“तुम जिसे खिलाने की कोशिश कर रहे हो, मेरा नाम वही है। इसकी उत्तेजना मत बढ़ाओ। इतना मत छुओ इसे, डालियां गर्भवती हो जाएंगी।”
Romantic Hindi Kahani
Tram No. 5 aur Bohemian Dhun - GeetaShree
कहानी को पढ़ता पाठक कहानी के शिल्प में डूब जाए और शब्द चित्र बन जाएँ, छोटा सा वाक्य दृश्य बन जाए और कहानी में लिखी प्रकृति उसके फूल-बादल-और-हवाएं उसे छूने लगें... ऐसी है गीताश्री की ‘ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन’। हिंदी कहानी में नयी-बासंती-बयार उतर रही है। इनदिनों गीताश्री की कहानियों में आया नयापन विस्मृत किये जा रहा है, यह वही नयापन है जिसे मैंने शब्दांकन पर उनकी पिछली कहानी 'डाउनलोड होते हैं सपने' के समय भी बताया था. गीताश्री की कहानी पर कथाकार उषाकिरण खान ने अपनी फेसबुक वाल पर कहा है —
जनसत्ता मे गीताश्री की चमत्कृत करनेवाली कहानी पढ गयी । पात्रों के साथ लेखक का ग़जब तादात्म्य है।
अलग से -- मै वंदना राग के आकलन की तसदीक करती हूँ। तुम्हारा बढा हुआ क्षेत्र बहुत सारी अच्छी कहानियाँ लिखवायगा।
बधाई गीताश्री !
कथाकार वंदना राग के जिस आकलन की उषाजी तसदीक कर रही हैं वह उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था, जो कुछ यों है —
हाल ही में गीताश्री की कहानी जनसत्ता में पढ़ी और वासंती बयार से मानो छू गयी. गीता का नायक, चेक संगीत का जादूगर दोज़र्क, नायिकाओं के दोहरे चरित्र वाली दो नायिकाओं का प्रतिबिम्ब मन में धंस गया . जैसे धंस गया है मैगनोलिया. मैग्नोलिया जो आशा का परम द्योतक है और , अवसाद में भी इच्छा और कामना का बेहतर भविष्य सृजित करता है. सुन्दर कहानी की बधाई गीताश्री .सोचा था अपनी बात तुम्हारी कहानी डाउनलोड होते सपने से शुरू करुँगी लेकिन, देर होती चली गयी और एक युवा लड़की के संघर्ष और शोषणकारी मान्यताओं से मेरी मुठभेड़ कराती तुम ले आई मुझे एक ऐसे संसार में जहाँ सबकुछ सुन्दर तो है, अहलदा भी है इस देश से लेकिन फिर भी स्त्री के सवालों की connectivity और निरंतरता वैसे ही बनी हुई है जैसे सृष्टि के अन्य व्यापक कोनों में. इसी स्त्री की बात तुम तरह तरह से कहती हो. अच्छा लगता है. Marx की बात याद आ रही है" हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने के लिए अपनी जंज़ीरों के अलावा" , यह युक्ति हर उस व्यक्ति के लिए है जिसे संघर्ष कर एक नयी दुनिया बनानी है. इसीलिए तोड़ना तो होगा ही बहुत कुछ ... गर्व से तोड़ डालो सारे ब्राह्मणवादी और शुचितावादि फरमान. पुनः बधाई.
आपका बहुत वक़्त तो नहीं लिया न ? कहानी पढ़िए... और अपनी टिप्पणी भी दीजियेगा.
दिल से
भरत तिवारी
जनसत्ता मे गीताश्री की चमत्कृत करनेवाली कहानी पढ गयी । पात्रों के साथ लेखक का ग़जब तादात्म्य है।
अलग से -- मै वंदना राग के आकलन की तसदीक करती हूँ। तुम्हारा बढा हुआ क्षेत्र बहुत सारी अच्छी कहानियाँ लिखवायगा।
बधाई गीताश्री !
कथाकार वंदना राग के जिस आकलन की उषाजी तसदीक कर रही हैं वह उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था, जो कुछ यों है —
हाल ही में गीताश्री की कहानी जनसत्ता में पढ़ी और वासंती बयार से मानो छू गयी. गीता का नायक, चेक संगीत का जादूगर दोज़र्क, नायिकाओं के दोहरे चरित्र वाली दो नायिकाओं का प्रतिबिम्ब मन में धंस गया . जैसे धंस गया है मैगनोलिया. मैग्नोलिया जो आशा का परम द्योतक है और , अवसाद में भी इच्छा और कामना का बेहतर भविष्य सृजित करता है. सुन्दर कहानी की बधाई गीताश्री .सोचा था अपनी बात तुम्हारी कहानी डाउनलोड होते सपने से शुरू करुँगी लेकिन, देर होती चली गयी और एक युवा लड़की के संघर्ष और शोषणकारी मान्यताओं से मेरी मुठभेड़ कराती तुम ले आई मुझे एक ऐसे संसार में जहाँ सबकुछ सुन्दर तो है, अहलदा भी है इस देश से लेकिन फिर भी स्त्री के सवालों की connectivity और निरंतरता वैसे ही बनी हुई है जैसे सृष्टि के अन्य व्यापक कोनों में. इसी स्त्री की बात तुम तरह तरह से कहती हो. अच्छा लगता है. Marx की बात याद आ रही है" हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने के लिए अपनी जंज़ीरों के अलावा" , यह युक्ति हर उस व्यक्ति के लिए है जिसे संघर्ष कर एक नयी दुनिया बनानी है. इसीलिए तोड़ना तो होगा ही बहुत कुछ ... गर्व से तोड़ डालो सारे ब्राह्मणवादी और शुचितावादि फरमान. पुनः बधाई.
आपका बहुत वक़्त तो नहीं लिया न ? कहानी पढ़िए... और अपनी टिप्पणी भी दीजियेगा.
दिल से
भरत तिवारी
ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन — गीताश्री
वह मुस्कुराती हुई सामान समेटने लगी। उसे जल्दी थी। उसका ट्राम छूट रहा था। उसने हौले से बाय कहा... उसने जोर से थैंक्यू कहा। गेस्ट हाउस की हवा में कुछ आत्मीय संवादों की गुंजाइश बनी। वह भी पीछे-पीछे ट्राम के लिए निकला पर गली में कहीं वह नजर नहीं आई।
रोज की तरह वह सुबह-सुबह उस वीरान से ‘लतुस्का’ गेस्ट हाउस में घुसी और खाली पड़े रसोई में रौनक भरने लगी। अपने साथ लाई गई चीजें उसने टेबल पर सजाना शुरु कर दिया। गेस्ट हाउस में दस गेस्ट ठहरे हैं, सुबह उनके नाश्ते का इंतजाम उसी के जिम्मे हैं। सारे अतिथि सुबह उठते तो टेबल पर सबकुछ सजा होता। अकेली एक स्त्री उन्हें इशारा करती। जब सब खा चुके होते तो वह चुपचाप सारा सामान समेटती और गेस्ट हाउस से निकल जाती। किसी से बात नहीं करती और न किसी को मौका देती कि कोई सवाल पूछे। उसका यहां के लोगों से बस इतना-सा ही रिश्ता था कि वह सुबह-सुबह सबकी भूख मिटा देती थी। वह खामोश-सी औरत मुसकुराना भी नहीं जानती थी। एक कोने में बैठ कर वह अतिथियों के खाने का नजारा लेती और बीच में कभी न पड़ती। सब कुछ जैसे अपनी जगह पर धरा होता था। सीमित व्यंजन थे। रोज वहीं मेन्यू। लोग भले नए। पहली बार कोई वहां लंबे समय के लिए ठहर गया। वह आम लोगों जैसा नहीं था कि चुपचाप कुछ भी खा लेता। वह खाने को ऐसे घूरता जैसे सामने कोई चुनौती रखी हो और जिसका सामना उसे मजबूरन करना है। ठंडे बन्स, उबले अंडे और उबली हरी सब्जियों को देख कर वह ठंडी सांसे छोड़ देता। वह देखती कि बेमन से अपनी प्लेट में सारी चीजें लेता और उसी अंदाज में खाता। बाकी लोग बातें करते और खाते जाते। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि खाने में फाइव स्टार होटल जैसा प्रचुर भंडार नहीं है। इस वीराने गेस्ट हाउस में जो मिल जाता, उसे खा कर संतुष्ट थे। सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर जो हर सुबह आतंकित रहता। वह समझ रही थी और ऊब और परेशानी की लकीरें उस आदमी के चेहरे पर साफ दिखने लगी थीं।
वह रोज सुबह कमरे से निकलता तो थोड़े रंग और एक माउथ-आर्गन जेब में रख लेता। यूरो रखना भले भूल जाए पर पेंट और ब्रश रखना नहीं भूलता। पिछले एक महीने में जान गया था कि पेंट और माउथ -आर्गन ज्यादा कीमती है किसी भी रुपये, पौंड और यूरो से। हुसैन-सी दीवानगी का शिकार तो था उसकी दीवानगी कुछ अलग तरह से निकलती थी। ठंड से सिहरती आंखों से वह उस सुंदर शहर में रोज खाली वस्तुएं ढूंढता है। उस शहर में अपनी छवि रंग टपकाते पेंटर की तरह नहीं छोड़ना चाहता था। हाथ में मोटा ब्रश लेकर, रंग टपकाती कनस्तर लेकर चलने के खुमार से वह खुद को ऊपर उठा चुका था। इस शहर में न कोई लावारिस कार दिख रही थी न किसी की टूटी-फूटी बदरंग दीवार जिसे पोत -पोत कर अपने मन का गुबार निकाल सके। पिछले एक हफ्ते से आवारा आंखें आवारा चीजों की तलाश में हैं। सुबह का उबाऊ, ठंडा नाश्ता किसी तरह गटक कर गेस्ट हाउस से बाहर निकल आया। अप्रैल के महीने में भी बाहर हल्की ठंडी हवाएं चल रही थीं। मफलर की जगह अपने देसी गमछे को गले में लपेटता हुआ वह लंबी गली पर चल पड़ा जो कुछ दूर जा कर पक्की सड़क से मिल जाती थी। वहीं से उसे प्राग के नेशनल आर्ट गैलरी में जाने की ट्राम मिल जाती थी। पिछले कुछ दिनों से यही उसका रुटीन था। नेशनल गैलरी में उसकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी एक महीने तक चलेगी। रोज वहां जाना अनिवार्य था। ट्राम नंबर 5 आ चुकी थी। झट से ऊपर चढ़ गया। सड़क पर चलती ट्राम उसे बहुत मजेदार लगती। रोज इसी से सफर करता था। ट्राम ने देवप्रकाश को और देव ने ट्राम को अच्छे से पहचान लिया था। खिड़की से लगातार बाहर देखता रहता। वह हरियाली ढूंढ रहा था। चारों तरफ पेड़-पौधे निर्वस्त्र दिखाई दे रहे थे।
“ओह... कैसे समय में मैं आया कि प्रकृति इतनी वीरान...” वह मन ही मन झुंझला उठा। एक महीने में अगर प्राग में प्रकृति का यही हाल रहा तो वह यहां का लैंडस्केप कैसे बना पाएगा... क्या भरेगा इन पेड़ों के चित्रों में... पत्ते कैसे होंगे... फूल कैसे आते होंगे... खिलते होंगे तो शहर का चेहरा कितना बदल जाता होगा। अपने लैंडस्केप के लिए वह प्राग के लैंडस्केप को जी भर जीना चाहता था। उसे कैमरे में कैद करके भारत लौटना चाहता था ताकि वहां बड़े कैनवस पर उन्हें उतार सके। ट्राम से उतरने के बाद गैलरी तक पैदल पांच मिनट की दूरी थी। गैलरी से पहले एक छोटा सा मकान पेड़ो से घिरा हुआ दिखता था। खूब पेड़ लगे हुए पर सब पत्रहीन गाछ। निर्वस्त्र पेड़ों को देखकर उसे अजीब-सी वितृष्णा होती। बेवजह उदासी चुपचाप उसके चेहरे पर पसरने लगती। फिर भी उधर से गुजरते हुए रोज वहां ठिठकता, उन्हें छूता और कुछ देर वहां बैठना चाहता। पेड़ों के पास एक टूटी हुई बेंच रखी नजर आई। वह धम्म से वहां बैठ गया। उसे बैठना अच्छा लगा। बेंच को एक पेड़ की टहनियां छू रही थीं। उसने हौले से उसे खींचा... उसे सहलाया... बहुत कोमल थी जैसे प्राची की हथेलियां। प्राची उसके करीब आई ही क्यों, क्या सिर्फ एक बच्चे के लिए उसका इस्तेमाल किया और छोड़ गई ? या उसे पेंटर से फैशिनेशन था? उसने बहुत कुछ छिपाया मुझसे। अपना शादीशुदा होना भी और बच्चे की चाहत भी। जाते समय वह व्यथित नहीं, बहुत शांत और भरीपूरी दिख रही थी। सबकुछ खत्म हो रहा था उसकी तरफ से, मैं टूट रहा था दूसरी तरफ। अपने किरचों से ही लहूलुहान, उसका बहाना भी अजीब, पति की नई नौकरी मैड्रिड में लगी है। जाओ प्राची, किसी दिन आऊंगा पीछा करता हुआ, तुमसे जवाब मांगने और शायद उसे देखने जिसकी आशंका प्रबल है मुझे। हो न हो... वो मेरा ही अंश है... उसका चेहरा देखूंगा एक बार... आऊंगा। ओह... प्राची यहां भी साथ चली आई। उसने पेड़ को भरपूर निगाहों से देखा। उसके तने को, शाखों को छू-छू कर देखता रहा, पेंट निकाला और उसके मोटे तने पर रंग-बिरंगे फूलों का गुच्छा बना दिया। थोड़ी देर बाद वह माउथ-आर्गन पर कोई दर्द भरा नगमा बजा रहा था।
सुबह नाश्ते से पहले भी यही धुन बजाने लगा। वह स्त्री प्लेट उठाती हुई ठिठक गई। पलट कर उसे देखा, चेहरे पर पहली बार उसे हरियाली नजर आई। भावहीन चेहरे पर स्मित-सी आई और लोप हो गई। फिर काम में लग गई। काम में जरा तेजी जरूर आ गई। वह और उत्साह में भर कर बजाने लगा। उसे लगा कि कोई कद्रदान मिल गई। वह उसे टोकना चाहता था। कहे तो क्या? क्या पता अंग्रेजी आती भी है या नहीं ? यहां तो भाषा बड़ी समस्या है। या तो चेक बोलते हैं या थोड़े बहुत जर्मन। अंग्रेजी बोलने-समझने वाले कम हैं। फिर भी वह उस स्त्री को कुछ कहेगा। माउथ-आर्गन जेब में रखता हुआ उसके पास गया —
“हैलो मादाम ! यू नो इंगलिश ?”
वह सिर हिलाई-
“यू नो... दिस सॉंग... हिंदी फिल्मी... ये अपना दिल...”
वह मुस्कुराती हुई सामान समेटने लगी। उसे जल्दी थी। उसका ट्राम छूट रहा था। उसने हौले से बाय कहा... उसने जोर से थैंक्यू कहा। गेस्ट हाउस की हवा में कुछ आत्मीय संवादों की गुंजाइश बनी। वह भी पीछे-पीछे ट्राम के लिए निकला पर गली में कहीं वह नजर नहीं आई। वह गली में मस्त धुन बजाता हुआ चलता रहा। उसे उन फूलों की याद आ रही थी जो अभी तक खिले नहीं थे, जिसका नाम तक नहीं जानता था और जिसके खिलने का इंतजार था ताकि उसकी पेंटिंग बना सके।
गैलरी जाते समय शाखों को हिला गया। बड़बड़ाते हुए- “तुम अब खिल भी जाओ... मेरे जाने का वक्त आ रहा है।“ डालियां हिलीं तो कोंपले कंपकंपाई होंगी। शाम को उसके साथ बैठना था। दिन भर कला-प्रेमियों का तांता लगा रहता है। गैलरी के ठीक सामने सिटी सेंटर है और उसके एक छोर पर ओपेरा-हाउस। शाम तक आर्ट गैलरी भरी रहती है। कला-प्रेमियों और संगीत प्रेमियों से। कुछ पर्यटक भी होते हैं जो टाइमपास के लिए गैलरी का चक्कर लगा लेते हैं। इंडियन तो बिल्कुल अंदर नहीं आते। कुछ इंगलिश स्पीकिंग लोगों को चित्रों के बारे में समझाना पड़ता है। कुछ लोग कैटलौग लेकर पढ़ते हुए घूमते हैं तो कुछ लोग चित्रकार को खोजते हैं। फोटो खिंचवाते हैं... यह सब दिन भर चलता है। बीच बीच में वाई-फाई का फायदा उठाते हुए दिल्ली के कला समीक्षक विनय सरदाना से बात कर लेता है।
उसने चैट से नजर ऊपर उठाई । उसकी पेंटिग के सामने एक औरत की पीठ दिखी। सफेद और बादामी रंगों की लंबी पतली जैकेट पहन रखी थी। लंबी बूट और छोटा-सा पर्स। वह पीठ कुछ जानी पहचानी-सी लगी। गैलरी के कोने से उठा और उस औरत तक पहुंच गया। वह उत्सुक था कि देर से वह एक ही पेंटिग को देख रही थी। वह सोल्ड थी। उस पर लाल बिंदी चिपकी हुई थी। औरत की पीठ स्थिर थी। अपलक उसे देख रही थी। देव ने चकित होकर अपनी पेंटिग को उस औरत की निगाह से देखा।
“आप... यहां ?” उसने हाथ बढ़ाया मुस्कुराते हुए। हक्का-बक्का देव ने हाथ मिलाया। उसे सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि वह सुबह वाली स्त्री यहां मिल जाएगी।
“मेरा घर यही पास में है। मैं अक्सर शाम को यहां आती हूं।”
वह टूटी फूटी अंग्रेजी में यही बता रही थी।
उसने गैलरी के सामने चौराहे की तरफ इशारा किया-“वहां चलें, बीयर हो जाए।“
सामने हार्ड रॉक कैफे दिख रहा था।
“आपने अपना नाम नहीं बताया?”
देव ने सकुचाते हुए पूछा। बियर की ठंडक गले के अंदर लकीर-सी खींचती चली गई थी। भीतर मौसम बदल रहा था।
“आपने भी तो अपना नाम नहीं बताया मि. देव”
वह शरारती हंसी थी।
”आप मेरा नाम जानती हैं? ओ एम जी !! देव ने माथा ठोका।
उसने अपना हाथ बढ़ाया, बियर का ग्लास थामी हुई हथेलियां खाली न थीं कि हाथ मिलातीं। देव ने अपना हाथ वापस ले लिया। कुछ देर चुप्पी छाई रही। जैसे उसके होंठ नाम बताना नहीं चाह रहे हो। देव को लगा, उसे यहां से उठ कर सीधे वहां चला जाना चाहिए, जहां कुछ डालियां, कुछ तने और एक बेंच उसका इंतजार करते हैं हर शाम। अचानक इस तरह उठ कर जाना अभद्रता होगी। उसके चेहरे पर असमंजस और ऊब के भाव वह पढ़ सकती थी।
“आप जा सकते हैं... मैं यहां कतई बोर नहीं होऊंगी। मैं यहां कुछ पढ़ लूंगी या दोजार्क की सिंफनी सुनूंगी।”
“दोझार्क की सिंफनी न. 7 मेरी फेवरेट है, मैं उसे माउथ-आर्गन पर बजाने की कोशिश करता हूं, सुनाऊंगा कभी।”
उसने हाथ पकड़ लिए। बियर के मग से ठंड़ी हथेलियां उसे कंपकंपा गई। नस-नस में ठंड घुसी चली जा रही थी। बमुश्किल हाथ छुड़ा कर वह निकल पाया। वहां सरपट भागता हुआ उन पेड़ों के पास आकर रोज की तरह उन्हें छूने, सहलाने लगा। देर तक वहां बैठा रहा।
“तुम जिसे खिलाने की कोशिश कर रहे हो, मेरा नाम वही है। इसकी उत्तेजना मत बढ़ाओ। इतना मत छुओ इसे, डालियां गर्भवती हो जाएंगी।”
देव चौंक गया। कोई स्त्री स्वर था, जिसे हजारों की भीड़ में भी पहचान सकता था। वह आवाज यहां कैसे... पलट कर गेट की तरफ देखा। कोई स्त्री साया धीरे-धीरे इमारत की तरफ जाते ही लोप हो गया। गेट हौले-हौले हिल रहा था। देव उठकर गेट के अंदर भागा। वह साये का पीछा करना चाहता था। घर का दरवाजा बंद था। क्या वो यहां रहती है? क्या वह रोज उसे यहां देख रही है ? उसके पागलपन को, उसके दीवानेपन को, एक पेड़ के प्रति, फूल के प्रति। रोज वह माउथ-आर्गन सुनती है पर उसने कभी भनक न लगने दी। कल सुबह उससे बात करूंगा। मन में आया कि दरवाजा खटखटा दे। कुछ सोच कर सहम गया। पता नहीं अंदर कौन-कौन हो और फिर अनजाने देश में कोई समस्या खड़ी हो जाए। मन मार कर देव लौटने लगा। ट्राम नं.5 का वक्त हो गया था।
सुबह नाश्ते के लिए झटपट वह उठ कर डाइनिंग हौल की तरफ भागा। आज बात करेगा उससे। नाम पूछ कर रहेगा। नहीं तो उसके सहयोगी से पूछेगा।
कल शाम की रहस्यमयी आवाज उसका पीछा कर रही थी। नाश्ता वैसे ही सजा हुआ था पर वह नदारद थी। सब लोग चुपचाप नाश्ता कर रहे थे। उसका सहयोगी चीजों को करीने से सजाने में लगा था।
“वो मैडम क्यों नहीं आईं ?”
“फिलहाल कुछ दिन नहीं आएंगी हाना मैम। उनके बेटे की तबियत खराब है। घर पर कोई देखने वाला नहीं। क्रेच में बीमार बच्चे को रखते नहीं।“
उबले अंडे, सूखे ब्रेड के साथ मुंह में ठूंसता हुआ गैलरी के लिए चल पड़ा। उसे कुछ खाली-खाली-सा लग रहा था। वह ट्राम नं. 5 पकड़ कर देविश्का चौराहे पर उतरा और सीधा पेड़ के पास बेंच पर बैठ गया। गैलरी जाने और किसी से मिलने, बात करने का मूड नहीं हो रहा था। शाखों पर कोंपले आ चुकी थीं। उसके अंदर से गुलाबी-सफेद कलियां झांक रही थीं। माउथ-आर्गन पर कोई इंगलिश धुन बजाने लगा।
“तुम बसंत जल्दी ले आए... तुमने उसे खिला दिया। मैंने कहा था न ज्यादा उत्तेजित मत करो “
पीछे से पहचानी-सी आवाज आ रही थी। देव सुखद आश्चर्य में गोते लगा रहा था।
“हाय... मेरा नाम मैगनौलिया उर्फ् हाना है। तुमने जिसे खिला दिया, उस फ्लावर का नाम भी यही है। मैं बसंत के दिनों में ही पैदा हुई थी, इसलिए मेरे माता-पिता ने यह नाम रखा। गुलाबी-सफेद रंगों वाली मैगनौलिया। वह बेंच पर उससे सट कर बैठी थी। कोई मादक-सी खूशबू उसके बदन से निकल रही थी।
“मेरा ब्वायफ्रेंड मुझे छोड़ गया, जब मैं प्रिगनेंट थी। वह काफ्का के लिटरेचर पर रिसर्च कर रहा था।“
देव ने माउथ-आर्गन पर सिंफनी बजाने की कोशिश करने लगा। हाना ने रोका-
“तुम पक्के बोहेमियन हो, कहां 19वीं शताब्दी में पहुंच गए हो? इस धुन को आज छोड़ दो, आज तो हमें दोर्जाक की “न्यू वर्ल्ड सिंफनी” सुननी चाहिए। बजाओ ना... सुना है या नहीं... सिंफनी नं.9। मैं सुनाऊं... बसंत का स्वागत इस धुन से करो”
हाना ने मोबाइल पर वह सिंफनी बजा दी। देव को लगा अचानक वह बियावां से निकल कर घने जंगल में पहुंच गया है, पेड़ों से पानी की बूंदें झर रही हैं, झाड़ियों से रोशनी फूट रही है, हिरनें कुलांचे भर रहे हैं... गुलाबी-सफेद फूलों से प्राग के सारे पेड़ लद गए हैं। यह सब एक बड़े कैनवस पर कोई पेंट कर रहा है।
वह सुनने के बजाय देख रहा था ।
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