सीता राम और रावण — हृषीकेश सुलभ की अतिमर्मस्पर्शी कहानी




Sita Ram aur Ravana - Hindi Kahani

Hrishikesh Sulabh

वर्तमान समय के मेरे सबसे प्रिय कहानीकार हृषीकेश सुलभ की कथा शैली सुन्दर स्वप्न की भांति मनमोहक है. उनको पढ़ना हर बार बिलकुल-नया अनुभव देता है. 
आभारी हूँ उनका 'सीता राम और रावण' जैसी कहानी — जिसे पढ़ते हुए आँखें नम हो गयीं — शब्दांकन को उपलब्ध कराने के लिए. 

अतिमर्मस्पर्शी कहानी !  

भरत तिवारी

सीता राम और रावण 

एक थी ननद और एक थी उसकी भौजाई।

एक दिन ननद-भौजाई दोनों पानी भरने चलीं। नदी दूर थी। राह में चलते हुए दोनों आपस में हँसी-ठिठोली करती रहीं।

नदी किनारे पहुँचकर दोनों सुसताने लगीं। चलते-चलते थक गई थीं दोनों। नदी की झिर-झिर बहती धारा में अपने पाँव लटकाए दोनों घाट किनारे बैठी थीं। ननद ने अपनी भौजाई से कहा - ‘‘भौजी, जिस रावण ने तुम्हारा हरण किया था उसका चित्र उरेह कर दिखाओ।‘‘

‘‘ना। ......ना बाबा ना।‘‘ भौजाई बोली।

‘‘भौजी, हमारा मन एक बार उस पुरुख को देखने का कर रहा है, जो तुम्हें हरण कर ले गया।“ ननद ने भौजाई से इसरार किया।

‘‘अगर मैंने रावण का चित्र उरेहा........, तुम्हें दिखाया...... और जो तुम्हारे भाई को पता चला, मुझे देश निकाला मिल जाएगा। ......ना मेरी प्यारी ननद, ऐसी जिद न करो।‘‘ भौजाई ने ननद को समझाना चाहा।

ननद अपनी जिद पर अड़ी रही। अपनी भौजाई की एक न सुनी उसने। अपने पिता और भाइयों की सौगन्ध खाकर उसने बार-बार भौजाई को भरोसा दिलाया कि किसी को पता न चलेगा।

एक ओर ननद का हठ और दूसरी ओर पति का भय। अंततः ननद के लिए उसका नेह-छोह विजयी हुआ। बोली वह - ‘‘ जाओ, चित्र उरेहने के लिए कूची और रंग ले आओ।‘‘

ननद भागती-दौड़ती वृक्षों-वनस्पतियों और लताओं के पास गई। रंगों के लिए किसिम-किसिम के फूलों और पत्तों को चुना। क्षमा अरजती हुई वृक्षों से छाल लिया और कूची के लिए कोमल टहनियों को तोड़ा। वापस नदी तट पहुँची। नदी से जल ले आई। रंग बनाया। कूची तैयार किया। नदी-तट की भूमि को लीप कर चित्र के लिए भूमि-पट तैयार किया।

भौजाई चित्र उरेह रही थी और ननद उत्सुक भाव से रावण के बनते चित्र को निहार रही थी।

सीता ने सबसे पहले रावण के हाथ बनाए। हाथ के बाद पाँव रचे। हाथों और पाँवों के बीच के भाग - गरदन, छाती, पेट आदि को बनाया। फिर मुख उरेहना शुरु किया। आँखों को रच ही रही थी कि उसके पति राम वहाँ आ पहुँचे। वे अहेरी पर निकले थे। जंगल में भटकते-भटकते उन्हें और उनके घोड़े को प्यास लग आई थी, सो वे नदी-तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उनकी नज़र पत्नी और बहन पर पड़ी। वे हर्षित-मन उन दोनों के पास आए।

अचानक राम को अपने सामने पा कर सीता अचकचा गईं। सिहर उठी उनकी देह और थर-थर काँपा मन। सीता ने धरती पर अपना आँचल पसार दिया और उरेहे गए रावण के चित्र को ढँक दिया।

राम ने कुशल-क्षेम पूछा और अपने घोड़े को जल पिलाया। स्वयं भी नदी से अँजुरी में जल भर-भर कर पीने के बाद अहेरी के लिए जंगल में चले गए।

अब राम ही जानें कि उन्होंने सीता के उरेहे गए रावण के चित्र को देख लिया था और उस समय अनजान बने वापस लौट गए थे या अहेरी से वापस आने के बाद उनकी बहन ने चुगली की उनसे! सगरी अयोध्या के लोग-बाग आज भी मानते हैं कि उनकी बहन ने चुगली की, पर सीता को इस पर कभी भरोसा नहीं हुआ। सीता को यही लगा कि राम ने रावण के चित्र को देख लिया और पहले से ही संदेह का जो बीज उनके मन में अंकुरित हो रहा था, वही फूला-फला।

कुपित राम ने लक्ष्मण को बुलाकर कहा, ‘‘लक्ष्मण, मेरे भाई! तुम्हारी भौजाई सीता पर-पुरुष रावण का चित्र बनाती है। रावण, जो मेरा वैरी है। सीता को देश निकाला देना है। ले जाओ उसे और घनघोर वन में छोड़ आओ।‘‘

‘‘मेरी भौजाई सीता मुझे बहुत प्रिय हैं। भूखे को भोजन और नंगे को वस्त्र हां प्रिय जैसे, वैसे ही प्रिय हैं सीता मुझे। वे गर्भवती हैं। .........पूर्ण गर्भ की स्वामिनी हैं वे। भला मैं उनको कैसे घनघोर वन में छोड़ आऊँ?‘‘

राम फिर बोले, ‘‘तुम विपत्ति की घड़ी में नायक रहे हो प्रिय लक्ष्मण। वह मेरे वैरी पर आसक्त है, ...... रावण का चित्र उरेहती है। उसे हर हाल में देश निकाला देना है। जाओ, उसे वन में छोड़ आओ।‘‘

सीता के पास पहुँचे लक्ष्मण। बोले, ‘‘ मेरी भौजी सीता रानी! सुनो, तुम्हारे नइहर से बुलावा आया है। अन्न, ऋतुफल, स्वर्ण, वस्त्र लिये ब्राह्मण आया था बुलावा लेकर। कल की तिथि विदा के लिए तय हुई है। हमलोग कल भोरे-भिनसारे प्रस्थान करेंगे।‘‘

सीता सोचने लगीं। मन दुष्चिंताओं से भर गया।

दूसरे दिन अयोध्या से लक्ष्मण संग विदा हुईं सीता। विदा के समय सीता ने लक्ष्मण से कहा, ‘‘देवरजी, न तो मेरा कोई नइहर है और न मेरी कोई ससुराल है। न रहे जनक जैसे पिता अब इस दुनिया में जो अपनी बेटी को वर चुनने का अधिकार दे सके। .......मैं किसके घर जाऊँगी?‘‘

विदा के समय सीता को खोंईछा में जो अन्न मिला था, उसके दानों को एक-एक कर राह में छींटती हुई चल रही थीं वह। उन्होंने धरती माता से अरज किया, ‘‘हे माता! इन दानों को पाल-पोस कर बड़ा करना कि इनमें अन्न के दानों से भरी फलियाँ लगें, ताकि इन्हीं फलियों को तोड़ कर खाते हुए मेरे देवर लक्ष्मण वापस लौट सकें।‘‘

सीता ने पहला वन पार किया। दूसरा वन पार किया। तीसरा वन, .......मधुवन आया। इस वन में चन्दन, कदम्ब और लवँग के वृक्ष थे।

सीता ने लक्ष्मण से कहा, ‘‘हे देवर! मुझे प्यास लगी है। मेरा कंठ सूख रहा है। प्यास के मारे मेरा प्राण निकला जा रहा है। एक बूँद पानी लाओ।‘‘

लक्ष्मण ने प्यास से व्याकुल सीता को देखा। एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘‘भौजी, तुम छिन भर यहाँ बिलमो। बैठो इस वृक्ष की छाँह में। मैं पानी खोज लाऊँ, तो तुम्हें पिलाऊँ।‘‘

चन्दन वृक्ष की शीतल छाँह। झिर-झिर बहती शीतल बयार। प्यास से व्याकुल सीता धरती पर सो गईं। उनके चेहरे की कांति मिट गई थी और देह कुम्हला गई थी। उनकी आँख लग गईं। सो गईं सीता।

हृषीकेश सुलभ Hrishikesh Sulabh

लक्ष्मण ने कदम्ब के पत्ते तोड़े। उनका दोना बनाया। नदी तट गए। दोने में पानी भरा और वापस लौटे। जिस चन्दन वृक्ष के नीचे सीता सोयी थीं, उसके पास था एक लवँग वृक्ष। लक्ष्मण ने इस लवँग वृक्ष की डाल में पानी से भरा दोना टाँग दिया और अयोध्या की ओर प्रस्थान कर गए।

सीता की नींद टूटी। आँखें खुलीं। उन्होंने अचम्भित होकर चारों ओर देखा।

लक्ष्मण नहीं थे।

घनघोर वन में अपने को अकेला पाकर सीता दुखी हुईं। बिना बताए लक्ष्मण के छोड़कर  चले जाने का दुख उन्हें रुला गया। उन्हें दुख था कि वे बिना बताए चले गए और वे राम को कोई संदेश न भेज सकीं। उन्हें इस बात का मलाल था कि वे राम को जो  संदेश भेजना चाहती थीं, शायद अब कभी न भेज सकें।

सीता के गर्भ के दिन पूरे हो चुके थे। प्रसव-वेदना शुरु हो गई। सीता विलाप करने लगीं, ‘‘इस हालत में अब कौन बैठेगा मेरे आगे-पीछे? ............कौन खोलेगा मेरे बाल? इस विपत्ति की भयावह रात में कौन जागेगा मेरे साथ? कहाँ से पाऊँगी छुरी? कौन काटेगा मेरे बच्चे का नाभिनाल?‘‘

घनघोर वन की गहन कालिमा को भेद तपस्विनी देवी वनस्पति प्रकट हुईं। बोलीं, ‘‘ सीता! मैं बैठूँगी तुम्हारे आगे-पीछे। मैं खोलूँगी तुम्हारी लटें। विपत्ति की इस भयावह रात में मैं जागूँगी तुम्हारे साथ। मैं लाऊँगी छुरी और मैं ही काटूँगी तुम्हारे बच्चे का नाभिनाल।‘‘

आसमान में शुक्रतारा उदित हुआ। भोर हुई। सीता ने दो बेटों को जन्म दिया। सीता की कमर की टीस और पाँजर की पीर सिराई। तपस्विनी देवी वनस्पति ने कहा, ‘‘सीता, लकड़ियाँ जला कर प्रकाश करो और अपनी संतानों का मुख देखो।‘‘

समय अपनी गति से चलता रहा।

सीता ने अपने बेटों से कहा, ‘‘ पुत्रो! तुमने विपत्ति के दिनों और यातना के समय में जन्म लिया है। यह वन ही है तुम्हारा घर-दुआर। कुश की डंठलें और पात ही हैं तुम्हारा ओढ़ना-बिछौना। वन-फल ही तुम्हारा भोजन हैं।

सीता ने अयोध्या के लिए रोचन भेजा। रोचन यानी चन्दन और दूर्वादल के साथ पुत्रों के जन्म का संवाद। नापित से कहा, ‘‘इसे माता कौसल्या को देना। लक्ष्मण को देना। सगरी अयोध्या नगरी में बाँट देना, पर उस पापी राम को मत देना।‘‘

नापित ने अयोध्या पहुँच कर रोचन सौंपा। आभूषण, रेशमी वस्त्र और अश्व का उपहार पाकर प्रसन्नचित्त अपने घर लौटा।

एक चौकोर पोखर के तट पर बैठे राम दातुन कर रहे थे। उन्हें लक्ष्मण दिखे। उन्होंने लक्ष्मण से पूछा, ‘‘ प्रिय भाई, तुमने यह दिव्य चन्दन कहाँ से पाया? तुम्हारा ललाट दीपित हो रहा है इसकी आभा से। यह किसके जन्म का संवाद आया है तुम्हारे पास?‘‘

‘‘मेरी भौजी सीता रानी मधुवन में बसती हैं। उन्होंने ही पुत्रों को जन्म दिया है। उनका ही रोचन अपने ललाट पर धारण किया है मैंने।‘‘

राम को मानो काठ मार गया। हाथ की दातुन हाथ में ही रह गई और मुँह की बात मुँह में। सीता ने उनके लिए रोचन नहीं भेजा, यह बात उनके कलेजे में चुभ गई। पहले क्रोधित हुए। कुछ देर बाद जब क्रोध की अग्नि सिराई दुःख हुआ और उनकी आँखों से आँसू झरने लगे। आँसू की धार से पीताम्बर भींगने लगा। उन्होंने रूँधे कंठ से कहा, ‘‘सीता का हाल बताओ।..... मैं सीता को वापस लाऊँगा।‘‘

लक्ष्मण ने उत्तर दिया, ‘‘कुश ही उनका ओढ़ना-बिछौना है। वन का फल भोजन है। लकड़ी जला कर उन्होंने प्रकाश किया, तब कहीं अपनी संतान का मुँह देखा।‘‘

‘‘विपत्ति की घड़ी में मेरे नायक..... मेरे भाई लक्ष्मण! एक बार तुम मधुवन जाते और अपनी भौजी को लिवा लाते।‘‘ राम ने कातर भाव से कहा।

लक्ष्मण मधुवन पहुँचे। सीता से कहा, ‘‘भौजी, राम के मन में तुम्हारे लिए फिर दुलार आया है। तुम्हारे लिए बुलावा है। चलो अयोध्या।‘‘

सीता बोलीं, ‘‘मेरे प्रिय देवर! तुम अपने घर जाओ। मैं अब अयोध्या नहीं जाऊँगी।‘‘

माघ माह की नवमी तिथि आई। राम ने अष्वमेध यज्ञ का निरूपण किया। बिना सीता के यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता, यह जान कर राम बेहद चिन्तित हुए। लक्ष्मण पहले ही सीता को वापस लाने में असफल हो चुके थे। चिन्तातुर राम गुरु वशिष्ठ के पास गए और बोले, ‘‘हे गुरु महाराज वशिष्ठ! बिना सीता के मेरा यज्ञ पूरा नहीं होगा और उसने न आने का हठ कर रखा है। लक्ष्मण भी वापस आ चुके हैं। अब आप ही मेरी मर्यादा की रक्षा कर सकते हैं। आप किसी भाँति उसे मना कर ले आएँ। ........हे मुनि! आप सीता से कहें कि वह अपने हिय का क्रोध त्याग दे। चल कर फिर से अयोध्या को बसा दे। उसके बिना मेरा जीवन अकारथ और मेरा संसार अँधियारा हो रहा है।‘‘

गुरु वशिष्ठ मुनि अश्व पर सवार हो वन की ओर चले। मधुवन पहुँच कर ऋषि की उस कुटिया को खोजने लगे, जहाँ तपस्विनी सीता का वास था।

गुरु वशिष्ठ को अपने आँगन में पाकर सीता ने शीश नवाया। पत्तों का दोना बनाया और उसमें गंगाजल भर लाईं। सीता ने गुरु महाराज वशिष्ठ के पाँव पखारे और चरणामृत लिया। मुनिवर बोले, ‘‘सीता, तुम तो बुद्धिमति हो। श्रेष्ठ बुद्धि वाली हो, पर किसने तुम्हारी बुद्धि हर ली जो तुमने राम को बिसार दिया? ......चलो, अयोध्या चलो।‘‘

धीर-गम्भीर सीता ने विनय से शीश नवाया। कहा, ‘‘हे गुरु! आप सबका हाल जानते हैं। क्यों अनजान बन सवाल कर रहे हैं? .........हे मुनि! राम ने मुझे इस तरह सताया है कि अब मेरा चित्त उनसे कभी नहीं मिल सकता। राम ने मुझे अग्नि में डाला। अग्नि में डाल कर जलाया और मरने भी नहीं दिया। निकाल लिया। घर लाए। नइहर के लिए विदा करने का छल किया और पूर्ण गर्भ की दशा में मुझे घर से निकाल बाहर किया। अब आप ही बताएँ कि मेरा चित्त उनसे कैसे मिल सकता है? .........सो हे गुरुवर! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगी। दो पग घर की ओर चलूँगी। अयोध्या के लिए पयान करूँगी, ........पर अयोध्या नहीं जाऊँगी।‘‘

सीता के मुख पर न हर्ष था, न विषाद।

वह गुरु वशिष्ठ के साथ दो पग चलीं और फिर उन्होंने अपने पाँव धरती में रोप दिए।

(एक लोक गीति-कथा की पुनर्रचना)

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