श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ: वंदना राग - 'विरासत' Best Hindi Kahani Books


कितना आसान होता है - किसी कहानी को दौड़ते-हुए पढ़ जाना और फिर उसे खारिज़ या बहुत-अच्छी-कहानी कह देना. वादा कीजिये - कहानी को भागते-भूगते नहीं पढ़ेंगे - मुझसे नहीं, अपने आपसे, या फिर न पढ़िये कहानी - कोई जोरज़बरदस्ती तो है नहीं और न ही ये उसे आपके दसवीं के इम्तिहान में आना है. कहानी पढ़ने से पहले - खुद को हर बार - एक दफ़ा याद दिला देना ज़रूरी होता है कि कहानी कला है, कहानी संस्कृति है - ताकी दिल का कला के प्रति सम्मान जागृत हो सके और आप भोजन-को-स्वादहीन-बताने-वाले पति की तरह नहीं शेफ़ की तरह व्यंजन को देखें.

वंदना राग की 'विरासत' ईद की सेवई है, तमाम चीज़ें जो तब ही नज़र आती हैं जब हम आहिस्ता और गौर से देखें. 'विरासत' आज़ाद हिंदुस्तान के उस पिता-पुत्र-और-परिवार की कहानी है जिसमें पिता, देश में वो सब होते हुए देख रहा होता है - जो आज़ाद-हिंदुस्तान की परिकल्पना में शामिल नहीं था. पिता चाहता है कि ऐसा न हो क्योंकि उसे 'पता' है कि इसका नतीजा क्या होगा... नतीजा जो अब हमारे सामने है, जो एक भंवर है जिसमे हम खुद को फँसा पाते हैं - पिता की वो सारी बातें जो बेटे-को, हमको, देश-को पता होनी चाहियें - उन्हें वंदना राग ने 'विरासत' में लिख दिया है... ... मुझे याद है कोई छः महीने पहले मैं ज्ञानपीठ के दफ्तर में लीलाधर मंडलोई के साथ बैठा हुआ था और उनकी मेज पर रखे वंदना राग के कहानी संग्रह 'हिजरत से पहले' के पन्ने को पलटते हुए, इस कहानी के २ पन्नों को पढ़ा था, जिसमें .... पढ़ने के साथ ही - मुझे याद आ गया कि 'कला' से रूबरू हो रहा हूँ और यहाँ बैठ कर इसे पढ़ना कला के साथ न्याय नहीं कर पायेगा... संग्रह मेरे पास था नहीं  (अभी भी नहीं है) कहानी पढ़नी थी, ऐसे में आमोद, राजकमल प्रकाशन को तकलीफ़ दी - कि भाई कहानी मेल कीजिये... मेल आयी तो उसमे एक बोनस कहानी साथ में और थी - 'विरासत' पढ़ने की साइत अभी नहीं निकली थी - लिहाज़ा तब 'मोनिका फिर याद आई' पढ़ी शायद आपने भी पढ़ी हो (शब्दांकन पर है - ये रहा < लिंक > बाद में पढियेगा). और अब कल फाइनली इसे पढ़ना शुरू किया .... ख़रामा-ख़रामा - इंच बाई इंच - पूरा स्वाद, पूरा संगीत, पूरी कला का आनंद उठाते हुए... ज़री का काम है इस कहानी में ... खुद ही देखिये...  माँ-बेटे के रिश्ते को वंदना की नज़रो से   -

 माँ का जाना, हमारे लिए मृत्यु जैसे दुख से पहले पहल व़ाबस्ता होना भी था। इससे पहले हमने किसी को मरा हुआ नहीं जाना था। माँ के जाने के बाद घर में पैदा हुई ख़ाली जगहें हमें बेतरह डराने लगी थीं। इसलिए घर में जहाँ-जहाँ माँ रहा करती थी, उन जगहों को हमने अलमारी, कुर्सी और सुन्दर लैम्पों से ढँक दिया था

और यह देखिये बहु और सास  का रिश्ता (सास-बहू वाला नहीं) ...

माँ के पास एक ज़माने में ढेर सारी महँगी साड़ियाँ थीं, लेकिन पिता के रिटायरमेंट के बाद वह उन्हें विशेष अवसरों पर ही पहनती थी। माँ के जाने के बाद मेरी पत्नी ने उनमें से कुछ साड़ियों को अपने लिए रख लिया। लेकिन पत्नी ने उन साड़ियों को कभी पहना नहीं। मैं सोचता हूँ, शायद माँ की याद के दुख से बचने के लिए उसने उन साड़ियों को नहीं पहना।

या फिर ये ... जहाँ बेटी (जिसकी शादी हो गयी है )

छोटी का जीवन पिता की नातिन और दामाद के आस-पास फैल गया था। उसने पिता के पास से अपनी चीज़ें समेट ली थीं। इसीलिए वह समझ ही नहीं पाई पिता किन चीज़ों के खोने का शोक कर रहे हैं। वैसे यह समझना किसी के लिए आसान कहाँ था! 

मुबारक हो आपको अब पढ़िए  'विरासत' लेकिन तब ही जब सच-में पढ़ने का वक़्त हो... क्योंकि लेखिका यहाँ पोर्न साहित्य नहीं परोस रही  है.

भरत तिवारी
२१ दिसम्बर २०१५

वंदना राग - 'विरासत' श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ #शब्दांकन

विरासत 

~ वंदना राग

गो न समझूँ उसकी बातें गो न पाऊँ उसका भेद

—ग़ालिब



आज फिर पिता, पिता की तरह नहीं, छाया की शक्ल में दोपहर के सपने में सरपट, किसी लम्बे सफ़र पर जाने को आतुर से गुज़र गए। जब तक उन्हें ठीक से देख पाता, चारों ओर गुच्छा-गुच्छा कुहासा हव़ा में झूल गया। हव़ा भारी हो गई और अँधेरा छा गया।

बड़े लोग छोटे कैसे हो जाते हैं? बड़े लोगों को कोई छोटा बनाना चाहता ही क्यों है? बड़े लोग, जैसे—बड़े कलाकार, फनकार। शोहरत व़ाले बड़े लोग, राज्यों व़ाले बड़े लोग...! बड़े लोग, जैसे—व़ाजिद अली शाह...लखनऊ का बादशाह! अंग्रेज़ों ने कैसे उसे बेदख़ल कर लखनऊ से बाहर खदेड़ दिया! बड़ा आदमी था वह। फिर भी? कहते हैं, जब जा रहा था, कह रहा था, ''जब छोड़ चले लखनऊ नगरी, पूछो न हमपे क्या गुज़री?’’

बड़े लोग, जैसे पिता।

मेरे पिता।

मैं दोपहर में कभी नहीं सो पाता हूँ। सि़र्फ इतव़ार का दिन ही वह दिन होता है, जब मैं दोपहर में दो घड़ी आराम करता हूँ। आज वह भी सम्भव नहीं लग रहा है। दीपावली आ रही है, घर की साफ़-स़फाई मुझे ही करनी है। मुझे ही फिर जुटना होगा...! दिल्ली में तो आजकल फेस्टीवल प्लानर्स मिलते हैं। बड़े लोग अपने घर की साफ़-स़फाई, डेकोरेशन और पार्टी का इन्तज़ाम उन्हें ही दे देते हैं।

मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ।

घर साफ़ करने की क्षुद्र बात मन में लाने के बाद, मैं फिर पिता पर लौटकर आता हूँ। याद आता है, जब हम लखनऊ में रहा करते थे, तो कितने ठाठ थे हमारे। तब जब हमारा बचपन था। तब जब पिता एक बड़े रुआबदार पद पर बैठा करते थे। तब जब, यूँ ही तफ़रीह के लिए हम भाई-बहन, पिता के द़फ्तर तक टहलते हुए चले जाया करते थे। पिता का द़फ्तर घर से बहुत दूर नहीं था। हम सँभलकर फुटपाथ पर चला करते थे, छोटी का हाथ थामे। वह भी बहुत सँभलकर छोटे क़दमों से फुटपाथ नापती जाती थी और गिनती जाती थी।

एक-दो-तीन।

हम दुलार से छोटी को कभी-कभी अपनी हथेलियों की मदद से थामे हुए, हव़ा में उछाल देते थे। वह ख़ुश होकर कहती थी—पचास—और हम पिता के द़फ्तर के पास होते थे। इतना ही नज़दीक था, पिता का द़फ्तर। सचमुच इतना कि उस फुटपाथ पर अन्य चलनेव़ाले लोगों की नज़र से भी ओझल ही रहते थे हम। कोई नहीं कहता था—देखो तीन छोटे बच्चे अकेले ही फुटपाथ पर कहीं जाने को निकल पड़े हैं।

पिता के आलीशान कमरे में पहुँच हम आलीशान हँसी के साथ कहते थे—

''हम थम्सअप पिएँगे।’’

उस समय कोक और पेप्सी इस देश में आकर पूरी तरह छाए नहीं थे और बड़े लोग और उनके बच्चे, जिनकी संख्या कम थी, थम्सअप ही पीते थे। छोटी कभी थम्सअप पूरा नहीं पी पाती थी। दो घूँट पीने के बाद वह बोतल मुझे पकड़ा देती थी और मैं गटगट पीते हुए बड़े और समर्थ भाई होने का फ़र्ज़ निभाता था। पिता हँसते थे, धीरे-धीरे एक निडर ऊँची हँसी। अपने क़द से बहुत ऊँची हँसी। पिता का क़द छोटा था, लेकिन उनके उच्च अधिकारी उनका बहुत आदर करते थे और कहते थे—पिता तो नेपोलियन हैं।

पहली बार हमारे सामने पिता को नेपोलियन कहे जाने पर छोटी सहमकर चुप हो गई थी। बाद में रुआँसी होकर बोली थी।

''पिता तो पिताजी हैं, नेपोलियन नहीं।’’

छोटे भाई ने उसके अबोध ज्ञान पर, उसकी चोटी खींचते हुए कहा था—

''पगली, अंकल ने तो पिता को नेपोलियन जैसा कहा था, नेपोलियन नहीं और नेपोलियन तो फ्रांस का सम्राट था, बहादुर—इतिहास में नाम था उसका।’’

छोटे भाई और बहन की उम्र में कम फ़ासला था। छोटा भाई, बहन को अक्सर ही चिढ़ाया करता था, जैसे बहुत प्यार करनेव़ाले भाई अपनी बहनों को चिढ़ाया करते हैं। मैं दोनों से बड़ा होने के नाते दोनों के बीच सुलह करव़ाया करता था। बहन छोटे भाई के समझाने पर भी नहीं मानी थी, वह देर तक कहती रही थी—

''पिता, सि़र्फ पिता हैं, सम्राट-वम्राट नहीं।’’

मैं उस दिन देर तक अपने दो मंज़िले, आलीशान घर की छत पर अकेला बैठा सोचता रहा था—पिता को मैं कैसे अधिक पसन्द कर पाऊँगा, सि़र्फ पिता की तरह या सम्राट जैसे पिता की तरह!

दिल्ली का यह फ़्लैट जिसमें आज हम रहते हैं, दो बेडरूम और एक ड्राइंग रूम का है। तीन-चार वर्ष पहले की ही तो बात है, जब एक सुबह मैं नहाकर, अपनी कमीज़ के बटन दुरुस्त करता हुआ ऑफ़िस जाने की जल्दी में था, तभी मैंने पिता को पहली बार बहुत ज़ोर से चिल्लाते हुए सुना था। मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा गया था। क्या हो गया पिता को?

पिता कह रहे थे—

''मोहन अडव़ाणी, तुम अपने आपको समझते क्या हो? तुम्हें मैं बार-बार फ़ोन लगाता हूँ और तुम लगातार व्यस्त होने का ढोंग करते हो? मेरी रक़म लौटाते क्यों नहीं?’’

मोहन अडव़ाणी के नाम से मैं परिचित था, लेकिन इससे पहले पिता कभी भी उसके नाम को लेकर चिल्लाए नहीं थे। इससे पहले वे कितनी ही बार मोहन अडव़ाणी की चर्चा मुझसे कर चुके थे। कैसे नौकरी के दिनों के समय से मोहन अडव़ाणी की कम्पनी पिता की कंसलटेंसी की फीस के रुपए दबाए बैठी थी। कैसे रिटायरमेंट के कई वर्षों बाद तक पिता पैसा माँगना टालते रहे थे लेकिन आज परिस्थितियाँ बदली हुई थीं और क्या एक इज़्ज़दार आदमी को किसी दूसरे आदमी का पैसा रोकना शोभता है? यह तो नीति के खि़लाफ़ बात हुई। 'नीति’ बोलते वक्‍़त वह मेरी पत्नी और मुझे 'तुम लोग क्या समझोगे’ व़ाली निगाहों से देखने लगते थे। पिता ने इस तरह कई बार मोहन अडव़ाणी की इस बात को सुनाने के बाद और मेरे से अपने मन लायक जव़ाब न पाने के बाद कहा था कि अब वे मानेंगे नहीं, अब वे बेधड़क होकर मोहन अडव़ाणी से पैसे माँग लेंगे। पिता की इस बात को भूल वश मैंने धमकी की तरह नहीं लिया। मुझे यह भी नहीं लगा कि पिता अपना शील-संकोच त्याग देंगे और एक बड़ी कम्पनी के बड़े चेयरमैन से अपनी बारह साल पहले की बकाया रक़म इस अन्दाज़ में माँग बैठेंगे। मैंने नहीं सोचा था—'मोहन अडव़ाणी...ऽऽऽ’ वही मोहन अडव़ाणी, जो कल तक सिर झुकाकर पिता को सर-सर कहते नहीं थकता था, आज पिता को इतने दयनीय दृश्य में क़ैद कर लेगा कि मैं उससे आजीवन घृणा करता रहूँगा।

पिता फ़ोन पर बात करते वक्‍़त जो खड़े हुए थे, ठीक वैसे ही अब तक खड़े थे और हाँफ रहे थे। मैंने और पत्नी ने मिलकर उन्हें सो़फे पर बिठाया। पत्नी पहले पानी लाई फिर उसने मुलायमियत से पूछा—

''पिताजी, चाय लाऊँ?’’

उन्होंने बिना पत्नी की ओर देखे कहा—

''नहीं।’’

उस दिन की उनकी उस आव़ाज़ को कभी न भूल पानेव़ाली कुछ चीज़ों की तरह मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। वह गला बझी हुई आव़ाज़ थी। वह एक ऐसे योद्धा की आव़ाज़ थी, जो अपनी ग़लती से नहीं हारता। उसके अपनों का छल उसे हरा देता है और वह हतप्रभ रह जाता है, क्योंकि अपनों द्वारा रचाई गई साज़िश की कल्पना तो उसके लिए असम्भव थी।

इस घटना के साथ ही मैं अचानक अपने बचपन के दिनों के शहर लखनऊ पहुँच जाता हूँ और पिता के इर्द-गिर्द के उस आभामडंल को खोजता हूँ। लेकिन फिर मैं जल्द एक ही झटके से दिल्ली लौट आता हूँ। अब मैं उस आभामंडल में प्रवेश कर सुराग करनेव़ाले दुश्मनों को खोजता हूँ। मुझे आश्चर्य होता है, उन दुश्मनों में मोहन अडव़ाणी नहीं हैं। उन दुश्मनों में मोहन अडव़ाणी जैसा एक भी व्यक्ति नहीं है। उन दुश्मनों में मुझे 'सरकार’ नाम की व्यवस्था दाँत चियारे खड़ी नज़र आती है। उसकी संरचना आक्टोपस जैसी है, और उसकी लम्बी शाखाएँ मेरे घर के अन्दर तक घुस आई हैं। हद तो तब होती है, जब मैं अपने आपको उसी सरकार का मुकुट उठाए चलता पाता हँ। पूरी धार्मिक निष्ठा के साथ।

आज जिस फ़्लैट में मैं रह रहा हूँ, वह पिता का ही बनव़ाया हुआ है। बाहरी दरव़ाज़े पर मेरे पिता का नाम ख़ुदा हुआ है। घर की सारी डाक पिता के नाम से ही आती है। फ़्लैट की सीढ़ियाँ उतरने पर लोग मुझे पिता के बेटे के रूप में ही नमस्कार करते हैं। मेरे पिता के नाम की रोशनी, उनके रिटायर होने के इतने वर्षों बाद भी पूरी सोसायटी में जगमगाती रहती है। लेकिन इसके बावजूद मैं अजीब-सी कशमकश में अपने को फँसा हुआ पाता हूँ। जब मैं पिता के लिए इतना कृतज्ञ होकर सोचता हूँ, तो पिता के दुश्मन के रूप में मैं अपने आपको कैसे देख लेता हूँ? और वह भी सरकार से हिला-मिला सा होके?

सच तो यह है कि इस देश के अधिकांश नागरिकों की तरह, सरकार से मेरा नाता, चुनाव के दौरान ही प्रकट होता है और वोट देने के साथ समाप्त हो जाता है। वोट देते वक्‍़त, एक पढ़ी-लिखी इच्छा, मुझे ज़रूर तंग करती है, वह कहती है—सही सरकार का चुनाव करो जो तुम्हारा कुछ भला कर सके। इस देश के भले के बारे में मैं बहुत नहीं सोच पाता हूँ। मैं उन उत्साही लोगों से भिन्न हूँ, जो वोट देने के बाद इस आशा में बैठे रहते हैं कि उनके वोट का सदुपयोग हो और उनकी सरकार बने। वैसे लोग, अपने से भिन्न मत-व़ालों को तुम्हारी सरकार कहकर बातें करते हैं। वे अपनी सरकार को लेकर लगभग कट्टर क़िस्म के हो जाते हैं।

पिता मुझसे अलग हैं। उनकी राजनीति में हमेशा से बहुत रुचि रही है। लेकिन वे भी किसी पार्टी या विचारधारा को लेकर कट्टर क़िस्म के कभी नहीं रहे हैं। इधर के वर्षों में मुझे न जाने क्यों लगने लगा है कि वे अपनी राजनीतिक विचारधारा और पार्टी को लेकर आग्रही होते जा रहे हैं। वे खुलकर ऐसा कुछ कहते नहीं, इशारा भर कर देते हैं।

मेरे दिमाग़ में पिछले लोकसभा चुनाव की बात कौंधने लगती है। पिता को अपने बजाज स्कूटर पर बिठाकर मैं वोट दिलव़ाने ले गया था। पिता को स्कूटर पर बैठने में दि़क्क़त होती थी। वे जीवन भर कार में चले थे। मुझे याद है, बचपन के दिनों में हमारे पास एक नीले रंग की फियेट कार हुआ करती थी। उससे जब हम स्कूल जाया करते थे तो स्कूल व़ालों पर बहुत भारी प्रभाव पड़ता था। मेरे दोस्त, अपने माँ-बाप को मेरे बारे में शान से बताते थे—

''हमारा दोस्त गाड़ी से स्कूल आता है।’’

उस समय कम लोगों के पास कार होती थी और उससे भी कम लोग उसका स्कूल जाने में इस्तेमाल करते थे। मैं जब भी पिता को स्कूटर पर ले जाता था, बहुत धीरे-धीरे स्कूटर चलाता था जिससे पिता को कोई असुविधा न हो। वोट डालनेव़ाले स्थान पर बहुत सारे सोसायटी के परिचित लोग मिल गए। पिता ने उनको नमस्कार किया और वोट डालने चले गए। लौटते वक़्त उनके चेहरे पर कई तरह के रहस्य नाच रहे थे। उन्होंने मुझसे नज़र मिलाने के बाद प्रत्याशियों के प्रचार के लिए लगे ऊँचे पोस्टरों में से एक की ओर देखा। हठात् मेरी नज़र भी उधर चली गई। वह किसी नौजव़ान लड़के का पोस्टर था, जो किसी नई बनी पार्टी से खड़ा हुआ था। उस पार्टी का नारा भी वहाँ छपा हुआ था—

''समय रहते व्यवस्था बदलो।’’

तो क्या पिता ने एक नगण्य पार्टी के छुटभैया समताव़ादी लेकिन अतिव़ादी नेता को अपना वोट दे डाला था और वह यह मुझे जतला देना भी चाह रहे थे? मैं जब तक कुछ समझ पाता, सोसायटी के सारे परिचित हमारे नज़दीक चले आए। वे सब पिता से कहने लगे—

''कैसे हैं?’’

''अब तबीयत कैसी है?’’

''बहुत दिनों से टहलने नहीं आए?’’

''अब पार्क के एक हिस्से में हम योग करते हैं।’’

''कुछ लोग भजन भी गाते हैं।’’

''ये नई गतिविधियाँ हैं।’’

''कल से आइए, आप आएँगे तो हमें अच्छा लगेगा।’’

वे सब हाथ जोड़कर सिर झुकाए, ऐसे बात कर रहे थे जैसे पिता को वे किसी भव्य आयोजन में चीफ़ गेस्ट होने की दावत दे रहे हैं। मैंने देखा पिता वैसे ही भीने-भीने ढंग से मुस्कुराए, जिस ढंग से तब मुस्कुराया करते थे, जब हम लखनऊ के दिनों में उनके द़फ्तर जाया करते थे और वे अपना काम निपटाते हुए, हमारे लिए मुस्कुराहट के क्षण निकाला करते थे। पिता को यूँ देख मैं ख़ुश हो गया और उन्हें स्कूटर पर पीछे बिठाते हुए बहुत उमंग से बोला—''पिताजी, अपनी सुबह की सैर फिर शुरू कीजिए न! लोग आपको कितना पूछते हैं!’’

मैं जानता था, पिता को टहलने के अलाव़ा किसी भी प्रकार की वर्जिश पसन्द नहीं। योग भी नहीं। मैं यह भी जानता था, पिता को पार्क में बैठ भजन गानेव़ाले लाचार और बे-काम के लगते थे। फिर भी बड़े दिनों बाद पिता के होंठों पर पुरानी व़ाली मुस्कुराहट देख मैं बौरा गया था। मैं सड़क पर ध्यान केन्द्रित कर बहुत धीरे-धीरे कंकड़-पत्थर बचाते हुए स्कूटर चला रहा था, जब पिता आदत से अधिक ज़ोर लगाकर बोले—

''अब तुम भी मुझे सरकार की तर्ज़ पर रिटायर करना चाहते हो?’’

यह सुनते ही मेरे हाथ स्कूटर के हैंडल पर अनायास ही कस गए। मैंने ऐसा क्या कह दिया था? मैंने तो पिता को ख़ुश करने के लिए एक बात कही थी। एक सहज बात। लेकिन पिता ने उसे सरकार की मंशा के साथ जोड़कर मुझे वही बना दिया था, जिसका मायावी ढंग से मैं बार-बार मन में चित्रण करता था। मैंने कहीं पढ़ा है कि दुनिया के कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इस पृथ्वी पर घट चुकी, घट रही या भविष्य में घटनेव़ाली सारी बातों की मनुष्य कल्पना कर सकता है। उन्हें लिख सकता है। उनके चित्र बना सकता है। तभी खोजें भी सम्भव हुई हैं।

तो क्या मैं, जो मन में इन मायावी चीज़ों को देखने लगता हूँ उसके पीछे कुछ सच्चाई ही है!

लोकतंत्र में तो सरकार अपने लचीले नियमों से ही चलेगी। सरकार ने किसी बदनीयती से पिता को रिटायर नहीं किया था। पिता की उम्र हो चुकी थी। यह सच है कि पिता ने अपने संस्थान की ख़ूब सेव़ा की। फिर भी उन्हें एक्सटेंशन नहीं मिला। हो सकता है, उस वक़्त सरकार के लिए यह सम्भव नहीं रहा हो। बाद में अख़बारों में पढ़ा, उसी संस्थान ने पिता के साथ रिटायर होनेव़ालों को अपने और साझे संस्थानों में कई उच्च पदों पर नियुक्त किया।

छोटा भाई जो अब मुम्बई में रहता है, कहता है कि पिता को इस बात का सदमा लगा है। छोटी, जो अब आगरा में रहती है, समझदारी से कहती है—भला रिटायरमेंट का भी सदमा हो सकता है? पिताजी के तीन स्वस्थ बच्चे हैं, एक बहू-दामाद हैं, एक पोता और इतनी प्यारी नातिन है (यह बोलते हुए वह अभिमान से अपनी चार वर्ष की बेटी को गोद में दुबका लेती थी)। नातिन की भोली बातों से पत्थर भी हें-हें कर हँस पड़े, फिर पिताजी क्यों नहीं हँस सकते? इतना भरा-पूरा तो जीवन है उनका!

हम आपस में माँ की बातें कम ही करते थे। माँ पिता के रिटायरमेंट और लखनऊ से दिल्ली शिफ्ट होने के बाद पाँच ही वर्ष हमारे साथ गुज़ार पाई थी। माँ का जाना, हमारे लिए मृत्यु जैसे दुख से पहले पहल व़ाबस्ता होना भी था। इससे पहले हमने किसी को मरा हुआ नहीं जाना था। माँ के जाने के बाद घर में पैदा हुई ख़ाली जगहें हमें बेतरह डराने लगी थीं। इसलिए घर में जहाँ-जहाँ माँ रहा करती थी, उन जगहों को हमने अलमारी, कुर्सी और सुन्दर लैम्पों से ढँक दिया था। माँ के जाने के बाद हम पूरा ध्यान पिता पर ही उँड़ेलते थे। फिर पिता क्यों सदमाग्रस्त रहते थे? पिता ने मोहन अडव़ाणी से इस तरह क्यों बात की?

रिटायरमेंट के तुरन्त बाद ऐसा नहीं लगता था कि पिता परेशान हैं। बल्कि उस वक्‍़त तो उन्होंने अपने उन्हीं तीन उच्चाधिकारियों के साथ वित्तीय सलाहकारों की एक कम्पनी बनाने की सोची, जो पिता को कभी फाइटर, कभी उलझनों को सुलझानेव़ाला मास्टर और कभी आदर्श अधिकारी कहा करते थे। इन तीनों अधिकारियों में पिता को नेपोलियन कहनेव़ाले अधिकारी शामिल नहीं थे।

पिता जब नौकरी में थे तो रात दो-दो बजे तक जागकर ऑफ़िस की फाइलें निपटाते रहते थे। फाइल निपटाने के बाद फाइल को वे फ़र्श पर ज़ोर से पटक देते थे। रात को पटकने की यह आव़ाज़ बहुत ऊँची मालूम होती थी। हम भाई-बहन उसे सुन चौंककर उठ जाते थे और फिर पिता की आदत को याद कर हँसते-हँसते सो जाते थे।

रिटायर होने के बाद भी पिता का रात को देर तक जगने का रवैया क़ायम रहा। वे ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे टी.वी. पर बारी-बारी से हिन्दी-अंग्रेजी सभी चैनलों पर समाचार देखा करते थे। रात को देर तक एक बुदबुदाती आव़ाज़ कमरों में फैली रहती थी। मेरी पत्नी को जल्द सोने की आदत थी। उसे जल्दी उठ बेटे को स्कूल भेजना होता था। बहुत सारी तैयारी करनी पड़ती थी। उसे पिता का देर तक जागना अच्छा नहीं लगता था। वह कहती थी—

''इस तरह तो पिताजी की तबीयत ख़राब हो जाएगी।’’

पिता की बनाई कम्पनी की पहली मीटिंग हमारे ही घर हुई। पिता उस दिन कुछ अधिक व्यग्र दिखे। वे बार-बार मेरी पत्नी और बेटे को कहते रहे—

''वे लोग बड़े आदमी हैं, तुम लोग अच्छे से पेश आना।’’

मेरी पत्नी पिता के निर्देशों को सुन तंग हो चुकी थी, लेकिन फिर भी मुस्कुराती जा रही थी। उन दिनों माँ भी हमारे साथ थी। वह भी पिता के साथियों को नमस्कार कर जा चुकी थी। माँ ने ख़ूब महीन और महँगी सूती साड़ी पहन रखी थी। वह बहुत गम्भीर लग रही थी। माँ के पास एक ज़माने में ढेर सारी महँगी साड़ियाँ थीं, लेकिन पिता के रिटायरमेंट के बाद वह उन्हें विशेष अवसरों पर ही पहनती थी। माँ के जाने के बाद मेरी पत्नी ने उनमें से कुछ साड़ियों को अपने लिए रख लिया। लेकिन पत्नी ने उन साड़ियों को कभी पहना नहीं। मैं सोचता हूँ, शायद माँ की याद के दुख से बचने के लिए उसने उन साड़ियों को नहीं पहना।

मेरी पत्नी ने माँ से बहुत सारी बातें सीखीं, उनमें सबसे ज़्यादा पिता का ख़याल रखना है। फिर भी पिता पत्नी की देखभाल से ख़ुश नहीं होते। उनकी इच्छा रहती है कि मेरी पत्नी उनके ब़गल में बैठ उनसे राजनीति पर बातें करे। देश की हालत पर चिन्ता व्यक्त करे। वे टी.वी. पर समाचार देखते-देखते कभी-कभार हव़ा में सव़ाल टाँग देते—बिहार में कभी लैंड रिर्फोम्स होंगे कि नहीं? मेरी पत्नी को बिहार की भूमि व्यवस्था में कोई रुचि नहीं। वह बेचारी तो महानगर दिल्ली की इस फ़्लैट की भूमि व्यवस्था सुधारने में लगी रहती है। पिता अपने सव़ालों का मेरी पत्नी से जव़ाब न पा निराश हो जाते हैं। मगर वे पत्नी को कभी दर्शाते नहीं। वे उसकी पीठ पर हाथ रख कहते हैं—

''बैठ जाओ थोड़ी देर, थक गई होगी।’’

मैं सोचता हूँ, मेरी पत्नी भी ग़ज़ब है। थोड़ी देर बैठकर पिता से देश की हालत पर बात क्यों नहीं कर लेती? लेकिन मैं उससे कुछ नहीं कहता। मैं ही कौन-सा इन सब बातों में रुचि रखता हूँ? फिर भी मैं पिता के पास बैठ जाता हूँ और कहता हूँ—

''पिताजी, बिहार नहीं सुधर सकता, वहाँ जाति-दंश इतना है!’’

पिता सहमत नहीं होते। सच जानते हुए भी सहमत नहीं होते। वे मूलत: बिहार के ही हैं। वहीं पैदा हुए, पले-बढ़े। इस नाते, मेरे मूल में भी बिहार ही है, लेकिन जब मैं जाति व्यवस्था की बात करता हूँ तो पिता मेरी ओर नाराज़गी से देखते हैं, मानो मैं उनका बेटा नहीं कोई और हूँ। मैं कोई ऊँची जातव़ाला हूँ और इसीलिए भूमि सुधार नहीं चाहता। उनके अन्दर ज़रूर ही कोई टेढ़ा विचार कुलबुलाता है, तभी वे हड़बड़ाकर दव़ा की एक गोली खाते हैं और मुझे कहते हैं—

''जाओ, तुम्हें ऑफ़िस के लिए देर हो रही है।’’

हालाँकि, पिता मेरे ऑफ़िस की संरचना और उसके नियम-क़ानूनों से चिढ़ते हैं। कहते हैं, इस तरह के द़फ्तर आदमी का ख़ून चूस लेते हैं, फिर भी वे मुझे नियमों का पालन करने की हिदायत देते हैं। मैं उन क्षणों में याद करता हूँ—कैसे पिता सरकारी द़फ्तर की नौकरी में दस-दस घंटे काम कर लेते थे बिना किसी शिकायत ख़ुशी-ख़ुशी।

ऑफ़िस से जुड़ी बातें, पिता के अन्दर कितना हौसला भरती हैं, यह उनकी बनाई कम्पनी की प्रगति से समझ में आता है। उनका दिमाग़ इतना तेज़ चलता है कि उनके मित्र अपनी सारी कागज़ी ज़िम्मेव़ारी उन पर छोड़ देते हैं। यह नब्बे का दशक है और पिता अपनी कम्पनी द्वारा ग्राहकों को सरकारी संस्थानों में निवेश करने की सलाह देते हैं। दिल्ली में इस बीच कई प्राइवेट और मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अपने पाँव जमा रही हैं। पिता की मर्ज़ी के विरुद्ध मैं उन्हीं में से एक में छोटी नौकरी करता हूँ। पिता उस दौर को सरकार का षड्यंत्रकारी दौर कहते थे। मैं यह सुनकर पिता के अन्दर धीरे-धीरे बढ़ते विरोधाभास से चिढ़ने लगा था। एक तरफ़ कम्पनी बना रहे थे, जो सरकार को फ़ायदा पहुँचाने का काम करे, दूसरी तरफ़ लगातार कहते रहते थे कि ये लोग देश को बेचकर ही दम लेंगे। पिता को किसी भी प्रकार की आक्रामकता पसन्द नहीं थी। फिर पिता ने आक्रामक पार्टी व़ाले प्रत्याशी को क्यों वोट दिया? यह क्या हो रहा था पिता के साथ?

पिता के अन्दर की उथल-पुथल, इस बात को देख बढ़ने लगती है कि उनके पास एक भी क्लाइंट सलाह के लिए नहीं आता। वे अब बार-बार कहते हैं—यह भी कोई बात है? अब सरकार अपना घाटा ख़ुद चाह रही है तो क्या करें! सारे दरव़ाज़े खोलकर बैठ गई है। चोरों को बाइज़्ज़त घर के अन्दर बुला रही है। पिता हमेशा इशारों में बात करते हैं और मेरी ओर इस आशा से देखते रहते हैं कि मैं उनकी बातों को खटाक से जज़्ब कर लूँगा। मैं ऐसा करता भी हूँ, लेकिन उन्हें ज़ाहिर नहीं करता। पता नहीं क्यों हम दोनों एक-दूसरे के सामने खुलना नहीं चाहते। मैं अपने तरीकों से मालूमात करता हूँ और सच जानकर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाती है। मुझे पता लगता है कि पिता तो कबके अपनी कम्पनी से अलग हो चुके हैं। बाक़ी तीनों साथियों का काम फल-फूल रहा है। अब वे सिर्फ़ सरकारी संस्थाओं में पैसा निवेशित करने का काम नहीं करते हैं, अब बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों का कारोबार भी वे देखने लगे हैं। मुझे यह भी पता लगता है कि अब पिता का बैंक बैलेंस कुछ ख़ास नहीं रहा। पिता ने अपने रिटायरमेंट बेनिफिट का पूरा पैसा इस कम्पनी को बनाने में लगा दिया था।

पिता की तबीयत तभी से ज़्यादा ख़राब होने लगी थी। अब वे महीने में तीन हज़ार रुपए की दव़ाइयों पर निर्भर हो गए थे। घर का बजट एकदम से गड़बड़ाने लगा था। हर दिव़ाली की तरह इस बार भी छोटा भाई और बहन हमारे घर आए। उन्हें पिता के व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। पिता उनसे अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहे थे। छोटी को यह देख धक्का लगा। वह अपनी आदत के अनुरूप पूछ बैठी—

''पिताजी का उत्साह कहाँ गया? वे अपनी नातिन को देखकर भी ख़ुश नहीं हो रहे?’’


छोटी का जीवन पिता की नातिन और दामाद के आस-पास फैल गया था। उसने पिता के पास से अपनी चीज़ें समेट ली थीं। इसीलिए वह समझ ही नहीं पाई पिता किन चीज़ों के खोने का शोक कर रहे हैं। वैसे यह समझना किसी के लिए आसान कहाँ था! पिता हर बार छोटी को अपने पास से पैसे देते थे और अपनी नातिन को महँगे चॉकलेट्स। इस बार जब नातिन चॉकलेट के लिए ज़िद कर बैठी, तो पिता ने मेरे बेटे की ओर इशारा कर कहा था—

''ज़िद मत करो, भैया की तरह समझदार बनो।’’

इसके बाद पिता ने मेरी पत्नी की ओर मदद भरी सव़ालिया निगाहों से देखा था। पत्नी ने पूरे दृश्य में अपने उपस्थित न होने के तिलिस्म को रचा और ग़ायब हो गई। छोटे भाई ने माहौल के तनाव को तोड़ते हुए रोती बच्ची को गोद में उठा लिया और खिड़की के बाहर उड़ती चिड़िया दिखला उसे बहला दिया। छोटी रूठ-सी गई थी। उसे लगा पिता के घर में उसका मान कम हो गया है। वह भाई दूज के लिए भी नहीं रुकी। दिव़ाली के अगले ही दिन ताज एक्सप्रेस पकड़ आगरा चली गई।

पत्नी ने अगले दिन मुझे शर्मिन्दगी से भर, पूरा आँखों-देखा हाल सुनाया था—

''यकीन कीजिए, शाम की सब्ज़ी और दूध के लिए रखे गए पैसों के अलाव़ा पैसे नहीं थे मेरे पास।’’

मैं जानता था। मैं सब जानता था। मैं ही तो उसे ख़र्च के लिए पैसे देता था।

आज 2009 में याद करता हूँ तो याद आता है, नब्बे के दशक में मन्दी जैसा शब्द हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता था। लेकिन क्या पिता को कुछ आभास था, ऐसा हो जाएगा जो वे बार-बार इस तरह के इशारे करते थे! पिता समाचार बहुत देखते थे। पिता जानकारी भी बहुत रखते थे। क्या पिता के जन्म के वर्षों में घटी घटना, बाद में उनकी कोर्स बुक में पढ़ाई गई होगी? क्या पिता के पिता ने विश्व की आर्थिक नीतियों और अवस्थाओं के बारे में उन्हें बतौर क़िस्से के रूप में कुछ सुनाया होगा, जिससे पिता के अन्दर मन्दी जैसी विचलन को भाँप लेने का पूर्वाभास विकसित हो गया था। या पिता ने तेज़ दिमाग़ का होने के नाते समझ लिया था कि देश के लिए आगामी वर्ष कैसे होंगे? पिता को देश की बहुत चिन्ता जो रहती थी।

इन्हीं दिनों की बात है, जब दुबारा चुनाव हुए और वोट देकर हम दोनों घर आए। पिता ने पत्नी के कन्धे पर हाथ रख कहा—

''क्यों, किसे वोट दिया?’’

सव़ाल सुन पत्नी के साथ मैं भी चिहुँक गया। पिता तो वोट देने के गोपनीय अधिकार का सम्मान करते थे। फिर आज वे पत्नी से ऐसा सव़ाल क्यों कर रहे थे? क्या देश के लिए ऊँचा सपना देखने के क्रम में वे पत्नी और मुझे अवरोध मान दंडित करना चाह रहे थे?

पत्नी के जव़ाब नहीं देने पर भी पिता की आव़ाज़ नहीं बुझी थी। वे एकदम बुलन्द आव़ाज़ में कहने लगे—

''मैंने तो उसी पार्टी को वोट दिया है, जो कहती है, समय रहते व्यवस्था बदलो।’’

ये पिता का किस तरह का व्यवहार होता जा रहा है? पिता ने उसी छुटभैया नेता को वोट दे डाला और वोट दिया तो दिया, शाम से ऐलान कर हमें क्यों सुना रहे थे? जब तक हम लोग अपने आश्चर्य-लोकों से बाहर आ पाते, पिता ने एक और बात मेरी पत्नी से कही जो इससे पहले कभी नहीं कही थी—

''जानती हो, मैंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया है।’’

मेरे अन्दर यह सुनते ही अजीब-सा व्यंग्य का बगुला फड़फड़ाने लगा। इतने वर्षों में पिता ने यह बात पहले कभी क्यों नहीं कही? पिता ने दरअसल, हमारे जन्मों से पहले के अपने जीवन के बारे में कभी नहीं कहा। हमने भी कभी जानने की कोशिश नहीं की। वैसे 1947 में पिता की उम्र कितनी रही होगी! बमुश्किल पन्द्रह वर्ष। उस उम्र में उन्होंने सपने देखने के अतिरिक्त भी क्या कुछ किया होगा? पिता ने कैसे सपने देखे होंगे उस वक्‍़त?

एक दिन पत्नी ने मुझसे बढ़ती उदासी से कहा था, ''क्या आजकल तुम नियमित रूप से शेयर्स में अपनी तऩख्वाह लगाने लगे हो?’’

''क्यों?’’ बहुत डरते हुए मैंने पूछा।

''मेरे ख़र्चे पूरे नहीं पड़ रहे और तुम कुछ करते भी नहीं। एक बार पिताजी तुम्हारे सम्भावित शेयर्स की बातें छोटे भाई से फ़ोन पर कर रहे थे, जो मैंने सुन लीं, इसी से पूछा।’’

''नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, थोड़ा लोन लिया है, उसी की किस्त चुकाता हूँ। कुछ महीने की बात है, सब पहले जैसा हो जाएगा।’’ मेरी आव़ाज़ फुसफुसी और किसी भी विश्वास से परे थी। पत्नी मुझे गहरी नज़रों से ताकती रही। उन नज़रों में अविश्वास कूट-कूट कर भरा था।

छोटा भाई फ़ोन पर मुझे बताता है कि भैया, पिता तुममें बड़ी सम्भावनाएँ देखते हैं। कहते हैं, अपने बड़े भाई की तरह बनो, कितनी क़िफायत से रहना सीख गया है। मुझसे भी होशियार है। अपना पैसा सही जगहों पर निवेशित कर रहा है। मैं धक से रह जाता हूँ। मेरे चारों ओर कैसा मकड़जाल बुनता जा रहा है और मैं उसे ध्वस्त भी नहीं कर पाता। यह कैसा समय है? छोटे भाई ने आगे और बताया कि वह घर की हालत समझ रहा है, इसलिए उसने पिता से कह दिया है कि वे अब उसे पैसे न भेजा करें। मुम्बई में खाना-कपड़ा सस्ता है, स्टाइपेंड के पैसों से काम चल जाता है।

भाई ने बताया, ''भैया, मैं अब बान्द्रा वाला कमरा छोड़ व़ाशी चला गया हूँ।’’

मैं जानता हूँ, भाई को लोकल ट्रेन से इंस्टीट्यूट पहुँचने में तीन घंटे लगते हैं। वह बहुत थक जाता होगा, लेकिन जब वह होली-दिव़ाली पर घर आता है तो बहुत रौनक़ जमाता है। पिता उसकी ज़िन्दादिली देख कुछ आश्वस्त लगते हैं। कभी-कभी हँस भी देते हैं। मुझे अफ़सोस होता है, मैं क्यों छोटे भाई की तरह नहीं हो पाता? मेरी पत्नी कहती है—

''चार दिन की रौनक़ लगाना आसान है। रोज़-रोज़ एक ही घर में साथ रहने पर तो छिलके उतरने ही लगते हैं। छोटे-से फ़्लैट में कहाँ तक छिपाएँगे, अपने आपको?’’

मैं अपने कमरे में बैठा सुन रहा हूँ, भाई पिता को देश की हालत पर बात करने को उकसाता है। पिता उत्साहित हो कहते हैं—

''कितना चलेगा यह बूम-वूम? नक़ली है, देखना ग़ुब्बारा फूटेगा एक दिन।’’

1997 में पिता ने यह बात कही थी और तब ग़ुब्बारा नीले आसमान में स्वच्छन्दता से उड़ रहा था।

एक दिन पिता ने मुझे अपने पास ज़बर्दस्ती बैठाया और कहा—

''जाओ मोहन अडव़ाणी से मेरे पैसे ले आओ।’’

पिता का हठ एकदम न बहलनेव़ाला लगा। मैं घबरा गया। इसके आगे कि मैं कुछ कहता, वे कहने लगे—

''जानते हो, मोहन अडव़ाणी जहाँ बैठा है, वह कम्पनी जल्द ही मुँह के बल गिरेगी। तुम देख लेना। इस देश का तो ऩक्शा ही गड़बड़ हो गया है। स्वतंत्रता संग्राम के वक्‍़त कुछ और ही सोचा था...देखो, अब क्या हो रहा है?’’

वे मेरी ओर इल्ज़ाम लगानेव़ाली निगाह डालते हैं, मैं भी ग्लानि से भर जाता हूँ। इतना छोटा-सा तो काम है। कर क्यों नहीं देता मैं?

मैं माहौल बदलने के लिए पिता से कहता हूँ, ''पिताजी, चलिए कहीं घूम आते है,’’

वे कहते हैं, ''चलो इंडिया गेट चलो, लेकिन गाड़ी से चलो।’’

उस दिन बड़ी मुश्किल से मैंने पिता द्वारा ख़रीदी हुई, मारुति 800 कार निकाल  स्टार्ट की और उन्हें बिठाकर इंडिया गेट तक ले गया। पिता गाड़ी से उतरे नहीं, बैठे-बैठे (मैंने आश्चर्य से देखा) इंडिया गेट को नमन करने लगे। फिर उन्होंने गाड़ी के माइलोमीटर पर नज़र डाली और कहने लगे—

''अब व़ापिस ले लो, गाड़ी में पेट्रोल कम है।’’

मैंने जव़ाब नहीं दिया, नज़रें चुराता रहा। मेरे व़ालेट में पेट्रोल भरव़ाने के पैसे नहीं थे। पिता ने मेरी चुप्पी देख कहा—

''आजकल पेट्रोल का क्या भाव है?’’

मैं फिर भी चुप बना रहा। पिता को ठीक ही लगा, मैं उनकी अवहेलना कर रहा हूँ।

''हूँह,’’ उन्होंने कड़व़ाहट से कहा, ''मैं 1932 में पैदा हुआ था।’’

मेरा मन क़ैद का पिंजरा हो गया है। वहाँ एक छोटा चूहा रहता है। जी करता है लखनऊ के दिनों की तरह अभी यहीं इंडिया गेट के सामने, पिता की छाती में अपना सर घुसा, सब कुछ स्वीकार कर लूँ। अपनी असफलता और अपनी सम्भ्रान्ति। मैं कहना चाहता हूँ—पिताजी मेरा मार्गदर्शन कीजिए। मुझे रास्ता बताइए। मुझे आपकी ज़रूरत है लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करता और बनावट के चुप रास्तों पर चलते हुए हम घर पहुँच जाते हैं।

उस दिन के बाद से पिता फिर नए तरीक़े से बदल जाते हैं। अब वे समाचार नहीं देखते। अब वे राजनीति पर चर्चा नहीं करते। अब वे स्वतंत्रता संग्राम व़ाले बयाँ को भी कभी नहीं दुहराते। अब चुपचाप हो कुछ सोचते रहते हैं। वे अब अक्सर मुझे, पत्नी और बच्चे को घूम आने की सलाह देते हैं। मैं देखता हूँ, वे अकेले रहना चाह रहे हैं। मुझे लगता है, वे अपने लिए कोई नया स्पेस तैयार कर रहे हैं। मैं दख़ल दे उनके अकेलेपन के सुख को नष्ट नहीं करना चाहता हूँ।

एक दिन ऐसा ही सोचते हुए मैं पत्नी और बच्चे के साथ घूम-घुमाकर घर नियत समय से पहले लौट आता हूँ। घर में घुसते ही आशंका का अन्धकार मुझे दबोच लेता है। मैं चिल्लाता हूँ—

''पिताजी, पिताजी...घर में इतना अँधेरा क्यों है, बत्ती क्यों नहीं जलाई आपने? कहाँ हैं आप?’’

मैं घर की सारी बत्तियाँ जल्दी से जलाता हूँ और उनके कमरे में पहुँचता हूँ। देखता हूँ, पिता अपने बिस्तर पर स़फेद चादर ओढ़े, पूरी तरह सर से पाँव तक ढँके, सिमटे पड़े हैं।

''पिताजी!’’ मैं गला फाड़कर चीख़ता हूँ।

''आ गए तुम? जल्दी आ गए?’’ वे चादर से अपना मुँह बाहर निकालकर कहते हैं। मेरे गले में कुछ फँस रहा है। जी में आता है, उन पर ख़ूब ग़ुस्सा करूँ, और चिल्लाकर कहूँ, जानते हैं कितने भयावह लग रहे थे आप? एकदम स़फेद कफ़न ओढ़ी लाश लग रहे थे! पिता ने मेरी डरी और उत्तेजित मुद्रा देख, समझ तो लिया होगा कि मैं उस वक्‍़त कैसा महसूस कर रहा हूँ, शायद इसी वजह से या फिर इस वजह से कि मैं अनावश्यक बहुत कल्पना करता हूँ, या मैं तो हूँ ही हारी हुई प्रवृत्ति का आदमी और ऐसा ही सोचूँगा, पिता ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि वे बहुत आराम से हैं, उन्हें कोई कष्ट नहीं और उनकी आँख लग गई होगी इसलिए समय का पता ही नहीं चला। वे एकदम संयत भाव से चादर के नीचे से एक डायरी निकाल मुझे पकड़ाते हैं—

''लो, इसे मेरी अलमारी में रख दो।’’

मैं हाथ में पकड़ी डायरी को देखता हूँ। वह खुली हुई है। खुले हुए पन्ने पर लिखा है—मोहन अडव़ाणी। मैं यह देखकर शर्म से गड़ जाता हूँ और तय करता हूँ, साले मोहन अडव़ाणी के बच्चे... कल ही, अब कल ही तुझे घेरता हूँ। मैं पिता के अलमारी में डायरी रख देने के इस आदेश से थोड़ा चकित ही हूँ, क्योंकि माँ के जाने के बाद हममें से कभी कोई पिता की अलमारी के नज़दीक भी नहीं पहुँचा है, उसमें रखी चीज़ों को हाथ लगाना तो दूर की बात है। आदतवश मैं अलमारी के भीतर रखी चीज़ों पर नज़र भी नहीं डालता और डायरी को एक जगह टिकाकर छोड़ देता हूँ।

उसके अगले ही दिन, सचेत हो मैंने मोहन अडव़ाणी को तैश में फ़ोन कर दिया था और मिलने का समय माँगा था। उस पार से आती उसकी आव़ाज़ गरम चाक़ू सी थी। वह किसी को भी पलभर में चीर देती—

''आप उनके लड़के बोल रहे हैं?’’

''जी।’’

''ठीक है, कनाट प्लेस के मेरे द़फ्तर में आ जाइए।’’

मोहन अडव़ाणी का ऑफ़िस मेरे पिता के नौकरी के दिनों के ऑफ़िस से कहीं आलीशान है। सब कुछ इतना आधुनिक है। कुर्सी टेबल, खिड़की के पर्दे, कार्पेट, लैंप, कम्प्यूटर...! वह कुछ-कुछ मेरी कम्पनी के उस मालिक के जैसा है, जिसके बारे में मैंने सुना है। कभी देख नहीं पाया हूँ। हमारे ऑफ़िस में मालिक और मेरे जैसे कर्मचारी के बीच बहुत फ़ासला रहता है। ठीक उसी फ़ासले को मैं यहाँ महसूस कर रहा हूँ, इस सच को जानते हुए भी कि कल तक सामने खड़ा यह असम्भव सा देवता, मेरे पिता के सामने सिर झुकाकर सर, जी सर, सर करता रहता था।

मोहन अडव़ाणी अपने कम्प्यूटर पर कुछ काम कर रहा है। वह बहुत व्यस्त लग रहा है, वह मेरी ओर देखता भी नहीं है। लगभग पन्द्रह मिनट तक मैं दरव़ाज़े के पास खड़ा सिकुड़ता रहा। इसके बाद ही वह मेरी ओर देख कहता है—

''अरे आ गए तुम? आओ-आओ।’’



इसके बाद वह अपनी मेज़ की किसी दराज़ से एक लिफ़ाफ़ा निकालता है, उसे अपने हाथों की दो उँगलियों के बीच पकड़कर ऐसे हिलाता है, जैसे लोग हव़ा में कुत्तों के लिए बिस्कुट लहराते हैं। इसी मुद्रा में बैठा-बैठा वह ख़ूब ज़ोर से ठहाका लगाता है। इस मखौल पर मेरे चारों ओर की चीज़ें घूमने लगती हैं। मैं एक छोटा धब्बा बन जाता हूँ। इस तरह मोहन अडव़ाणी मेरी मार्फ़त मेरे पिता पर व़ार करता है।

मेरे पिता जो बड़े आदमी थे।

मैं उस रात बहुत देर से घर पहुँच पाता हूँ।

पिता दरव़ाज़ा खोलते हैं और उतेजना से कहते हैं—

''बड़ी देर हो गई? दुकानें तो सब बन्द हो गई होंगी?’’

दर्द से मेरा माथा फटा जा रहा है। इस दर्द के मारे मोहन अडव़ाणी से लाए पैसे भी मैं भूल जाता हूँ। मैं पिता को कोई जव़ाब नहीं देता और बिना कपड़े बदले सो जाता हूँ।

सुबह उठकर देखता हूँ, पिता ड्राइंग रूम में, एक कुर्सी पर डरे, दुबके, सिर पर एक हाथ रखे बैठे हैं। वे बहुत चिन्तित लग रहे हैं। मैं चुपचाप मोहन अडव़ाणी का लाया हुआ लिफ़ाफ़ा उनके हाथ में पकड़ा देता हूँ। वे लिफ़ाफ़ा देख ख़ुश हो जाते हैं। वे समझ जाते हैं, लिफ़ाफ़ा किसने दिया होगा। ऊपर ही मोहन अडव़ाणी की कम्पनी का पता छपा हुआ है। वे तेज़ी से उठ अपनी अलमारी की ओर भागते हैं और एक पर्चा ला मुझे पकड़ा देते हैं—

''ये...ये, दव़ाइयाँ आज ले आना। भूलना नहीं।’’

मैं जानता हूँ पिता की दव़ाइयाँ पास व़ाली दव़ाइयों की दुकान में नहीं मिलतीं। उन्हें ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के पास की एक ख़ास दुकान से लाना होता है। अचानक याद आता है, दो-तीन महीनों से तो पिता की दव़ाइयाँ मैं लाया ही नहीं...!

''कब ख़त्म हुईं दव़ाइयाँ?’’

''एक महीना हो गया।’’

उनका स्वर कातर और डरा हुआ है, लेकिन मैं उसमें अपने लिए उलाहना ढूँढ़ता हूँ। दव़ाइयों के बिना पिता को कुछ हो जाता तो? मेरे अन्दर झुरझुरी सनसना जाती है। मैं अपनी असमर्थता को डाँट का जामा पहनाता हूँ।

''इतनी लापरव़ाही? मुझसे कहा क्यों नहीं?’’

पिता खिड़की से बाहर देखने लगते हैं। मैं झमकता हुआ फ़्लैट की सीढ़ियाँ उतर जाता हूँ और तय करता हूँ—भाई-बहन को बुलाना ही होगा। अब अकेले मुझसे पिता का दिया और तनाव बर्दाश्त नहीं होगा।

छोटी मेरे बुलाने पर अगले ही दिन आ जाती है। छोटे भाई को दो दिन लगते हैं। हम तीनों एक ही निर्णय पर पहुँचते हैं। पिता बदल गए हैं। वे अब कुछ बताते नहीं। पिता नाख़ुश रहते हैं। पिता का आभामंडल कहाँ गया? हम तीनों यह सब सोच असमंजस में पड़ जाते हैं। पिता का क्या किया जाए? पिता को कैसे ठीक किया जाए? हम पिता का सम्पूर्ण मेडिकल चेकअप करव़ाने की सोचते हैं।

अगले दिन हमारी चिन्ताओं और सन्देहों को परे खिसकाते हुए, पिता नहा-धो, ख़ूब अच्छे कपड़े पहने हमारे बीच आकर बैठते हैं और कहते हैं, ''अरे भाई, यूँ अचानक इकट्ठे हुए हो, कुछ मौज-मस्ती करो। घूम आओ।’’

मैं पिता के इस अप्रत्याशित व्यवहार से चौंक जाता हूँ। क्या पिता ने अब हमारी चिन्ताओं को अपने खिलाफ षड्यंत्र मान लिया है? वे इतने दिनों से जो हमारे बीच होते हुए भी नहीं होते थे, आज अचानक हमारे बीच शामिल होने का ढोंग क्यों कर रहे हैं? झल्लाहट मुझे घेरने लगती है। क्या पिता हमारे बीच की सारी सहजता मिटाकर ही दम लेंगे?

पिता का अच्छा मूड देख छोटा भाई पिता की हथेली प्यार से दबाता हुआ कहता है—

''हाँ पिताजी, जाएँगे, लेकिन आपको भी हमारे साथ चलना होगा।’’

बहुत दिनों बाद छोटी भी बचपन व़ाली छोटी बन जाती है, वह कहती है, ''पिताजी मैं पल गिन रही हूँ, आपका समय शुरू होता है, अब बोलिए हाँ या ना?’’

''अरे हाँ...हाँ।’’ पिता जोश में उठ तनकर खड़े हो जाते हैं।

''चलो...अभी चलो...!’’

मुझे याद नहीं पड़ता कि इन शब्दों के बाद हमने पिता के मुँह से और शब्द सुने कि नहीं। ठीक उसी क्षण अस्पताल ले जाने की जद्दोजहद से पिता हमें मुक्त कर देते हैं और यही अन्तिम शब्दों के रूप में हमारी स्मृतियों में दर्ज हो गए हैं।

उनके जाने के बाद हमारे दिल्ली व़ाले मौसा का हमारे घर आना-जाना बढ़ जाता है। दिल्ली में रहनेव़ाले हमारे एकमात्र नज़दीकी रिश्तेदार वही हैं। हमारे पिता के रहते मौसा हमारे यहाँ कम ही आ पाते थे। पिता उन्हें पसन्द नहीं करते थे। कहते थे कि मौसा की आँखें चालाक हैं, उनमें हमेशा साज़िश का भाव रहता है लेकिन मैं धीरे-धीरे मौसा को बेहतर समझ पाता हूँ; वे पिता के जाने के बाद मेरे बहुत बड़े सम्बल साबित हुए हैं।

मुझे जब मौसा अपने पास बिठा, कन्धे पर प्यार से भरा हाथ रख कहते हैं—

''तुमने बहुत किया पिता के लिए, जानता हूँ। इसके बावजूद तुम्हें कुछ नहीं मिला। जानता हूँ कितने टेढ़े हो गए थे तुम्हारे पिता अपने जाने के दिनों में। अन्दर से लखनऊ व़ाले दिनों को कभी नहीं निकाल पाए वे। अब तक तुम क्या-क्या कर लेते? उनके मानकों पर खरा उतरना क्या सबके बस की बात थी? विचित्र ढंग से जीवन काटा। एक पैसा नहीं जोड़ा अपने बच्चों के लिए। उलटे गँव़ा दिया। दुख मत करो। तुमने बहुत किया उनके लिए।’’

मौसा की बातें कितनी सही थीं। पिता के साथ व़ाले लोगों के पास दिल्ली में बड़े बँगले थे, और हमारे पास था यह दो कमरों का फ़्लैट। पिता ने अगर चाहा होता तो आज मैं भी उनके साथियों के बच्चों की तरह किसी बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनी में ऊँचे पद पर होता। पिता ने हमेशा क्यों कहा कि मेहनत करो, अपना भविष्य आप बनाओ? क्या इसके पीछे स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी थी? लेकिन उनके कई साथी जिन्होंने दिल्ली में बँगले बनव़ाए, वे भी तो उसी समय को जीकर आए थे। पिता को ही देश की चिन्ता करने की ज़िद क्यों थी?

''अरे देखो, तुम लोग आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए?’’ मौसा अर्श से फ़र्श तक का इशारा करते थे।

पत्नी को मौसा का इतनी बार घर आना और हमारे घर के बजट पर चर्चा करना अखरता था। मौसा के चले जाने के बाद वह मुँह फुलाकर कहती थी—

''क्या ज़रूरत है, घर की बातें बाहरव़ालों के सामने करने की?’’ मेरी पत्नी नहीं समझती थी, मौसा किस तरह मेरे दुख को काटने में मेरी मदद कर रहे थे।

एक दिन मौसा बहुत ग़ुस्से में मेरे घर आए और मेरी पत्नी को चाय बनाने को बोल, मेरे पास बैठते हुए बोले—

''बेटा, पिताजी के सारे क़ागज़ात ठीक से देख लिए हैं न तुमने? अभी-अभी एक पारिव़ारिक शादी में गया था मैं। वहाँ कुछ रिश्तेदार चर्चा कर रहे थे कि तुम्हारे पिता बहुत सारा धन छोड़ गए हैं तुम लोगों के लिए, शायद तुम लोगों को पता नहीं है। मैं तो जानता हूँ, बेटा ऐसा नहीं है, पिता ने तुम्हें उलटे क़ज़र्दार बना दिया है। फिर भी एक बार देखने में हर्ज नहीं है बेटा...।’’

''हाँ...हाँ।’’ मैं मरी हुई आव़ाज़ में बोलता हूँ, काश, पिता अपने अन्तिम दिनों में इतने चुप्पा न हुए होते! काश, उन्होंने अपनी बातें मुझसे बाँटी होतीं, तो कम से कम आज यह स्थिति न होती! मैं पत्नी को अर्थ भरी निगाहों से देखता हूँ, ''देखो मौसा कितने अच्छे हैं, हमें समाज के तानों से भी बचाते हैं।’’

''पिताजी के सारे क़ागज़ात ठीक से देखे हैं? कोई रेफरेंस छूट तो नहीं गया? जाओ बेटा, एक बार सारे क़ागज़ात ले आओ। मैं ठीक से देख देता हूँ।’’

मौसा चाह रहे हैं कि मैं पिता की अलमारी से पिता की सारी व्यक्तिगत चीज़ें यहाँ ले आऊँ। फिर हम उन्हें मिलकर देखें कि आख़िर पिता ने अपने पीछे क्या-क्या छोड़ा है। छोटा भाई और छोटी भी यह ज़िम्मेव़ारी मुझ पर ही छोड़कर अपनी जगहों पर चले गए है। मैं इस तरह अकेले होने की वजह से थका और मरा हुआ-सा तो हूँ, लेकिन पिता की बहुत सारी बातों को ले क्रोधित और उत्तेजित भी। मौसा इस वक्‍़त, मेरे कष्टों को हरनेव़ाले दूत बनकर आए हैं। मैं उनकी सारी बातें मान लेना चाहता हूँ। मैं उनकी बात मान जाता हूँ। मैं शिथिल क़दमों से जा अलमारी के दोनों दरव़ाज़ों को पूरी तरह से खोल देता हूँ और एक कुर्सी डाल अलमारी के सामने बैठ जाता हूँ। मैं पहले नीचे के ख़ानों से शुरू करता हूँ। कपड़े-लत्ते हैं। ढेर सारे। फिर तरह-तरह के छोटे बैग्स और पाउच हैं। चश्मे हैं, पुरानी घड़ियाँ हैं। एक घड़ी उठाता हूँ। उस पर स्विसमेड फेवरल्यूबा अंकित है। यह पिता ने अपनी पहली नौकरी के तुरन्त बाद ख़रीदी थी। ऐसा उन्होंने कभी बताया था। पता नहीं चलना बन्द कर देने के बाद भी वह क्यों यहाँ पड़ी है? एक दराज़ पुराने फ़ोटोग्रा़फ्स से भरी हुई है। मैं देखता हूँ एक काली-स़फेद तस्वीर के पीछे लिखा है 1945। फ़ोटो में पिता, ठीक कैमरे की आँख में देख रहे हैं। ज़रूर उनके हाई स्कूल के दिनों की फ़ोटो होगी। एक तस्वीर 1947 की भी है। पिता अपने साथियों के साथ बड़ा-सा तिरंगा हव़ा में उछाल रहे हैं और ख़ूब ख़ुश दिख रहे हैं। एक तस्वीर 1958 की है, जिसमें पिता अपनी पहली नौकरी के अधिकारियों के साथ खड़े हैं, ख़ासे आत्मविश्वास के साथ।

1980 की तस्वीर में पिता भव्य लग रहे हैं। उनके चेहरे पर मेहनत की स्वस्थ चमक और सफलता की ठोस अभिव्यक्ति है। पिता के साथ उनके वही उच्चाधिकारी भी खड़े हैं, जो पिता को नेपोलियन कहकर पुकारा करते थे। 1990 की तस्वीर में पिता का सिर झुका हुआ है। वे प्रधानमंत्री से संस्थान की उत्कृष्ट सेव़ा करने के लिए पुरस्कार ग्रहण कर रहे हैं। उसी समारोह की दूसरी तस्वीर में हम सब हैं। माँ, मैं, छोटा और छोटी। हमारे चेहरों पर पिता के सम्मान का वैभव रँगा हुआ है। मैं ग़ौर से देखता हूँ, दर्शक-दीर्घा में मोहन अडव़ाणी भी अनुगृहीत भाव से बैठा-बैठा ताली बजा रहा है। इसके बाद जो तस्वीर मेरे हाथ लगती है, वह 2007 की है। इंडिया गेट पर खड़े पिता। एकदम, कृशकाय, कमज़ोर, उदास, लेकिन जैसे ही मैं उनकी आँखो की ओर देखता हूँ मुझे अजीब-सा लगने लगता है। उन आँखों में मैं, विभिन्न संग्रामों में मारे गए सैनिकों के प्रति अकूत सम्मान देखता हूँ।

इसके बाद मैं सारे क़ागज़-पत्र पलटता हूँ। उस धन को खोजने की कोशिश करता हूँ, जो मेरी जानकारी में कभी नहीं रहा। क़ागज़ों के बीच ही में से मेरे हाथ वह डायरी आती है, जिसे एक दिन पिता ने मुझे अलमारी में रखने को दिया था। और जिसे मैंने गौर से कभी नहीं देखा था। आज देखता हूँ। डायरी 1957 में लखनऊ से ख़रीदी गई है। स्वतंत्रता संग्राम के दस वर्ष बाद। उसके पहले पन्ने पर लिखा हुआ है—''सौ वर्षों के बीत जाने के उपलक्ष्य में।’’ डायरी के ऊपर नव़ाब व़ाज़िद अली शाह की तस्वीर है। नव़ाब व़ाज़िद अली शाह ने तस्वीर में एक लाल रंग का चोग़ा पहन रखा है। उसके सिर पर ताज नहीं है।

डायरी को देख मेरे अन्दर अजीब-सा हड़कम्प मचने लगा है। डायरी आधी ख़ाली है। ख़ाली पन्नों के ठीक पहले मेरा नाम लिखा हुआ है। पिता ने जानबूझकर उन पन्नों को मेरे भरने के लिए ख़ाली छोड़ दिया है। पिता बहुत बातों की तरह यह भी जानते थे कि उनके जाने के बाद मैं इस डायरी को खोलकर देखूँगा। मैं उसके बाद क्या सोचूँगा, क्या इस बात का भी अन्दाज़ा था पिता को...?

मैं ड्राइंगरूम में मौसा के पास दुबारा आता हूँ। मौसा देख रहे हैं, मेरे हाथ ख़ाली हैं। पिता के प्रति रही, उनकी जीवन भर की चिढ़ और मेरी ख़ाली-ख़ाली सी मुद्रा मिलकर उन्हें अस्त-व्यस्त कर देती है। वे चाय के बड़े-बड़े घूँट पीते हुए बहुत व्यंग्य से पूछते हैं—

''क्या हुआ? कुछ मिला? पता चला क्या छोड़ के गए हैं, तुम्हारे महान पिता?’’

मैं हामी में अपना सिर हिलाता हूँ। कितना कुछ है मौसा को बताने के लिए। लेकिन मेरे मुँह से बहुत सारे शब्द नहीं निकल पा रहे हैं। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट है और आव़ाज़ में किसी प्रकार का कम्पन नहीं, जब मैं कहता हूँ—

''इतिहास।’’

मौसा अब भरपूर रूप से उत्तेजित हो रहे हैं, वे फिर पूछते हैं—

''क्या मिला?’’

मैं फिर दुहराता हूँ,

''इतिहास,’’ और अपना दायाँ हाथ अपने हृदय पर रख लेता हूँ और वहाँ बसी धड़कन को महसूस करता हूँ। मेरी मुद्रा ठीक उस खिलाड़ी के समान है, जो विजयी होने पर अपना राष्ट्रगान सुनते हुए अपना दायाँ हाथ अपने बाएँ सीने पर रख लेता है। यह अदब का तरीका है।

मौसा न जाने क्या सोचने लगते हैं, मैं मसखरी कर रहा हूँ, वे मुँह बिचकाते हैं—

''क्या है यह सब? नाटक क्यों कर रहे हो?’’

मैं देख रहा हूँ पर्याप्त रूप से चिढ़े हुए मौसा अब फें-फें कर हँसना चाह रहे हैं, मानो सामने मैं नहीं कोई विदूषक खड़ा उनसे छेड़़खानी कर रहा हो और यह सब कुछ अब कितना असुन्दर और सस्ता नज़र आ रहा है। मैं मौसा को इस तरह देखकर कोई और जव़ाब देना नहीं चाहता। पूर्ववत् खड़ा रहता हूँ। मुझे अब किसी बात से कोई फ़़र्क नहीं पड़ता है। मौसा तकलीफ़ से अपनी भावनाओं को दबाते हुए, पिता के बनव़ाए मेरे इस फ़्लैट से बाहर हो जाते हैं।

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