रवीन्द्र कालिया — जिंदादिल और दिलदार — मृदुला गर्ग


रवींद्र कालिया को मैं भरे-पूरे इन्सान की तरह याद करना चाहती हूं, जो एक लेखक भी थे — मृदुला गर्ग

Lively and generous Ravindra Kalia

— Mridula Garg

"सांप कब सोते हैं?" कालिया बेहद संजीदगी से कहते , ''मृदुला गर्ग से पूछो!"

किसी मुद्दे पर हमारी बातचीत होती तो  हम उलझ जाते और आखिर टकराव साझा मजाक में गुम हो जाता

रवींद्र कालिया को मैं भरे-पूरे इन्सान की तरह याद करना चाहती हूं, जो एक लेखक भी थे। उतने ही जिंदादिल लेखक, जितने इन्सान। मुझे उनकी कहानियां और उपन्यास बेहद दिलचस्प लगते रहे हैं; सिर्फ मनोरंजन नहीं, दिमागी खुराक देने के लिए भी। दिल को छूने वाला पहलू उनकी बेबाकी और विट था। हिंदी में यह मनोहरश्याम जोशी और राजेंद्र यादव जैसे कुछ लोगों में ही नजर आया है। वे लेखन में ही नहीं, आपसी बातचीत में इसका इस्तेमाल करते थे। कालिया उन्हीं में से एक थे। वे अपनी राय देते हुए डरते नहीं थे कि लोग उनकी बात को कैसे ग्रहण करेंगे।


मेरा उनसे ताल्लुक नोंकझोंक का रहा है। किसी मुद्दे पर हमारी बातचीत होती तो  हम उलझ जाते और आखिर टकराव साझा मजाक में गुम हो जाता। उनसे मेरी पहली मुलाकात सूरीनाम में हुई थी। वहां हम विश्व हिंदी सम्मेलन में गए थे। मैं और एक फ्रांसीसी लेखिका एनी मोंटो ने रेन फॉरेस्ट  घूमने की योजना बनाई। सुबह उठकर हमने गेस्ट हाउस से जंगल के भीतर जाने की जल्दबाजी दिखाई तो गाइड ने कहा जब सांप सो जाएगा तब जाएंगे। साँप कब सोता है मैंने बेकरारी से पूछा तो उसने कहा सुबह आठ बजे। जंगल से लौटकर मैंने यह किस्सा कालिया को सुनाया। सूरीनाम से वापसी के लिए हम हवाई अड्डे पर बैठे थे तो जो व्यक्ति अंदर आता, कालिया बेहद संजीदगी से पूछते, ''सांप कब सोते हैं?" वह हक्का-बक्का उन्हें ताकता तो वे कहते, ''मृदुला गर्ग से पूछो!" वह और हकबका जाता। कालिया संजीदा बने रहते। यह मज़ाक घण्टों चला।

कोलकाता में जब वे वागर्थ के संपादक थे तो कथाकुंभ का आयोजन हुआ। पुरानी से लेकर नई पीढ़ी के लेखक-लेखिका शामिल हुए। कालिया नए लेखकों को बहुत प्रोत्साहित करते थे। वे नवलेखन अंक बराबर निकालते और नवलेखन पुरस्कार भी उन्होंने ही शुरू किया था। कथाकुंभ के दौरान किसी ने मुझसे कहा कि नए लोगों को कालिया इतना उछाल रहे हैं, वह उन लोगों के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। मैंने बात कालिया से दोहराई, तो तपाक से बोले, ''आपसे किसने कहा कि मुझे उनके भविष्य की चिंता है।" यह तो मजे-मजे की बात है। उनकी बेबाकी का आलम यह था कि उन्होंने मुझसे कहा था कि अब हमारा जमाना नहीं रहा। हमारी कहानियां पढना लोग पसंद नहीं करते, उन्हें नए लोगों की नई कहानियां चाहिए और इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। वैसे यह सही नहीं था क्योंकि उनके हाल के लेखन जैसे गालिब छुटी शराब और 17 रानडे रोड को लोगों ने बहुत पसंद किया। लोग उन्हें पढऩा चाहते थे और वही लेखक बड़ा होता है जिसे लोग दिल से पढऩा चाहते हैं।

वे बहुत अच्छे संपादक थे। संपादन करते हुए अपने लेखक को उस पर हावी नहीं होने देते। नए लोगों की रचनाएं पढ़ते और सबको छूट देते थे कि लोग उनकी तरह नहीं, अपनी तरह लिखें, भविष्य की फिक्र किए बगैर। जो सूझ रहा है लिखें और भरपूर जिएं। मेरा उपन्यास मिलजुल मन धारावाहिक तौर पर अहा जिंदगी! में छपा तो कालिया कहने लगे कि आपने उसे उन्हें क्यों दे दिया मैं तो नहीं देता। मैंने कहा, ''आपको तो पगार मिलती है, मैंने अहा जिंदगी! को दिया क्योंकि वह अच्छे पैसे देती है।मेरे जीवन यापन का यही साधन है।" उन्होंने कहा, ''मैं विश्वास नहीं करता।" तब मैंने कहा, ''आप विश्वास करें न करें मुझे कतई फर्क नहीं पड़ता। आपके विश्वास पर मेरी कोई आस्था नहीं है।" और कोई होता तो यह बात गांठ बन जाती पर एक माह भी नहीं गुजरा कि नया ज्ञानोदय के बेवफाई विशेषांक में मेरे उपन्यास उसके हिस्से की धूप लेने के लिए उनका फोन आया। मेरे हाँ कहने पर चुपके से जोडा, “हम पैसे भी देते हैं।“  हम दोनों खूब हंसे। उन्होंने एक शरारत की। पत्रिका में उपन्यास के पहले संस्करण की तारीख (1975) नहीं दी और मेरा चित्र भी गुजरे जमाने का लगाया। उसके बाद तो मुझे नौजवानों के ढेर सारे फोन आने लगे, जो रूमानी बातें करते, यह समझते हुए कि मैं उन्हीं की उम्र की हूं। जब मैं बतलाती कि उपन्यास 1975 में छपा था तो फोन काट देते। एक बार दोबारा पांच मिनट बाद फोन आया तो उधर से आवाज आई, ''दरअसल मैं प्रणाम करना भूल गया था।" यह बात मैंने कालियाजी को बताई तो वे खूब हंसे।

वे बीमार पड़े तो कोई एक पल के लिए भी नहीं कह सकता था कि वे बीमार हैं। डॉक्टर ने जब उनसे कहा कि आपके पास बस तीन माह का वक्त बचा है, तो कालिया ने पूछा, ''उसमें आज का दिन भी गिना जाएगा?" इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे कितने जिंदादिल और साहसी थे। यह उस साहस का उत्कर्ष था। वे ऐसे इंसान थे जिसकी बीमारी आप बिल्कुल याद नहीं करते, जिंदादिली और अदब ही याद करते हैं।

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