बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे @anantvijay on contemporary Hindi literature


बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे पर.. @anantvijay on contemporary Hindi literature

कहानीकार के रूप का वर्तमान 

अनंत विजय 

आख़िर हिंदी का कहानीकार वर्तमान से अपनी दूरी को क्यों कम नहीं करता ? क्यों पुराने के मोह से जुड़ा वह वही दोहराने पर तुला रहता है ? अनंत विजय बता रहे हैं कि समय बदल गया है लेकिन हिंदी के अधिकतर कहानीकार नहीं ! कुछ अपवाद हैं आशा है कि नयी पीढ़ी उन्हें देखेगी और नया लिखेगी ... 
भरत तिवारी 


हिंदी कहानी क्यों दूर पाठक ?

समय बदल गया, समाज बदल गया, भाषा बदल गई, लोगों के मन मिजाज बदल गए लेकिन हिंदी उसके चाल में नहीं ढल पाई

चंद दिनों पहले एक कहानीकार मित्र ने पूछा कि आज कैसी कहानी लिखी जानी चाहिए ताकि पाठकों को पसंद आए । पाठकों को ध्यान में रखकर कहानीकी बात पूछी गई तो मैं चौका क्योंकि हिंदी कहानीकारों ने लंबे अरसे तक पाठकों की रुचियों का ध्यान ही नहीं रखा । यथार्थ के नाम पर नारेबाजी आदि जैसा कुछ लिखकर उसको कहानी के तौर पर पेश ही नहीं किया बल्कि अपने कॉमरेड आलोचकों से प्रशंसा भी हासिल की । हिंदी कहानी के पाठकों से दूर होने की अन्य वजहें के साथ साथ ये भी एक वजह है । हिंदी कहानी में आज कई पीढ़ियां सक्रिय हैं एक छोर पर कृष्णा सोबती हैं तो दूसरे छोर पर उपासना जैसी एकदम नवोदित लेखिका है । इस लिहाज से देखें तो हिंदी कहानी का परिदृश्य एकदम से भरा पूरा लगता है । बावजूद इसके हिंदी कहानी से पाठकों का मोहभंग होने की चर्चा बहुधा होती रहती है । दरअसल कहानी और हिंदी दोनों उसी शास्त्रीयता का शिकार हो गई । समय बदल गया, समाज बदल गया, भाषा बदल गई, लोगों के मन मिजाज बदल गए लेकिन हिंदी उसके चाल में नहीं ढल पाई । जब मैं हिंदी के उस चाल में ढलने की बात करता हूं तो उसकी शुद्धता को लेकर कोई सवाल नहीं उठाता है लेकिन जिस तरह से परंपराएं बदलती हैं उसी तरह से शब्द भी अपना चोला उतारकर नया चोला धारण करते हैं । जैसे सरिता नदी हो गई, जल पानी हो गया, व्योम आकाश हो गया । अब भी हिंदी में एक प्रजाति मौजूद है जो कि इसकी शुद्धता और अपनी पुरातनता के साथ मौजूद रहने की जिद्द पाले बैठे हैं । वो गलत कर रहे हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है लेकिन समय के साथ नहीं बदलने की ये जिद उनकी संख्या को कम करती जा रही है । इसी तरह के कहानी ने आजमाए हुए सफलता के ढर्रे को नहीं छोडा । जब भी कहानी ने अलग राह बनाई तो लोगों ने उसको खासा पसंद किया और वो लोकप्रिय भी हुआ ।

बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे पर चल रहे हैं

दरअसल कहानी के साथ दिक्कत ये हुई कि वो प्रेमचंद और रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई । खासकर बिहार के कहानीकार तो रेणु के ही ढर्रे पर चल रहे हैं । रेणु जिस जमाने में कहानियां लिख रहे थे उस दौर में वो अपने परिवेश को अपनी रचनाओं में उतार रहे थे । रेणु से अपने लेखन से कहानी की बनी बनाई लीक को छोडा भी था । रेणु की सफलता के बाद उनका अनुसरण करनेवालों को लगा कि कहानी लेखन का ये फॉर्मूला सफल है तो वो उसी राह पर चल पड़े । रेणु के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या हिंदी कहानी में इस वक्त मौजूद है । इन अनुयायियों की भाषा भी रेणु के जमाने की है, उनके पात्र  भी लगभग वही बोली भाषा बोलते हैं जो रेणु के पात्र बोलते थे । आलोचकों को भी वही बोली भाषा सुहाती रही तो कहानीकारों का भी उत्साह बना रहा लेकिन वो इस बात को भांप नहीं पाए कि आलोचकों को सुहाती कहानियां उनको वृहत्तर पाठक वर्ग से दूर करती चली गई । अब ये जमाना थ्री जी से फोर जी में जाने को तैयार बैठा है और हिंदी कहानी के नायक नायिका तार के जरिए एक दूसरे से संवाद करेंगे तो पाठकों को तो ये अभिलेखागार की चीज लगेगी । अभिलेखागार में रखी वस्तुएं हमको अपने गौरवशाली अतीत पर हमें गर्व करने का अवसर तो देती हैं लेकिन साथ ही ये चुनौती भी देती हैं कि हमसे आगे निकल कर दिखाओ । हिंदी कहानी ने उस चुनौती को स्वीकार करने के बजाए उसका अनुसरण करना उचित समझा । हिंदी कहानी को अब ये समझना होगा कि उदारीकरण के दौर के बाद गांव के लोगों की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर हैं । उनकी इस आकांक्षा को इंटरनेट और मोबाइल के विस्तार ने और हवा दी है । अब ग्रामीण परिवेश का पाठक अपने आसपास की चीजों के अलावा शहरी जीवन को जानना पढ़ना चाहता है । वो अपनी दिक्कतों और अपने यथार्थ से उब चुका है लिहाजा वो शहरी कहानियों की ओर जाना चाहता है । लेकिन हम अब भी उनको गांवों की घुट्टी ही पिलाने पर उतारू हैं । इस बात को हमारे हिंदी के ज्यादातर कहानीकार पकड़ नहीं पा रहे हैं । इसको चेतन भगत, रविन्द सिंह और पंकज दूबे जैसे लेखकों ने पकड़ा और गांव से शहर पहुंचनेवालों की कहानी लिखकर शोहरत हासिल की ।

कहानीकारों को भी भोगे हुए यथार्थ के लिखते ही कहानीकार का सर्टिफिकेट मिल जाता रहा है

बीच में कहानीकारों की एक पीढ़ी आई थी जिसने अपने नए अंदाज से पाठकों को अपनी ओर खींचा था । उसमें मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, संजीव, सृंजय, अरुण प्रकाश, शिवमूर्ति, उदय प्रकाश आदि तो थे ही संजय खाती ने भी उम्मीद जगाई थी । पर पता नहीं किन वजहों से उनमें से कई कहानीकारों ने लिखना ही छोड़ दिया । पर अब का परिवेश तो उपरोक्त कथाकारों के दौर से भी आगे बढ़ गया है । हाल के दिनों में एक बार फिर से कुछ कहानीकारों ने अपनी कहानियों में रेणु की लीक से अलग हटने का साहस दिखाया है । समाज के बदलाव को अपनी कहानियों में पकड़ने की कोशिश की है । इन कहानीकारों मे गीताश्री का नाम अग्रणी है । उदय प्रकाश के बाद गीताश्री ने हिंदी कहानी को अपनी रचनाओं के माध्यम से झकझोरा है । गीताश्री की कहानी प्रार्थना के बाहर और गोरिल्ला प्यार दो ऐसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदी के पाठकों की रुचि के साथ कदमताल करने की कोशिश की है । जिस तरह से उदय प्रकाश ने पीली छतरीवाली लड़की में विश्वविद्यालय की राजनीति को उघाड़ा था उसी तरह से गीताश्री ने प्रार्थना के बाहर में महानगर में अपने सपनों को पूरा करनेवाली लड़की की आजादी की ख्वाहिश को उकेरा है । इसी तरह से अगर देखें तो गोरिल्ला प्यार में गीताश्री ने आज की पीढ़ी और समाज में आ रहे बदलाव और बेफिक्री को उजागर किया है । गीताश्री की कहानी में जिस तरह की भाषा को इस्तेमाल होता है वो हमें हमारी विरासत के साथ साथ आधुनिक होती हिन्दी की याद भी दिलाता है । एक तरफ तो उनके पात्र सोशल मीडिया की भाषा में संवाद करती है तो दूसरी तरफ बिंजली के फूल खिलने जैसे मुहावरे का प्रयोग भी करती हैं, जिसका सबसे पहले प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने किया था लेकिन दोनों के संदर्भ अलग हैं और अलग अलग अर्थों में प्रयोग हुए हैं । गीताश्री अपनी कहानियों के माध्यम से शहर और ग्रामीण दोनों परिवेश में आवाजाही करती हैं लेकिन उनकी शहरी कहानियां पाठकों को ज्यादा पसंद आती हैं क्योंकि उसमे बदले हुए समय को पकड़ने की महीन कोशिश दिखाई देती है । इसी तरह से अगर हम देखें तो इंदिरा दांगी की कई कहानियों में भी समाज के बदलते हुए परिवेश को पकड़ने की कोशिश की गई है । इंदिरा दांगी की एक कहानी है – शहर की सुबह – उसमें भी शहरी जीवन और वहां रहनेवालों के मनोविज्ञान का बेहतर चित्रण है । जयश्री राय ने भी अपनी शुरुआती कहानियों से काफी उम्मीदें जगाईं थी । जयश्री राय की भाषा, कहानियों का प्लाट और नायिकाओं के साहसपूर्ण फैसले पाठकों को उन कहानियों की ओर आकर्षित कर रहे थे लेकिन जयश्री राय ने अपने लिए जो चौहद्दी बनाई उससे वो बाहर नहीं निकल पा रही हैं । उनमें संभावनाएं हैं लेकिन सफल कहानियों के फॉर्मूले से बाहर निकलकर आगे बढ़ना होगा । इसी तरह ये योगिता यादव ने भी अपनी कहानियों में नए प्रयोग किए हैं, भाषा के स्तर पर भी कथ्य के स्तर पर भी । योगिता यादव निरंतर लिख रही हैं और हिंदी कहानी को उनसे काफी उम्मीदें हैं । दो और कथाकारों ने अपनी काहनियों से मेरा ध्यान आकृष्ट किया – ये हैं राकेश तिवारी और पंकज सुबीर । राकेश तिवारी की कहानी मुकुटधारी चूहा गजब की कहानी है । वो इसके एक पात्र मुक्की के बहाने कथा का ऐसा वितान खड़ा करते हैं पाठक चकित रह जाता है । इसी तरह से महुआ घटवारिन लिखकर पंकज सुबीर ने हिंदी कहानी में अपनी उपस्थिति तो दर्ज कराई ही पाठकों के बीच भी उसको खासा पसंद किया गया । ये चंद नाम हैं हिंदी कहानी के जो अपने समय को पकड़ने में कामयाब हैं । हो सकता है कि इस तरह की कहानियां लिखनेवाले और लेखक होंगे । आवश्यकता इस बात की है कि आलोचकों और कहानी पर लिखनेवालों को भी इन कहानीकारों की पहचान कर उनको उत्साहित करना होगा । आलोचको को भी जंग लगे और भोथरा हो चुके मार्क्सवादी औजारों को अलग रखकर इन कहानियों पर विचार करना चाहिए । इससे भी ज्यादा जरूरी ये है कि आलोचकों को अपने लेखन में प्रगतिशील बेइमानी से बचना होगा क्योंकि ज्यादातर कहानीकारों ने उनकी वाहवाही हासिल करने के लिए ही विषयगत प्रयोग नहीं किए । जिस तरह से राजनीति में नरेन्द्र मोदी और संघ की आलोचना करते ही सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट मिल जाता है उसी तरह से कहानीकारों को भी भोगे हुए यथार्थ के लिखते ही कहानीकार का सर्टिफिकेट मिल जाता रहा है । कहानी के हित में  इससे अलग हटने की आवश्यकता है ।
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