश्यों में अपने मौन से भी बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। मंच की दृश्य संरचना में वे जैसे घुल-मिल गए हैं। एक दृश्य में जब वे बिरजा से नाराज हैं और ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि वे बिरजा से नहीं, खुद से नाराज हैं। वे खाट पर लेटे हैं, बिरजा पैताने बैठ उनका पैर दबाने लगती है। दोनों के बीच असह्य मौन पसरा हुआ है। वे पैर समेट लेते हैं, पर कब तक? अंततः वे पिघल जाते हैं। इसी तरह शिल्पा भारती ने इसी तनातनी को ऐसे व्यक्त किया है, जैसे जल बिन मछली तड़पती है। वह सारे घर को सिर पर उठा लेती हैं। मुंशीजी के प्रति प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्तियां बहुत ही उम्दा हैं। साड़ी के पल्लू के भीतर से झांकती दृढ़ता दृश्यों को और प्रभावशाली बनाती है। छोटे बेटे हरिया की भूमिका में सत्येंद्र मलिक ने तो अंकुर जी के ही नाटक, कृष्ण बलदेव वैद लिखित उसका बचपन में अजय कुमार के बेमिसाल अभिनय की याद दिला दी। उनका चुलबुलापन, उनकी सहज शरारतें और मुंह पर ही सब कुछ कह देने की हाजिरजवाबी मन मोह लेती है, खासकर अंतिम दृश्य में जब मुंशीजी की मृत देह से वे संवाद करते हैं। मुंशीजी के ममेरे भाई भवनाथ की भूमिका में रानावि रंगमंडल के चर्चित अभिनेता शिव प्रसाद शिब्बू, जब भी मंच पर आते हैं, सारा दृश्य ऊर्जावान हो जाता है। उनकी अदाओं का जवाब नहीं।

कहानी के रंगमंच की 50 साल की यात्रा

भारतीय रंगमंच में अंकुर जी ने जिस कहानी के रंगमंच को ईजाद किया था, उसे अब पचास वर्ष होने जा रहे हैं। यह प्रस्तुति कहानी के रंगमंच की स्वर्ण जयंती का जश्न है। अब तक वे करीब पांच सौ से भी अधिक कहानियों और बीस उपन्यासों का मंचन कर चुके हैं। सबसे पहले देवेंद्र राज अंकुर ने आज से करीब पचास साल पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के तीन कलाकारों के साथ निर्मल वर्मा की तीन कहानियों का मंचन, 1 मई 1975 को लखनऊ में महानगर - तीन एकांत नाम से किया था। पहली कहानी धूप का एक टुकड़ा, सबा जैदी, दूसरी कहानी डेढ़ इंच ऊपर, राजेश विवेक और तीसरी कहानी वीकेंड, सुरेखा सीकरी करती थी। इस प्रस्तुति में एक छोटी भूमिका रतन थियाम भी करते थे।

यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि हमारे समय में दो वरिष्ठतम निर्देशक, इस उम्र में भी मंच पर नौजवानों से ज्यादा सक्रिय, सचेत, संवेदनशील और सफल हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के साथ 83 वर्षीय प्रो राम गोपाल बजाज ने लंदन के इस्माइल चुनारा लिखित लैला-मजनूं और धर्मवीर भारती के अंधा युग की शानदार प्रस्तुति की है। 76 वर्ष के देवेंद्र राज अंकुर जी ने अब बंद गली का आखिरी मकान की प्रस्तुति से हमारा दिल जीत लिया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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लेखक परिचय: अजित राय 

अजित राय अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाट्य एवं फिल्म समीक्षक और संपादक हैं। पिछले 25 सालों से वे देश विदेश के नाट्य एवं फिल्म समारोहों में भागीदारी करते रहें हैं। वे पिछले कई सालों से मेटा अवार्ड और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के भारत रंग महोत्सव की जूरी में हैं।  वे पिछले 25 सालों से भारतीय विश्वविद्यालय संघ द्वारा आयोजित अंतर - विश्वविद्यालय युवा समारोहों में नाट्य प्रतियोगिताओं की जूरी में रहे हैं।  उनकी करीब तीन हजार नाट्य समीक्षाएं भारत की सांस्कृतिक पत्रकारिता में मील का पत्थर मानी जाती है। इन दिनों वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ' रंग प्रसंग ' के संपादक हैं। 


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