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बशीर की कहानियां — वंदना राग | Bashir Ki Kahaniyan — Vandana Rag


बशीर की कहानियां  —  वंदना राग

Bashir Ki Kahaniyan

— Vandana Rag

कहानी से पाठक को प्रेम होने के सबसे प्रमुख कारणों में कहानी में प्रेम का होना है। वंदना राग ने ‘बशीर की कहानियां’ में प्रेम के खूबसूरत रंगों को न सिर्फ तलाशा है बल्कि उस रंग को और निखार के पात्रों को  — नाटक के स्टेज पर अलग-अलग रौशनियों और उनके अँधेरे में  — जीवित किया है. हमारे उस समय  — जिसकी बात बहुधा कविता कहती दिखती है  — को कहानी में लिख-के लेखक ने हमें एक महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट दिया है... पहले पैराग्राफ को पढ़ने के साथ-ही पाठक के भीतर की छुपी-जिज्ञासा एकदम जागती है जो कहानी के ख़त्म होने के बाद ... अंतर्मन से सवाल-जवाब में लग जाती है. 

सुन्दर कहानी – बधाई वंदना , बधाई देश निर्मोही को ‘पल-प्रतिपल’ के अच्छे अंक के लिए, साथ ही कहानी को शब्दांकन के पाठकों लिए भेजने का शुक्रिया.

भरत तिवारी

Bashir Ki Kahaniyan  — Vandana Rag

बशीर की कहानियां

—  वंदना राग


वह दिल्ली की कंपकंपाती सर्दियों वाली एक सुबह थी।

हमेशा की तरह आर्ट्स फैकल्टी के विवेकानन्द स्टैचू वाले छोटे गोल लॉन की सीढ़ियों पर हम बैठे हुए थे। हमारे पीछे लॉन की घास अभी भी नम सी थी। चारों ओर हल्के कुहासे का आभास हो रहा था। धूप की महीन चादर ओढ़े हम, अपने आप को गर्म रखने की मुश्किल सी कोशिश कर रहे थे। हमारे हाथों में कांच के छोटे ग्लास में मीठी गर्म चाय थी। हमारे क्लास का समय अभी बाकी था, और हम वहां से उठकर कहीं भी जाना नहीं चाह रहे थे। अगर जरूरी क्लास न होती, तो क्लास में भी नहीं। हमारे इर्दगिर्द रंग-बिरंगे स्वेटर शाल पहने जाने कितने किरदार किसी सिनेमा के परदे पर स्लो-मोशन में चल रहे थे। तभी वह लंबे डग भरता हमारी ओर दौड़ता चला आया था। उसकी चाल की बेलाग दौड़ जंगल के घोड़ों समान थी, जबकि असलियत में वह बहुत सभ्य और परिष्कृत था। आते ही उसने मेरी ओर देखकर कहा था,

‘चलेगी, जामा मस्जिद?’

मेरी बगल में बैठी साक्षी ने अपनी शॉल के भीतर से मेरी शॉल के भीतर, जतन से दबाए हाथों को खोज लिया और चिकोटी काटी, जिसका साफ मतलब था— नहीं... बोल नहीं।

मुझे छोटी-सी चिढ़ तंग करने लगी। इन्हें इतनी क्या जरूरत आन पड़ती है मुझे आगाह करने की? वैसे ही आज मुझे इतनी ठंड लग रही है कि मेरा कहीं भी जाने का मन नहीं था, इसीलिए मैंने उसे बेसाख्ता कह दिया था, ‘नहीं... आज नहीं, फिर कभी।’

वह मुस्कुराता हुआ उल्टे पांव लौट गया। उसे बिल्कुल बुरा नहीं लगा। वह बेहद सहज आदमी था। हमसे अलग। वह हर वक्त कही हुई बातों के पीछे के रहस्यों की पड़ताल में नहीं लगा रहता था। उसके जाने के बाद मैं अपने साथियों से लड़ने लगी थी, ‘ऐसे क्यों करने लगते हो? हर वक्त मेरे निर्णयों में घुसते रहते हो। मैं अपने निर्णय ले सकती हूं।’

‘नहींऽऽऽ!’ उन्होंने एक साथ सिर हिलाकर नकारा था, ‘तुम एम.ए. में आने के बाद भी नहीं बदली। तुम अभी भी लोगों की बातों में फंस सकती हो।’

‘लेकिन वह मुझे फंसा कहां रहा था?’

‘हांऽऽ, लेकिन हर बंदे के साथ कहीं भी जाना क्यों जरूरी है तुम्हारा?’

‘हर बंदे के साथ नहीं... उसके साथ मन था मेरा। मैंने ही उससे कहा था कभी, जब जामा मस्जिद जाना, तो मुझे भी लेते चलना। बड़ा अच्छा खाना भी मिलता है वहां, और ...।’

‘और ???’ उन्होंने चौंककर कहा था, ‘‘स्कैंडलाईज्ड़’’ यह जानते हुए भी कि मेरा ‘उससे’ कहीं कोई भी रोमांस का इरादा नहीं था, फिर भी क्या मैं...?

‘और... कहानियां सुनाता है वह मुझे,’ मैंने जोर से हंसते हुए कहा था। और मेरे साथ बैठे वे तीनों मेरी ओर इस तरह देखते रह गए थे, मानो मुझ जैसा बेपरवाह अहमक और कौन होगा।

शाम के चार बजे, हमने चायनीज़ एंड जैपनीज़ सेक्शन में स्थित लाईब्रेरी में बैठे-बैठे जम्हाई ली— हा। पढ़ाई खत्म।

शाम की झुरझुरी धीरे-धीरे हवा में घुलने लगी थी। तय हुआ एक कप चाय और पी जाए, फिर घरों और होस्टलों की ओर रुखसत हों। यूनिवर्सिटी परिसर के एक कोने में बैठे हम चाय की धीमी चुस्कियां भर रहे थे, जब वह फिर दिखा था। इस बार उसकी चाल सुबह वाली चाल से अलग थी। वह हमारी ओर तेजी से चला तो आ रहा था, लेकिन उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। उसके स्वेटर के रंग की काई चेहरे पर धब्बों की शक्ल में रच गई थी। गोल फ्रेम के चश्मे के भीतर से झांकती उसकी आंखों में बताने की व्यग्रता के साथ भ्रम और भय की भाप उड़ रही थी।

‘ऐ राजू मैं भी चाय पिएगा, एक कप मेरे को भी...।’ कहते हुए वह मेरे साथ वाली फर्शी पर बैठ गया था।

‘जानती है, जामा मस्जिद कितनी अजीब जगह है?’

‘तू वहां गया था?’

‘हां रे, आज जुमा था न, मैंने सोचा कभी उधर देखा नहीं, आज उधर ही जाकर नमाज पढ़ूं... अच्छा हुआ तू नहीं आई।’

‘क्यों?’ हम सब एक साथ थोड़ा परेशान हो बोल उठे थे।

‘अजीब लोग हैं रे, उधर मेरे से पूछे क्या नाम तुम्हारा, मैं बोला बशीर, तो कुछ उल्टा-शुल्टा बोलने लगे— कैसे बात कर रहा है? उर्दू नहीं आती तेरे को, चला आया जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने... मेरे बोली-चाली का मज़ाक बनाया...।’ इस तरह जामा मस्जिद पर हुई बातों को बता वह सिर झुकाकर चाय पीने लगा था।

हम सबको उसकी मुद्रा अच्छी नहीं लगी। साक्षी ने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा,

‘तू गया ही क्यों वहां?’

‘अरे जामा मस्जिद नेशनल हेरीटेज है, कितने विदेशी टूरिस्ट जाते वहां, और मैं...? लेकिन जानती है, उधर का माहौल विदेशी के लिए अलग और मेरे जैसे देसी के लिए एकदम अलग। हुंह जानती है, हमारे आसाम में इस तरह नहीं होता। हम सब वहां अखमिया (असमिया) में ही बात करते हैं आपस में। यहां के लोग खतरनाक हैं। तुम्हारे दिल्ली वाले...’

बोल वह हंसने लगा था, मानो अपने मन लायक निर्णय पर पहुंच वह न सिर्फ राहत से भर गया हो बल्कि उसे यह भी एहसास हो गया हो कि दिल्ली जिसे (मुम्बई के बाद) सपनों की नगरी कहा जा रहा था, सचमुच एक सपना भर थी—आंख खुली और वह सब कुछ जिसका वादा था, फुर्र से गायब...। सच (या सच्चे लोग) तो उसके अपने वतन में था। उसके यूं हंसने पर हम भी राहत महसूस कर रहे थे। वर्ना तो आजकल सब लोग आपस में भी इन सब विषयों पर संभलकर ही बोला करते थे। उस रात मुझे बशीर का सपना आया। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे अगले दिन उठने पर बार-बार लगता रहा कि बशीर ही सपना था और मैं न जाने क्यों ऐसी मनगढ़ंत बातें सोचा करती हूं।

वैसे तो जामा मस्जिद के करीम होटल का बड़ा रुतबा था। करीम होटल के असली, पुराने और मौलिक होने का भी उसी का दावा था। लेकिन निजामुद्दीन के करीम होटल को भी खाली शोहरत हासिल थी। चूंकि राकेश रंजन का जन्मदिन पांच जनवरी को पड़ता था, और पार्टी तो बनती ही थी, इसीलिए हमारी ज़िद, राकेश की शिकस्त और पांच जनवरी निजामुद्दीन के करीम होटल के नाम हो गई। हमने अपने अलावा बशीर को भी वहां टाइम पर पहुंच जाने का न्यौता दे दिया।

उस दोपहर के ठीक एक बजे हम मुर्ग शाहजहानी पर टूट पड़े थे। जाफरान से लहकते चावल और पाए के शोरबे के बीच हम भक्षक होकर रह गए थे। जन्मों से भूखे भक्षक। इतने भूखे और खाने में लीन कि हमें एक दूसरे से बात करना भी गवारा नहीं था। तभी हमें अपने आसपास मारपीट की आवाजें सुनाई पड़ीं और जैसे ही हमने अपनी प्लेटों से नज़रें हटाईं, सामने हमने काई रंग के स्वेटर वाले एक शख्स को अस्त-व्यस्त कपड़ों में जाते देखा। उस शख्स की पीठ हमारी ओर थी। अजीब गत बन गई थी उसकी। उसकी कमीज़ पतलून से बाहर आ गई थी। वह कुछ लंगड़ा रहा था और उसके बाल बिखर गए थे। उसके स्वेटर के रंग से ही मैंने उसे पहचाना था। मैं अपना खाना छोड़ उसकी ओर लपकी थी, ‘बशीर ऽऽऽ!’

मैंने उसकी बांह पकड़ उसे खींचा, ‘हैं??’

वह शख्स पीछे मुड़ा, ‘बोलिए?’

उसे यूं सामने से देखते ही मैं शर्मसार हो गई। वह बशीर नहीं था।

‘सॉरी... मैंने आपको कोई और समझा।’

‘नहीं... नहीं’, वह ज़िद करने लगा,

‘मैं ही बशीर हूं’, आप मेरी बात मानिए। यहीं इसी होटल में काम करता था, इन लोगों ने (उसने होटल में काम कर रहे बाकी वेटरों की ओर इशारा किया) साजिश कर मुझे काम से निकलवा दिया... बार-बार अपना बकाया पैसा मांगने आता हूं... देते नहीं। कह वह कुछ असल किस्म के आंसू बहाने लगा था। तब तक होटल के वेटर मेरे पास आ गए और मुझे उस शख्स से दूर रहने की ताकीद करने लगे।

‘मैडम, आप जाकर खाना खाइए। बहुत बड़ा जालसाज़ है यह। बांग्लादेसी। फ्रॉड। आजकल पुलिस ऐसे लोगों की बहुत धर-पकड़ कर रही है। कागज़ भी नहीं इसके पास। कोई प्रूफ नहीं। छुट्टी करता रहता है। इसीलिए मैनेजर ने निकाल दिया है। आप इसके झंझटों में मत पड़ो।’

‘ऐसा ड्रामा!’ साक्षी ने अफसोस से कहा। राकेश रंजन का मुंह उतर सा गया था। और मनोज के चेहरे पर कुछ गुस्सा मिश्रित अफसोस नाच रहा था। मेरी भी टेबल पर लौट खाने की ललक बुझ गई थी। मैं सोच रही थी, इनका सारा अफसोस किस बाबत है? जन्मदिन का जश्न मामूली ड्रामे में उलझकर अधूरा रह जाने पर या हमेशा की तरह मेरी बेवकूफाना आपाधापी पर।

‘सॉरी’, मैं मुंह लटकाकर बोली।

टेबल पर चुप्पी पसरी थी। फिर राकेश रंजन ने ही सुझाया था, ‘चलो मूड अच्छा करने कनाट प्लेस चलो।’

हम निजामुद्दीन की संकरी, भीड़ भरी गली से बाहर, हुमायूं के मकबरे वाले फुटपाथ पर चलने लगे, जब मनोज ने चिंतित होकर कहा, ‘यार बशीर रह कहां गया?’

‘यहीं हूं...’ बोलता हुआ वही शख्स हमारे सामने खड़ा हो गया जिसे हमने करीम होटल पर पिटते देखा था।

‘अरेऽऽ तुम नहीं यार, हम किसी और की बात कर रहे हैं।’ मनोज ने झल्लाते हुए कहा।

‘एक मिनट भैया जी सुनो तो, ये लोग कितना झूठ बोल रहे थे। एक तो मेरे पैसे खा गए और इलज़ाम लगाते हैं कि मैं बांग्लादेसी हूं। नहीं हूं भैया जी, मैं तो बंगाली हूं, कलकत्ता से आया... बहादुरशाह ज़फर के खानदान का हूं।’

हम उसकी बातें अनसुनी कर तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे, और सड़क पार कर ही लेते, लेकिन बहादुरशाह ज़फर का सुनते ही ऐसे थमके जैसे किसी ने ऐंकर फेंक हमारे पांव में बेडिय़ां डाल दी हों। साक्षी और राजीव रंजन मध्यकालीन इतिहास के विद्यार्थी थे और सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी इसी विषय को लेकर कर रहे थे। साक्षी की शक्ल पर उत्सुकता और खुशमिजाज़ी नाच गई। उसने मेरे कान में बुदबुदाते हुए कहा, ‘फ्रॉड ही सही लेकिन इंटरेस्टिंग फ्रॉड है, दो मिनट रुककर इसकी बात सुन लेनी चाहिए।’

‘अच्छा बोलो क्या बताना चाहते हो।’ साक्षी अब मज़े लेने के मूड में उतर चुकी थी।

‘दीदी जी, यहां नहीं, अंदर बस्ती में चलो। वहीं मेरा ठिकाना है।’

लड़कों के पास अब कोई विकल्प नहीं था। वैसे भी वे बेचारे हम दोनों की बहुत सारी बातें बिना बहस मान ही लेते थे। दरगाह के पीछे से होता हुआ वह हमें एक बेतरतीब सी बनी बिल्डिंग के पास ले गया। जहां, कभी बावली हुआ करती थी, जिसकी चूना सुरखी दीवारों का सहारा ले, कई-कई मकान एक दूसरे से गले मिल रहे थे। हरे, गुलाबी, सफेद रंगों के माचिस के डिब्बों समान, पुरानी दीवारों पर बेलों की तरह चढ़ती मंज़िलें। चारों ओर कूड़ा फेंका हुआ। भीख मांगने वालों, और घर से भगा दिए गए लोगों का सुरक्षित कोना। गलियों में पसरता।

‘यहां।’ वह हमें टीन-टप्पर से बने एक कमरे के ऊपर बने, एक और कमरे वाले मकान के सबसे नीचे वाले कमरे में ले गया। ऊपर वाले कमरों के टप्पर पर भड़कीला पीला रंग पुता हुआ था। एक तरफ ही टीन की दीवार के एक हिस्से को चौकोर काट, खिड़की की शक्ल का बनाया गया था। जहां से मनीप्लांट की खासी हरी बेल नीचे उतरती दिखाई पड़ रही थी। दूसरे कमरे के बाहरी दरवाजे पर लाल टमाटरी रंग का एक दुपट्टा पर्दे की शक्ल में फहरा रहा था। नीचे के कमरे में, जहां वह हमें ले गया था, वहां एक बेशकीमती कालीन बिछा हुआ था। उस छोटे से कमरे में महंगी लकड़ी का पुराने जमाने का एक आईना रखा हुआ था, जिस पर कट ग्लास की कुछ शीशियां रखी हुई थीं। उसी कमरे में अपने लिए जगह बनाता एक रंगीन छोटा कांच का फूलदान गहरी नक्काशीदार लकड़ी की भारी मगर आकार में छोटी टेबल पर रखा था।

‘आप लोग यहां बैठिए’, उसने कालीन पर बैठने का इशारा किया। हम सब मन में उभर आई अजीब सी धुक-धुक को दबाए बैठ गए। उसके चेहरे पर खुशी का संगीन रंग चढ़ गया। वह दौड़ता हुआ आईने वाले सिंगारदान पर गया और उसमें बनी दराजों में से एक को खोल, कुछ कागज़ लेता हुआ चला गया। फिर हमारे पास बैठ कागज़ात दिखाने लगा।

‘देखिए हमारे बाबा की तस्वीर गौर से देखिए... हमारे अब्बा का नाम और फिर उनके अब्बा का नाम और फिर उनके अब्बा का नाम। है न अजीब बात, सबके नाम में बशीर आता है... है न?’

हमें देखकर ताज्जुब हुआ। वाकई उसके अब्बू का नाम नूर मोहम्मद बशीरुद्दीन, उसके दादा का नाम मुर्तज़ा मोहम्मद बशीर, और उसके परदादा का नाम ज़फर मोहम्मद बशीर था।

‘जानती हैं दीदी, जफर मोहम्मद बशीर कौन थे? वे बहादुर शाह ज़फर के बेटे थे। सगे बेटे।’

हम चमत्कृत हो बैठे थे, और उसके बिछाए जा रहे चमत्कार में फंसते जा रहे थे।

‘हूं..., अच्छा और कोई प्रूफ है तुम्हारे पास?’

साक्षी ने चमत्कृत होने के बावजूद सारी बातों पर उभर गए अविश्वास से भर पूछा। मनोज ने सारे कागज़ातों और तस्वीरों को खूब ठीक से देख परखकर इत्मीनान कर लिया था कि कागज़ात सही ही हैं, और उसकी तीन पीढिय़ों की कहानी में शक करने वाली कोई बात नज़र नहीं आ रही। लेकिन फिर भी संशय बना रहा, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़े जाने वाले पहले बड़े पैमाने के संघर्ष के मुखिया बहादुर शाह ज़फर की वंशावली को ये इतने हल्के में ले रहा था, भुना रहा था। क्या इसके अंदर कोई अना नहीं? अपनी वंशावली पर अभिमान नहीं? हमें उसके इस तरह नाम उछाले जाने के पीछे तात्कालिक प्रचार, सरकारी अनुदान का लालच ही समझ में आया।

हम उसके गरीबखाने की दीवारों से बावस्ता थे, और उस शख्स में अना ढूंढ रहे थे, और वे दीवारें थीं बेचैन जो अपनी कहानी कहना चाह रही थीं, लेकिन वे हमें दिखलाई ही नहीं पड़ रही थीं। हम इतना तो जानते ही थे कि बहादुर शाह ज़फर के खानदान के कुछ लोग अठारह सौ सत्तावन के ग़दर के बाद लाल किले से अंग्रेजों द्वारा बेदखल होने के बाद कलकत्ता जा बसे थे। यह भी हाल ही में अखबारों में आया था कि वे बड़ी बदहाली में जिंदगी गुज़र कर रहे थे। वे लगातार सरकार से गुजारिश कर रहे थे कि उनकी पेंशन बढ़ाई जाए, लेकिन उनकी सच्चाई संदिग्ध थी। इतने बहरूपिए पैदा हो गए थे आजकल। इसीलिए सरकार भी चुप्पी साधे बैठी थी।

उसने हमारे संदेहों को पकड़ लिया। बड़ा शातिर लगा वह। उसने जानबूझकर कमरे में रखे कीमती समान की ओर इशारा किया और कहा,

‘चलिए मैं आपको अपने दादा की कब्र पर ले चलता हूं, बहुत दूर नहीं है, यहीं ‘औलिया’ की दरगाह के कुछ पीछे है।’

‘ओह हो,’ राकेश रंजन के उस पर ताना कसा, ‘कहते हो बंगाली हो, हम यह भी जानते हैं कि खानदान का एक हिस्सा कलकत्ता चला गया था, फिर तुम्हारे परदादा की कब्र दिल्ली में कैसे बनी?’

‘इसकी कहानी भी सुनाता हूं भैया जी। परदादा साहब दिल्ली चले आए थे। दादी साहब को वहीं छोड़। कहकर गए—जल्द लौटेंगे, लेकिन कभी नहीं लौटे। यहीं और शादियां कीं। उनके बच्चों से हमारी लड़ाई चलती रहती है।’

वो अपना माथा थोड़ी देर खुजाता रहा, उसे हमारे तर्क भारी पड़ रहे थे,

‘चलिए दिखाता हूं, अब कब्र ही हमारे यहीं के होने का प्रूफ है, क्या करें?’ उसका चेहरा यह बोलते वक्त भी परेशां नहीं हुआ, उल्टे हमें वहां चालाक चिकनाई नज़र आई।

निज़ामुद्दीन बस्ती में चारों ओर आस्था से इतर एक ऐसा रंग खिला हुआ था, जिसकी हम ठीक-ठीक पहचान करने लायक नहीं थे शायद। अमीर खुसरो ज़ेहन पर दस्तक देते जा रहे थे। साक्षी ने उस दस्तक को आवाज़ दी, ‘मैं तो ऐसो रंग और नहीं देख्यो सखी री।’ साक्षी ने एक उदास आवाज़ में कहा।

‘बेपनाह खूबसूरती कितनी उदासी जगाती है न? हर वक्त डर सा लगता है कहीं खत्म न हो जाए... यह दुनिया।’

‘है न?’

हमारी बातों से बेखबर हमारा गाइड उर्फ बशीर, जो अपनी वल्दगी की दास्तां उन्नीसवीं सदी से भी पहले की होने का दावा कर रहा था, सिर झुकाए सामने चलता जा रहा था। उसकी चाल की बेफिक्री ज़ाहिर कर रही थी वह इस तरह दिन में कई बार हम जैसों को पकड़ यूं ही कहीं ले चलता होगा... हम जैसों को, जिन्हें कुछ ऐतबार होता है और कुछ ऐतबार नहीं होता है। किसी संकरी गली से ले चलता हुआ वह हमें मेन रोड के पास तक ले गया, जहां कुछ कब्रें थीं, और वहीं सामने देखने पर मेन रोड दिख जाती थी।

‘देखिए दीदी, देखिए, पढि़ए कब्र पर क्या लिखा है?’

हमने पढ़ा और दंग रह गए, अंग्रेज़ी में लिखा था— यह कब्र भारतीय लॉस नायक पठान बशीर खां की है। जिसने 1939-1945 में हुए द्वितीय विश्व युद्ध में जापान में शहादत प्राप्त की।

‘हैं... यह क्या है?’ यहाँ भी किसी बशीर की कब्र थी जो अंग्रेजों के ज़माने में भारत की और से जापान में लड़ा था। लेकिन यह बात इसके बशीर वाले दावे से अलग बात थी।

‘क्या दीदी?’ बोल वह भी नीचे झुककर कब्र के पीछे के पत्थर पर गुदे शब्दों को पढ़ने की कोशिश में लग गया।

वह आराम से अंग्रेज़ी पढ़ गया, हमारे लिए कुछ ही पलों में दंग करने वाली यह दूसरी बात थी।

‘ये किसकी बद्तमीज़ी है? किस ने यह पथर बगल वाली कब्र से उखाड़ कर यहाँ लगा दिया?’ फिर वह दौड़ कर बगल वाली कब्र पर गया, वहां कुतुबा-ए-कब्र नहीं दर्ज़ था यह देख वह बेहद उत्तेजित और परेशान हो इधर-उधर घूमने लगा।

‘ये कब हुआ?’ वह रंगे हाथों पकड़े जाने पर होने वाली हार से पैदा हुई बेचैनी से भर ऊंचा-ऊंचा बोलने लगा।

‘देखो’, मैंने साक्षी के कान में कहा, ‘कैसे एक्टिंग कर रहा है... हमें भी विदेशी समझ ठग रहा था।’

‘उस्ताद...’ मैं ढेर सारे तंज से बोली।

‘अब नाटक बंद करो और अपने घर चाय पिलाने और घुमाने का शुक्रिया।’

मैंने सौ रुपए का नोट निकालकर उसे पकड़ा दिया। नोट उसने आपादमस्तक भूखे की तरह झपटा और अपनी जेब में ठूंस लिया। इस बीच राकेश रंजन और मनोज सड़क पार हुमायूं के मकबरे की ओर चल पड़े थे। हमने भी सड़क पार की और थोड़ी दूर आगे चलकर दो ऑटो कर लिए। जैसे ही साक्षी और मैं ऑटो में बैठने को हुए, राकेश रंजन अपने ऑटो से बैठा-बैठा चिल्लाया, ‘यार बशीर आखिर रह कहां गया?’

‘मैं यहीं हूं दीदी,’ वह उसी लाचार आवाज़ में बोल उठा था, जो पहली बार खींचकर हमें उस तक ले गई थी। वो अब भी हमारा पीछा कर रहा था। वही फ्रॉड बशीर।

‘दीदी, वो जो मेरे घर में लैंप देखा था न, वो एंटीक है... वो सिंगारदान भी... और... पसंद आया है तो कीमत लगाओ...।’

‘हेट्ट’। हमने उसे परिंदों को उड़ाने जैसा उड़ा दिया और ऑटो में बैठ गए।

निज़ामुद्दीन का इलाका बीता भी नहीं था, जब ऑटो वाला बोला, ‘एक मिनट मैडम, एक काम है, बस अभी आया।’

‘पर भईया देखो वो ऑटो हमारे साथ है, वो आगे निकल गया।’ साक्षी के विरोध पर भी ऑटो वाला नहीं रुका और भागकर कहीं बस्ती में खो गया। कुछ ही सैकेंड बाद जब वह वापस आया तो उसके हाथ में एक डेढ़ फुट लंबी लगभग बारह इंच लंबी कोई भारी सी चीज़ थी, जिसपे पुराने अखबार लिपटे हुए थे। उसने उस चीज़ को लाकर हमारे पैरों तले रख दिया और बहुत इज्ज़त से बोला,

‘सॉरी मैडम, बस आगे उतार दूंगा, थोड़ी देर एडजस्ट कर लो।’

हमने थोड़ी हुज्जत की, उसे डांटा भी, लेकिन फिर मान गए,

‘कोई नहीं... चलो चलें।’

कनाट प्लेस के बाहरी सर्कल पर ही जनपथ पर हमने ऑटो रुकवाया। ऑटो से उतरते वक्त मेरा पैर उस चीज़ से जा टकराया, जो ऑटो वाले ने हमारे पैरों तले रख दी थी। उसके बाद ही साक्षी और मुझे याद आया कि बदमाश ऑटो वाले ने उस चीज़ को रास्ते में उतारा ही नहीं था। खीज से भर हमने उस चीज़ पर का कागज़ उतार दिया। और हैरत से मरते-मरते बचे। कागज़ में लिपटा वह संगमरमर का पत्थर कुछ पीला सा पड़ गया था... बरसात, धूप या धूल में अधिक दिन पड़ा रहने के कारण। उस पत्थर पर कुछ खुदा हुआ था।

यह कब्र मरहूम जफर मोहम्मद बशीर वल्द बहादुर शाह ज़फर की है।

हिजरी... 1867 में फानी दुनिया से अलविदा हुए।

‘ऐ साक्षी... ये देख’, मैंने साक्षी का कंधा पकड़कर झकझोर दिया...।

‘ये तो कब्र का पत्थर है। किसका है? उखाड़ लाए हो क्या?’

‘नहींऽऽ।’ वह बेझिझक, निडर होता हुआ, हिसाब के पैसे लौटाता हुआ बोला,

‘ये पत्थर मेरे परदादा की कब्र का है और कुछ लोग इसे अपना कहना चाहते हैं। मैं उखाड़ लाया हूं, साफ करवाकर वापस लगा दूंगा।’

जैसे बारूद के ढेर पर बैठे हों हम, ठीक वैसा महसूस करते मैंने पूछा,

‘बंगाली हो तुम?’

‘नहीं मैडम, दिल्ली वाला, हज़ारों साल से यहीं का... दिल्ली वाला।’

धमाका कर वह अपना ऑटो ले उड़ा। हम धमाके के उड़ रहे बारूद को अपने फेफड़ों में भरता महसूस करते रहे, और फेफड़ों में जमी गर्द निकलने का नाम ही नहीं लेती थी क्योंकि हम उसके बाद कनाट प्लेस पहुँच गए थे, जहाँ की दिल्ली खुदी हुई दिल्ली थी... उखड़ा हुआ कनाट प्लेस था। हम धूल झाड़ते हुए, गड्ढों से बचते हुए चल रहे थे। राकेश रंजन और मनोज से हमें कैवेंटर्स पर मिलना था। साक्षी और मैं बातें करते थक नहीं रहे थे। हमारे पास जाने कितने सवाल थे, और हैरतअंगेज़ अनुभव।

‘लिखूंगी अपनी डायरी में साक्षी... आप का सब कुछ।’

बस वही मेरी बदहवासी का आलम, साक्षी मेरे पीछे थी,

‘अरे...रे...रे,’ जब तक वह मुझे सावधान करने को चिल्लाती, मेरा एक पैर फिसल चुका था। मुड़ चुका था।

जब उसने मेरा हाथ थामा तो मैं ज़ोर-ज़ोर से साक्षी को सुना रही थी,

‘इस बशीर... बशीर के चक्कर नेऽऽ’

वह, जो मेरा हाथ थाम, गड्ढे से मेरा पैर निकाल एक रेस्त्रां के दरवाज़े तक मुझे लाया, कहने लगा,

‘अमीर मंज़िल के शायर बशीर की बात कर रही हैं आप?’

‘ना...ना।’ मैं ज़ाहिर कुछ और करना चाह रही थी और ज़ाहिर कुछ और हो जा रहा था। आज दिन ही अजीब था। जिसने मुझे सहारा दिया, वह एक पंद्रह-सोलह साल का लड़का था। काले रंग का पठान सूट पहना हुआ। उसकी आंखें इतनी काली थीं कि आंखों के निचले हिस्से में सुरमा लगे होने का भ्रम हो सकता था। खिलती हुई सुंदर शक्ल थी। नैन-नक्श तीखे, उड़े-उड़े बालों से स्पाईक्स जैसा कुछ नया हेयरस्टाईल बना हुआ था। सारी अदाएं एक छैला की। उससे पीछा छुड़ाने में ही भलाई लगी मुझे।

‘थैंक्स।’

‘मैडम,’ वो छोटे-छोटे कदमों से खरगोश जैसी तेज़ी दिखाता हुआ मुझे और साक्षी को लगभग घेरने लगा। अरे हद थी यार। हम घिरते चले गए।

‘मैडम, आप किस चैनल से हो? मेरे पास एक स्टोरी है मैडम। प्लीज़ मैडम, प्लीज़।’

‘चैनल?’ हम पशोपेश में थे।

‘अच्छा चैनल... वो...।’ साक्षी ने इतने आत्मविश्वास से झूठ बोला कि लड़के की बांछें खिल गईं। लगता था चैनल वालों से बड़ा वास्ता पड़ता था उसका और वह उन्हें कई कहानियां बेच चुका था।

‘चलो कैवेंटर्स तक, बी. ब्लाक, हमारे और साथी वहां हैं।’

कैवेंटर्स पर खड़े मनोज और राकेश रंजन हमें इस नए बंदे के साथ देख खुश तो कत्तई नहीं हुए, लेकिन हमारे बीच कोई कहा-सुनी भी नहीं हुई। हम सड़क पार कर सैंट्रल पार्क चले गए। वहीं हमने मूंगफली खरीदी और घास पर पसर लड़के की कहानी सुनने लगे। मैंने धीरे से राकेश रंजन का कंधा थपथपाया— दोस्त, समझो ये सब तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा है। इतना एडवेंचर!!

अपने बहुत नज़दीक साक्षी ने उस लड़के को बैठाकर कहा,

‘बोलो...।’ ठीक ऐसे जैसे चैनल वाले बोला करते हैं।

‘शूट...।’ जिसका तर्जुमा ‘बको’ भी हो सकता है।

लड़के ने अपनी खूबसूरत आंखें गोल कीं और मैं उसकी आंखों के पीछे जाने को मचल पड़ी। क्या है वहां? क्या है इसके पास?

राकेश रंजन ने फिकरा कसा, ‘STOP...FLIRTING, जहाँ देखो हाथ आजमाती रहती हो’।

लड़का बेख़बर अपनी रौ में था।

‘आप दरियागंज साईड गए हो?’

‘हां।’

‘उधर गोलचा सिनेमा के सामने वाली गलियों में हवेली सेठ रतन चंद राय के एकदम लेफ्ट में अमीर मंज़िल है। समझ रहे हैं न?’

‘हां, मुद्दे पर आओ।’ साक्षी ने वकील वाली आवाज़ अपना ली थी अब।

‘उसमें रहते थे, मियां बशीर, अज़ीम शायर।’

‘रहते थे??? अब कहां हैं?’

‘मैडम मैंने उनकी स्टोरी बहुत चैनल वालों को सुनाई, पर कोई सीरियस नहीं लेता। ना किसी पेपर वाले ने छापी।’

एक और ड्रामेबाज़, हम सब हंस पड़े थे, ठीक एक ही बात सोच कर।

हमारे हंसने पर वह सकुचा गया, लेकिन चुप नहीं हुआ।

‘मैडम, बशीर मियां बहुत अच्छे शायर थे। कल ही उनका चालीसवां हुआ है।’

‘अरे गुज़र गए क्या??’

‘हां, वही तो...।’ बोलते वक्त उसकी सुरमई आंखें थोड़ी नम हुईं।

‘क्या हुआ उनका? कैसे गुज़रे? तुम्हारे क्या लगते थे?’

‘क्या हुआ उनका? क्या बताएं मैडम, अखबारों में जो आया था, कि अटैक से मरे... वो झूठ था। वही मैं बाद में अखबार वालों को पकड़-पकड़ बोलता रहा। मेरी जानकारी में कई हैं, लेकिन वे सब कहने लगे स्टोरी में दम नहीं।’

अब राकेश रंजन का मूड ऑफ होने लगा था। उसके जन्मदिन की पार्टी में बशीर आख्यान घुसपैठ करता जा रहा था, और जन्मदिन का उत्सव कहीं पीछे धकेला जा चुका था। उसने मनोज से कहा,

‘चल यार, ये लोग तो आज अलग ही दुनिया में जा चुकी हैं। हम दोनों, पिक्चर देख आते हैं, तब तक ये फ्री हो जाएंगी।’

‘नहीं यार’, मैंने सचमुच की ग्लानि महसूस की,

‘प्लीज़ मत जाओ, बस थोड़ी देर में हम सब भी पिक्चर चल लेंगे।’

बड़ी मुश्किल से दोनों माने। इस बीच साक्षी ने अपनी डायरी पर उस लड़के के कहे अनुसार कुछ नोट्स बना लिए।

उस लड़के को जब कुछ पैसे देने की बात हुई, तो लड़का एकदम से खड़ा हो गया और अपनी आंख पोंछने लगा। मेरे दिल में कुछ कट सा गया। मैं हैरत में डूब भी गई। छैला दिखने वाले लड़के भी गैरतमंद होते हैं, मैं क्यों अभी भी STEREOTYPE में फंसी हुई हूं। क्यों सारी स्थापित छवियों को तोड़ती फोड़ती नहीं। लड़का मन का अच्छा है। शक्ल जो बना रखी हो।

पिक्चर हॉल में बैठ हम मगन हो गए। रीगल सिनेमा के रूपहले परदे पर ‘रुदाली’ का छह से नौ का शो चल रहा था। इंटरवल में मुझे फिर बशीर की याद आई। कहां रह गया वह? आने का पक्का वादा कर नहीं आया। मन अच्छा सा नहीं हो रहा था। आती हूं बाहर से चक्कर लगा, मैंने दोस्तों को कहा और साक्षी की डायरी ले बाहर चली आई।

दुकानों की भरपूर नियोन रोशनी के बीच मैंने साक्षी के नोट्स पढ़ने शुरू किए और फिर अंदर नहीं जा सकी।

1. रियाइश — अमीर मंज़िल
2. नाम — मियां बशीर
3. पेशा — कोई नहीं
4. शौक — शायरी
5. नामी-गिरामी, खानदानी। ज़मींदार सरीखे कुछ।
6. लंबा चौड़ा खानदान। कई हवेलियां।
7. कोई वारिस नहीं।
8. भाई-भतीजे सब साथ।
9. विरसे की लड़ाई।
10. मोहब्बत की। शादी नहीं हो पाई।
11. माशूका हिंदू।
12. खानदान में जबर्दस्त लड़ाई इसे लेकर।
13. माशूका के मोहल्ले में जाते तो उनपे पत्थर फेंके जाते। उन्हें काट डालने की बातें होतीं।
14. फिर भी जाते। खानदान वाले घबरा गए, आ गई हिंदुआनी तो बेदखल कर देगी।
15. धीरे-धीरे ज़हर देने लगे उन्हें।
16. अफीम से शुरुआत की थी।
17. वे बेसुध रहने लगे।
18. माशूका उनकी एक बार भागकर आ गई थी, अमीर मंज़िल इतने बेसुध थे, उसे पहचान नहीं पाए, बस कहते रहे,

‘काफिर तुम भी, काफिर हम भी,
बुतपरस्त तम भी, बुत के पुजारी हम भी।’

और अपनी माशूका का हाथ पकड़ लिया। वह जाने क्यों डर गई, और भाग गई।
19. घर वाले इस रुसवाई पर बहुत नाराज़ हुए।
20. उस दिन उन्हें ज्यादा ज़हर दे दिया गया।

पड़ोस में खबर आग की तरह जली, मोहब्बत में हार जाने पर अटैक आ गया उनको। माशूका को घर से रोते-भागते सबने देखा था। लोगों के कानों ने उसे यह भी कहते सुना, मैं पाकिस्तान नहीं जाऊंगी... मैं पाकिस्तान नहीं जाऊंगी, क्योंकि लोगों के कान भी वही सुन रहे थे जो वो सुनना चाहते थे।

साक्षी ने आगे लिखा, लड़के से यह पूछने पर, कि तुम ये सब इतने आत्मविश्वास से कैसे कह रहे हो?

लड़के ने कहा था, मैं कमरे में मौजूद था, जब सब कुछ हुआ था। उनकी माशूका उनका हाल देख ज़ार-ज़ार रो रही थी और कह रही थी— बशीर तुम ऐसे क्यों हो गए? कितने रोज़ से तुम मुझसे मिलने नहीं आए। चलो भाग चलते हैं। वो बड़ी अच्छी लेडी हैं। मैं सब जानता हूं। उनका मोहल्ला भी। लेकिन अब वहां जाना मेरे लिए भी खतरनाक हो गया है। बशीर मियां उसे पाकिस्तान ले जाने की बात कैसे कह सकते थे वे तो उस वक़्त बोलने की हालत में ही नहीं थे। साक्षी ने आगे लिखा था, वे तुम्हारे क्या लगते थे? लड़के ने कहा था, चचा साहब थे मेरे, मैं उनके साथ अमीर मंज़िल में ही रहता था। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने अपनी लिखी कई गज़लें मुझे सबसे पहले सुनाईं। अब जब सबसे कहता हूं कि रोज़ ज़हर खाने से एक न एक दिन तो अटैक आ ही जाएगा न! तो लोग मानते नहीं, कहते हैं, मैं दिमाग से थोड़ा खिसक गया हूं। मैडम, मियां बशीर इस देश के इतने बड़े शायर थे और उनका मर्डर हुआ है, और मैं अपने वाल्देन के खिलाफ रपट लिखाना चाहता हूं, मगर कोई सुनता ही नहीं।

रुदाली का रिवाज़ मेरे चारों ओर फैलने लगा था। सिनेमा हॉल, कनॉट प्लेस, आगे बाबा खड़गसिंह मार्ग, तरह-तरह के हाकर्स, दरियागंज, दिल्ली विश्वविद्यालय, पी.जी. विमेन्स हॉस्टल — सब उसकी चपेट में आ चुके थे। मेलोड्रामा अपने अद्भुत रंग में सबको हिला रहा था और हम देश की राजधानी में बैठे कभी वोल्यूम बढ़ा रहे थे, तो कभी घटा रहे थे।

उस दिन बशीर हमारा साथ नहीं दे पाया था और हमें राकेश रंजन का जन्मदिन उसकी वजह से ताजिंदगी याद रह गया था।

बशीर ने अगले दिन हमसे कहा था कि उसके न आने का कारण कुछ खास नहीं था। बस उसका जी नहीं किया था। इसपे साक्षी ने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई थी। तू ही इसके इतना पीछे लगती है। वर्ना तो ये है ही अजीब सा।

उस अजीब से शख्स ने जब पहली बार सिविल सेवा परीक्षा दी और असफलता की कचोट को बोझ की तरह सीने से लगाया था, तो मैंने उसे बहुत समझाया था।

साक्षी ने बाद में कहा था, वो तो तुझसे मोहब्बत करने लगा था। तो? कर ही सकता था। कौन सी अनूठी बात थी वह। मैंने हंसकर कहा था।

परीक्षा में असफल होने के बाद उसने मुझसे कहा था,

‘अब और ट्राई नहीं करूंगा, विदेश जाऊंगा, असम में तो कोई अवसर नहीं।’

‘कहां जाओगे?’

‘पता नहीं।’

फिर वह सचमुच कुछ दिनों के लिए असम गया और उसके बाद शायद न्यूज़ीलैंड, फिर पता नहीं।

मैं उसे भूली तो नहीं, कभी-कभी मिस भी करती थी, लेकिन इसके अलावा कुछ नहीं।

बाद में राकेश रंजन और मनोज एलायड सर्विस में आ गए और साक्षी दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गई।

आज याद करने पर कितनी पुरानी बात लगती है यह। ज़ाहिर है तब मोबाईल नहीं था, न फेसबुक, और इसीलिए हमने जिन्हें चाहा उन्हें ढूंढा, जिन्हें नहीं चाहा उसे मेमोरी बैंक के कोने में स्टोर कर दिया।

वो तो हाल में जब मैं एक दिन दरियागंज गई, यूं ही फक्कड़मिज़ाजी को अंजाम देने तो जी किया, सड़क के किनारे सब्जी बेचती उस औरत से पूछूं माजरा क्या है, जो वह इस कदर चीख-चीख कर अपने सामने बंधे एक विशालकाय बकरे को छड़ी से पीटती जा रही थी... वहशत से। और मेरा ध्यान अपनी ओर बरबस खींचती जा रही थी।

‘क्यों बीबी, क्या बात है? सब्जी बेच रही हो, और बकरे को पास बांध दिया है। ज़ाहिर है वह सब्जियों में मुंह तो लगाएगा ही।’

औरत चौंक गई। शायद उसे आदत नहीं थी इस तरह टोके जाने की। आसपास फल बेचते ठेले वाले हीं-हीं कर दांत दिखाने लगे। मैंने अपने चारों ओर देखा। नहीं बदला था दरियागंज अब भी। सामने कबूतर झुंडों में उड़ते जाते थे। लोग दाने फेंकते थे और वे फिर नीचे आते थे दाने चुगने और फिर फुर्र। बहुत सारी इमारतें वैसी ही थीं। सड़कें संकरी। ऊपर से धूल और गाड़ियों के धुएं से काली पड़ी हुईं। अंदर जरूर लोगों ने कुछ आधुनिक ढंग का बनाया होगा तो होगा। जी किया ढेर सारी सेल्फी खींचूं और फट से इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दूं, मेरे ही शहर में, मेरी ही गलियों में, बरसों बाद मैं, शीर्षक से करूंगी, लेकिन पहले इस बेमुरव्वत औरत से पूछ तो लूं, इसकी प्रोबलम क्या है?

औरत ने मुझे देख कसैला मुंह बनाया। मैं बिलकुल हतोत्साहित नहीं हुई। बोलती रही,

‘न बताओ भी!’

‘क्यों, अखबार में छापोगी या चैनल पर दिखाओगी?’

उसके इस तरह पूछने पर मुझे कोई बरबस याद आया। ‘डेज़ा वू’ बरसों पहले का वह खूबसूरत लड़का। नम सुरमई आंखों वाला।

बस उसके बाद तो जी किया, वहीं धंस जाऊं। उस औरत का सच जाने बिना चैन नहीं।

गौर से देखा, यह औरत ठीक उल्टी थी उस लड़के के। उस खूबसूरत लड़के के बरअक्स इसका फैला चौड़ा शरीर। मोटे होंठों पर पान की गहरी लाली। चीकट शलवार और उसके गहरे रंग से मैच खाती भूरी सख्त सी कुर्ती। सिर आधा ढंका हुआ था। बार-बार दुपट्टा सरक रहा था। हाथ में तराजू जब भी उठाती, दुपट्टा सरक जाता। बकरे पर जब छड़ी चलाती और गंदी गालियां बकती तो फिर दुपट्टा सरक जाता। फिर दो मिनट सब ठीक कर ग्राहकों को सब्जी देती। हिसाब करती और फिर बकझक शुरू।

मैंने कोशिश की उसे बहलाने की। उससे बात किए बिना अब मैं जा नहीं सकती थी। उसने मेरे अंदर के बंद मेमोरी बैंक को कहीं खोल दिया था।

‘अच्छा।’ मैं हंसी, ‘कहोगी तो लिखूंगी इस बारे में, तुम बताओ मार क्यों रही हो इसे?’

‘नहीं, पक्का बताओ, लिखोगी, कहीं छपेगा?’

मैंने अपनी अंतरात्मा से समझौता कर उससे आधा-अधूरा वादा कर लिया। कौन छापेगा, एक सड़क पर सब्जी बेचने वाली औरत की कहानी।

‘लिखूंगी पक्का, और छपवाने की कोशिश भी। हांऽऽ।’

‘अच्छा।’ उसने मुंह में भरा पीक फेंका। फिर बकरे की पीठ पर हाथ फेरे। वहीं जहां मारा था उसे। कुछ प्यार से हाथ फेरे।

‘अरेऽऽ, अभी तो इतना मार रही थी इसे अब हाथ फेर रही हो। वो भी प्यार से।’

‘हांऽऽ।’ इसके वजूद से इतनी नफरत बाहर आने लगी कि मैं एकबारगी घबरा गई। उसका चकला चेहरा तन गया, शरीर ऐंठने लगा और आंखों से लपटें निकलने लगीं।

‘मालूम है ये कौन है?’

‘नऽऽ’ मैंने सिर हिलाया।

‘ये बशीर है, मेरा बशीर।’

‘बशीरऽऽऽऽ।’

मेरे अंदर ऐसी उथल-पुथल मचने लगी कि लगा अब सांस अटक जाएगी।

‘तुम्हारे बकरे का नाम बशीर है?’

‘हां, मैंने रक्खा है। चार साल का है जवान। बहुत सुंदर था जब पालना शुरू किया इसे। फिर इसकी दाढ़ी बढऩे लगी। इतनी कि मुझे गुस्सा आने लगा इस पर।’

‘अरेऽऽ इसमें इसका क्या कसूर?’

‘हां, सब उस नामर्द बशीर का कसूर है।’

‘अरे ये क्या कह रही हो?’

‘देखो मैडम, ये बशीर बकरा नहीं, मेरा मियां है।’

‘मियां।’

‘सुनो, अब सुनाकर ही मानूंगी।’

‘मैं सब्जी मंडी में रहा करती थी, वहीं आशनाई हुई उससे। उसकी आंखें... क्या बताऊं मैडम, उन्हीं पर मर मिटी थी मैं। भगा ले गया मुझे। बड़े घर का था। अमीर मंज़िल की बड़ी हवेली में रहता था।’

इतना सुनते ही खून सर्द होने लगा मेरा। ‘अमीर मंज़िल?’ बहुत दिनों से इस पते को जानती रही हूं मैं। रहा नहीं गया मुझसे।

‘लेकिन ‘अमीर मंज़िल’ में रहने वाले मियां बशीर तो कब के गुज़र गए।’

इस पर वह ज़रा भी नहीं चौंकी। उसका दिमाग इस ओर गया ही नहीं कि मैं उसकी कहानी के पते और मियां बशीर को कैसे जानती हूं। शायद इतना दिमाग था ही नहीं उसके पास।

‘हां, मालूम है। उन्हीं मियां बशीर के नाम पर उसने अपना नाम बशीर रक्खा था। भतीजा था उनका। लेकिन उनके गुज़र जाने के बाद बहकी-बहकी बातें करने लगा था।

‘शक की बीमारी लग गई थी उसे। अपने मां-बाप पर भी शक करता था। कहता था, चचा साहब के कत्ल में उनका हाथ था। लेकिन उस सरफिरे से मैंने निकाह किया। खुश थे हम। मैडम, क्या बताएं... कितने? चांद-सितारे जैसे दिन थे हमारे। फिर जाने क्या हुआ, एक दिन घर आया और चिल्लाने लगा, ‘सद्दाम हुसैन’ को मार दिया, मार दिया...। फिर उसने रातोंरात एलआईसी बिल्डिंग के पास वाली बिल्डिंग पर एक कपड़ा टांग दिया, जिसपे लिखा था— ‘सद्दाम हुसैन जिंदाबाद’। हमें अगले दिन पता चला जब भीड़ और पुलिस उस जगह इकट्ठा हुई और जवाबतलब करने लगी— किसने... किसने ये हरकत की है? कोई नहीं जानता था किसने किया था ये सब। अमीर मंज़िल के लोगों के सिवा। मैंने उसे आगाह किया मैं तो जानती ही नहीं थी कि सद्दाम हुसैन कौन था, तो उसने मुझ पर हाथ छोड़ा, पहली बार।’

यह बोल उसने फिर अपनी छड़ी उठाई और बकरे पर चला दी।

‘प्लीज़’ मैंने उसका हाथ पकड़ा। ‘अपनी बात पहले पूरी करो।’

‘क्या पूरी करूं? उसके बाद वह आए दिन मुझपे और मेरे तीन बच्चों पर हाथ उठाने लगा। वैसे भी पढ़ाई-लिखाई में दिल नहीं लगता था उसका, बस अपने चचा साहब के शेरों को बेचने में लगा रहता था। अब आप ही बताओ, कौन खरीदता एक मरहूम शायर के शेर, और वो भी जिसकी जिंदगी में कोई इज्ज़त नहीं थी।’

मेरा सिर शर्म से झुकने लगा, क्यों नहीं करते हम मियां बशीर सरीखों की इज्ज़त, क्योंकि वे हमारे समय के STEREOTYPE को तोड़ते हैं? ऐसे लोगों को सारे समय के समाज तड़ीपार ही रखते हैं। मैं भी इज्ज़त न करने के अपराध में भागीदार थी जबकि वक्त ने दिया था मौका मुझे कि मैं इज्ज़त करती उस शख्स की।

‘फिर?’ मैंने उदासी से गाजरों की ढेर से एक उठाकर कचरना शुरू किया। बकरा बशीर मुझे बेबसी से देखने लगा।

‘ये कबूतर देख रही हो न मैडम, कैसे दाना दिखाने पर आसमान से नीचे उतर आते हैं, वैसे ही मेरे बशीर को ले उड़े वे दाना दिखाकर।’

‘कहां? कौन?’ मेरा दिल हादसे के अंदेशे में डूब गया।

‘जाने कहां, इराक, दुबई... पता नहीं। शुरू-शुरू में पैसे भिजवाता रहा, फिर एकदम चुप, गायब हो गया कहीं। अमीर मंज़िल वाले दिल के बड़े छोटे लोग हैं। अपने पोते-पोतियों समेत निकाल दिया मुझे। पुलिस से बहुत डरते हैं वो। कहते हैं बेटा मर गया उनका। गुनाहगार हैं, मैडम, सबको मार देते हैं, दीवारों को सीने से चिपकाकर जीते हैं। ऊपर भी ले जाएंगे क्या दीवारों को, आप ही बताओ?

उस सख्त चमड़ी, सख्तजान औरत की आवाज़ भी न गीली हुई अपना दु:ख बयां करते... आंखों की तो बात ही दीगर है। हादसा उसके अंदर इतने क्रूर तरीके से बस गया था, कि उसके अंदर कोई कोमल एहसास बचा ही नहीं था। उसके दिल में सिर्फ अंधेरा था, और वह इतना गहरा था कि कोई भी उसको शायद ही छू पाता, मिटाना तो दूर की बात है।

‘तुम्हारा क्या नाम है? अपनी कहानी में तुम्हारा क्या नाम लिखूं...।’ मैंने मुलायम हो पूछा... अपने अपराधबोध को कुछ कम करने के ख्याल से।

‘उससे क्या फायदा? कोई फायदा नहीं। लिख देना बशीर की औरत। और कोई नाम नहीं मेरा।’

और फिर उसके अंदर नफरत का एक और बवंडर उठा और उसने छड़ी उठाई और बकरे पर अंधाधुंध बरसाने लगी, ‘बशीर... नामर्द बशीर’ और न जाने क्या-क्या। मैंने जब उसका हाथ पकड़ा तो उसने आश्चर्यजनक ढंग से उसे छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की। धीरे से अपना हाथ ढीला किया और नकली सी हंसी हंसकर बोली,

‘सुन ली न, अब जाओ, जब छप जाए तो आकर दिखा देना और पढ़कर सुना भी देना, पढ़ना नहीं आता मैडम।’

आसपास के ठेले वाले, भद्दे हंसी-मज़ाक में डूबे थे। बशीर (बकरा) मार खा थक कर बैठ गया था। बशीर की औरत सब्जी लेने वालों से सलट रही थी। दरियागंज में उस दिन ज्यादा तादाद में कबूतर नीचे लौट लौट कर आ रहे थे। कबूतरों को दाना डालने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही थी। शाम का साया पूरी कायनात में समा रहा था, अंधेरा बढ़ता जा रहा था।

लगा लिखूं। अभी साक्षी को व्हाटस्ऐप पर, कभी इधर आना साक्षी तो देखना यह मंज़र भी। और ‘बशीर’ क्या तुम्हें भी वैसे ही याद आता है जैसे मुझे? राकेश रंजन और मनोज से बात हुई इधर? मसरूफ रहते हैं दोनों। सरकार की नौकरी। क्या याद कर पाते होंगे ‘बशीर’ को?

हा-हा... साक्षी दोनों कितना दबते थे हमसे! क्या आज सरकार से भी वैसे ही दबते होंगे? ‘बशीर’ को याद करने के लिए क्या इजाज़त लेनी पड़ती होगी उन्हें सरकार से?

हा...हा, और हमें याद करने के लिए...बीबियों से शायद?

दरियागंज की उस धुँआई शाम में सबकुछ धुँआया सा कर दिया मैं जब भी अख़बार पढ़ती या टीवी देखती तो मुझे कबूतर और दाने डालने वालों के किस्से दिखाई देते और VISUALS और अक्षर सब धुआं जाते।

उन्हीं दिनों एक फिल्म खासी चर्चित हुई थी, नाम था— ‘WALTZ WITH BASHIR’, जो एक एनिमेटेड डाक्यूमेंट्री फिल्म थी जिसमें अपनी खोई यादों को नायक तलाशता है। यादें, जिन्हें वह लेबनान के 1982 के युद्ध में खो चुका है। यह सूचना मुझे मनोज ने दी। वह अपने सरकारी कामकाश के सिलसिले में कॉन फिल्म महोत्सव में शामिल हुआ था, वहीं इस फिल्म का प्रीमियर हुआ था। मनोज ने मुझे कॉन से लौटते ही फोन किया था। इस बार बहुत महीनों बाद बात हो रही थी उससे।

‘जानती है, ‘बशीर’ याद आया। मैं जानता हूं तुम और साक्षी हम़े सरकारी फाइलों में लिथड़े धूल के कण लगते हैं लेकिन यकीन करो कभी अकेले बैठते हैं तो बशीर याद आता है।’

‘क्या याद आता है बशीर का तुम्हें?’ मैंने उससे खासे ठंडेपन से पूछा था क्योंकि साक्षी और मैंने महसूस किया था कि इधर वह बहुत ठंडा होता जा रहा था। अधिकतर मामलों में प्रतिक्रियाविहीन।

‘उसका इनोसेंस।’ बोल वह गुम हो गया था फोन के उस पार।

‘WALTZ WITH BASHIR देख उसी मासूमियत की याद आई।’ एकबारगी लगा मनोज ने अपने उस पुराने वजूद से फिर कोई रिश्ता जोड़ लिया है, लेकिन वह मेरा भ्रम था। फोन के इस पार उससे दूर होने पर पाले जाने वाला एक भ्रम।

‘चलो, क्या करें, दुनिया बदल गई है।’ वह अचानक बड़ा प्रोफेशनल हो गया।

‘हर वक्त हम संवेदनशील हो नाजायज़ को जायज़ नहीं ठहरा सकते न!’ मुझे पता था अब वह अपने पसंदीदा विषय पर बात करना चाहेगा। क्यों ख़त्म हो रहे हैं नक़्शे से एशिया के मध्यभाग वाले सारे देश? वो ऐसे तथ्य प्रस्तुत करेगा कि मेरे सारे इमोशनल तर्क धराशाई हो जाएंगे। मुझे परवीन शाकिर का शेर याद आया—

वह झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा,
मैं सच कहूंगी फिर भी हार जाऊंगी।

‘नहीं, बिल्कुल नहीं, जाओ अब तुम सो जाओ, जेट लैग से जूझ रहे होगे। हम फिर बात करेंगे।’ मैंने उसे टाल दिया। पीछे से उसके बच्चे किलक रहे थे। सुंदर शोर था वहां। उसका सब कुछ कितना परफेक्ट था। मतभेदविहीन।

मुझे ऐसी परफेक्ट ज़िंदगी से चिढ़ मचती है जहां कोई हलचल ही नहीं। मनोज, तुम मेरी जिंदगी से और दूर हो गए हो। मैंने न चाहते हुए भी अपनी डायरी में लिखा उस दिन। दुनिया के सारे विमर्श ग्लोबलाईजेशन के चक्कर में क्या एक जैसे नहीं हो गए! इतने कि लोगों को अपनी पहचान छिपाने/दिखाने की ज़रूरत पडऩे लगे। सॉरी मनोज, मुझे भीड़ नहीं, दोस्त चाहिए।

साक्षी ने कल फेसबुक पर स्टेटस डाला था, ‘मेरी दोस्त लंदन जा रही है, हम दोनों का सपना साथ जाने का था, कालेज के ज़माने से... चलो कोई नहीं, अगली बार ज़रूर पूरा करेंगे।’

साक्षी पर मुझे प्यार आता है और कई बार गुस्सा भी। एकदम फेसबुकिया है। उसका बस चले तो हर घंटे अपडेट देती फिरे। अब भला मेरी प्राइवेट पारिवारिक लंदन सैर को पब्लिक करने की क्या ज़रूरत? कितना भी समझाओ मानती नहीं। कहती है याद है नेटविहीन ज़माना, कनेक्टिविटी कितनी कम थी! कुछ लोग तो छूट ही गए न हमसे! इसीलिए अब सबको जोड़कर रखना है।

लंदन कितना खूबसूरत है। हम सैर करते नहीं थके। हा... हा... साक्षी, मैंने उसे चैट पर लिखा, अभी भी मेरे अंदर एक टोडी बच्चा रहता है। उसे इंग्लैंड बहुत अच्छा लगता है। उनकी घास, उनके फूल, उनकी नदी, उनका कुहासा... कुहासा भी सुंदर। और मैं तो अभी भी मर जाऊं शाही परिवार की झलक देखने को। पुरानी चीज़ों की बात ही कुछ और है। मोह नहीं छूटता मेरा उनसे। और फिर ढेर सारी खुशदिल स्माईली भेज दीं मैंने साक्षी को।

टेम्स नदी के किनारे जब मैं थोड़ा पीछे की ओर झुककर तस्वीर खिंचवाने लगी तो एक इतनी मीठी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी कि तस्वीर खिंचवाना छोड़ मैं उससे मुखातिब हुई।

‘यू विल फॉल, डोंट डू दिसऽऽ।’

‘ऑ ऑ’, मैं इस आवाज़ से मिल इतनी खुश हो गई कि बयान मुश्किल। एक छोटा सा, प्यारा सा गोरा बच्चा था वह। उम्र यही कोई पांच साल। मुझे देख यूं चिंतित हो बोलने लगा मानो मैं उसकी कोई बहुत अजीज़ लगती हूं और मुझे इतना असावधान होने से उसे दुख होगा।

‘हाऊ स्वीट इज़ दैट।’ मैं झुककर बैठ गई। पीछे भूरी नदी बह रही थी। सामने सी-फूड रेस्त्रां लोगों से बजबजा रहे थे। बियर की खुली बोतलों की महक हवा में घुल रही थी। दूर कहीं लंदन आई में लोग बैठे होंगे। इसी दृश्य को दूसरे नज़रिए से देख रहे होंगे। उनकी दुनिया गोल घूम रही होगी।

‘थैंक यू फॉर सेविंग मी,’ मैंने बच्चे से चुहल की। और हर भारतीय की तरह मुझसे रहा नहीं गया और मैं वह सवाल पूछ बैठी जो सिर्फ शायद हमारी सांस्कृतिक विरासत है—

‘व्हाट इज़ योर नेम?’ वह गदबदा घुंघराले बालों वाला खूब गोरा-गोरा, नीले आसमानी कपड़ों वाला बच्चा इस पर खूब हंसने लगा। खिलखिलाने लगा।

हंसते-हंसते बोला, ‘बशीर’।

‘व्हाट??’ हर बार की तरह इस बार भी धरती मेरे पांवों तले दरकी थी।

‘बशीर’। वह देर तक खिलखिलाता रहा था, और जब तक वहीं लगे बेंच पर बैठे उसके मां-बाप ने उसे बुला नहीं लिया, वो हंसता रहा था और ‘बशीर’ ‘बशीर’ बोलता रहा था।

मैंने उसके मां-बाप की ओर देखा और मुझे लगा, बशीर से मेरे मिलने पर वो बहुत उत्साहित नहीं लग रहे थे। उन्होंने एक फीकी मुस्कुराहट मेरी ओर उछाली और अपने बेटे की उंगली पकड़ चल दिए कहीं। शायद वे भी टूरिस्ट थे मेरी तरह। शायद लंदनवासी। या, किसी और देश, पाकिस्तानी, यूरोपियन, अमरीकी या भारतीय। कौन जाने!

कौन जाने तो ठीक, लेकिन अंदर ही अंदर मैं जानना चाहती थी। ‘बशीर’ हर जगह तुम मुझे मिल कैसे जाते हो? क्या तुम चारों ओर हो? वैसे हो तुम कहां आजकल? करते क्या हो? बहुत ज़रूरी सवाल हैं ये बशीर। उतने ही ज़रूरी जितनी होती है मोहब्बत। क्या तुम मुझसे मोहब्बत करते थे, जैसा साक्षी कहती है, यदि हां तो और ज़रूरी है कि तुम बताओ, आजकल करते क्या हो बशीर तुम? तुम्हारा पेशा क्या है? सोच क्या है तुम्हारी? लंदन आई गोल-गोल घूम रहा है। दुनिया भी गोल है बशीर। हम सब गोल-गोल घूम रहे हैं। नज़रियों में बहुत फर्क आ गया है बशीर। उम्मीद है तुम नहीं बदले होगे बशीर।

कहां हो बशीर?

उस रात लंदन के पिकैडली सर्कस के इस होटल के बिस्तर पर सोते हुए, मैं बार-बार तुम्हें याद करती हूं। कभी-कभी उठकर मैं खिड़की से बाहर झांकती हूं। नीचे बहुत भीड़ है। यह टूरिस्ट सीज़न है। तुम भीड़ के बीच से निकलकर ऊपर की ओर मुझे देखते हो, हाथ हिलाते हो, फिर गुम हो जाते हो। फिर जाने कैसे तुम मेरे कमरे में आकर मेरे सिरहाने रखे टेबल लैंप की रोशनी धीमी कर देते हो और फुसफुसाते हो, ‘तुम बदल रही हो।’

मैं ज़ोरदार प्रतिकार करती हूं, ‘नहींऽऽ।’

‘फिर तुम आज बच्चे बशीर का नाम सुन तुम डर क्यों गई?’

‘मैं कब डरी? और मैं क्यों डरूंगी?’

‘ये तुम जानो, लेकिन बच्चे के नाम से उसके माता-पिता को जोड़ तुम डर गई।’

‘बशीरऽऽ नहीं। मैं नहीं बदली बशीर?’ मैं नाहक़ उससे लड़ रही हूँ वह कुछ-कुछ ठीक कह रहा है लेकिन पूरा ठीक नहीं...

‘अच्छा चलो, तुम मुझे मिस करती हो न बहुत, तो चलो हम एक खेल खेलते हैं, फिर मैं हमेशा मिलूंगा तुमसे। तुम मेरा नाम लो, मैं तुम्हारे पास चला आऊंगा, लो अभी छिप जाता हूं। लुकाछिपी का खेल है यह बस तुम्हे मुझे प्यार से पुकारना होगा।’

‘अच्छा सच?’, मैं मुस्कुराई मेरे अंदर के संशय भाग रहे थे।

‘बशीरऽऽ’ मैं ज़ोर चिल्लाई। और नींद आकर मोहब्बत से मुझसे चिपट गई।

भरी नींद में भी मेरा मुस्कुराना बंद नहीं हुआ था, कमबख्त नींद ने भी अपना नाम ‘बशीर’ रख लिया था।

धत्! कितनी फिस्सू थीं, आमफहम थीं बशीर की कहानियां। मैं यूं ही उनमें मेलोड्रमैटिक रंग भर रही थी।

००००००००००००००००

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1 टिप्पणियाँ

  1. कितने बशीरों में जान डाल उन्हें एक जादू की तरह पाठकों से मिलवाती है वंदना की खूबसूरत कहानी !!!

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