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आन्तरिक तार्किकता की खोज ~ मृदुला गर्ग की 'सम्पूर्ण कहानियाँ' | Mridula Garg Complete Stories

मृदुला गर्गजी की कहानियों का संग्रह ‘सम्पूर्ण कहानियाँ’ राजकमल प्रकाशन से आया है। उसकी भूमिका में मृदुलाजी ने कहानियों, उपन्यासों की रचनाप्रक्रिया का जिस अंदाज़ में खुलासा किया है उसे पढ़कर पाठक तो लेखन की जटिलता से रूबरू होगा लेकिन उसका गहरा फ़ायदा उस लेखक को मिलेगा जो लेखन की कला को समझने और उसे विस्तार देने की कोशिश कर रहा होगा। 
~ सं० 




आन्तरिक तार्किकता की खोज 

~ मृदुला गर्ग


भूमिका

मुझे लगता है कि जब से साहित्य लिखा जाना शुरू हुआ, तभी से उसके मूल में दो तरह की प्रवृत्तियाँ काम करती आ रही हैं। क्लासिकल साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य तत्त्व था, कथानक में आन्तरिक तार्किकता की खोज जिसे काव्यात्मक न्याय का नाम भी दिया जाता रहा है। ग्रीक त्रासदियाँ और बाद में, शेक्सपियर के नाटक, इसके शुद्ध श्रेष्ठतम उदाहरण थे। शुरुआत में जो हो, जहाँ से भी हो, अन्त तक आते-आते, पूरी कथा-यात्रा में, कारण-कारक सम्मत तर्क काम करता पाया जाता था। या कह सकते हैं, रचना का अपना एक अन्दरूनी तर्क होता था, जो जीवन में भले प्राप्त न था, रचना में परवान चढ़ा लिया जाता था। जीवन और कला के बीच यह एक महत्त्वपूर्ण अन्तर माना जाता था।

पुनर्जन्म - शानदार विसंगति 
अपने यहाँ कारण-परिणाम का तार्किक सिलसिला, एक जन्म में ख़त्म नहीं होता, जन्म-जन्मान्तर तक चलता है। पुनर्जन्म के चलते, तार्किकता की खोज ख़ासी संगीन हो गई थी। जीवन में तो थी ही, जब साहित्य में लागू हुई तो उसने एक शानदार विसंगति को जन्म दिया। चूँकि अगले जन्म में पिछले जन्म का किया-धरा कुछ याद नहीं रहता था। इसलिए कर्म को फल से जोड़ने के लिए प्रारब्ध का सहारा लेना पड़ता था, जिसका दीखता और चीन्हा व्यापार, ख़ासा तर्कहीन मालूम पड़ता था। यूँ तर्क था एकदम पुख़्ता, लचीलेपन से नावाक़िफ़, पर आदमज़ाद के पल्ले नहीं पड़ सकता था। और चूँकि, साहित्य आदमज़ाद लिखता था/लिखती थी, इसलिए कुछ न कुछ घोटाला होना लाजिमी था। आदमज़ाद के लिए प्रारब्ध की दीखती तर्कहीनता, और संयोग/दुर्योग की विसंगति में, विशेष अन्तर नहीं था। दैवी योजना, भले जन्म-जन्मान्तर के कर्म फल को अपरिहार्य तार्किकता प्रदान करती थी पर चूँकि हमें वह ज्ञात नहीं हो सकती थी, इसलिए हमारे पास दो ही विकल्प थे। या ज्योतिषियों-नजूमियों के पल्ले पड़ो या तर्कहीन संयोग का नाम जपो। शायद इसीलिए शास्त्रीय सतयुग में, देवभाषा संस्कृत में ही, श्रेष्ठ ऐब्सर्ड नाटक 'मृच्छकटिकम’ लिख लिया गया, जो संयोग पर संयोग बिठलाकर, आन्तरिक तर्क और न्याय का बंटाधार कर गया। यूँ भी हमारे यहाँ अनेकता का सिद्धान्त चलता था, सो सब कुछ मुमकिन और माफ़ था। इसलिए जो असंगत या ऐब्सर्ड रस, बीसवीं सदी में, पश्चिम में पैदा होकर, भारत आयात हुआ, और हिन्दी लेखकों द्वारा खाया-पचाया गया, वह अपने पूर्वजन्म में, पहले ही भारत में चखा जा चुका था।

तर्क के मारे 
हम लोग, जो बीसवीं सदी में लिख रहे थे, कहीं न कहीं तार्किकता के सिद्धान्त से आतंकित थे। एक तरफ़ मार्क्स ने तार्किकता को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि दी थी तो दूसरी तरफ़ फ्रायड के मनोविश्लेषण ने उसे अवचेतन का अनिवार्य अंग बना दिया था। ऊपर से चाहे कोई कितनी भी मौलिकता का दम भरता, वास्तव में, एक भी ऐसा लेखक नहीं था, जो इन महान् विभूतियों के क्रांतिकारी उच्छेदन से अछूता रहा हो।

ज़ाहिर है, एक उच्छेदन का जवाब दूसरा उच्छेदन ही दे सकता है। इसलिए जब द्वितीय विश्वयुद्ध के साथ, अस्तित्ववाद ने, संयोग से संचालित या विशृंखलित, ऐब्सर्ड कथासाहित्य को मान्यता दी तो बहुत से तर्क के मारे लेखकों ने राहत की साँस ली। 

सवाल 
जहाँ तक मेरा अपना सवाल है, मैंने लिखना शुरू किया, साठ के बाद, जब कई-कई परम्पराएँ लौट-लौटकर आ चुकी थीं, और आ-आकर लौट चुकी थीं। इसलिए मेरी स्मृति या अवचेतन पर सभी की छाप रही होगी। किसी एक पुख्ता, ग़ैरलचीली विचारधारा ने, अलबत्ता, मुझे गिरफ़्त में नहीं लिया। इसलिए मेरे मन में बराबर यह सवाल उठता रहा कि संगति या विसंगति की जो भी राह, जिस किसी ने पकड़ी, वह सायास थी या नहीं? वह विचारधारा के तहत थी या लेखक का अपना स्वभाव, संस्कार व घटित जीवन ही ऐसा था कि अनायास, वह राह पकड़ ली गई। जब-जब यह सवाल मैंने दूसरे लेखकों से पूछा, वह नाराज़गी का सबब बना, जैसे वह उनकी गहरी जमी महानता को शक की निगाह से देख रहा हो। तो हुआ यह कि कई धक्के खाने के बाद, घूम-फिरकर, यह सवाल मैं ख़ुद से करती रह गई। और तब मुझे संगति में भी विसंगति नज़र आई। जवाब में सवाल दिखा और मौलिकता में पुनर्लेखन सिर धुनता नज़र आया। लेखकों के धक्के बर्दाश्त कर भी लिये पर जीवन में मिले धक्कों ने, अन्तत:, संयोग व अनायास घटित होते प्रकरणों की प्रबलता को स्वीकार करवा के छोड़ा। 

जलूलोऊल रचनाप्रक्रिया
समझ में आया कि रचनाप्रक्रिया ख़ासी ऊलजलूल चीज़ होती है। और जलूलोऊल कह देने से ही, वह भारी-भरकम या तर्कसंगत नहीं बन जाती। जैसा कि अनेक जाने-माने लेखक, अपनी रचनाप्रक्रिया पर लिखते हुए उसे दिखलाते आए थे। लगा, शायद यह भी विज्ञापननुमा तक़ाज़े की मार रही होगी जिसने एक तरफ़ हमें भाषायी उलझाव का सहारा लेने पर मजबूर किया और दूसरी तरफ़, यह माँग बरकरार रखी कि कहे का मतलब इतना एकार्थक हो कि फ़ौरन पकड़ में आ जाए। कौन नहीं जानता कि आज के विज्ञापनयुग में, सबसे बढ़िया तुकबन्दी वह मानी जाती है, जो शब्दों को बढ़ा-चढ़ाकर इस्तेमाल करे, पर जिसका अर्थ मामूली ही नहीं, क़रीब-क़रीब बेमानी हो, कम से कम अविश्वसनीय तो हो ही। देखो-देखो, सर्वोत्तम से भी उत्तम हमारा उत्पाद जैसा कुछ।

पात्रों की जीवनदृष्टि
शुरू-शुरू में कथानक में आन्तरिक तर्क को बनाए रखने का मसला, मुझे भी ख़ासा आकर्षित करता रहा था। लगता था, एक बार पात्र चुन लिये जाएँ तो वे, अपने चरित्रों के आन्तरिक तर्क से वशीभूत होकर, जीवन यात्रा करेंगे और एक ख़ास गंतव्य पर पहुँचेंगे ही पहुँचेंगे। उसे मैं नहीं चुनूँगी, वे चुनेंगे, पर वह परिणति, काफ़ी हद तक, अपरिहार्य होगी। विचारधारा से संचालित लेखक, इस आन्तरिक तर्क पर अपना पसन्दीदा दर्शन चस्पाँ करके, उसे कुछ और अपरिहार्य बना लेते हैं। पर मेरे जैसा लेखक भी, जो किसी विचारधारा से आतंकित नहीं था, और अपने को ख़ासा स्वतंत्रचेता मानता था, पात्रों की जीवनदृष्टि की तार्किकता से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रह सका। अवचेतन में यह धारणा बनी रही कि कथानक का आरम्भ, भले रचनाकार के हाथों में हो उसका अन्त, अवश्यंभावी होता है। बस, रचनाकार के हाथों में न होकर, वह पात्रों के हाथों में होता है। शायद तभी इतने रचनाकार यह कहते पाए जाते हैं कि वे कहानी नहीं लिखते, कहानी उन्हें लिखती है, या उनसे ख़ुद को लिखवा ले जाती है। क्या यह ऊलजलूल को जलूलोऊल कहने जैसी बात नहीं है? ख़ैर, मेरा अपना अन्त बुरा हुआ। जब-जब औरों की देखा-देखी या सम्पादक के दबाव में आकर, मैंने रचनाप्रक्रिया पर कोई प्यारा सा शाब्दिक जाल बुनना चाहा, मुझे रचनात्मक अपरिहार्यता पर इतना शुबहा हो आया कि शब्दजाल वाक़ई, छेदों से भरा जाल बनकर रह गया।

विसंगति ही संगति
धीरे-धीरे, मेरी समझ में आने लगा कि मेरे अवचेतन पर, तार्किकता नहीं, वह संयोग हावी रहा था, जो क्षण भर में, कर्मठ योजना के अन्तर्गत पाले-पोसे जीवन को, भस्म करके रख देता है। तभी, मेरे हर उपन्यास का अन्त, अनायास, विसंगति में जाता रहा है। सिवा 'चित्तकोबरा’ के। वहाँ संयोग मात्र इतना था कि मनु और रिचर्ड नाम के दो प्राणी, एक-दूसरे से टकरा जाते हैं। बाक़ी की कथा, उसकी अवश्यंभावी परिणति भर है। यानी, उन पात्रों की संरचना ही ऐसी है कि जो-जो होता है, वही-वही हो सकता था। पर वह प्रेम कथा है, और प्रेम का अन्त, चाहे वह सफल हो या असफल, त्रासदी में होता ही है। इसलिए उसमें अवश्यंभाव्यता रहती ही है।

पर उसके बाद, मैंने जितने उपन्यास या कहानियाँ लिखीं, उनमें से शायद ही किसी का अन्त, तर्क ने तय किया हो, चाहे वह पात्रों के चरित्र का हो या कथायात्रा का। बस, पात्रों के जीवन में जो विसंगतियाँ घटीं, उन्होंने खींच-खाँचकर, अन्त को कहीं से कहीं पहुँचा दिया। धीरे-धीरे सब कुछ और-और विडम्बनापूर्ण होता गया। यहाँ तक कि लोगों को विसंगति ही संगति नज़र आने लगी, विडम्बना तर्कपूर्ण।

अब तो आलम यह है कि पात्रों को विडम्बना की असंगत मार से बचाए रखने का, मेरा लालच, पूरी तरह ख़त्म हो गया है। उन्हें मुश्किल में देख, कोई उद्गार मन में उठता है तो यही, छोड़ परे, जाने दो जहाँ जाएँ। मैं मानने लगी हूँ या कहना चाहिए, मानती तो पहले से थी, अब कहने में भी हिचक नहीं है कि युगों से हम जिन्हें गम्भीर प्रश्न मानते आए हैं, वे मात्र असुविधाजनक प्रश्न हैं। हमारा अन्धविश्वासी भय हमें बाध्य करता है कि हम उन्हें आध्यात्मिक जतलाकर, उन पर पांडित्यपूर्ण गाम्भीर्य के साथ बात करें। कहानी-उपन्यास में तो, आध्यात्मिक गाम्भीर्य, तकनीक या शिल्प का दर्जा हासिल कर चुका है।

भगवान का होना या न होना, ऐसा ही एक प्रश्न है। हाल में अपनी एक कहानी 'नेति नेति’ में मैंने इस प्रसंग को छुआ तो गाम्भीर्य की ख़ासी ऐसी-तैसी हो गई। पर भय से न पात्र उबरा, न मैं। कुछ दिनों पहले का वक़्त होता तो मैं कहती, वह तो पात्र डरा हुआ है, मैं उसमें क्या करूँ? पर अब झूठ बोलना भी मुश्किल हुआ जाता है।

सच तो यह है कि कर्मफल से उपजी मायावी क़िस्मत की बैसाखी छोड़कर तर्कहीन संयोग के थपेड़े खाने के लिए ख़ुद को छोड़ देना, काफ़ी डरावना होता है। पर उससे बचने का उपाय, मेरे पास नहीं रहा। अब रचना करते हुए मैं ख़ुद को ऐसी ऊलजलूल जि़न्दगी के हवाले पाती हूँ जहाँ प्रक्रिया जैसी तर्कसंगत चीज़, कहीं पकड़ में नहीं आती। उसका बनावटी विश्लेषण करना असंगत की संगति बिठलाने जैसा है। रचना में झूठ की मिक़दार कम हो सके तो बहुत समझो। या फिर इतनी बढ़ जाए कि सच हो जाए।


सम्पूर्ण कहानियाँ : मृदुला गर्ग   
मूल्य: Rs. 699 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :720 
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15886
आईएसबीएन :9789392757044

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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