इब्राहिम अल्काज़ी – रंगमंच के अश्वत्थ वृक्ष


नाटक तो भावनाओं का खेल है – इब्राहिम अल्काज़ी

– रवीन्द्र त्रिपाठी

इब्राहिम अल्काज़ी (1925 - 2020) से मेरा परिचय बहुत कम था। उनसे कई बार मिला लेकिन ढंग की बातचीत सिर्फ़ दो बार हुई। एक बार तब जब वे 1991 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (संक्षिप्त रूप में रानावि यानी एनएसडी या नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ) के रंगमंडल के साथ एक साथ तीन नाटक करने आए थे- शेक्सपीयर का `जूलियस सीजर’, गिरीश कार्नाड का `तलेदंड’ जिसका नाम हिंदी में `रक्त कल्याण’ रखा गया था। तीसरा नाटक था `दिन के अंधेरे’ (जो स्पानी नाटककार लोर्का के नाटक, जिसका अंग्रेजी में नाम `हाउस ऑफ बरनाडा अल्बा’ है, का हिंदी अनुवाद था। इस खबर से दिल्ली के रंगजगत में उत्तेजना आ गई थी। इस कारण कि अल्काज़ी एक लंबे समय के बाद रानावि  के साथ नाटक करने आए थे। 1977 में उन्होंने रानावि  के निदेशक का पद छोड़ा था। बीच में वे 1982 में `तुगलक़’ का निर्देशन करने आए थे। फिर नौ साल का अंतराल।

1991 का अक्तूबर का महीना था जब ये नाटक होने शुरू हुए। एक के बाद एक। मंडी हाऊस के इलाके में कई तरह की बातें हवा मे तैर रही थीं। जिसमें ये प्रमुख बात थी कि आखिर अल्काज़ी को इतने साल बुलाया क्यों गया? क्या कोई राजनीति है? रंगमंडल प्रमुख तब राम गोपाल बजाज थे और रानावि  की निर्देशक कीर्ति जैन। ये उत्सुकता भी थी कि अल्काज़ी के नाटक किस तरह करते हैं या कैसा करते हैं? रंग प्रेमियों में उनका जलवा बरकरार था। खबरे इस तरह की भी आ रही थीं कि वे अपने नाटकों के लिए अपने प्रिय अभिनेताओं—नसीरुद्दीन शाह और मनोहर सिंह—को भी लाना चाहते हैं। पर कुछ तकनीकी अड़चनों से ऐसा संभव न हो सका। शायद रानावि  की तरफ से ये तर्क दिया गया कि इससे रंगमंडल के तब के अभिनेता नाराज हो सकते हैं। हां, `दिन के अंधेरे’ के लिए ज़ोहरा सहगल जरूर आई थीं।

नाटक तो भावनाओं का खेल है
मैंने उसी समय उनका छोटा-सा साक्षात्कार `जनसत्ता’ के लिए लिया था। रंगमंडल का दफ्तर रवीन्द्र भवन की तीसरी मंजिल पर था। साहित्य अकादेमी के ऊपर। रंगमंडल में फोन कर उनसे समय लिया था।

पहले खबर आई थी कि अल्काज़ी ने `जूलियस सीजर’ का एक रूपांतर यानी एडॉप्टेशन `विक्रम सैंधव’ नाम से करने वाले हैं। ये रूपांतर अरविंद कुमार ने किया था जो 'माधुरी' के संपादक रह चुके थे। लेकिन अल्काज़ी ने आखिरकार मूल जूलियस सीजर का अनुवाद ही चुना। मैंने इसके बारे उनसे पूछा था तो अंग्रेजी में उन्होंने जो जवाब दिया उसका हिंदी आशय़ ये था—
`जूलियर सीजर’ एक विश्व प्रसिद्ध नाटक है, उसके बारे मे लोग जानते हैं, इसलिए उसका रूपांतर करना न उचित है और न उसकी जरूरत है।'
फिर मैंने पूछा कि आप जिस `जूलियस सीजर’ को करने जा रहे हैं उसके बारे में नायक को लेकर विवाद है; कुछ लोग मानते हैं कि सीजर उसका नायक है, कुछ ब्रूटस को मानते हैं और कुछ कैसियस को, तो आपकी प्रस्तुति में कौन नायक होगा। उन्होंने थोड़ा मुस्कुराकर कहा (अंग्रेजी में)—
ये सारी बहसें विश्वविद्यालकों के अंग्रेजी विभाग में होती है; नाटक तो भावनाओं का खेल है और मेरी प्रस्तुति में आपको कई तरह की भावनाएं मिलेंगी।
कुछ और सवाल थे पर कुल मिलाकर दस पंद्रह मिनट का ही साक्षात्कार था। संक्षिप्त।

ये तमाशा है और ऐसे चीजें होती रहती हैं
उनसे दूसरा और आखिरी साक्षात्कार 'राष्ट्रीय सहारा' के लिए लिया जो लगभग डेढ़ घंटे का था और पूरे पेज पर छपा था। 1992 की बात है। रानावि  के लिए तीन नाटकों के निर्देशन के बाद अल्काज़ी ने 1992 में दिल्ली में ही में `लिविंग थिएटर’ नाम का रंगमंच प्रशिक्षण केंद्र भी शुरू किया था। तब कमानी ऑडिटोरिम के बगल में जो एलटीजी (लिटल थिएटर ग्रूप का) ऑडिटोरियम है उसमें ये केंद्र चला। दो बरसों का कोर्स था जो खत्म होते होते चार बरसों का हो गया। एक ही बैच चल पाया। फिर ये कोर्स बंद हो गया। पता नहीं अल्काज़ी की क्या मजबूरियां थीं। आज के कुछेक चर्चित रंगकर्मी—लोकेश जैन, फिल्मों में गए सुशांत सिंह, मोलिना सिंह (जिन्होने बाद में सुशांत से शादी की), वाणी त्रिपाठी टिक्कू इस लिविंग थिएटर का हिस्सा थीं। और भी कई लोग थे।

मुझे याद है जब मैं अल्काज़ी से साक्षात्का र के लिए पहुंचा था तो वेपहले से तैयार बैठे थे। समय मैंने फोन पर ही लिया था। याद दिलाया था कि जव वे रानावि  रंगमंडल के लिए तीन नाटक करने आए थे तो उनसे बात की थी। उनको याद भी था। वे पूरी तैयारी के साथ बैठे थे ऑडिटोरियम में। यानी और कोई काम नहीं कर रहे थे। कुछ किताबें जरूर उनके पास थीं। बगल की कुर्सी पर रखी गईं। मैंने भीतर प्रवेश किया तो `हलो मिस्टर त्रिपाठी ’ कहा। हालांकि बैठे बैठे। वैसे भी उनसे आधी से कम उम्र का था तो इससे ज्यादा सम्मान क्या देते! बहरहाल बात शुरू हुई तो लंबी चली। मैंने कई सवाल पूछे। एक तो उन दिनों दिल्ली में आमिर रजा हुसैन के `रामायण' नाटक की बहुत चर्चा थी। हजार हजार रूपए के टिकट बिके थे उसके। नई दिल्ली के इलाके में खुले में रेलगाड़ी जैसा मंच बनाया गया था जिस पर `अयोध्या से लंका’ तक लगभग तीन चार सौ गज तक की रेलगाड़ी चली थी। एक भव्य प्रदर्शन था जिसकी अंग्रेजी मीडिया में काफी चर्चा थी। तब रजा हुसैन ने नाट्य आलोचक कविता नागपाल से भी कुछ बदजुबानी की थी। उसकी भी चर्चा हुई थी।

मैंने अल्काज़ी से पूछा था कि इस `रामायण’ के बारे मे क्या सोचते हैं? उऩके जवाब का लब्बोलुबाब ये था कि
ये तमाशा है और ऐसे चीजें होती रहती हैं,लेकिन ये संजीदा थिएटर नहीं है क्योंकि इसमें मानवीय भावनाएं नहीं सिर्फ चमक दमक होती है।
उनका कहा सही निकला क्योंकि आज उस प्रस्तुति को कोई याद नहीं करता। आमिर रजा हुसैन भी आज कहां हैं ये किसी को नहीं नहीं मालूम।

रंगमंच के हर पहलू के बारे में ...
लिविंग थिएटर में भी प्रशिक्षण का तरीका, या ये कहें कि उसका मैनुअल भी, लगभग वैसा ही था जैसा कि अल्काज़ी ने रानावि  के लिए बनाया था। चाहे कोई अभिनेता बनने का प्रशिक्षण ले रहा हो या निर्देशन का, उससे ये अपेक्षा की जाती थी कि रंगमंच के हर पहलू के बारे में समझ रखे। लोकेश जैन ने बताया कि शो आरंभ होने के पहले सभी प्रशिक्षुओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे ऑडिटोरियम की हर कुर्सी पर बैठ कर जांच कर लें कि किसी पर बैठने से `चर्र’ जैसी कोई आवाज तो नहीं आ रही है, हर दरवाजे की जांच कर लें कि उनके खुलने या बंद होने वक्त कोई अवरोध तो नहीं है वरना बीच नाटक में दर्शकों का ध्यान भंग होगा और नाटक के आस्वाद में फर्क पड़ेगा। उन्होंने प्रशिक्षु रंगकर्मियों के लिए खास ढंग से जूते बनवाए थे जिससे मंच पर रिहर्सल में पांव मोड़ने के क्रम में झटका न लगे। ये जूते शादीपुर के किसी कारीगर से बनवाए गए थे। ये रानावि  के बाद अल्काज़ी का दूसरा प्रशिक्षण प्रयोग था। चूंकि इसका एक ही बैच निकला इसलिए इसकी सीमित सफलता ही रही फिर भी वो रही।

अल्काज़ी के लिए सही उपमा क्या है? 
मैं ये कहूंगा कि वे भारतीय रंगमंच के एक अश्वत्थ वृक्ष थे। जैसा कि भारतीय परंपरा से परिचित लोग जानते हैं, अश्वत्थ वो वृक्ष है जिसकी शाखाएं भी जड़ बनती जाती हैं और उसमें से फिर से शाखाएं निकलती हैं। ये सिलसिला चलता रहता है। यानी अश्वत्थ एक नहीं कई वृक्षों का मिला जुला रूप है। वो समुच्चय वृक्ष है।

उनको अश्वत्थ वृक्ष कहने का क्या तात्पर्य है? 
वो ये है कि उनके कई शिष्य आज भारतीय रंगमंच में वटवृक्ष की तरह हो गए हैं। वे उनके विस्तार भी हैं और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भी। बव कारंत, मोहन महर्षि, राम गोपाल बजाज, भानु भारती, बंसी कौल, प्रसन्ना, रंजीत कपूर, जैसे कई निर्देशकों के नाम लिए जा सकते हैं जो अल्काज़ी के शिष्य रहे। अभिनेताओं में ओम शिवपुरी, ओम पुरी, राज बब्बर, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, अनू कपूर, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर, मनोहर सिंह, नीना गुप्ता जैसे और भी नाम हैं जिन्होंने रंगमंच से लेकर फिल्मो में भी बुलंदी पाई । क्या भारतीय रंगमंच के परिदृश्य में ये और ऐसे अन्य नाम जिस मुकाम पर पहुंचे क्या वहां पहुंच पाते अगर वे अल्काज़ी से प्रशिक्षित न होते?

इस सवाल के जवाब में कुछ ना–नुकुर हो सकते हैं। लेकिन उस हर शख्स से इस प्रश्न को पूछिए जो अल्काज़ी का विद्यार्थी रहा हो, तो जवाब यही मिलेगा कि वे एक बेजोड़े शिक्षक और प्रशिक्षक थे और अपने विद्यार्थियों के अंदर उन्होंने ऐसे नाट्य संस्कार डाले, ऐसी बारीकियां और विशेषज्ञताएं विकसित कीं जो जिनके कारण वे ऊंचाई पर पहुंचे थे। हालांकि कुछ ऐसे भी हुए जिनके भीतर वे इस तरह के संस्कार डालने मे असफल रहे और जिनकी वजह से उनको यानी अल्काज़ी को सिर्फ बावन साल की उम्र में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय छोड़ना पड़ा। नाटक वे कुछेक अंतराल के बाद भी यदा कदा करते रहे मगर 1977 में रानावि  छोड़ने के बाद उनके अंतर्मन में बहुत कुछ टूटफूट गया था। इसके बारे में भी कई किस्से हैं।

अल्काज़ी के रानावि का निदेशक पद छोड़ने की भी एक दिलचस्प कहानी है।
1977 में केंद्र में जनता सरकार बनने के बाद रानावि  के भीतर एक राजनैतिक माहौल बनने लगा था। अल्काज़ी के कुछ सहयोगी और कुछ बाहर के रंगकर्मी भी ऐसा माहौल बनाने में लगे कि रानावि   में निदेशक बदला जाए। स्टूडेंट एक्शन कमिटी के नाम से पहले एक पर्चा वितरित किया गया जिसमें मांग की गई थी कि अल्काज़ी निदेशक पद से हट जाएं। ये पर्चा जब अल्काज़ी के पास पहुंचा तो उन्होंने रानावि  के छात्रों की एक बैठक कैंपस में बुलाई जो बेसमेंट में हुई। बेसमेंट में आज उस जगह रानावि  की टीआईकंपनी स्थित है। बैठक में अल्काज़ी ने छात्रों से पूछा कि कौन कौन हैं जो चाहते हैं कि मैं निर्देशक पद छोड़ दूं। सबसे पहले वो शख्स उठा जो एक सत्र मे फेल हो गया था और उसके पीछे तीन और लोग उठे। हालांकि ज्यादातर छात्र अल्काज़ी के साथ ही थे लेकिन उनका मूड उखड़ गया था। उनको शायद इसका धक्का लगा कि उनके छात्र ही उनके खिलाफ हो गए हैं। शायद उनको भान भी होगा कि रानावि  के अध्यापकों में भी कुछ इन सबके पीछे हैं। छात्र तो सिर्फ मोहरे बने थे। यही कारण रहा होगा कि वे फटाफट अपने ऑफिस में गए और निदेशक पद से इस्तीफा लिख मारा। फिर अपने घर चले गए। चाहते तो कुछ दिनों की छुट्टी ले सकते थे। किंतु ऐसा नहीं किया। पूरा घटनाक्रम एक नाटक की तरह था। वैसे कहा जा सकता है कि किसी नाट्य संस्थान के निदेशक की विदाई नाटकीय नहीं होगी तो और क्या होगी?

हालांकि वे फिर से नाटक का निर्देशन करने नाट्य रानावि  में आए। दो बार। एक बार 1982 में। दूसरी बार, जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है 1991 में। 1982 में क्यों आए, इसकी भी एक अलग कहानी है।

1980 के बाद फिर सें केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार बनने के बाद विदशों में `फेस्टिवल ऑफ इंडिया’ होने लगे थे। इसी सिलसिले में गिरीश कारनाड के नाटक `तुगलक’ विदेश जाना था। प्रसन्ना के निर्देशन में रानावि  में `तुगलक’ की नई प्रस्तुति हो भी चुकी थी। चर्चा थी कि प्रसन्ना वाली प्रस्तुति ही विदेश जाएगी। पर इस बार भी राजनीति हो गई। राजनीति के खेल में तय हुआ कि प्रसन्ना वाला `तुग़लक’ नहीं जाएगा। इसलिए अल्काज़ी को फिर से इस नाटक को करने के लिए बुलाया गया।

अल्काज़ी और `तुगलक़’ और ओम शिवपुरी 
अल्काज़ी और `तुगलक़’ को लेकर कुछ आम गलतफहमियां हैं। कई लोग मानते हैं गिरीश कार्नाड का ये नाटक हिंदी में सबसे पहले अल्काज़ीं ने निर्देशित किया। सच्चाई ये है कि ये नाटक हिंदी में सबसे पहले ओम शिवपुरी ने निर्देशित किया था। रानावि   के लिए ही। उस समय रानावि  के रंगमंडल की प्रस्तुतियों में विद्यार्थी भी भाग लेते थे क्योंकि रंगमंडल में छह-सात कलाकार ही होते थे और ज्यादा चरित्रों वाले नाटक उतने कम अभिनेताओं में हो नहीं सकते थे। शिवपुरी भी अल्काज़ी के विद्यार्थी थे और उनकी सहमति से ही उन्होंने `तुग़लक’ निर्देशित किया था। 1966 में। इसमें अल्काज़ी ने सेट डिजाइन किया था और उनकी पत्नी रोशन अल्काज़ी ने कॉस्ट्यूम डिजाइन। नाटक सफल हुआ और शिवपुरी रातो रात, बतौर एक निर्देशक, स्टार बन गए। रानावि  से हटने के बाद शिवपुरी ने `दिशांतर’ नाट्य संस्था बनाई। इस संस्था के बैनर तले भी शिवपुरी का `तुगलक़’ होता रहा। लगभग छह साल तक। शिवपुरी खुद इसमें तुगलक की भूमिका करते थे। इस दौरान अल्काज़ी और शिवपुरी से संबंध सामान्य बने रहे हालांकि एक हल्की-सी प्रतिद्वंदिता भी उभर गई थी। अंदर अंदर काफी कुछ खदबदा रहा था।

बहरहाल ये प्रतिद्वंदिता आगे चलकर स्वस्थ नहीं रह सकी। 1972 में अल्काज़ी ने खुद `तुगलक़’ करने का फैसला किया। रानावि  के लिए। हालांकि इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन प्रदर्शन की जो तारीख घोषित हुई उसनें अल्काज़ी और शिवपुरी के बीच खटास पैदा कर दी। जिस दिन शिवपुरी आईफैक्स के ऑटोरियम में अपना शो करनेवाले थे उसी दिन अल्काज़ी के निर्देशन में भी `तुगलक’ के शो की घोषणा हो गई। ये शो रवीन्द्र भवन में ही खुले में था जिसे अल्काज़ी ने बाद में `मेघदूत मंच’ नाम दिया था। दोनों प्रदर्शन एक ही दिन और एक ही समय। बात सिर्फ यहीं तक नहीं रूकी। अल्काज़ी ने शिवपुरी को लिख दिया कि वे (शिवपुरी) न उनके यानी अल्काज़ी के बनाए सेट का अपने नाटक में इस्तेमाल करेंगे और न रोशन अल्काज़ी के बनाए कॉस्ट्यूम का। समय बहुत कम था इसलिए शिवपुरी को जोर का धक्का लगा। हालांकि दोनों शो हुए। लेकिन शिवपुरी का वो वाला शो सफल नहीं रहा क्योंकि आनन फानन में सेट ऑर कॉस्ट्यूम बदलने पड़े। कहा जाता है कि शो के बाद शिवपुरी बीमार भी पड़ गए थे। अल्काज़ी और `दिशांतर’ के बीच दूरी बढ़ गई थी।

अल्काज़ी द्वारा निर्देशित ये `तुगलक़‘आगे भी प्रदर्शित होता रहा। उनके राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से चले जाने के बाद भी। जब अल्काज़ी दूसरी बार यानी 1982 में इसके निर्देशन के लिए आए तो उनके आने के पहले तत्कालीन रंगमंडल प्रमुख मनोहर सिंह कुछ दिन उसी `तुगलक’ का रिहर्सल करवाते रहे जो `चचा’(अल्काज़ी को उनके प्रिय विद्यार्थी चचा कहते थे) ने पहले निर्देशित किया था। उनके दिमाग में शायद ये रहा होगा कि पुरानी ही प्रस्तुति कुछ फेरबदल के साथ विदेश जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। रानावि  के पुराने स्नातक और उस समय नाटक के एक कलाकार बीएस पाटिल ने एक किस्सा सुनाया था जो दिलचस्प है।
अल्काज़ी ने पहले ही दिन रिहर्सल शुरू होने के कुछ देर बाद कहा `मनोहर, ये क्या करा रहे हो। क्या हम पुराने नाटक को ही बाहर भेजेंगे?’ रिहर्सल रोक दिया गया और फिर से नाटक की ब्लाकिंग शुरू हुई। इस बार अल्काज़ी ने तुगलक के चरित्र की व्याख्या भी बदल दी। जब उन्होंने पहली बार ये नाटक किया था तो, जैसा पाटिल का कहना है, तो तुगलक एक क्रूर बादशाह की तरह था। लेकिन जब उन्होंने दूसरी बार किया तो वो उस आधुनिक व्यक्ति की तरह था जो कई वजहों से भ्रमित रहता है। यानी उन्होंनें `तुगलक’ नाटक की नई व्याख्या की।

हिंदी रंगमंच को आधुनिक बनाया
अल्काज़ी ने भारतीय रंगमंच, खासकर हिंदी रंगमंच को आधुनिक बनाया ये तो कई लोग कहते हैं और आगे भी कहते रहेंगे। ये मोटे तौर पर सच भी है। लेकिन उन्होंने ऐसा किस तरह से किया ये आज बहुत कम लोग जानते हैं।

वो तरीका था रंगमंच को एक जीवन पद्धति की तरह देखने का, जिसके लिए अनुशासन जरूरी है। अनुशासन में दोनों चीजें हैं- आत्मानुशासन और कला अनुशासन। आत्मानुशासन का अभिप्राय ये है कि रंगकर्मी या अभिनेता अपनी रोजाना की जीवन शैली को इस तरह ढाले कि उसका व्यक्तित्व संपूर्णता में निर्मित हो। यानी `सुबह कितने बजे जागना है’ से लेकर `नाश्ता कैसे और कब करें’, `किस तरह के कपड़े पहने’, `अभिनेता की दाढ़ी बिना मतलब के बढ़ी न हो’ अर्थात अगर उसे क्लीन शेव्ड होना चाहिए अगर उसे किसी भूमिका के लिए दाढ़ी बढ़ानी न हो तो, `शरीर में सौष्ठव हमेशा रहे’, `क्लास रूम में वो किस तरह प्रवेश करे’, `डाइनिंग टेबल के मैनर्स उसके पास होने चाहिए’ इस तरह के मैनुअल उन्होंने तैयार किए। अपने निर्देशन काल में छात्रों को बढ़ईगिरी, पेंटिग आदि सीखने पर भी बल दिया। इसी प्रकार की और कई विद्याएं हैं जिसे हर रंगकर्मी को अपने भीतर विकसित करनी चाहिए - ऐसा उनका मानना था। इसके बाद आता था कला पक्ष यानी अभिनेता को अपने स्पीच पर कैसे काम करना चाहिए, संवाद को कैसे समझना चाहिए, जो निर्देशक बनना चाहते हैं उन्हें कैसे नाट्यलेख की व्याख्या करनी चाहिए। वगैरह वगैरह। ये दोनों तरह के अनुशासन रानावि  के छात्रों में विकसित होते रहे। खासकर जबतक अल्काज़ी वहां बतौर निदेशक रहे तब तक।

ये तो सिर्फ एक दृष्टांत है जिससे पता चलता है कि अल्काज़ी किस तरह के निर्देशक थे। कइयों के पास ऐसी और भी यादें हैं।

आधुनिक कला के क्रम में किसी एक को छोड़कर दूसरे को वरीयता नहीं दी जानी चाहिए
अल्काज़ी पर अंग्रेज़ीदां होने का आरोप लगा। आज भी लगता है। उनके निधन के बाद कुछ लोगों ने इस तरह के आरोप फिर दुहराए। कई बार उनकी तुलना हबीब तनवीर से की गई और कहा गया कि जिस तरह का रंगमंच हबीब साहब ने किया वो भारतीय रंगमंच का असली मॉडल है। इसमें संदेह नहीं कि हबीब साहब ने अपने ढंग से भारतीय और हिंदी रंगमंच आधुनिक समृद्ध बनाया। उनके यहां लोक और आधुनिक का द्ववंद्व मिट जाता है। पर ये भी समझना चाहिए कि एक ही वक्त में कई तरह की कलाएं और साहित्यिक लेखन होते हैं। सब एक जैसे नहीं होते। प्रेमचंद और जय शंकर प्रसाद एक ही समय में, एक ही शहर बनारस (आज के वाराणसी) में हुए पर दोनों के लेखन की प्रकृति भिन्न थी। चित्रकारों में भी मकबूल फिदा हुसेन और फ्रांसिस न्यूटन सूजा भी समकालीन थे। मगर दोनों के मिजाज अलग। लेकिन आधुनिक कला के क्रम में किसी एक को छोड़कर दूसरे को वरीयता नहीं दी जानी चाहिए। इसलिए अल्काज़ी, हबीब तनवीर और बव कारंत भी, एक दूसरे के अलग प्रकृति के होते भी आधुनिक भारतीय रंगमंच की ही अभिव्यक्तियां थे। या बादल सरकार भी। आज का भारतीय (और हिंदी ) जिन दिशाओं में आगे बढ़ रहा है उनमें नए तत्व जुड़ गए हैं जो इन तीनो-चारों यानी अल्काज़ी, हबीव, कांरत और बादल से अलग हैं)। पर इससे इन चारों की अहमियत कम नहीं होतीं। और न नया अप्रामाणिक हो जाता है। कला में हमेशा बहुलता होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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