दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधारत युवा रचनाकार ऋत्विक भारतीय एम.ए, एमफिल हैं। प्रस्तुत हैं वैलेंटाइन डे पर विशेष उनकी कुछ प्रेम कविताएं।
ऋत्विक भारतीय की कविताएं
प्रेम के नौ स्वर
1
जाओ मैं, तुमसे प्यार नहीं करती
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
रूठ जाना उसकी आदत थी
मनाने पर मान भी जाती थी
उस दिन तो हद हो गयी
क्या-क्या न किया —
कान पकड़, उठ-बैठ को भी तैयार हुआ
पर वह नहीं मानी
रजनीगंधा पसंद था उसे
भागता-हांफता, वह भी ले आया
फिर भी वह नहीं मानी
चॉकलेट, आइसक्रीम, केक :
अच्छा, कहीं डिनर पर ही चलते हैं, कहा मैंने
फिर भी वह नहीं मानी
अच्छा छोड़ो, सिनेमा ही चलते हैं
बस तुम मान भी जाओ-
कहने पर वह और भी बिफर उठी
“जाओ मैं तुमसे प्यार नहीं करती।”
इतना कह वह पलट गयी
अब मेरी आँखों के आगे
उसका सुंदर चेहरा नहीं
उसकी पीठ पर उभरा काला तिल था
इस अंदाज में उसने फेंकी
अपनी छाती से उठा चोटी
कि ठीक, पीठ पर अंकित
वह काला तिल भी झाँप गयी
उफ् उसकी ये अदा,
मेरे हृदय को ही भेद गयी!
मैंने भी यह कह सिर झुका दिया-
सजा दो, चाहे जो दो
गुनाहगार हूं तुम्हारा
इतना कहते ही वह
मेरी ओर पलट गयी
फिर मेरी ढुड्डी को उठा
मेरी आँखों में आंखें डाल,
हौले से कहा—
‘बुत बने अपलक निहारते रहो
मेरी आँखों में तुम
तुम्हारी आँखों में डूबकर
तुम्हारे पोर-पोर में उतरना चाहती हूं
तुम्हें जी भरकर प्यार करना चाहती हूं
हां, मैं तुम्हें जी भरकर प्यार करना चाहती हूं!’
2
कि तुम भी देना साथ
उसे अपनी ओर आता देख
करता हुआ नजरंदाज
मैं देर तलक गड़ाए ही रहा
अपनी किताब पर आँख।
उसने आते ही
मेरे हाथों से छीन ली किताब
और कहा—
“दिन-रात ही डूबे रहते हो किताबों में
दो मेरे एक प्रश्न का उत्तर तो मानूँ?”
मैंने भी स्वीकार की चुनौती
और कहा—
“पूछो!”
“तो बताओ, ढ़ाई आखर प्रेम का मतलब
लेकिन प्रैक्टिकल करके ?”
पढ़ा तो था मैंने, किताबों में ‘प्रेम’
सुना भी था मैंने, गानों में ‘प्रेम’
लेकिन प्रैक्टिकल करके?
देर तलक सोचने के बाद
मैंने ही कहा अंततः हारकर—
“अब तुम्हीं बता दो!”
“तो फिर इतना, पढ़ने का क्या है मतलब?”
यह कहते उसने उठा ली मेरी ठुड्डी
और चूमा पहले मेरा ललाट
और कहा—
“हुआ न एक!”
फिर चूमी मेरी नाक
और कहा—
“हुआ न दो!”
तीसरे पर उसने रख दिया
मेरे होठों पर अपना होठ
और कहा—
“अब तुम भी देना साथ!”
3
मैं देर तक भींगता रहा
उसने आते ही
मेरे कांधे पर फैला दिये
अपने उलझे, भींगे, लम्बे बाल
और कहा—
“लो, सुलझाओ, बनाओ चोटी
तब जानोगे हर बार ही मेरी
देरी से आने का कारण
मेरे आने के बाद
जो देर तलक
रहते हो मुंह फुलाए, अबोले से
फिर कभी नहीं रहोगे!”
मैंने भी जानना चाहा
क्या सचमुच
हर बार ही उसके
देरी से आने का
यही है कारण?
और लगा उसके
भींगे,उलझे, बालों को सुलझाने
कि तुरत-फुरत
उलझ गयी मेरी उंगलियां
उसके उलझे, भींगे, लम्बे बालों में
“तो समझे?” उसने पूछा था
“समझा!” मेरे देते ही प्रत्युत्तर
उसने कहा, मेरे कांधे पर झुककर—
‘‘तो पाओ,
हर बार ही मेरे देरी से आने पर
अपने अबोलेपन की सज़ा !’’
और देर तलक, भिंगोती रही वह
मेरा माथा
मेरे गाल
मेरी आँखें
मेरी नाक
मेरी ठुड्डी
मेरे होठ
अपने होठों से!
4
कि अब होता नहीं इंतजार
उसने आते ही मेरे हाथों में
थमा दी एक बड़ी-सी कूची
और तमाम रंग
और रख दिया मेरी आँखों के सामने
एक बड़ा-सा कागज़ का कैन्वस
और खड़ी हो गयी
लिए पेड़ की आड़ और कहा—
“बनाओ मेरी हू-ब-हू तस्वीर
तो मानूं, तुम हो मेरे सबसे प्यारे!”
ठीक है तो खड़ी रहो बिना हिले-डुले
एकदम स्टैच्यू-सी!
कह तो दिया मैंने उसे
पर याद आ गए मुझको बचपन के दिन
जब ड्राइंग की टीचर कहतीं—
“बनाओ आम!”
तो बन जाता था मुझसे केला।
कहतीं—
“बनाओ मोर!”
तो बन जाता था, मुझसे मुर्गा।
ऐसे में मुझे मिलता हर बार ही ज़ीरो!
क्या करता मैं, जब कहा उसने
बनाओ, मेरी हू-ब-हू तस्वीर!
कैसे बनाता उसकी तस्वीर?
मैं एक पल देखता उसे
दूसरे पल देखता कैन्वस
खींचता आड़ी-तिरछी लकीरें
भरता तमाम-तमाम रंग
वह बार-बार पूछती—
“बना, और लगेगी कितनी देर?”
“अभी खड़ी रहो चुपचुाप!’ मैंने भी कहा था
होते हुए थोड़ा सीरियस!
जब दिन ढलने को आया तब
अंततः कहा उसने उकताकर—
“बनी तस्वीर?
अब दिखाओ
कि होता नहीं और इंतज़ार?”
क्या करता मैं, कहा मैंने—
“पहले करो अपनी आँखें बंद
कि जब तक कहूं नहीं तब तक खोलना नहीं
अपनी आँखें।”
“ठीक!” कहते ही उसके
भागा मैं पास के पलटन बाजार
और ले आया
एक बड़ा-सा आईना
उसने भी खोली नहीं थी
एक बार भी आँखें
कहा मैंने —
“आहिस्ता-आहिस्ता खोलो अपनी आँखें!”
बचपन में मैडम देती थीं
मुझे हर चित्रकारी पर बड़ा-सा ज़ीरो
पर उसने दिया
मेरे ललाट पर चुम्मा!
और कहा—
“सचमुच तुम हो मेरे सबसे प्यारे!”
5
मुझे चाहिए तुम्हारा साथ
वह मलाई बर्फ खाते हुए आई
और मुझे दिखाते हुए बोली—
“खाना है तो बोलो,
फिर न कहना
पूछा नहीं मैंनें!”
“तुम खिलाओगी तो
भला क्यों नहीं खाऊंगा?’
मेरे कहते ही उसने
बढ़ा दिया मेरी ओर मलाई बर्फ और कहा—
“तो लो, खाओ!” पर तुरंत ही कहा—
“वो देखो चाँद!”
मैंने पलटकर देखना ही चाहा चाँद
कि तब तक वह काट गयी
मलाई बर्फ के ऊपरी भाग का एक कट्टा
‘बुद्धू दिन में भी कहीं, निकलता है चाँद?’
कहकर वह लगी जोरों से हँसने!
फिर हँसते-हँसते ही उसने
बढ़ाई मेरी ओर मलाई बर्फ
और कहा — “अच्छा अब खाओ!”
और इसबार भी छकाती हुई मुझे
वह काट गयी
मलाई बर्फ के निचले भाग पर एक कट्टा
और लगी फिर से हँसने-खिलखिलाने
इसबार उसने कहा थोड़ा सीरियस होकर—
“अच्छा अब खाओ, बहुत हो गया मज़ाक!”
ऐसा नहीं है कि मैं
अब तक समझा नहीं था
उसकी मासूम चालाकी
फिर भी वो
जो-जो दिखाती गयी
वो-वो देखता गया मैं
और हर बार ही बनता रहा बुद्धू
वह हँस रही थी मेरे बार-बार ही बुद्धू बनने पर
और मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था
यह सोचकर कि कितनी अनजान है वह
मेरे जानकर भी अनजानेपन के दिखावे से!
मैं बना बुद्धू ; क्योंकि देखना चाहता था
उसकी निश्छल हंसी
उसकी आँखों में जीत की चमक
चेहरे पर प्रेम का उजास
पर कब तक?
जब तक कि बची नहीं रह गई
सींक के बीचोबीच थोड़ी-सी मलाई बर्फ!
इससे पहले कि वह काटती अंतिम कट्टा
और कर देती
बची हुई मलाई बर्फ भी खत्म
मैंने पकड़ लिया उसका हाथ
और कहा—
“कि अब मुझे चाहिए तुम्हारा साथ!”
अब आइसक्रीम का एक छोर था उसके हाथ
दूसरा था मेरे हाथ
बीच में बची थी
सींक के बीचोंबीच थोड़ी-सी मलाई बर्फ
इसबार न वो हँस रही थी
न मैं ही मुस्कुरा रहा था मन ही मन
बस हमारे होठ कर रहे थे
मलाई बर्फ से जुगलबंदी
और हमारी आँखें
कर रही थीं—
‘आँखों से आँखें चार!’
6
कि अब, जाना नहीं घर
जब भी आती
जाने की ही बात करती
मैंने भी उस दिन
आते ही उसके
गोदी में रख दिया अपना सर
और कहा—
“दबाओ, सहलाओ
दुखता है मेरा माथा
कि जब तक हो न जाऊं मैं ठीक
जाओगी नहीं तुम आज घर!”
हालांकि उस दिन
दिन भी तेजी से कटा
पर देखी नहीं उसने
एक बार भी अपनी कलाई घड़ी
बस वो थी कि
दबाए ही जा रही थी मेरा माथा
सहलाए ही जा रही थी मेरा सर
बस बीच-बीच में मुझसे
पूछ लेती थी—
“बताओ, अब कैसा है दर्द?”
उसकी ना समझी पर
मैं भी मन ही मन मुस्कुराता
केवल ‘न’ में हिला दे रहा था
अपना सर!
आकाश में दिख रहा सूर्य भी
जाने कब का जा चुका था
अपने घर
कर चुके थे धीरे-धीरे पार्क से
सभी प्रस्थान
सिर्फ मेरा दबाती हुई माथा
सहलाती हुई सर
वो थी और मैं था
अंततोगत्वा मैंने ही पूछा उससे
अपनी हंसी दबाकर—
“क्या जाना नहीं घर?”
इतनाभर कहते ही मेरे
उसने छोड़ दिया मेरा माथा
और रख दिया मेरी गोदी में
अपना सर और कहा—
“दबाओ सहलाओ मेरा माथा
कि दुखने लगा है अब
मेरा भी सर!”
7
इसमें प्यार वाली कोई बात नहीं
“हर बार तुम ही देर से आती हो
मैं आकर न जाने कब से निहारता रहता हूं
अपनी कलाई घड़ी
एक-एक पल
मुझसे काटे नहीं कटता
क्यों तुम्हें मुझसे मिलने की
बेकरारी नहीं रहती?
क्यों तुम्हें मेरी बेक़रारी का
एहसास नहीं होता?
क्या तुम्हें मुझसे प्यार नहीं?”
सुनकर उसने कहा—
“ख़ुद की बेक़रारी से
तुम्हारी बेक़रारी को
छिप-छिप कर देखने में
मुझे आता है बड़ा मजा
प्यार तो मुझे भी तुमसे
उतना ही है,
जितना कि तुम्हें मुझसे!
पर इसमें, प्यार वाली
कोई बात नहीं!”
8
कुछ-न-कुछ बचा रह जाता है बाकी
हर बार ही मिलती
और कहती—
“जो कहना है कह दो!’
हम खूब हंसते-बतियाते
गिले-शिकवे सुनाते
पर, जब वह जाती
हर बार ही लगता
कुछ-न-कुछ
बचा रह जाता है
बाकी!
9
चलो अब बस भी करो
“बहोत हो गया
गिला-शिकवा
मान-मनौव्वल
प्यार में क्या इसके सिवा
कोई बात नहीं होती?”
“कैसे कर दूं बस?
सचमुच,
प्यार में
इसके सिवा
कोई बात नहीं होती!”
ऋत्विक भारतीय
मो.: 91-9958641461
००००००००००००००००
0 टिप्पणियाँ