
Socialist Factor 22 May 2016
जल रही है धरती उबल रहे हैं लोग - भरत तिवारी
आग और पानी से हम बहुत खेले. यह भूल के कहीं उन्होंने हमारे साथ खेला तब क्या होगा. आग आसमान से भी बरस रही है और ज़मीन से भी, और ये सिर्फ हमारे शहर, हमारे प्रदेश या देश में नहीं हो रहा है, कमोबेश सारी दुनिया में ऐसा हो रहा है. राजधानी क्षेत्र दिल्ली में आग ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया दफ़्तर पर हमला किया, यह खुशकिस्मती रही की कोई आहत नहीं हुआ और अगले रोज़ का टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशित भी हुआ. मगर ग़ाज़ियाबाद में इंडिया मार्ट के दफ़्तर में लगी आग से पाँच युवा झुलस के मर गए. उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों की तरफ़ देखें तो हालात बार-बार बेक़ाबू होते नज़र आते हैं। जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती पुंछ के जंगलों में आग से बारूदी सुरंगों में विस्फोट होने की ख़बर है। एक वाक्य में कहा जाये तो सारे देश में आग लगी हुई है या फिर सारे विश्व में ? कैनाडा के अलबर्टा के जंगल में लगी आग की भीषणता को कैसे लिखा जाए, यहां आग के चलते पूरे शहर को ख़ाली कराना पड़ा, ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। ऐसी हज़ारों घटनाएँ हैं और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। नासा से आने वाली ख़बर डरा और चेता दोनों रही है, बीते अप्रैल का महीना मौजूद आंकड़ों के हिसाब से अब तक का सबसे गर्म अप्रैल रहा है। इसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता था लेकिन नहीं क्योंकि बात सिर्फ इस एक महीने की नहीं है, इसके पहले बीते एक-के-बाद-एक ६ महीनों ने भी गर्म महीनों के रिकॉर्ड को तोड़ा है। मतलब विश्व में गर्मी का स्तर लगातार विस्मयकारी रूप से बुरी दिशा में बढ़ रहा है। इसे प्राकृतिक मानना खुद को धोखा देना होगा। और ऐसा क्यों हो रहा है यह पूछना मूर्खता। जिम्मेदारी फौरन समझने पर ही कुछ हो सकता है, वरना आप खुद समझदार हैं क्योंकि जो तस्वीर बन रही है वह बहुत भयावह है।
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पिछले दिनों तस्वीरों की एक प्रदर्शनी में जाना हुआ। इंडिया फोटो आर्काइव फाउंडेशन द्वारा, नौ नवोदित छायाकारों को ‘world of recycle’ यानी ‘कूड़ा-कबाड़ की दुनिया’ जैसे ज़मीनी मगर समाज से कटे मुद्दे की तस्वीरें उतारने के लिए दी गयी ग्रांट का नतीजा, इस प्रदर्शनी में बहुत सुन्दर फ़ोटोग्रा़फ्स देखने को मिले। फोटोग्राफी, समय को चित्रों में बाँधने-वाली अतिमहत्वपूर्ण कला है। ऐसी कला जो सभी-को आकर्षित करती है और जैसा अन्य कलाओं के साथ है छायाकारी भी गंभीर साधना मांगती है – यह कैमरे से खींची गयी कोई-भी तस्वीर नहीं है। कुछेक वर्ष हुए, मुझसे देश के एक बड़े छायाकार ने कहा था – जब तुम 10,000 फोटो खिंच लेना उसके बाद ही यह सोचना कि तुम तस्वीरें खींचना सीख सकते हो... आज मुझे लगता है कि इसमें एक-दो जीरो और बढ़ा देने पर भी, कोई तब तक छायाकार नहीं बन सकता यदि उसके पास लैंस से दुनिया देखने की नज़र और गुरु का साथ नहीं मिले। जहाँ तक गुरुओं की बात है, तक़रीबन सारी दुनिया में ही फोटोग्राफी-कलाक्षेत्र में गुरुओं की कमी है खासकर नए छायाकारों के मार्गदर्शन के लिए। और यदि कोई सिखाने वाला होता भी है तो उसकी मोटी-फीस बीच में आ जाती है नतीज़तन नए छायाकारों और फोटोग्राफी-कला दोनों को ही नुकसान पहुँचता है। ऐसे समय में निराशा को दूर करने वाले ‘इंडिया फोटो आर्काइव फाउंडेशन’ के आदित्य आर्या और पार्थिव शाह इस प्रोजेक्ट के जूरी सरीखे लोग भी हैं जो अनुदान दे कर फोटोग्राफी और फोटोग्राफर दोनों की सहायता कर रहे है। उनको दिल से धन्यवाद वरना इतनी जिंदा तस्वीरें पैदा ही नहीं हो पातीं।
भरत तिवारी
mail@bharattiwari.com
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1 टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-05-2016) को "आस्था को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती" (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'