अल्पना मिश्र, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शरद सिहं और इंदिरा दागीं बेहतर लिख रही हैं
- चित्रा मुद्गल
चित्रा मुद्गल जी का ‘सामयिक सरस्वती’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित साक्षात्कार कितना महत्वपूर्ण है यह आप उसे पढ़ने के बाद समझ जायेंगे. मैंने ‘शब्दांकन’ पर इसे प्रकाशित करने से पहले चित्रा जी को उसे सुनाना उचित समझा – और इस दौरान हुई बातचीत ने साक्षात्कार में कुछ-एक वाक्यों-आदि की बढ़ोतरी की है – जिसे यहाँ चित्रा मुद्गल जी की सहमति के बाद ही प्रकाशित किया है... हमारे समय के एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार के लिए दिनेश कुमार को बधाई.भरत तिवारी
![कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया हैं... चित्रा मुद्गल की पसंदीदा लेखिकाएं #शब्दांकन](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKFyQm87miFX9EPnJjdCnhsd8R-fZI6HOKMLXaCRqp5hAn7A83FbKQhyphenhyphenKavX-w_TRd3ipr7yV_QiTqQTSRnuDyeormqBvn3oK_C0M3bhkn3-g3RcR0kntQy6eQCSTI-XQ9wuz3BSFpw-HG/s1600-rw/Chitra-Mudgal-chitraji-Chittra-Mudgal.jpg)
स्त्री केवल योनि नहीं चित्रा मुदगल से दिनेश कुमार की बातचीत
दिनेश कुमार: आपकी पहली कहानी 1964 में छपी थी। 1980 में आपका कहानी-संग्रह ‘जहर ठहरा हुआ’ प्रकाशित हुआ यानी पहली चर्चित कहानी और संग्रह के बीच सोलह साल का लम्बा अंतराल है। इतने लम्बे अंतराल का क्या कारण रहा?
चित्रा मुद्गल: मैं शायद बिल्कुल अलग ढंग की लेखिका हूँ । मेरा रुझान शुरू से ही सोशल एक्टिविज्म की तरफ अधिक रहा है । हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के दौरान महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन से एक सामाजिक हलचल पैदा हुई। हम लोग जे.पी., लोहिया, मार्क्स, डांगे आदि को पढ़ते थे। उस दौर में सामाजिक आन्दोलन भी बहुत हो रहे थे। पूरा जोर विद्यार्थियों को जागरूक बनाने पर था। दूसरी तरफ मेरा परिवेश भी मुझे सामाजिक गतिविधियों की तरफ मोड़ने में सहयोगी बना। मुंबई के मजदूर इलाके में एक बड़े से बँगले में हम रहते थे। आस-पास की झोंपड़-पट्टी में बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश आदि विभिन्न जगहों से आए हुए मजदूर रहते थे। एक विषमता जो घर से निकलते ही दिखाई पड़ती थी, उसका गहरा असर मुझ पर पड़ा। मैं सोचती थी कि यह विषमता समाज का स्वाभाविक अंग नहीं है । इसके लिए जिम्मेवार वह व्यवस्था है जो ईमानदार नहीं है । मैं मानने लगी कि इस व्यवस्था में बदलाव आवश्यक है और पूरी तरह सामाजिक कार्यों से जुड़ गयी। इसलिए उस समय लिखना प्राथमिक नहीं था। इस बात को लेकर भी कोई उत्सुकता नहीं थी कि कहानियां छपें तो उनका संग्रह भी आना चाहिए।
दिनेश कुमार: 1980 से 2002 यानी ये दो दशक आपकी साहित्यिक सक्रियता का दौर है। आपके तीनों उपन्यास और कहानी संग्रह इसी दौर में प्रकाशित हुए। इसके बाद तो आपके लेखन में एक विराम की स्थिति है। तेरह साल बाद (2014) अभी आपका नया कहानी संग्रह आया है। आपकी साहित्यिक यात्रा इतनी अल्पकालिक क्यों दिखाई देती है
चित्रा मुद्गल : मेरी साहित्यिक यात्रा अल्पकालिक है, ऐसा मैं नहीं मानती। मैंने 1964 से लिखना शुरू किया और तब से लगातार लिख रही हूँ । किताबें मेरी देर से आइए पर मेरा लेखन कभी स्थगित नहीं रहा है । कहानियां समय-समय पर छपती रही हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता भी मैंने की है । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख और ‘कवर स्टोरी’ छपती रही हैं। मैंने अनुवाद कार्य भी बहुत किया है । गुजराती, मराठी और अंग्रेजी से ढेरों लेख और कहानियों का अनुवाद किया है। यह भी तो मेरी साहित्यिक सक्रियता का ही रूप है । जहां तक उपन्यास की बात है, मैं आज भी कहती हूँ कि जब तक कोई ठोस बात न हो तो मैं उपन्यास नहीं लिख सकती। औरत-पुरुष वाला उपन्यास मैं नहीं लिखना चाहती।
दिनेश कुमार: अस्सी के दशक से ही भारतीय समाज व्यवस्था, राजनीति और अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन आने शुरू हो गए जिसका चरम रूप हमें आज दिखाई देता है। आपका साहित्य इन परिवर्तनों को बहुत ही गहराई और सूक्ष्मता से पकड़ता है। इसी दौरान गांव-देहात भी बहुत बदले हैं लेकिन आपके कथा-साहित्य में गांव नहीं है। गांव आपके चिंतन और सरोकार से अनुपस्थित क्यों है?
चित्रा मुद्गल: तुम यह कैसे कह सकते हो? तुम्हारी बात पूरी तरह गलत है । मेरे साहित्य में हर जगह गांव आया है अलग-अलग रूपों में। दलित, शोषित, मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग सभी मेरे कथा-साहित्य में हैं। दरअसल मेरा सरोकार गांव से पलायन करके बाहर आए उस आदमी से था जो रिक्शा चला रहा था, दारू के ठेके पर काम कर रहा था, ऑटो चला रहा था, दूसरों के घरों में काम कर रहा था। मेरा सरोकार इन शोषितों और वंचितों से था जो गांव के ही आदमी थे। मेरी कई कहानियां सीधे-सीधे गाँव से संबंधित हैं। ‘दुलहिन’, ‘जगदंबा बाबू आ रहे हैं आदि कई कहानियां गाँव की हैं। हां, मैंने खांचा बनाकर नहीं लिखा। मरे पास वह गाँव नहीं है जहां स्त्री आधी रात को पति और बेटे को छोड़कर अपने प्रेमी के पास स्वायतत्ता भोगने चली जाती है । यह अनुभव से उपजी हुई स्त्री नहीं है, यह लेखक की दृष्टि से उपजी स्त्री है । मेरे पास यादव जी का गाँव नहीं है । मैं वैसा गाँव चाहती भी नहीं क्योंकि मेरा मानना है कि स्त्री जब मस्तिष्क से स्वतंत्र नहीं होगी तो कमर के नीचे से स्वतंत्र होने से कुछ नहीं होगा।
दिनेश कुमार: आपकी रचनाओं जैसे ‘गिलिगडु’ उपन्यास आदि में संयुक्त परिवार के प्रति प्रबल आकर्षण दिखता है मानो आज की अनेकानेक समस्याओं है मानो आज की अनेकानेक समस्याओं की जड़ में संयुक्त परिवार का विघटन है। क्या स्त्री की दृष्टि से भी आपने संयुक्त परिवारों का आकलन किया है? क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त परिवार स्त्री के बलिदान पर ही टिके होते हैं?
चित्रा मुद्गल: संयुक्त परिवार की आपकी अवधारणा मेरी अवधारणा से अलग है । जब संयुक्त परिवार है तो इसमें पितृसत्ता और स्त्री सत्ता नहीं होती। संयुक्त परिवार का मतलब पितृसत्ता और स्त्रीसत्ता का संतुलन। दिक्कत यह है कि इस संतुलन का क्रमशः विघटन हुआ है । इसलिए मैं कहती हूँ कि संयुक्त परिवार स्त्री के विरोध में नहीं है लेकिन स्त्री के जो हक मारे गए हैं, वह गलत है । मैं उन रूढ़ियों के खिलाफ हूँ जिन्हें पितृसत्ता ने अपने शासन को बचाने का औजार बनाया, जैसे कि सास बहू पर शासन करे। मर्द ने सत्ता दे दी औरत को। सास ने बहू पर शासन किया और बहू सास बनने का इंतजार करने लगी। यह परिपाटी चल पड़ी। इस तरह पितृसत्ता ने स्त्री को अनुकूलित कर लिया और औरत ही औरत के विरोध में हो गई। मैं इस परिपाटी के खिलाफ हूँ । संयुक्त परिवार के नहीं ।
दिनेश कुमार: आपने अपनी रचनाएं शोषितों और वंचितों को केन्द्र में रखकर लिखी हैं। आपने स्वयं उनके बीच काम भी किया है। फिर भी, एक बड़ा तबका आप पर दक्षिणपंथी होने का आरोप लगाता है, ऐसा क्यों?
चित्रा मुद्गल: इस दुष्प्रचार के जन्मदाता राजेन्द्र यादव हैं। जब मैं प्रसार भारती में थी तब उनको लेकर मुशर्रफ आलम जौकी साहब ने साहित्य पर आधारित एक सीरियल दूरदर्शन के लिए बनाया था, जिसका नाम था ‘किताबों के रंग राजेन्द्र यादव के संग’ चूंकि गाइड-लाइन के हिसाब से सीरियल के नाम में व्यक्ति का नाम सिर्फ तब ही हो सकता है जब वह कार्यक्रम में आद्योपांत उसे संचालित करता है। इसलिए उनके नाम पर आपत्ति हुई क्योंकि राजेन्द्र भाई का उसमें सिर्फ सात मिनट का सेगमेंट था और इसलिए सीरियल का नाम सिर्फ ‘किताबों के रंग’ रह गया। उन्होंने दुष्प्रचार शुरू कर दिया। उन्होंने संपादकीय लिखकर मुझे मुसलमान विरोधी साबित करने की कोशिश की। दरअसल, एक लेखिका विशेष को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने उस दौर में सभी लेखिकाओं के कद को कम करने का काम किया। यहां तक कि मन्नू भंडारी को खांटी घरेलू औरत कहा जबकि दूसरी तरफ एक लेखिका विशेष की गाँव की औरत को बहुत पसन्द करते थे। मेरे विरोध का एक बड़ा कारण यह भी था कि उन्हें यह बरदाश्त नहीं हो रहा था कि कोई ऐसी स्त्री प्रसार भारती की सदस्य कैसे बन गई जो उनके द्वारा ‘प्रमोट’ की गई नहीं है । मैं पहली स्त्री थी जो उनके लिए चुनौती बनी थी।
दिनेश कुमार: क्या इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है कि आपका भाजपा के प्रति थोड़ा झुकाव रहा है?
चित्रा मुद्गल: नही, बिल्कुल नही। मैं कभी भी न तो आरएसएस और न ही भाजपा की सदस्य रही हूँ । हाँ, मैं अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसक रही हूँ । प्रसार भारती के लिए जब सुषमा जी ने मुझे फ़ोन कर प्रस्ताव किया तो मैंने स्वीकार कर लिया। इससे पूर्व मेरा भाजपा से कोई परिचय नहीं था लेकिन राजेन्द्र यादव ने मुझे भाजपाई प्रचारित करना शुरू कर दिया। पकंज बिष्ट ने ‘समयातंर’ में वही लिखा जो राजेन्द्र यादव ने उन्हें बताया। मैं अच्छे काम का समर्थन करती हूँ और अपनी बात ईमानदारी से रखती हूँ । अगर कोई काम अच्छा हो रहा है और उसे बीजेपी कर रही है तो मैं उसे अच्छा ही कहूंगी। सिर्फ बीजेपी के कारण उसे बुरा नहीं कहने लगूंगी।
दिनेश कुमार: आपकी राजनीतिक विचारधारा?
चित्रा मुद्गल: लोहिया का समाजवाद।
दिनेश कुमार: राजेन्द्र यादव के साथ आपका इतना विरोध कैसे हो गया? आपको उनकी किस बात पर सबसे अधिक आपत्ति थी।
चित्रा मुद्गल: 1986 में हंस निकला, तब तक कोई विरोध नहीं था। तीसरे ही अंक में मेरी कहानी छपी थी। शुरुआती दस साल हंस का ‘गोल्डन पीरियड’ था। तब तक उन्हें स्त्री विमर्श की छूत भी नहीं लगी थी। हमारा उनसे कहना था कि आप साहित्य को और स्त्री विमर्श को जिस दिशा में हांक रहे हैं, वह बहुत गलत है । आप स्त्री का सिर्फ योनि में अवमूल्यन कर रहे हैं। स्त्री केवल योनि है, यह मानना अपने आपमें बहुत खतरनाक है । हमारा विरोध इस बात को लेकर था कि सामाजिक जीवन में हम जो तमाम तरह की गैर बराबरी और पितृसत्ता के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, उनकी दिशा को उन्होंने भटका दिया। स्त्री स्वतंत्रता को उन्होंने यौन स्वतंत्रता तक सीमित कर दिया। बाद में तो वे एक लेखिका विशेष के नाम के सिवा कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। वे मुझसे कहते थे कि तुम हंस दफ्तर नहीं आती कि मैं एक लेखिका विशेष को महत्व देता हूँ । एक बात जरूर है कि तमाम लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने सबंध्ं बरकरार रखे, बराबर अवध को देखने, मुझसे मिलने घर आते रहते थे और कहते थे, “चित्रा तुम मुझसे क्यों नाराज़ रहती हो”? मैं उनसे एक लेखिका विशेष के कारण नाराज नहीं थी। मैं उनकी स्त्री विमर्श की उस परियोजना से नाराज थी जो स्त्री को सिर्फ योनि मान रही थी और किसी के साथ सोने को ही स्त्री की सबसे बड़ी क्रांतिकारिता के रूप में परिभाषित कर रही थी।
दिनेश कुमार: आपकी बात एकदम सही है पर मुझे यह समझ में नहीं आया कि कुछ समय पहले ‘जनसत्ता में मैत्रेयी पुष्पा ने एक लेख लिखकर इस मान्यता का विरोध किया कि स्त्री सिर्फ योनि है और नयी पीढ़ी की लेखिकाओं को प्रश्नांकित किया कि उनके लेखन से स्त्री का बहुविध संघर्ष गायब है और मौज-मस्ती का आलम है, तब आप उनके विरोध में क्यों खड़ी हो गई? आपको तो उनका समर्थन करना चाहिए था क्योंकि वे तो इसका विरोध कर ही रही थी कि स्त्री की सारी क्रांतिकारिता सोने में ही हैं?
चित्रा मुद्गल: उनका विरोध मैंने इसलिए किया कि वे पूरी नयी पीढ़ी को खारिज कर रही थीं जिनके पास कई अद्वितीय कहानियां हैं। मैं ऐसी पचासों कहानियों का नाम ले सकती हूं। इन स्त्रियों ने अपने शुरुआती दौर में ही ऐसी कहानियां लिख दी हैं जो स्वयं मैत्रेयी के पास भी नहीं हैं। अगर आप पहले देखें तो कृष्णा जी ने ‘मित्रो मरजानी’ और मृदुला गर्ग ने ‘चितकोबरा’ लिखा है फिर इन्हें ही क्यों दोष दिया जाए? सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर ये देह-विमर्श कर रही हैं तो आप भी तो इसी के सहारे आगे बढीं, तो सबसे पहले अपने को खारिज कीजिए, फिर इन्हें खारिज कीजिएगा। उन्होंने जनरल स्टेटमेंट दिया। मुझे उनका उपदेश कुछ अच्छा नहीं लगा। नयी पीढ़ी की लेखिकाएं जैसे अल्पना मिश्र, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शरद सिहं और इंदिरा दागीं बेहतर लिख रही हैं। ये देह-विमर्श ही नहीं समाज विमर्श की भी बात कर रही हैं। आज की पीढ़ी हमसे बहुत आगे है, अभी और आगे जाएगी। मैं आश्वस्त हूँ ।
दिनेश कुमार: मृदुला गर्ग ने मुझसे एक साक्षात्कार में नाम लेकर लेखिकाओं को चुनौती दी है कि अगर वे ‘चितकोबरा’ जैसी कोई रचना लिख दें तो मैं अपना साहित्य अकादेमी अवार्ड लौटा दूंगी। उसमें आपका भी नाम है। क्या आपको उनकी चुनौती स्वीकार हैं?
चित्रा मुद्गल: पहले तो मेरी जैसी साँचे की महिला ‘चितकोबरा’ को उत्कृष्ट साहित्य नहीं मान सकती। मैंने अब जाकर ‘लेडी चैटेर्लीज़ लवर’ पढ़ा है जब अमेरिकी न्यायालय ने उसे अश्लीलता के आरोप से मुक्त कर दिया है । मृदुलाजी जी इस तरह के लेखन की एक्सपर्ट हैं। ऐसे लेखन के मामले में मैं निश्चय ही नाकाबिल हूँ । सेक्स और उसका चित्रण मेरी जिन्दगी का ध्येय नहीं है । मैं सफल या असफल जो भी हूँ लेकिन मेरे लिए दुनिया की और समस्याएं महत्त्वपूर्ण हैं। मैं इसे समाज की केन्द्रीय समस्या नहीं मानती हूँ । स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का जो रूप मैंने देखा है, वह दूसरा है । इसलिए मैं न तो वैसा उपन्यास लिख सकती हूँ, न लिखना चाहती हूँ ।
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सामयिक सरस्वती
दिनेश कुमार
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दिनेश कुमार: एक समय में लेखक संगठनों की बड़ी भूमिका होती थी। अब वे धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। आप हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में क्या सोचती हैं?
चित्रा मुद्गल: लेखक सगंठन जरूरी हैं और चाहे वह प्रगतिशील लेखक संगठन हो या नयी कहानी का दौर या समंतार आन्दोलन या जनवादी लेखक संगठन हो साहित्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है. लेकिन यह बहुत दुखद है कि वे इतने निरंकुश हो जाएं कि उनकी मान्यता के अतिरिक्त किसी भी अन्य तर्क को त्याज्य मानने लगें। हिन्दी में लेखक संगठनों के साथ ऐसा ही है. मसलन कोई दक्षिणपंथी अगर कोई महत्वपूर्ण रचना देता है तो रचना को रचना के लिए खुले दिल से मूल्यांकित करना चाहिए. अब इनकी कोई भूमिका नहीं बची है । ये सिर्फ गिरोह बनकर रह गए हैं। इन लोगों की प्रगतिशीलता देखकर दुःख होता है । इनकी कथनी और करनी में आसमान-जमीन का अंतर है । आन्दोलनधर्मी लेखक व संस्कृतिकर्मी तो मुझे महाराष्ट्र में मिले । हिन्दी में तो अधिकतर अवसरवादी ही दिखाई दिए। ये लोग बाहर भाषण कुछ और देते हैं और घर में कुछ और होते हैं। हिन्दी के इन तथाकथित प्रगतिशीलों में असहिष्णुता इतनी है कि अगर कोई सही बात कह दे जो इनके अनुकूल न हो तो बुरी तरह उसके पीछे पड़ जाएंगे। उसे हर तरह से हर जगह से ध्वस्त करने की कोशिश करेंगे ।
दिनेश कुमार: आपकी पसंदीदा लेखिकाएं?
चित्रा मुद्गल: कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया।
दिनेश कुमार: हिन्दी में देह-विमर्श की शुरुआत किससे मानती है?
चित्रा मुद्गल: कृष्णा सोबती (मित्रो मरजानी) और उसके बाद मृदुला गर्ग (चितकोबरा) से।
दिनेश कुमार: साहित्य समाज से सबसे बड़ा दुःख?
चित्रा मुद्गल: गुटबंदी और साहित्यकारों का दोहरापन एवं तिहरापन। एक झटके में रातोंरात प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी बनाना।
दिनेश कुमार: अवध जी के नहीं रहने पर अब कैसा महसूस होता है?
चित्रा मुद्गल: अपने-आपको बहुत अकेला पाती हूँ । मैं अभी उस सदमे से उबरी नहीं हूँ । एक-एक चीज की यादें हैं। उनकी कही बातें याद आती हैं। वे कहते थे कि चित्रा तुम्हारा माथा बहुत चौड़ा है । उस पर बड़ी बिंदी अच्छी लगेगी। मैं बड़ी बिंदी लगाती थी, आगे भी लगाना जारी रखूंगी। मेरी बिंदी मेरे साथ रहेगी। अवध के पत्र, प्रेम पत्र, साहित्यकारों के पत्र, सबको प्रकाशित कराऊंगी। मैं वे सारे काम करना चाहती हूँ जो हम दोनों ने सोचे थे।
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